वङ्कानाभि चक्रवर्ती उपशम श्रेणी में ध्यान में आरूढ़ थे, उनकी आयु पूर्ण हो गई और उन महामुनि ने शुक्ल- ध्यान के प्रभाव से तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ ऐसे सर्वार्थसिद्धि नाम के विमान में जन्म धारण किया। यह विमान लोक के अंतिम भाग से बारह योजन नीचे है अर्थात् इस विमान से बारह योजन ऊपर सिद्ध शिला है। इसकी लम्बाई-चौड़ाई और गोलाई जम्बूद्वीप के बराबर है-एक लाख योजन है। यह स्वर्ग के त्रेसठ पटलों के अंत में चूड़ामणि रत्न के समान स्थित है। चूँकि उस विमान में उत्पन्न होने वाले जीवों के सम्पूर्ण मनोरथ अनायास ही सिद्ध हो जाते हैं इसलिए उसका सर्वार्थसिद्धि यह सार्थक नाम है। उस विमान में निग्र्रन्थ दिगम्बर महामुनि ही जन्म लेते हैं। इस प्रकार अकृत्रिम और श्रेष्ठ रचना से शोभायमान उस विमान में उपपाद शय्या में वह देव क्षण भर में पूर्ण शरीर को प्राप्त हो गया। दोष, धातु, मल और पसीना आदि से रहित,सुन्दर लक्षणों से युक्त तथा पूर्ण यौवन अवस्था को प्राप्त उसका शरीर क्षण भर में ही प्रगट हो गया। उसके जन्म लेते ही वहाँ उत्तम-उत्तम बाजे बजने लगे, सर्वत्र हर्ष की लहर दौड़ गई। वह अहमिंद्र साथ-साथ उत्पन्न हुए वस्त्र, अलंकार, दिव्य माला आदि से अतिशय सुन्दर था। एक हाथ का उस का दिव्य वैक्रियक शरीर था, तेंतीस सागर की उत्कृष्ट आयु थी। तेंतीस हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर उसका दिव्य मानसिक अमृत का आहार था और साढ़े सोलह महीने व्यतीत होने पर श्वासोच्छ्वास ग्रहण करता था ‘‘मैं इंद्र हूँ, मैं इंद्र हूँ’’ इस प्रकार वहाँ के सभी उत्तम देव ‘अहमिंद्र’ इस अन्वर्थ नाम को धारण करते थे। वहाँ उन अहमिंद्रों में न तो परस्पर में असूया है, न परनिन्दा है, न आत्म प्रशंसा है और न ईष्र्या ही है। वे सभी पूर्णतया सुखी हुए हर्षयुक्त निरन्तर क्रीड़ा करते रहते हैं। इन सबका शरीर श्वेतवर्ण का रहता है। इन सबकी लेश्याएँ, वस्त्राभरण आदि श्वेत-शुक्ल रहते हैं। वहाँ जन्म लेने के बाद उन अहमिंद्र ने अपने विमान में स्थित अतिशायी जिनमंदिर में जाकर भगवान की प्रतिमाओं का अभिषेक किया। दिव्य अष्टद्रव्य की सामग्री और दिव्य रत्नों के थाल भरकर भगवान का पूजन किया। चक्रवर्ती वज्रनाभि की पर्याय में जो विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित, बाहु, सुबाहु, पीठ और महापीठ नाम के भाई थे तथा रानी श्रीमती का जीव जो कि ‘धनदेव’ नाम से चक्रवर्ती का गृहपति रत्न हुआ था, इन नौ महामुनियों ने भी तपश्चर्या के प्रभाव से वहीं सर्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र पद को प्राप्त किया था। ये सब अपने-अपने अवधिज्ञान से अपने स्वामी ‘वज्रनाभि’ चक्रवर्ती के जीव ऐसे अहमिंद्र के पास आये और पूर्वभवों की चर्चा तथा धर्म के माहात्म्य की प्रशंसा करते हुए मनोविनोद करने लगे। ये सर्वार्थसिद्धि के अहमिंद्र अपने अवधिज्ञान से सम्पूर्ण लोक के मूर्तिक पदार्थों को देखते रहते थे लेकिन कहीं भी इनका गमनागमन नहीं था अतः एक दिन इन सभी ने निर्णय किया कि- आज हम सभी यहीं से परोक्ष में सुदर्शनमेरु पर्वत के सोलह जिनमंदिरों की पूजा करेंगे। वे सब वहीं से सुमेरुपर्वत को मानों साक्षात् देखते हुए के समान ही उसकी पूजा कर रहे थे। ऐसे ही कभी नन्दीश्वर द्वीप के जिनालयों की, कभी मध्यलोक के ४५८ जिनमंदिरो की, कभी तीन लोक के सम्पूर्ण ८ करोड़, ५६ लाख,९७ हजार ४८१ जिनमंदिरों में विराजमान सम्पूर्ण जिनप्रतिमाओं की पूजा, भक्ति, स्तुति किया करते थे। कभी-कभी तीर्थंकर के जन्मकल्याणक के निमित्त से वहाँ पर बाजों के बजने से ‘भगवान का जन्म हुआ है’ ऐसा जानकर परोक्ष में ही सात पैंड आगे जाकर नमस्कार करते थे। कभी-कभी ये अहमिंद्र वहाँ पर तत्त्वचर्चा किया करते थे-जैसे कि -‘जो संसार के दुःखों से प्राणियों को निकालकर उत्तम सुख में पहुँचावे, वही धर्म है’। ‘आत्मा शक्तिरूप से परमात्मा है, जैसे कि बीज में शक्तिरूप से वृक्ष विद्यमान है, दूध में घी है, तिल में तेल है, ऐसे ही आत्मा में परमात्मा छिपा हुआ है, उसे प्रयोग से-सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र के बल से प्रगट किया जा सकता है।’ ‘‘जो जीव अपनी आत्मा को भगवान बना लेते हैं, शुद्ध सिद्ध परमात्मा बन जाते हैं वे फिर कभी संसार में जन्म नहीं धारण करते हैं। ‘संसार में पंचेन्द्रिय के विषय सुखों में आसक्त हुआ प्राणी बार-बार नरक, निगोदों में, तिर्यंच योनियों में अनेक प्रकार के दुःख उठाता रहता है। जब यही प्राणी सच्चे अहिंसामयी परमधर्म का आश्रय ले लेता है तब सदा-सदा के लिए नित्य, निरंजन, निर्विकार, चिच्चैतन्यस्वरूप परमपद को प्राप्त कर लेता है। अहो! हम सभी ने कई जन्मों में महान पुण्य संचित किया है, सच्ची निर्दोष तपस्या की है, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष और मत्सर आदि अंतरंग शत्रुओं को वश में किया है, तभी ये उत्तम अहमिंद्र पद प्राप्त हुआ है। अब हमें यहाँ के सुखों को भोगकर मनुष्य पर्याय प्राप्त करना है। हम सभी नियम से उस मनुष्य भव में मुनि बनेंगे और मोक्ष को प्राप्त करेंगे। हम सभी एक भवावतारी हैं, हमारे संसार का अब अन्त आ चुका है। वज्रनाभि के जीव अहमिंद्र, जो कि आगे तीर्थंकर होने वाले थे, छह महीने पूर्व से ही इस मध्यलोक के जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में अयोध्या नगरी की रचना की गयी। सौधर्मेन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने माता मरुदेवी के आँगन में रत्न बरसाना शुरू किया। तभी वहाँ के अहमिंद्रों ने आकर उन भावी तीर्थंकर के गुणों की स्तुति करना प्रारंभ कर दिया- ‘हे स्वामिन् ! आप धन्य हैं, आपके प्रसाद से ही हम सभी ने धर्म को पाया है और आगे भी आपके तीर्थ में ही हम सभी मोक्ष को प्राप्त करेंगे।’ इत्यादि प्रकार से धर्मचर्चा करते हुए वज्रनाभि के जीव अहमिंद्र ने अपनी तेंतीस सागर की आयु पूर्ण कर ली और मध्यलोक में आने के सन्मुख हो गये। इस प्रकार भगवान् ऋषभदेव का यह नवमां अवतार हुआ है।