( यहाँ प्रतिष्ठा की सम्पूर्ण विधि श्री नमिचन्द्र सैद्धान्तिकदेव द्वारा रचित प्रतिष्ठातिलक ग्रन्थ के अनुसार दी जा रही है । )
व्यासमध्यमसंक्षेपभेदतः सा त्रिधा मता । तत्र व्यासप्रतिष्ठा तु पूर्वमत्राभिधीयते ।। 5 ।।
प्रतिष्ठा मध्यमा पश्चात्संक्षिप्ता सा ततः परम् । सिद्धादीनां प्रतिष्ठातस्तत उत्सवसंविधिः।। 6 ।।
तत्र व्यासप्रतिष्ठा सा पंचकल्याणलक्षणा । वक्ष्यतेऽद्य प्रपंचेन प्रयोगैर्लक्षणान्वितैः ।। 7 ।।
व्यास विस्तार, मध्यम और संक्षेप के भेद से प्रतिष्ठा के तीन भेद हैं। उनमें से यहां सर्वप्रथम विस्तृत प्रतिष्ठा विधि को कहते हैं। इसके बाद मध्यम प्रतिष्ठा विधि को और संक्षिप्त प्रतिष्ठा विधि को भी कहेंगे। अनंतर सिद्ध प्रतिष्ठा, आचार्य प्रतिष्ठा, श्रुतदेवी, यक्ष-यक्षी एवं यंत्रादि की प्रतिष्ठा विधि के पश्चात् महामहोत्सव विधि को भी कहेंगे। उनमें व्यास प्रतिष्ठा विस्तृत प्रतिष्ठाविधि पंचकल्याणक रूप है, उसे ही लक्षणों से सहित प्रयोगविधि बतलाते हुये विस्तार से कहेंगे ।। 5-6- 7।।
वृहत् पंचकल्याणक प्रयोग का वर्णन प्रतिष्ठादिवसात्पूर्वं दशमे दिवसे दिवा । नांदीनामांतरं शक्रप्रतिष्ठाविधिमाचरेत् ।। 8 ।।
प्रतिष्ठादिवसात्पूर्वं नवमे दिवसे निशि । वक्ष्यमाणेन विधिना विदध्यादंकुरार्पणम् ।। 9 ।।
ततः प्रभृति कुर्वन्तु शांतिहोमविधिं बुधाः । दातृसंघनृपादीनां विश्वविघ्नोपशान्तये ।। 10 ।।
द्वितीयेऽन्हि ततः कुर्यान्मंडपानां प्रसाधनम्। वास्तुदेवबलिं कृत्त्वा लघुशांतिकपूर्वकम्।। 11 ।।
वेदीनिर्वर्तनं कुर्यात्तृतीये दिवसे ततः। सपंचकुंभविन्यासं सवास्तु बलिकर्म च ।। 12 ।।
अंकुरार्पणतस्तुर्ये नवमे तीर्थतः पुरा। दिवसे विधिवत्कुर्याद् ध्वजारोहणसंविधिम् ।। 13 ।।
तस्मिन्नेव दिने रात्रौ भेरीताड़नमाचरेत्। पंचमेऽन्हि ततः कुर्याज्जलयात्रामहोत्सवम्।। 14 ।।
गर्भावतारकल्याणं ततः षष्ठे दिने निशि। निर्वर्तयेन्महायंत्रसमाराधनपूर्वकम्।। 15 ।।
जन्माभिषेककल्याणं सप्तमे दिवसे दिवा। दीक्षाग्रहणकल्याणमष्टमे दिवसेऽहनि ।। 16 ।।
केवलज्ञानकल्याणं नवमे दिवसे ततः। कुर्यात्प्राण्हेऽपराण्हे तु देवं पुरि विहारयेत् ।। 17 ।।
प्रतिष्ठातो द्वितीयेऽन्हि दिवा वासंतमुत्सवम् । वितन्वन्भव्यसंदोहो देवं पुरि विहारयेत् ।। 18 ।।
तृतीयेऽन्हि ततः कुर्वन्सुगंधिसलिलोक्षणं। देवं विहारयेत्पुर्यां चतुर्थे दिवसे ततः ।। 19 ।।
प्रातरेव हि निर्वाणकल्याणविधिमाचरेत्। ततः पूर्ववदानीततीर्थवार्भिर्महोत्सवात् ।। 20 ।।
विधायावभृतस्नानं एकादशमहं विभोः । कृत्त्वा संघं च संतप्र्य यथाशक्ति यथोचितम् ।। 21 ।।
अवरोह्य ध्वजं रात्रौ धामाग्रे विनिवेशयेत् । निष्ठापितप्रतिष्ठं तं यष्टेन्द्रं बहु मानयेत् ।। 22 ।।
सत्कृत्त्य शक्त्या भव्यास्तं सर्वे यान्तु यथायथम् । प्रतिष्ठाया विधिः सोयं प्रोक्तव्यः सविवक्षया ।। 23 ।।
प्रतिष्ठा दिवस केवलज्ञान दिवस से दशवें दिन पूर्व दिन में इन्द्रप्रतिष्ठाविधि संपन्न करें, इसका दूसरा नाम ‘नांदी’ विधि भी है। प्रतिष्ठादिवस से नवमें दिन आगे कही गई विधि से ‘अंकुरारोपण’ करें।।8-9।। उसी दिन से लेकर विद्वान्प्रतिष्ठाचार्य, दातायजमान, चतुर्विधसंघ और राजा आदि के संपूर्ण विघ्नों की शांति के लिये ‘शांतिहोम विधि’ करें।।10।। अंकुरारोपण के दूसरे दिन ‘प्रतिष्ठामंडप’ पांडाल आदि को सजावें, लघुशांतिपूर्वक वास्तुदेव बलि-पूजा विधि करें।।11।। अंकुरारोपण के तीसरे दिन वेदी बनवावें, उसमें पंचकुंभ विन्यास विधि, वास्तुविधि सहित बलिकर्म-पूजाविधि करें।।12।। अंकुरारोपण के चैथे दिन विधिवत् ध्वजारोहण विधि संपन्न करें।।13।। उसी रात्रि में भेरी-ताड़न विधि करें। अनंतर पांचवें दिन ‘जलयात्रा’ महोत्सव करें।।14।। पुनः अंकुरारोपण से छठे दिन महायंत्र समाराधन विधि करके रात्रि में गर्भकल्याणक विधि करें।।15।। अंकुरारोपण से सातवें दिन, दिवस में जन्माभिषेक कल्याणक करें पश्चात् आठवें दिन, दिवस में दीक्षाकल्याणक विधि संपन्न करे।।16।। अंकुरारोपण से नवमें दिन प्रातः केवलज्ञान कल्याणक विधि संपन्न करे अनंतर अपरान्ह में भगवान का नगर में विहार करावें, रथयात्रा निकालें। यह केवलज्ञान कल्याणक दिवस ही ‘प्रतिष्ठादिवस’ कहलाता है।। 8 से 17।। प्रतिष्ठा से दूसरे दिनकेवलज्ञान कल्याणक से दूसरे दिन दिवस में सभी भव्यजन ‘वासंत उत्सव’ करते हुये भगवान की रथयात्रा निकालें। प्रतिष्ठा दिवस से तीसरे दिन भगवान का सुगंधित जल से अभिषेक करके नगर में शोभायात्रा निकालें। पश्चात् चतुर्थ दिवस प्रातः ही निर्वाणकल्याणक विधि रे। इसके बाद पूर्ववत् घटयात्रा विधि से तीर्थजल लाकर महोत्सवपूर्वक भगवान का ‘अवभृतस्नान’ महाभिषेक करके प्रभु की ‘एकादशमह’एकादश प्रकारी पूजा करें। पुनः चतुर्विधसंघआचार्य संघ की एवं आर्यिकासंघ की शक्ति के अनुसार पूजा करें। भावार्थ – जल, चंदन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फल ये आठ द्रव्य हैं। इन सबको मिलाकर अर्घ्य बनाकर चढ़ाना, पुनः शांतिधारा करके पुष्पांजलि वर्षा करना यही ‘एकादशमह’ एकादश प्रकारी पूजा है। आचार्यसंघ की पूजा में अष्टद्रव्य से गुरु की एकादशी पूजा करके उन्हें शास्त्र, पिच्छी कमंडलु आदि देवें। आर्यिकाओं को भी पिच्छी कमंडलु, शास्त्र तथा साड़ी रूप वस्त्र देवे। ऐलक-क्षुल्लक, ब्रह्मचारी-ब्रह्मचारिणी गणों को भी उनके योग्य वस्त्र देवें। अनंतर जो पांडाल के सामने ध्वजारोहण किया था, रात्रि में उसे अवतरणविधि से उतार लेवे और मंदिर के ऊपर उसे चढ़ा देवें। इस प्रकार यजमान प्रतिष्ठापूर्ण करने वाले ऐसे इन्द्रप्रतिष्ठाचार्य का बहुत प्रकार से सम्मान करे। भावार्थ – प्रतिष्ठातिलक में प्रतिष्ठाचार्य को ‘‘इन्द्र’’ संज्ञा दी है और प्रतिष्ठा कराने वाले श्रावकों को यष्टायजमान कहा है। इस प्रकार सभी भव्यजन उन प्रतिष्ठाचार्य का शक्त्यनुसार सम्मान करके और यजमान का भी सत्कार करके अपने-अपने स्थान चले जावें। इस तरह यह प्रतिष्ठा की विधि कही गई है। इस प्रतिष्ठा में जो विशेष क्रियाएं करना है, उन्हें यथास्थान उस-उस की प्रयोग विधि में कहेंगे।।18-23।। विशेष – यहां इस प्रतिष्ठातिलक ग्रन्थ में विस्तृत पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में तेरह दिनों का कार्यक्रम निर्धारित किया है एवं केवलज्ञानकल्याणक दिवस को ‘प्रतिष्ठादिवस’ माना है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है प्रतिष्ठा दिवस – केवलज्ञान कल्याणक दिवस से – 1. दशवें दिन पूर्व इन्द्रप्रतिष्ठाआचार्य निमंत्रण विधि 2. नवमें दिन पूर्व अंकुरारोपण 3. आठवें दिन पूर्व मंडप प्रसाधनपांडाल बनवाना, सजाना 4. सातवें दिन पूर्व वेदी निर्माणपंचकुंभविन्यास विधि 5. छठे दिन पूर्व ध्वजारोहण विधि, उसी दिन रात्रि में भेरीताड़न विधि 6. पांचवें दिन पूर्व जलयात्रा महोत्सव (वेदी शुद्धिपूर्वक पांडाल में भगवान को विराजमान करना।) 7. चौथे दिन पूर्व महायंत्राराधना (यागमंडलविधाननवग्रह होम समेत) इसी दिन रात्रि में गर्भकल्याणक महोत्सव 8. तीसरे दिन पूर्व प्रातः जन्मकल्याणक 9. दूसरे दिन पूर्व दीक्षाकल्याणक 10. प्रथम दिवस प्रतिष्ठादिवसकेवलज्ञानकल्याणक 11. द्वितीय दिवस वसंतोत्सव 12. तृतीय दिवस सुगंधित जलाभिषेक 13. चतुर्थ दिवस निर्वाण कल्याणक अथवा इस महापंचकल्याणक महोत्सव को तेरह दिन में करने के लिये कार्य – प्रथम दिन इन्द्रप्रतिष्ठा विधि द्वितीय दिन अंकुरारोपण विधि तृतीय दिन मंडप प्रसाधन विधि चतुर्थ दिन वेदी निर्माण विधि पाँचवें दिन ध्वजारोहण विधि छठे दिन जलयात्रा विधि सातवें दिन यागमंडलाराधना और रात्रि में गर्भकल्याणक आठवें दिन जन्मकल्याणक नवमें दिन दीक्षाकल्याणक दशवें दिन केवलज्ञानकल्याणक ग्यारहवें दिन वसंतोत्सव विधि बारहवें दिन सुगंधित जलाभिषेक तेरहवें दिन मोक्षकल्याणक विधि इस वसंतोत्सव में अनेक विधि के साथ भगवान का 108 कलशों से अभिषेक और रथयात्रा करने का वर्णन है। बारहवें दिन अन्य विधि के साथ 108 कलश सुगंधित जल से अभिषेक करके रथयात्रा महोत्सव का वर्णन है। इस प्रतिष्ठा ग्रन्थ में ‘इंद्र’ पद से प्रतिष्ठाचार्य और ‘प्रतीन्द्र’ पद से सहप्रतिष्ठाचार्य लिया है। आजकल तो प्रतिष्ठा महोत्सव में यजमानश्रावकों को सौधर्म ईशान आदि बारह इंद्र बनाने की एवं कुबेर बनाने की परंपरा है। प्रायः बोलियों से इनका चयन होता हैं। कहीं-कहीं पूर्व से ही न्यौछावर राशि निर्धारित की जाती है। इस ग्रन्थ में भगवान के माता-पिता बनाने का कोई उल्लेख नहीं है प्रत्युत् कलशघड़े में माता की कल्पना बताई गई है। उसी में मातृपूजा, गर्भशोधन क्रिया आदि करायी जाती है। वसुनंदि प्रतिष्ठापाठ में काष्ठ की पेटी में माता की कल्पना करने को कहा है। एक पंक्ति ऐसी भी आई है कि किन्हीं कुलांगना को माता बना सकते हैं।
इन्द्र प्रतिष्ठा अनुष्टुप् छंदः- अथ यष्टा प्रतिष्ठार्थं, लग्नं निश्चित्य पौर्तिकः । प्रागतो दशमेऽन्हीन्द्रं, सुलग्ने स्वगृहं नयेत् ।। 1 ।।
विधृताक्षतपात्रोद्धस्त्रीषु यान्तीषु चाग्रतः । साधर्मिकान्वितो गत्त्वा स पुरंदरमंदिरम् ।। 2 ।।
दत्त्वा फलं समुचितं नत्वा विज्ञापयेदिदम् । हंहो श्रीपूजकाचार्य प्रसीद श्णु मद्वचः ।। 3 ।।
सर्वाभ्युदयनिःश्रेयसार्थसिद्धिनिबंधनम् । नित्यं नित्यमहं कर्तुं निर्माप्य जिनमंदिरम् ।। 4 ।।
प्रतिष्ठापयितुं तत्र जिनबिंबमिहोत्सहे । समीहितमिदं सद्यः साधु साधयितुं मम ।। 5 ।।
प्रसीद धर्मवात्सल्याज्जिनयज्ञविशारद । त्वत्सहायादयं धर्मो नूनं सिध्यति मेऽन्यथा ।। 6 ।।
केवलज्ञान कल्याणक से दशवें दिन पूर्व यजमान प्रतिष्ठा कराने वाला श्रावक प्रतिष्ठा कराने के लिये सर्वप्रथम प्रतिष्ठा के लिये मुहूर्त निश्चित करके इन्द्र – प्रतिष्ठाचार्य को अपने घर लावे। सो कैसे ? हाथों में अक्षतादि से भरे पात्रों को लिये हुये ऐसी सौभाग्यवती महिलाओं को आगे करके साधर्मिक लोगों के साथ वह श्रावक प्रतिष्ठाचार्य के घर जावे और उन्हें फल-श्रीफल भेंट कर निवेदन करेहे श्रीपूजकाचार्य! आप मुझ पर प्रसन्न होवो और मेरे वचन सुनो ! स्वर्गादिसुख और मोक्षसुख के लिये कारणभूत ऐसी सदा नित्यमहनित्यपूजा करने के लिये मैंने जिनमंदिर बनवाया है। उस मंदिर में जिनप्रतिमा विराजमान करने के लिये उन जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा कराने का मेरे मन में उत्साह उत्पन्न हुआ है। हे जिनयज्ञविशारद ! धर्मवात्सल्य से तुम मुझ पर कृपा करो। मुझे यह विश्वास है कि तुम्हारे सहयोग से यह मेरा धर्म कार्य अच्छी तरह संपन्न होवेगा ।।16।।
क्व चेन्द्रसाध्ययज्ञोऽयं क्व€ चाहं क्षुल्लको जनः । किमत्र बहुनोक्तेन प्रतिष्ठाविधिसाधनात् ।। 7।।
धर्मं संपाद्य मामद्य कृतार्थय कृपापर । इत्युक्त्वा प्रणिपत्यांघ्रौ प्रार्थयेत सहायताम् ।। 8 ।।
अथांगीकृतकार्यं तं भूत्या नीत्वा स्वमंदिरम् । चतुष्के तत्र रचिते कोणदीपचतुष्कके ।। 9 ।।
विष्टरे रक्तवस्त्रेणाच्छादिते विनिवेश्य तम् । मंगलातोद्यसध्वाने सति रक्तप्रसाधनाः ।। 10 ।।
सुवासिन्यश्चतस्रोऽस्य वद्र्धयंतु सुचंदनम् । आशीर्मंगलपाठेषु पीतोद्वर्तनपूर्वकम् ।। 11 ।।
आरोप्य तैलं तत्पीतखल्यापोह्य सुखाम्बुभिः । आसिच्यापादयेद्भूषावस्त्रस्रक्चंदनार्पणम् ।। 12 ।।
अथांतरीयकं सोत्तरीयं धृत्वा समाहितः । आचम्य प्रोक्ष्य दत्वाघ्र्यं तर्पणं चापराजितं ।। 13 ।।
अष्टोत्तरं शतं जप्त्वा धृत्वा श्रीचंदनादिकम् । इंद्रो गजेन्द्रमारुह्य सप्रतीन्द्रो जिनालयम् ।। 14 ।।
गत्वा ततोवतीर्यारात्प्रविश्य जिनपुंगवम् । दर्शनस्तोत्रपाठेन त्रिः परीत्य त्रिधानतः ।। 15 ।।
पूजामुखं विधायातः स्नपनक्रमतो जिनम् । अभ्यच्र्य धृत्वा गंधांबु पीठयंत्रं समच्र्य च ।। 16 ।।
चैत्यादिभक्तिभिः स्तुत्वा देवं शेषं समुद्वहन् । धर्माचार्यं समभ्यच्र्य नत्वा विज्ञापयेदिदम् ।। 17।।
अहो ! कहाँ सौधर्मेन्द्र के द्वारा साध्य यह महायज्ञ? और कहाँ मैं क्षुद्र-साधारण मनुष्य? बहुत कहने से क्या, इस प्रतिष्ठाविधि को योग्य रीति से संपन्न कराकर हे दयाशील विद्वान्! आप मुझे कृतार्थ करें। ऐसा कहकर यजमान प्रतिष्ठाचार्य को नमस्कार-प्रणाम करके उनकी सहायता की प्रार्थना करें। पुनः प्रतिष्ठाचार्य के द्वारा प्रार्थना स्वीकार कर लेने पर विभूति के-जुलूस के साथ उन्हें अपने घर लावे। घर में मंगल चैक के चारों कोनों पर दीपक रखकर उस पर पाटा रखे और उस पर लाल वस्त्र बिछाकर उसी पर उन्हें बिठाकर लाल व सुंदर वस्त्रों से सुसज्जित चार सौभाग्यवती महिलायें उन प्रतिष्ठाचार्य को उबटन लगाकर मंगलगीत गाते हुये मंगलस्नान करावें पुनः उन्हें नवीन धोती, दुपट्टा, माल्य, चंदन आदि प्रदान करें। वे प्रतिष्ठाचार्य भी उन वस्त्र आभूषण को धारण कर आचमन करके अर्घ्य देकर तर्पण करें अर्थात् संध्यावंदन विधिवत् करके 108 बार महामंत्र का जाप्य करें अनंतर चंदन का तिलक लगाकर माला आदि धारण कर सहयोगी प्रतिष्ठाचार्य के साथ हाथी पर बैठकर जिनमंदिर के निकट पहुंचकर हाथी से उतरकर मंदिर में प्रवेश कर स्तोत्र पाठ पढ़ते हुये जिनेंद्रदेव की तीन प्रदक्षिणा देवें। मंदिर में पूजामुख विधि करके विधिवत् जिनेंद्रदेव का अभिषेक करके गंधोदक ग्रहण करें। अष्ट द्रव्य से पूजा करें पुनः पीठयंत्र की पूजा करके चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति, शांतिभक्ति पढ़कर देवाधिदेव की स्तुति करके विसर्जनादि विधि करें। अनंतर शेषाक्षत मस्तक पर चढ़ाकर धर्माचार्य-दिगंबर जैनाचार्य की पूजा करके नमस्कार करके हाथ जोड़कर निवेदन करें। इस निवेदन में प्रतिष्ठाचार्य और यजमान मिलकर प्रार्थना करें।। 7 – 17।।
इंद्रवज्रा छंदः
ऐदंयुगीनाखिलशास्त्रदृष्टे त्वं पंचभेदाचरणैकतान । आचार्यवर्यागमदेशितां नो, निरूपयौपासककार्यपूजाम् ।। 18 ।।
यष्ट्टयाजकयोर्लक्ष्म, यज्ञदीक्षोचितं व्रतम् । भवतः श्रोतुमिच्छामि, भगवन् भव्यबांधव ।। 19 ।।
त्वत्प्रासादात्प्रबुध्यार्हत्, पूजादेर्लक्षणं स्फुटम् । जिनप्रतिष्ठामिच्छामः, कर्तुमेतेऽद्य बालिशाः ।। 20 ।।
हे आचार्यवर्य! श्रीकंदकुंदादि जो अर्वाचीन आचार्य हुये हैं उनके द्वारा लिखे गये शास्त्र वे ही आपके नेत्रस्वरूप हैं, आप पाँच प्रकार के आचार के पालन करने में पूर्ण तत्पर हैं, इसलिये आप श्रावकाचार में वर्णित, श्रावकों के लिये करने योग्य पूजाओं का स्वरूप हमें बतलाइये। हे भगवन् ! हे भव्यबांधव ! यजमान और याजक का लक्षण और यज्ञदीक्षा के लिये उचित व्रतों को हम आपसे सुनना चाहते हैं। आपके प्रसाद से अर्हंतदेव की पूजादि का स्पष्ट लक्षण समझकर आज हम अज्ञानीजन जिनेंद्रदेव की प्रतिष्ठा करने की इच्छा कर रहे हैं ।। 18- 20 ।।
-अनुष्टुप्छंद –
इति विज्ञापनां श्रुत्वा कृपाचोदितमानसः । गंभीरमधुरोदारगिरा सूरिरिदं वदेत् ।। 21 ।।
प्राक्कार्या धार्मिकैरिज्या सा चतुर्धा सदार्चनम् । चतुर्मुखमहः कल्पद्रुमश्चाष्टान्हिकोऽपि च ।। 22 ।।
तत्र नित्यमहो नाम शश्वज्जिनगृहं प्रति । स्वगृहान्नीयमानार्चा गंधपुष्पाक्षतादिका ।। 23 ।।
चैत्यचैत्यालयादीनां भक्त्या निर्मापणं च यत् । शासनीकृत्य दानं च ग्रामादीनां सदार्चनम् ।। 24 ।।
या च पूजा मुनीन्द्राणां नित्यदानानुषंगिणी । स च नित्यमहो ज्ञेयो यथाशक्त्युपलक्षितः1 ।। 25 ।।
महामुकुटबद्धैस्तु क्रियमाणो महामहः । चतुर्मुखः स विज्ञेयः सर्वतोभद्र इत्यपि ।। 26 ।।
दत्वा किमिच्छकं दानं सम्राड्भिर्यः प्रवत्र्यते । कल्पद्रुममहः सोऽयं जगदाशाप्रपूरणः ।। 27 ।।
अष्टान्हिको महः सार्वजनिको रूढ एव सः । महानैन्द्रध्वजोऽन्यस्तु सुरराजैः कृतो महः ।। 28 ।।
बलिस्नपनमित्यन्यत्त्रिसंध्यासेवया समम् । उक्तेष्वेव विकल्पेषु ज्ञेयमन्यच्च तादृशम् ।। 29 ।।
एवंविधिविधानेन या महेज्या जिनेशिनाम् । विधिज्ञास्तामुशन्तीज्यां वृत्तिं प्राथमकल्पिकीम् ।। 30 ।।
अतो नित्यमहोद्युक्तैर्निर्माप्यं सुकृतार्थिभिः । जिनचैत्यगृहं जीर्णमुद्धार्यं च विशेषतः ।। 31 ।।
जिनयज्ञं करिष्याम इत्यध्यवसिताः किल । जित्वा दिशो जिनानिष्ट्वा निर्वृता भरतादयः ।। 32 ।। ।।
इति इज्यास्वरूपोपदेशः ।।
इस प्रकार की विज्ञापना सुनकर दया से जिनका चित्त आर्द्र है ऐसे आचार्य गंभीर, मधुर और उदार वचन बोलें। पूजा के भेद हे भव्यात्माओं ! सुनो, आप धर्मात्माओं को पहले इज्यापूजा क्रिया करनी चाहिये। उस इज्या के चार भेद हैं सदार्चन नित्यमह, चतुर्मुखमह, कल्पद्रुम और आष्टान्हिक। इनमें से पहले नित्यमह का लक्षण कहते हैं। हमेशा प्रतिदिन अपने घर से गंध, पुष्प, अक्षतादि सामग्री लेकर मंदिर में जाकर जो पूजा की जाती है, वह नित्यमह है। भक्तिपूर्वक जिनप्रतिमा, जिनमंदिर आदि का निर्माण कराना, मंदिर में नित्य ही पूजा होती रहे इसलिये ग्राम, खेत आदि का दान देना भी नित्यमह है। अपनी शक्ति के अनुसार मुनिराजों की पूजा करते हुये उन्हें नित्य ही आहार दानादि देना यह भी ‘नित्यमह’ कहलाता है। महामुकुटबद्ध राजाओं के द्वारा जो महापूजा की जाती है उसे ‘चतुर्मुखमह’ कहते हैं इसका दूसरा नाम ‘सर्वतोभद्र’ भी है। सम्राट् चक्रवर्तियों के द्वारा ‘किमिच्छिक’ दान देते हुये जगत की आशा को पूर्ण करने वाली जो महापूजा की जाती है उसे ‘कल्पद्रुम’ पूजा कहते हैं। जो व्यक्ति जो कुछ भी मांगे, उसे वही देना इस तरह चक्रवर्ती के सिंहासन, छत्र आदि विशेष वस्तुओं को छोड़कर सभी को इच्छानुसार सब कुछ देना यह ‘किमिच्छिकदान’ कहलाता है। आष्टान्हिक पूजा सर्व लोगों में प्रसिद्ध है अर्थात् नंदीश्वर पर्व के आठ दिनों में जो नंदीश्वर द्वीप के बावन जिनमंदिरों की या अन्य भी पूजायें की जाती हैं वह ‘आष्टान्हिक’ पूजा कहलाती है। तथा इन्द्रों के द्वारा की गई महान् पूजा ‘ऐन्द्रध्वज’ कहलाती है। आज भी स्थापना निक्षेप से इन्द्र बनकर जो अनुष्ठान करते हैं उसे ‘इन्द्रध्वज’ पूजा कहते हैं यह पाँचवा भेद समझना चाहिये। बलि-पूजा की एक विधि, स्नपनअभिषेक विधि इत्यादि अन्य भी त्रिकाल भक्ति आदि से जो भी पूजायें की जाती हैं उन सभी को इन्ही पूजाओं के भेदों में गर्भित करना चाहिये। इस प्रकार की विधि-विधानपूर्वक जिनेंद्रदेव की जो महापूजा की जाती है विधि-विधान के ज्ञाता महासाधु उसे ‘इज्या’ नाम की प्रथम वृत्ति कहते हैं ।। इसलिये ‘नित्यमह’ करने के लिये उद्यमशील सुकृतीजनों को जिनमंदिर का निर्माण कराना चाहिये और विशेषकर जीर्ण मंदिरों का भी उद्धार कराना चाहिये। ‘जिनयज्ञ करूँगा’ ऐसा विश्वास करने वाले भरतचक्रवर्ती आदि महापुरुषों ने षट्खंड पृथ्वी को जीतकर भगवान की पूजन करके निर्वाण प्राप्त किया है।। 21 – 32।।
-प्रतिष्ठाचार्य का लक्षण अनुष्टुप्छंदः –
देशजातिकुलाचारैः श्रेष्ठो दक्षः सुलक्षणः । त्यागी वाग्मी शुचिः शुद्धसम्यक्त्वः सद्व्रतो युवा ।। 33 ।।
श्रावकाध्ययनज्योतिर्वास्तुशास्त्रपुराणवित् । निश्चयव्यवहारज्ञः प्रतिष्ठाविधिवित्प्रभुः ।। 34 ।।
विनीतः सुभगो मंदकषायो विजितेन्द्रियः । जिनेज्यादिक्रियानिष्ठो भूरिसत्त्वार्थबांधवः ।। 35 ।।
दृष्टसृष्टक्रियो वार्तः संपूर्णांगः परार्थकृत् । वर्णी गृही वा सद्वृत्तिरशूद्रो याजको द्युराट् ।। 36 ।।
गुणिनोप्यगुणे व्यर्था गुणवत्यगुणा अपि । याजकेन्ये कृतार्थाः स्युस्तन्मृग्योऽसौ स्फुरद्गुणः ।। 37 ।।
आयुष्मंस्त्वयि वर्तंते प्रोक्ता याजकसद्गुणाः । जिनाग्रयाजकतया सौधर्मेन्द्रोऽसि सोऽधुना ।। 38 ।।
इत्युच्चैर्वदता दत्तान्समंत्रान्गुरुणाक्षतान् । स्वीकृत्यांजलिनोपांशु मंत्रमुच्चार्य नामिते ।। 39 ।।
स्वमूध्र्नि विन्यसेत्सोहं सौधर्मेन्द्र इति ब्रुवन् । (इन्द्रेण पुनरत्रैव ‘ते’ स्थाने ‘मे’ प्रयोजयेत्)।।40।।
गुरु निम्न मंत्र को पढ़कर प्रतिष्ठाचार्य को आशीर्वाद देवें पुनः प्रतिष्ठाचार्य ‘ते’ के स्थान में ‘मे’ का प्रयोग कर स्वयं अपने मस्तक पर अक्षत-पुष्प क्षेपण करें। मंत्र- ॐ हीं अर्हं अ सि आ उ सा णमो अरिहंताणं अनाहतपराक्रमस्ते भवतु भवतु ह्रीं नमः स्वाहा। एष मंत्रो गुरुणा प्रयोज्यः । इंद्रेण पुनरत्रैव ‘ते’ स्थाने ‘मे’ इति प्रयोज्यम् । ।।
इति इंद्रस्थापनम् ।।
देश, जाति, कुल और आचार इनसे श्रेष्ठ हो, दक्ष हो, सामुद्रिक 24 स्वकथित अच्छे लक्षणों वाला हो, त्यागी व्रतसहित हो या दानी हो, वक्ता हो, पवित्र हो, शुद्ध सम्यग्दर्शन से सहित हो, व्रती अणुव्रती हो, युवा हो। श्रावकाचार, ज्योतिष, वास्तुशास्त्र और पुराण शास्त्रों का ज्ञाता हो, निश्चयनय और व्यवहारनय को जानने वाला हो, प्रतिष्ठाशास्त्र के अनुसार विधि-विधान का ज्ञाता हो, तेजस्वी हो, विनीत, सुभग-सर्वप्रिय, मंदकषायी, जितेन्द्रिय हो, जिनपूजा विधान ज्ञाता, स्वाध्याय आदि क्रियाओं में तत्पर रहने वाला हो, सभी जीवों में वत्सलभाव धारण करने वाला हो, जिसने प्रतिष्ठा आदि अनेक बार देखी हैं और अनेक बार करायी हैं ऐसा हो, शुभकर्म-आजीविका करने वाला होµअच्छे व्यापार आदि करने वाला हो, सर्व अवयवों से परिपूर्ण हो, परोपकारी हो, वर्णी-ब्रह्मचारी-सप्तमप्रतिमाधारी तक हो या सद्गृहस्थ हो, सदाचारी हो, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीनों वर्णों में से किसी भी वर्ण का हो, इन सभी गुणों से युक्त ही याजकप्रतिष्ठा कराने वाला, द्युराट्इन्द्र अर्थात् प्रतिष्ठाचार्य कहलाता है । यदि प्रतिष्ठाचार्य उपर्युक्त गुणों से युक्त नहीं है और यजमान श्रावकगण गुणी हैं तो भी व्यर्थ है और यदि प्रतिष्ठाचार्य अपने गुणों से युक्त है किन्तु यजमान आदि अपने-अपने गुणों से युक्त नहीं हैं तो भी प्रतिष्ठाचार्य गुणवान के निमित्त से सभी योग्य हो जाते हैं इसलिये प्रतिष्ठाचार्य उज्ज्वल गुणों से युक्त ही खोजना चाहिये । (दिगंबर जैनाचार्य अक्षत को हाथ में लेकर मंत्र पढ़कर वे अक्षत उस यजमान को देवें और यजमान आगे कथित वाक्य बोलकर प्रतिष्ठाचार्य को देवे । यजमान बोले अर्थात् यहाँ सौधर्मेंद्र से प्रतिष्ठाचार्य को लिया है। हे आयुष्मन् ! शास्त्र में कथित सभी याजक के गुण आपमें विद्यमान हैं, जिनेंद्रदेव की पूजा विधि में आप अग्रणी हैं अतः इस समय ‘‘आप ही ‘सौधर्मेंद्र’प्रतिष्ठाचार्य हो’’ इस प्रकार उच्चस्वर से बोले और गुरू के द्वारा मंत्रोच्चारणपूर्वक दिये गये अक्षत अपनी अंजुलि में लेकर प्रतिष्ठाचार्य को दे देवें।।33 से 40।। गुरुदिगंबराचार्य या प्रमुख या जो भी प्रमुख साधु-साध्वी हों वे मंत्र बोलें
ॐ ह्रीं अर्हं असि आ उसा णमो अरिहंताणं अनाहतपराक्रमस्ते भवतु भवतु हीं नमः स्वाहा । पुनः प्रतिष्ठाचार्य इसी मंत्र को अंतर में बोलते हुये ते के स्थान में ‘मे’ का प्रयोग करके मस्तक को झुकाकर अपने मस्तक पर उन अक्षत को गुरु से क्षेपण करावें या स्वयं ‘‘सोऽहं सौधर्मेन्द्रःप्रतिष्ठाचार्यः’’ । ऐसा बोलते हुये अपने मस्तक पर अक्षत डालें ।।
।। इति इन्द्रस्थापनम् ।।
पाक्षिकाचारसंपन्नो धीसंपद्बन्धुबन्धुरः । राजमान्यो वदान्यश्च यजमानो मतः प्रभुः ।। 41 ।।
आयुष्मंस्त्वयि वर्तंते यजमानगुणा अमी । यज्ञेऽस्मिन्यजमानत्वं साधु मन्यामहे त्वयि ।। 42 ।।
इत्युच्चैर्वदता दत्तान्समंत्रान्गुरुणाक्षतान् । स्वीकृत्यांजलिनोपांशु मंत्रमुच्चार्य नामिते ।। 43 ।।
स्वमूध्र्नि विन्यसेद्यज्ञे दीक्षितोऽहमिति ब्रुवन् । प्रतिपद्येत चातीर्थात्सैकभक्तं सुनिर्मलं ।। 44 ।।
ॐ ह्रीं अर्हं अ सि आ उ सा णमो अरिहंताणं अनाहतपराक्रमस्ते भवतु भवतु हीं नमः स्वाहा। एष मंत्रो गुरुणा प्रयोज्यः । यष्ट्रा पुनरत्रैव तेस्थाने मे इति प्रयोज्यम्। (इस मंत्र का प्रयोग गुरु करें पुनः यजमानप्रतिष्ठा कराने वाले श्रावक ‘ते’ के स्थान में ‘मे’ का प्रयोग करके मंत्र पढ़ें।)
।। इति यजमानस्थापनम् ।।
जो पाक्षिकाचार से संपन्न हो, एकदेश हिंसा का त्यागी हो, बुद्धिमान, संपत्तिवान् और बंधुजनों से युक्त हो, राजमान्य हो, दानी हो और प्रभु हो ऐसा यजमान माना गया है। ‘हे आयुष्मन् ! तुम्हारे में यजमान के गुण विद्यमान हैं इस प्रतिष्ठा में हम तुम्हें अच्छा यजमान मानते हैं। ऐसा कहते हुये आचार्यवर्य मंत्रोच्चारणपूर्वक उसे अक्षत देवें। यजमान भी शिर झुकाकर अंजलि में अक्षत लेकर अपने मस्तक पर डालते हुये संकल्प करे कि मैं यज्ञविधि में गुरु के द्वारा दीक्षित हो रहा हूँ। अनंतर याजक और यजमान दोनों ही अर्थात् प्रतिष्ठाचार्य और सौधर्मेन्द्रादि सभी प्रतिष्ठाविधिपूर्ण होने तक शुद्ध भोजन एक बार करने का नियम लेवें।। 41- 44।। भावार्थ:- वर्तमान में एक बार अन्न का भोजन, एक बार फलाहार एवं औषधि, जल आदि की छूट रखते हैं, रात्रि में चतुर्विधाहार का त्याग करा दिया जाता है।
ब्रह्मचर्यं विविक्ते च स्वप्यात्सद्भावनारतः । शलाकापुरुषाख्यानध्यानस्वाध्यायभाग्भवेत् ।। 45 ।।
परमेष्ठिश्रुतगुरूनेव वंदेत वर्जयेत् । साधर्मिकसजातीयैरपि पंक्तिं च भोजने ।। 46 ।।
तदा प्रभृति यष्टापि ब्रह्मयाजकवच्चरेत् । आयज्ञांतं विशेषेण तदाज्ञां न च लंघयेत् ।। 47 ।।
प्रतिष्ठासूचकैर्लेखैः संघं देशांतरादपि । आकारयेद् व्रजेद् द्रष्टुं तां संघोऽपि यथाबलम् ।। 48 ।।
वेदीनिवेशादारभ्य यावद्यज्ञान्तमात्मवान् । धर्मकारी गुणौचित्यकृपादानपरो भवेत् ।। 49 ।।
गर्भरूपो विनेयोऽस्मीत्याक्षिप्तो गुरुभिर्वदेत् । आकृष्टो याचकैः स्वेष्टदाने वोऽस्मि कियानिति ।। 50 ।।
याजका यष्ट्टवत्सर्वे श्रावकैरपरैरपि । संभाव्या भक्तितः संघोऽप्याराध्यो धर्मकाम्यया ।। 51 ।।
दातृसंघनृपादीनां शांत्यै स्नात्वा समाहिताः । शांतिमंत्रैर्जपं होमं कुर्युरिंद्रा दिने दिने ।। 52 ।।
देशकालानुसारेण व्यासतो वा समासतः । कुर्वन्कृत्स्नां क्रियां शक्रो दातुश्चित्तं न दूषयेत् ।। 53 ।।
यथोक्तनिगदद्रव्यैः प्रयुक्तैव्र्यासतः क्रिया । मंत्रमात्रयथाप्राप्तद्रव्यैश्चेष्टा समासतः ।। 54 ।। ।।
इति कर्तव्योपदेशः ।।
प्रतिष्ठापर्यंत प्रतिष्ठाचार्य, सहप्रतिष्ठाचार्य ब्रह्मचर्य का पालन करें, एकांत स्थान में शयन करें, सद्भावना में तत्पर हुये त्रेसठ शलाका पुरुषों के चरित को पढ़ें, ध्यान और स्वाध्याय आदि में समय व्यतीत करें। पंचपरमेष्ठी की स्तुति और गुरुओं की वंदना करें। साधर्मिक और सजातीय लोगों के साथ भी पंक्ति में बैठकर भोजन न करें अर्थात् एकाकी शुद्ध भोजन करें। तब से लेकर यजमान भी प्रतिष्ठाचार्य के समान ही प्रतिष्ठापर्यंत सारे नियमों का पालन करें। विशेष बात यह है कि वे प्रतिष्ठाचार्य की आज्ञा का उलंघन न करें। प्रतिष्ठासूचक लेखों सेकुंकुमपत्रिका सर्वत्र भेजकर और पत्र आदि से भी सबको आमंत्रित करें। संघ को भी बुलावें और चतुर्विध संघ भी उस प्रतिष्ठा में सान्निध्य देने के लिये पधारें। वेदी रचना से लेकर प्रतिष्ठापूर्तिपर्यंत यजमान शांतपरिणामी, धर्मकार्य में निष्ठ, गुणीजनों में उचित आदर और अन्यजनों में भी वात्सल्य भाव से सहित दान आदि देते हुये क्रियाओं को संपन्न करे । यदि गुरुओं ने कुछ गलती टोकी तो उनके सामने विनय से बोलें, कि‘मैं आपका अज्ञानी शिष्य हूँ’ याचक लोग अधिक कुछ मांगे तो बोले कि‘मैं आप लोगों को इच्छित वाक्यों से अपनी लघुता प्रदर्शित करता हँू। इस प्रकार सबको प्रसन्न रखें। अन्य श्रावक भी यजमान के समान प्रतिष्ठाचार्यों का सम्मान करें और धर्म की इच्छा से साधुसंघ की भी भक्तिपूर्वक आराधना करते रहें। प्रतिष्ठाचार्य भी सहयोगी विद्वानों के साथ प्रतिदिन दाता, साधुसंघ और राजा आदि की शांति के लिये स्नानादि से शुद्ध हो एकाग्रमना होकर शांतिमंत्रों से जाप्य और होम चालू रखें। देश और काल के अनुसार विस्तार से या संक्षेप से संपूर्ण क्रियाओं को करते हुये प्रतिष्ठाचार्य दाता के चित्त को दूषित न करें-कष्ट न पहुंचावें। प्रतिष्ठाशास्त्र में कथित सर्वद्रव्यों से प्रतिष्ठा करना यह विस्तृत प्रतिष्ठा है और मंत्रमात्र से तथा जितनी सामग्री हो उतने में ही संपूर्ण क्रिया करनाµपूरे मंत्रों का प्रयोग करते हुये संक्षिप्त सामग्री से प्रतिष्ठा करना यह संक्षिप्त प्रतिष्ठाविधि है ।।45 µ54।। इस प्रकार प्रतिष्ठाचार्य एवं यजमान के कर्तव्यों का वर्णन हुआ।अर्हद्देवयज्ञदीक्षांगीकारः (यज्ञदीक्षा स्वीकार करें) दृग्बोधदेशव्रतरूपरत्न – त्रयं भवेन्मे कलितैकभक्तम् । आकर्मिका ब्रह्मनिवृत्तियुक्तं, स्याद्यज्ञदीक्षाविधिना विशिष्टम् ।। 55।। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और एकदेशचारित्ररूप रत्नत्रय एक बार भोजन, प्रतिष्ठासमाप्तिपर्यंत ब्रह्मचर्यव्रत ये सर्व मेरी क्रियायें यज्ञदीक्षाविधि से विशिष्ट होवे ।। 55 ।।
दीक्षाचिन्होद्वहनम् (यज्ञदीक्षा के चिन्ह)
रत्नत्रयांगमुपवीतमुरस्यथांगं देशव्रतस्य च सुकंकणमत्र हस्ते। ब्रह्मव्रतांगमधुना स्वकटौ च मौंजीं धृत्वारभे जिनमखं मखदीक्षितोऽहम्।।56।।
(इस श्लोक को बोलकर जनेऊ, कंकणबंधन और कमर में कंदोरा करधनी का धागा बाँधें।) मैं रत्नत्रय के चिन्हस्वरूप यज्ञोपवीत को अपने वक्षस्थल पर धारण करता हूँ। देशव्रतों के चिन्हस्वरूप यह कंकण हाथ में धारण करता हूं। ब्रह्मचर्यव्रत का चिन्ह ऐसी यह मौंजी मैं अपनी कमर में पहनता हूँ। इस प्रकार से यज्ञदीक्षा धारण करें। मैं जिनेंद्रदेव की पूजन प्रारंभ करूँगा।। 56।।
ॐ वज्राधिपतये आँ हां अः ऐं व्हः श्रूँ हूँ क्षः इंद्राय संवौषट् । अनेन एकविंशतिवारानात्मानमधिवासयेत् ।।
(उपर्युक्त मंत्र को प्रतिष्ठाचार्य 21 बार बोलकर अपनी आत्मा को इंद्र-प्रतिष्ठाचार्य बनावें ) ।।
इति यज्ञदीक्षाविधानम् ।।
नांदीमंगलविधि प्रारंभ
नत्वा गुरुं ततः कुर्याद्यंत्रदेवविसर्जनम् । द्वारपालबलिं ब्रह्मबलिं दिक्पालसद्बलिम् ।। 57 ।।
बलिं चापददेवानां विधिना श्रीबलिं ततः । मूलवेराग्रतः (वेद्यग्रतः) स्थित्वा स्वेष्टार्थप्रार्थनामतः ।। 58 ।।
शुभानुध्यानवचनमर्हद्देवविसर्जनम् । क्षमापणं च पंचांगनतिमापृच्छनं गतेः ।। 59 ।।
कृत्त्वैवं क्रमतः शक्रः स्वं विधेयं समापयेत् । यजमानस्ततो नत्वा जिनाधीशं श्रुतं गुरुम् ।। 60 ।।
इंद्रादीन्स्वगृहे नीत्वा भोजयित्वा यथोचितम् । सत्कृत्त्य वस्त्रभूषाद्यैः प्रतिवंदेत सादरम् ।। 61।।
अनंतर आचार्य देव को नमस्कार कर यंत्रदेव का विसर्जन करें पुनः द्वारपाल बलि, ब्रह्मबलि, दिक्पालबलि, आपद्देवताबलि और श्रीबलि करें। इन सभी की विधि आगे कहेंगे। अनंतर मूलवेदी के सामने खड़े होकर इष्टप्रार्थना करें। मेरे मन में शुभ भावना उत्पन्न होवे, ऐसा बोलकर अर्हंत देव का विसर्जन करें, क्षमापण करके पंचांग नमस्कार करके घर जाने की आज्ञा मांगें। इस प्रकार क्रम से सारी विधि करके प्रतिष्ठाचार्य अपने कर्तव्य को पूर्ण करें। अनंतर यजमान भी जिनेंद्रदेव को, शास्त्र को और गुरु को नमस्कार करके प्रतिष्ठाचार्य आदि को अपने घर ले जाकर भोजन करावें पुनः वस्त्र, आभूषण आदि से सत्कार करके उन्हें सादर प्रणाम करें।।57-61।।रात्रौ दीपोत्करेणार्हद्धामचत्वरशोधनम् । कारयेदिति निर्दिष्टमिंद्रस्थापनलक्षणम् ।। 62 ।। इदमेव विदुः केचिन्नांदीमंगलसंज्ञितम् । इमं नित्यमहं प्राहुर्यज्ञदीक्षाविवर्जितम् ।। 63 ।। उसी दिन रात्रि में दीपमालिका सजाकर जिनमंदिर का आंगन सुशोभित करें। इस इन्द्रस्थापनलक्षण प्रतिष्ठाचार्य निमंत्रण को ही कोई कोई आचार्य ‘नांदीमंगल’ ऐसा नाम देते हैं। यक्षदीक्षा विधि से रहित ‘नित्यमह’ यह नाम भी माना है ।।62-63।।
।। इति नांदीमंगलविधिः।।
(मंत्र स्नान-संध्यावंदन विधि) अथेन्द्रः स्थापनानन्तरं- (प्रतिष्ठाचार्य आदि सभी जलस्नान के अनंतर आगे कही विधि से मंत्रस्नान करें। इसे ‘संध्यावंदन’ विधि भी कहते हैं। स्नान के 3 भेद हैं जलस्नान, मंत्रस्नान और व्रतस्नान। ‘संध्यावंदन’ यह मंत्रस्नान है और गुरु से अणुव्रत आदि व्रत लेना व्रतस्नान है।)
झं ठं स्वरावृतं तोयमंडलद्वयसंवृतम् । तोये न्यस्याग्रतर्जन्या तेनानुस्नानमाचरेत् ।। 1 ।।
इति जलयंत्रोपस्कृत्यजलैरमृतमंत्रेणानुस्नानं कृत्वा सांतरीयोत्तरीयं धारयेत्।
(एक पात्र में पानी लेकर उसमें जल यंत्र रखें या जलमंडल बनावें उसकी विधि आगे दी है। नीचे लिखे इन मंत्रों से जल सिंचित करके धोती-दुपट्टा आदि पर जल छिड़के।) 1. ॐ श्वेतवर्णे सर्वोपद्रवहारिणी सर्वजनमनोरंजिनी परिधानोत्तरीये धारिणी हं हं झं झं वं वं सं सं तं तं परिधानीयोत्तरीये धारयामि स्वाहा। सांतरीयोत्तरीयवस्त्रधारणम् । (धोती दुपट्टा धारण करें अर्थात् उन पर जल छिड़कें।) 2.ॐ क्ष्वीं भूः शुद्ध्यतु स्वाहा । भूमिशोधनमंत्रः ।। (भूमि पर जल छिड़कें) 3. ॐ हीं अर्हं क्ष्मं ठं आसनं निक्षिपामि स्वाहा । आसनस्थापनं। (आसन बिछावें) 4. ॐ हीं अर्हं ह्युं ह्यूं णिसिहि णिसिहि आसने उपविशामि स्वाहा । उपवेशनम् ।। (आसन पर बैठें) 5. ॐ मम समस्तपापक्षयार्थं आयुरारोग्यैश्वर्याभिवृद्ध्यर्थं पौर्वाण्हिकसंध्याचरणं करिष्ये। इति संकल्पः। (इस प्रकार प्रतिज्ञा करें)
जटान्तौ बिन्दुसंयुक्तौ कला वं पं सुवेष्टितौ । सोममध्ये लिखित्वाम्भोमध्ये स्नानादिकं चरेत् ।। यंत्रमिदं जले तर्जन्याग्रेण विलिखेत् । (उपर्युक्त श्लोक बोलकर तर्जनी से थाली में यंत्र लिखें, केशर से) (रकेबी में अर्धचंद्राकार बनाकर मध्य में अर्धचंद्र के दोनों कोनों पर ‘झं ठं’ ये अक्षर लिखकर चारों तरफ 16 स्वर और वं पं लिखें।) 1. झ्वीं क्ष्वीं हं सः। सुरभिमुद्राबीजानि। (इस मंत्र से यंत्र को यह सुरभिमुद्रा दिखावें) 2. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अ सि आ उ सा इदं समस्ततीर्थनदीजलं भवतु स्वाहा।। जलशुद्धिः। (इस मंत्र से जलयंत्र में पानी डालें)।। 3. ॐ ह्रीं लां पं व्हः पः झ्वीं क्ष्वीं स्वाहा। इत्यपस्त्रिः पिबेत् । (शंखाकार हाथ में तीन बिंदु जल लेकर मुख पर डालें)। 4. ॐ ह्रीं झ्वीं। इत्यास्यं संवृत्य अंगुष्ठमूलेन त्रिः प्रमृज्यात् । (मुखबंद कर मंत्रित जल से अंगूठे से तीन बार मुख पोंछें) 5. क्ष्वीं। इति तर्जन्यादित्रयेण आस्यमुपस्पृशेत् । एतच्चतुष्टयं संभूय आस्यस्पर्शनम् । (क्ष्वीं-इस मंत्र को बोलकर तर्जनी आदि तीन अंगुलियों से मंत्रित जल से मुख स्पर्श करें) 6. वं मं। इति बीजद्वयेन अंगुष्ठानामिकाभ्यां चक्षुद्वयस्पर्शनम् । (वं मं बीजाक्षर बोलकर अंगूठा और अनामिका से दोनों नेत्र स्पर्श करें) 7. हं सं। इति बीजद्वयेन अंगुष्ठदेशिनीभ्यां नासापुटद्वयस्पर्शनम् ।। (हं सं बीजाक्षर से अंगूठा और देशनी से दोनों नाक को स्पर्श करें) 8. तं पं। इति बीजद्वयेन कनिष्ठांगुष्ठयुग्मेन कर्णद्वयस्पर्शनम् । (तं पं बीजाक्षर से कनिष्ठा और अंगूठा से क्रम से दोनों कान का स्पर्श करें) 9. द्रां। इति बीजेन अंगुष्ठेन नाभिस्पर्शनम् । (द्रां बोलकर अंगूठा से नाभि का स्पर्श करें) 10. द्रीं। इति बीजेन तलेन हृदयस्पर्शनम् । (द्रीं बोलकर हस्त तल से हृदय का स्पर्श करें) 11. हं सः। इति बीजद्वयेन कराग्रेण भुजाग्रद्वयस्पर्शनम् । (हं सः बीजाक्षर से हाथ के अग्र भाग से क्रम से दोनों भुजाओं का स्पर्श करें) 12. स्वाहा। इति बीजपदेन सर्वांगुलिभिः शिरः स्पर्शनम् ।
(स्वाहा इस बीजाक्षर को बोलकर सर्व अंगुलियों से शिर का स्पर्श करें)
एतानि द्वादशांगस्पर्शनानि पृथक्पृथगंभः स्पर्शनपूर्वकाणि कर्तव्यानि।
इति द्वादशांगस्पर्शनविधिः इत्याचमनविधानम्।
(इन द्वादश अंगों का स्पर्शन पृथक् पृथक् जल स्पर्शन पूर्वक करना चाहिये।)
पूरकं विधाय अंगुष्ठानामिकाभ्यां नासाविवरद्वयं संवृत्य कुंभकं कुर्वन्नेव- प्राणायामविधि णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं। इति गाथांशद्वयं जप्त्वान्ते रेचकं कुर्यात्। अनेनैव विधिना णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाणं। इति गाथांशद्वयं तथा णमो लोए, सव्वसाहूणं। इत्येकांशं जपेत्। ।।
इति प्राणायामविधिः।।
(पूरक विधि से अंगूठा और अनामिका से नाक के छिद्र को बंद कर कुंभक करते हुये मंत्र के दो पदों को जपें, अन्त में रेचक विधि करें। ऐसे ही दो पदों के उच्चारण में भी पूरक, कुंभक, रेचक विधि है पुनः ‘णमो लोए सव्वसाहूणं’ में भी तीनों विधि हैं। ‘णमो अरिहंताणं बोलते हुये श्वांस को खींचे यही पूरक है अनन्तर कुछ सेकेंड अंदर से श्वांस रोके रखें यह कुंभक है अनंतर ‘णमो सिद्धाणं’ बोलते हुये श्वांस को छोड़ें यह रेचक है। ऐसे ही णमो आइरियाणं में पूरक व कुंभक अनन्तर णमो उवज्झायाणं बोलते हुये रेचक होता है। तथैव णमो लोए में पूरक कुंभक करके ‘सव्वसाहूणं’ में रेचक प्राणायाम होता है। यह सब मन से ही होता है उच्चारण में नह्रीं बनता है। श्वांस की वायु को मस्तक तक पहुंचाना पूरक है, वायु को नाभिस्थान में लाकर रोकना कुंभक है और रुकी वायु को धीरे धीरे बाहर निकालना रेचक है। ॐ अमृते अमृतोद्भवे अमृतवर्षिणि अमृतं स्रावय स्रावय सं सं क्लीं क्लीं ब्लूं ब्लूं द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्रावय स्वाहा। इति प्रोक्षणमंत्रः। (दोनों हाथों की तर्जनी अंगुली मिलाकर आगे करके जल में डुबो-डुबो कर अपने सर्वांग पर जल छिड़कना चाहिये।) ॐ झं वं व्हः पः हः स्वाहा । दिगंजलिः। (इस मंत्र को बोलकर अंजुलि में जल लेकर चारों तरफ दिशाओं में क्षेपण करें, यह दिगंजलि है।) ॐ ह्रीं अ सि आ उ सा नमः स्वाहा । अनेन पंचगुरूणां त्रिबारजलाघ्र्यप्रदानम् ।। (इस मंत्र से तीन बार जल का अर्घ्य देना) 1. ॐ ह्रीं अर्हद्भ्यः स्वाहा। 2. ॐ ह्रीं सिद्धेभ्यः स्वाहा। 3. ॐ ह्रीं सूरिभ्यः स्वाहा। 4. ॐ ह्रीं पाठकेभ्यः स्वाहा। 5. ॐ ह्रीं सर्वसाधुभ्यः स्वाहा। 6. ॐ ह्रीं जिनधर्मेभ्यः स्वाहा। 7. ॐ ह्रीं जिनागमेभ्यः स्वाहा। 8. ॐ ह्रीं जिनचैत्येभ्यः स्वाहा। 9. ॐ ह्रीं जिनचैत्यालयेभ्यः स्वाहा। 10.ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनेभ्यः स्वाहा। 11. ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानेभ्यः स्वाहा। 12. ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्रेभ्यः स्वाहा। 13. ॐ ह्रीं सम्यक्तपोभ्यः स्वाहा। 14. ॐ ह्रीं अस्मद्गुरुभ्यः स्वाहा। 15. ॐ ह्रीं अस्मद्विद्यागुरुभ्यः स्वाहा। इति तर्पणमंत्राः । (इन 15 तर्पण मंत्रों से जलांजलि देना चाहिये) ॐ णमो अरिहंताणं , णमो सिद्धाणं , णमो आयरियाणं । णमो उवज्झायाणं , णमो लोए सव्वसाहूणं ।। इत्यपराजितमंत्रमष्टशतवारान्जपेत्।। इति जपः ।। (पुनः 108 बार या 27 बार या 9 बार महामंत्र का जाप्य करें) (पुनः मुकुलित कमल जैसा हाथ जोड़कर क्रम से 1 – 1 श्लोक पढ़कर चारों दिशाओं में घूम-घूमकर तीन – तीन आवर्त, एक-एक शिरोनति करते हुये नमस्कार करें।) ==
-आर्याछंद-
प्राग्दिग्विदिगंतरतः केवलिजिनसिद्धसाधुगणदेवाः । ये सर्वद्र्धिसमृद्धा योगीशास्तानहं वंदे ।। 1।। (पूर्व दिशा में)
दक्षिणदिग्विदिगंतरतः केवलिजिनसिद्धसाधुगणदेवाः । ये सर्वद्र्धिसमृद्धा योगीशास्तानहं वंदे ।। 2।। (दक्षिण दिशा मे
पश्चिमदिग्विदिगंतरतः केवलिजिनसिद्धसाधुगणदेवाः । ये सर्वद्र्धिसमृद्धा योगीशास्तानहं वंदे ।।3।। (पश्चिम दिशा में)
उत्तरदिग्विदिगंतरतः केवलिजिनसिद्धसाधुगणदेवाः । ये सर्वद्र्धिसमृद्धा योगीशास्तानहं वंदे ।।4।। (उत्तर दिशा में)
इति चतुर्दिक्षु पृथक्पृथक्त्र्यावर्तैकशिरोनतिपूर्वकं प्रदक्षिणनमस्कारं कुर्यात् ।।
(एक रकेबी में गंधयंत्र बनाकर अथवा बायें हाथ की हथेली में गंध यंत्र बनाकर उस गंध को लेकर दायें हाथ की अनामिका से आगे के मंत्र से चंदन लगावें।) ==
1. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: णमो अरिहंताणं रक्ष रक्ष स्वाहा । ललाटे । (ललाट में लगावें) 2.ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र:णमो सिद्धाणं रक्ष रक्ष स्वाहा । हृदये । (हृदय में लगावें) 3. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: णमो आइरियाणं रक्ष रक्ष स्वाहा । दक्षिणभुजे । (दाहिनी भुजा में लगावें) 4. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: णमो उवज्झायाणं रक्ष रक्ष स्वाहा । वामभुजे । (बायीं भुजा में लगावें) 5. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: णमो लोए सव्वसाहूणं रक्ष रक्ष स्वाहा । कंठे । (गले में लगावें।) विशेष गंध यंत्र की विधि परिशिष्ट में दी गई है।
।। अथ पूजामुखविधिः।।
(भगवान के अभिषेक और पूजन के पहले मंदिर में प्रवेश से लेकर अभिषेक से पहले तक जो विधि की जाती है उसे पूजामुख विधि कहते हैं और अभिषेक पूजा पूर्ण होने के बाद जो विधि की जाती है उसे पूजा अन्त्य विधि कहते हैं। इन मुख विधि और अन्त्य विधि सहित जो पूजा की जाती है वही श्रावक की सामायिक विधि है।)
-स्रग्धराछंद-
स्नानानुस्नानशुद्धो विधृतसितसुधौतान्तरीयोत्तरीयः। कृत्वोपस्पर्शनादीन्यथ जिनगृहमुद्घाटितश्रीकपाटम्।।
प्राप्य प्रक्षालितांघ्रिर्विहितविविधसंस्कारविभ्राजमानम्।। सानंदः संविशामि त्रिजगदधिपतिश्रीजिनाराधनाय।। 1।।
इति प्रक्षालितपादः सन् श्रीविमानं प्रविशेत् ।। (श्लोक पढ़कर पैर धोकर मंदिर में प्रवेश करें।) स्नान, अनुस्नान करके शुद्ध होकर धुले हुये श्वेत धोती और दुपट्टे पहनें, पुनः उपस्पर्शन आदि करके मंदिर के निकट पहुंच कर मंदिर का दरवाजा खोलें। पैर धोकर जिनमंदिर में प्रवेश करें। यह मंदिर अनेक प्रकार के ध्वजा, चंदोवा आदि से शोभायमान हो रहा है। त्रैलोक्य के नाथ ऐसे जिनेंद्रदेव की आराधना के लिये मैं आनंदपूर्वक मंदिर में प्रवेश करता हूं। अनुष्टुपछंद-चतुर्दिक्षु पृथक्क्लृप्तत्र्यावर्तैकशिरोनतिः । त्रिः परीत्यानतो जैनगेहमन्तर्विशाम्यहम् ।। 2 ।। (जिन मंदिर की तीन प्रदक्षिणा देते हुये प्रत्येक दिशा में तीन – तीन आवर्त और एक – एक शिरोनति करते जावें)
जिनमंदिर स्तुति बसंततिलकाछंद- दृष्टं जिनेन्द्रभवनं भवतापहारि, भव्यात्मनां विभवसंभवभूरिहेतुः ।
दुग्धाब्धिफेनधवलोज्ज्वलकूटकोटि-नद्धध्वजप्रकरराजविराजमानम्।। 3 ।।
क्षीरसमुद्र के फेन के समान धवल उज्ज्वल जिसका शिखर शोभायमान है, जो अनेक ध्वजाओं से शोभित है, जो भव्यजीवों के संसारताप को दूर करने वाला है और उन्हें अनेक प्रकार के वैभव को प्राप्त कराने में हेतु है ऐसे जिनमंदिर का मैं दर्शन करता हूं।
-शार्दूलविक्रीडित-
दृष्टं धाम रसायनस्य महतां, दृष्टं निधीनां पदं । दृष्टं सिद्धरसस्य सद्मसदनं, दृष्टं च चिंतामणेः।
किं दृष्टैरथवानुषंगिकफलै-रेभिर्मयाद्य ध्रुवम्। दृष्टं मुक्तिविवाहमंगलगृहं, दृष्टे जिनश्रीगृहे ।। 4 ।।
-मालिनीछंद-
जयति सुरनरेन्द्रश्रीसुधानिर्झरिण्याः कुलधरणिधरोऽयं जैनचैत्याभिरामः ।।
प्रविपुलफलधर्मानोकहाग्रप्रवाल प्रवरशिखरशुंभत्केतनश्रीनिकेतः ।। 5 ।।
श्रियः पदं जिगमिषतां मनीषिणां तनूभृतामतनुनिमित्तमुत्तमम् ।।
जिनेश्वरप्रतिकृतिपुण्यकेतनप्रदक्षिणीकरणमिदं पुनातु नः ।। 6 ।।
इति त्रिभुवनगुरुभवनं त्रिःपरीत्याभिमुखमुपगतो भगवंतमभिवंदेत ।।
मंदिर में प्रवेश करते समय का मंत्र ॐ ह्रीं हुं हूं णिसिहि स्वाहा।।
इत्यंतः प्रविशेत् ।।
(इस स्तोत्र को पढ़ते हुये मंदिर की तीन प्रदक्षिणा कर मंदिर में प्रवेश के समय यह मंत्र बोलकर प्रवेश करें पुनः भगवान को पंचांग नमस्कार करें।) हाथ धोने का मंत्र शोधये मंत्रपूतेन हस्तौ शस्तेन वारिणा ।। अपहस्तितपंकार्हत्पादपद्मार्चनोद्यतः ।। 7 ।। ॐ हीं असुजर सुजर स्वाहा । हस्तप्रक्षालनमंत्रः।। (श्लोक और मंत्र को पढ़कर दोनों हाथ प्रक्षालित करें।)
ईर्यापथशुद्धिः प्रतिक्रम्य पृथग्गाथां द्विद्व्येकांशांतरेचकां ।। नवकृत्वः स्थितो जप्त्वा निषद्यालोचयाम्यहम् ।। 8 ।।
पडिक्कमामि भंत्ते । इरियावहियाये । विराहणाये । अणागुत्ते । अइगमणे । णिग्गमणे । ठाणे । गमणे। चक्कमणे। पाणुग्गमणे । बीजुग्गमणे। हरिदुग्गमणे। उच्चारपस्सवणखेलसिंघाणवियडिपयिट्ठावणियाये ।। जे जीवा एइंदिया वा । बेइंदिया वा । तेइंदिया वा । चउरिंदिया वा । पंचिंदिया वा । णोल्लिदा वा। पेल्लिदा वा। संघट्टिदा वा । संघादिदा वा । ओद्दाविदा वा । परिदाविदा वा। किरि॰िछदा वा। लेस्सिदा वा । छिंदिदा वा भिंदिदा वा । ठाणदो वा ठाणचंकमणदो वा । तस्स उत्तरगुणं । तस्स पायच्छित्तकरणं । तस्स विसोहिकरणं जाव अरहंताणं । भयवंताणं। णमोकारं करेमि । तावकायं पावकम्मं । दुच्चरियं वोस्सरामि । णमो अरिहंताणमित्यादि जपः। (9 बार णमोकार मंत्र जपें) इच्छामि भंत्ते । इरियावहियस्स आलोयणां । पुव्वुत्तरदक्खिणपच्छिमचउदिसविदिसासु विहरमाणेण जुगुत्तरदिट्ठिणा डबडबचरियाये पमाददोसेण पाणभूदजीवसत्ताणं। एदेसिं उवघादो कदो वा कारिदो वा कीरंतो वा समणुमण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ।।
दृष्टे मृष्टे भुवि न्यस्ते संनिविष्टः सुविष्टरे।। समीपस्थार्चनाद्रव्यो मौनमाकर्मिकं दधे ।। 9 ।।
ॐ क्ष्वीं भूः शुद्ध्यतु स्वाहा । (जमीन पर जल छिड़कें) ॐ ह्रीं क्ष्वीं आसनं निक्षिपामि स्वाहा । (आसन बिछावें) ॐ ह्रीं णिसिहि आसने उपविशामि स्वाहा। (इस मंत्र को बोलकर आसन पर बैठें।) ॐ ह्रीं मौनस्थिताय स्वाहा । इति मौनव्रतं गृह्णीयात् ।। (पूजा के शब्द बोलने के सिवाय अन्य वार्तालाप हेतु मौन रखें)
शोधये सर्वपात्राणि पूजार्थानपि वारिभिः।। समाहितो यथाम्नायं करोमि सकलीक्रियाम् ।। 10 ।।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: नमोऽर्हते श्रीमते पवित्रतरजलेन पात्रशुद्धिं करोमि स्वाहा।
(इस श्लोक व मंत्र को पढ़कर पूजा के पात्रों पर जल छिड़कें।) ॐ ह्रीं अर्हं ह्मममफ वं मं हं सं तं पं झ्वीं क्ष्वीं हं सः असिआउसा समस्ततीर्थपवित्रतरजलेन शुद्धपात्रनिक्षिप्तपूजाद्रव्याणि शोधयामि स्वाहा ।। (सामग्री का शोधन करें अर्थात् जल छिड़कें)
गुरुमुद्राग्रभूः झं वं व्हः पोहोभ्योऽमृतं स्वकैः।। स्रवद्भिः सिच्यमानं स्वं ध्याये मंत्रमिमं पठन् ।। 11 ।।
ॐ अमृते अमृतोद्भवे अमृतवर्षिणि अमृतं स्रावय स्रावय सं सं क्लीं क्लीं ब्लूं ब्लूं द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्रावय सं हं झं क्ष्वीं हं सः स्वाहा । अमृतोक्षणम् ।।
(गुरुमुद्रा पंचगुरुमुद्रा बनाकर उनके अग्रभाग में ‘झं वं व्हः पः हः’ इन बीजाक्षरों को लिखकर वह मुद्रा मस्तक पर रखकर मंत्र पढ़ते हुये चिंतन करें कि इन अक्षरों से अमृत प्रवाह निकलता हुआ मेरे सर्वांग को सिंचित कर रहा है। यही अमृत प्रोक्षण विधि है, मस्तक पर मंत्रित जल भी छिड़कें)
स्वस्तिकाग्रत्रिकोणान्त-र्गतरेफं शिखावृतम् ।। अग्निमंडलमोंकार-गर्भं रक्ताभमास्थितम्।। 12।।
दहामि सप्तधात्वंग-मंगं रेफार्चिषां चयैः ।। सर्वांगदेशगैर्विष्वग्धूयमानैर्नभस्वता ।। 13 ।।
औदारिकदेहदहनध्यानम् ।। (औदारिक देह जल रहा है ऐसा चिंतन करें अथवा रकेबी में कपूर जलाकर सामने रखें।) शरीर को त्रिकोणाकार समझें अर्थात् पद्मासन से बैठकर त्रिकोणाकार में स्वस्तिक पर बनावें और त्रिकोणाकार को रं रं रं से वेष्टित करें यह अग्निमंडल लाल बन गया है। इन रेफ समूह से मैं सातधातुमयी शरीर को जला रहा हूँ। दग्धायमान अग्नि समूह से मेरा औदारिक शरीर जल रहा है ऐसा चिंतन करें।। 1314।।
नाभिस्थसस्वरद्वष्ट-पत्राब्जांतरर्हं रतः। दहेच्छिखौघैरुद्यद्भि-रष्टकर्ममयं वपुः ।। 14 ।।
कार्मणदेहदहनम् ।। (कार्मण शरीर जल रहा है) नाभि में स्थित सोलहदल वाले कमल में 16 स्वर लिखे हैं और कर्णिका में ‘र्’ बीजाक्षर लिखा है ‘इस ‘‘र्’’ से अग्नि निकलकर हृदय में स्थित आठ पांखुड़ी के ऊपर लिखित आठ कर्मों को जला रही है ऐसा चिंतन करें।। 15 ।। (यह आग्नेयी धारणा है)
वृत्तात्सबिंदोर्दिक्कोणस्वायाद्गोमूत्रिकाकृतेः।। कृष्णाद्वायुपुराज्जातैः प्रेरयद्भस्म वायुभिः ।। 15 ।।
भस्मापसारणं ।। (तीव्र हवा से भस्म दूर हो रही है ऐसा चिंतन करें) गोल, बिंदुसहित, गोमूत्रसदृश वक्र, कृष्ण वायुमंडल से उत्पन्न हुई वायु मेरे शरीर पर लगी कर्मभस्म को उड़ा रही है इसमें ‘स्वाय स्वाय’ लिखा है ऐसा चिंतन करें ।। 16 ।। यह श्वसना या वायवी धारणा है।
व्योमव्यापिघनासारैः स्वमाप्लाव्यामृतस्रुतम्।। खेहं ध्यायन्सृजाम्यंगममृतैरन्यदिन्दुवत् ।। 16 ।।
अमृतप्लावनममृतमयदेहकरणं च । (अमृत में स्नान कर शरीर अमृतमय हो गया है) तदनंतर आकाश को व्याप्त करके मेघ से जलवृष्टि हो रही है और उसमें मैं भीग रहा हूँ, मेरे ऊपर अमृत का सिंचन हो रहा है और इस अमृत से चंद्रसमान उज्ज्वल मेरी आत्मा निर्मल हो रही है ऐसा चिंतन करें। यह वारुणी जल धारणा है।
अंगन्यास विधि हस्तद्वये कनीयस्याद्यंगुलीनां यथाक्रमम्। मूले रेखात्रयस्योध्र्वमग्रे च युगपत्सुधीः।।17।।
न्यस्योंमादिहोमाढ्यान्नमस्कारान्करौ मिथः। संयुज्यांगुष्टयुग्मेन स्वांगेषु द्विन्र्यसामि तान्।।18।।
अंगुलियों में मंत्र न्यास करना दोनों हाथों की कनिष्ठा आदि अंगुलियों पर मूलभाग से लेकर अग्रभाग पर्यंत तीनों रेखाओं पर क्रम से मंत्र लिखें-
कनिष्ठा पर ॐ ह्रां णमो अरिहंताणं स्वाहा। अनामिका पर ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं स्वाहा। मध्यमा पर ॐ ह्रूं णमो आइरियाणं स्वाहा। तर्जनी पर ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं स्वाहा। अंगूठे पर ॐ ह्र: णमो लोए सव्वसाहूणं स्वाहा।
इन मंत्रों को चंदन से लिखकर पुनः उपर्युक्त श्लोक बोलते हुये दोनों हाथ मिलावें। (मंत्र लिखित दोनों हाथो को मिलाकर दोनो अंगूठे ऊपर करके उनसे आगे कथित मंत्र बोलते हुये उन उन स्थानों का स्पर्श करें।)
ॐ ह्रां णमो अरिहंताणं स्वाहा । दिये ।। (दोनों अंगूठों से हृदय का स्पर्श करें) ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं स्वाहा । ललाटे ।। (ललाट का स्पर्श करें) ॐ ह्रूं णमो आइरियाणं स्वाहा । शिरसो दक्षिणे ।। (शिर के दाहिने भाग का स्पर्श करें) ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं स्वाहा । पश्चिमे ।। (शिर के पश्चिम भाग का स्पर्श करें) ॐ ह्र: णमो लोए सव्वसाहूणं स्वाहा। उत्तरे ।। (शिर के उत्तर बायीं तरफ स्पर्श करें)
पुनः इन्हीं मंत्रों को बोलते हुये क्रम से स्पर्श करें। पुनस्तानेव मंत्रान् शिरःप्राग्भागे शिरसो दक्षिणे पश्चिमे उत्तरे च क्रमेण विन्यसेत् ।
ॐ हां णमो अरिहंताणं स्वाहा। (शिर के पूर्व ललाट का स्पर्श करें) ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं स्वाहा। (शिर के मध्य का स्पर्श करें) ॐ ह्रूं णमो आइरियाणं स्वाहा। (शिर के दायें भाग का स्पर्श करें) ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं स्वाहा। (शिर के पीछे भाग का स्पर्श करे) ॐ ह्र: णमो लोए सव्वसाहूणं स्वाहा। (शिर के बायें भाग का स्पर्श करें)
तथा वामप्रदेशिन्यां न्यस्य पंचनमस्कृतीः।। पूर्वादिदिक्षु रक्षार्थं दशस्वपि निवेशयेत्।। 19 ।।
वामप्रदेशिन्यग्रे पंचनमस्कारतया (बायें हाथ की तर्जनी अंगुली में ‘‘अ सि आ उ सा’’ लिखकर उसे सीधी करके नीचे लिखे मंत्रों से क्रमशः उन-उन दिशाओं को दिखाता जावे।)
ॐ ह्रां णमो अरिहंताणं । पूर्वस्यां दिशि ।। ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं । आग्नेयां दिशि ।। ॐ ह्रूं णमो आइरियाणं । दक्षिणस्यां दिशि ।। ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं । नैऋत्यां दिशि ।। ॐ ह्र: णमो लोए सव्वसाहूणं । पश्चिमायां दिशि ।। ॐ ह्रां णमो अरिहंताणं । वायव्यां दिशि ।। ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं । उत्तरस्यां दिशि ।। ॐ ह्रूं णमो आइरियाणं । ऐशान्यां दिशि ।। ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं । अधरस्यां दिशि ।। ॐ ह्र: णमो लोए सव्वसाहूणं । ऊर्ध्वायां दिशि ।।
इन दशों दिशाओं में अंगुली दिखाते हुये मंत्र बोलते हुये दश दिशाओं का बंधन करें।
दृष्टे मृष्टे भुवि न्यस्ते संनिविष्टः सुविष्टरे।। समीपस्थार्चनाद्रव्यो मौनमाकर्मिकं दधे ।। 9 ।। ॐ क्ष्वीं भूः शुद्ध्यतु स्वाहा । (जमीन पर जल छिड़कें) ॐ ह्रीं क्ष्वीं आसनं निक्षिपामि स्वाहा । (आसन बिछावें) ॐ ह्रीं णिसिहि आसने उपविशामि स्वाहा। (इस मंत्र को बोलकर आसन पर बैठें।) ॐ ह्रीं मौनस्थिताय स्वाहा । इति मौनव्रतं गृह्णीयात् ।। (पूजा के शब्द बोलने के सिवाय अन्य वार्तालाप हेतु मौन रखें) शोधये सर्वपात्राणि पूजार्थानपि वारिभिः।। समाहितो यथाम्नायं करोमि सकलीक्रियाम् ।। 10 ।। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: नमोऽर्हते श्रीमते पवित्रतरजलेन पात्रशुद्धिं करोमि स्वाहा। (इस श्लोक व मंत्र को पढ़कर पूजा के पात्रों पर जल छिड़कें।) ॐ हीं अर्हं ह्मममफ वं मं हं सं तं पं झ्वीं क्ष्वीं हं सः असिआउसा समस्ततीर्थपवित्रतरजलेन शुद्धपात्रनिक्षिप्तपूजाद्रव्याणि शोधयामि स्वाहा ।। (सामग्री का शोधन करें अर्थात् जल छिड़कें)
गुरुमुद्राग्रभूः झं वं व्हः पोहोभ्योऽमृतं स्वकैः।। स्रवद्भिः सिच्यमानं स्वं ध्याये मंत्रमिमं पठन् ।। 11 ।।
ॐ अमृते अमृतोद्भवे अमृतवर्षिणि अमृतं स्रावय स्रावय सं सं क्लीं क्लीं ब्लूं ब्लूं द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्रावय सं हं झं क्ष्वीं हं सः स्वाहा । अमृतोक्षणम् ।। (गुरुमुद्रा पंचगुरुमुद्रा बनाकर उनके अग्रभाग में ‘झं वं व्हः पः हः’ इन बीजाक्षरों को लिखकर वह मुद्रा मस्तक पर रखकर मंत्र पढ़ते हुये चिंतन करें कि इन अक्षरों से अमृत प्रवाह निकलता हुआ मेरे सर्वांग को सिंचित कर रहा है। यही अमृत प्रोक्षण विधि है, मस्तक पर मंत्रित जल भी छिड़कें)
स्वस्तिकाग्रत्रिकोणान्त-र्गतरेफं शिखावृतम् ।। अग्निमंडलमोंकार-गर्भं रक्ताभमास्थितम्।। 12।।
दहामि सप्तधात्वंग-मंगं रेफार्चिषां चयैः ।। सर्वांगदेशगैर्विष्वग्धूयमानैर्नभस्वता ।। 13 ।।
औदारिकदेहदहनध्यानम् ।। (औदारिक देह जल रहा है ऐसा चिंतन करें अथवा रकेबी में कपूर जलाकर सामने रखें।) शरीर को त्रिकोणाकार समझें अर्थात् पद्मासन से बैठकर त्रिकोणाकार में स्वस्तिक पर बनावें और त्रिकोणाकार को रं रं रं से वेष्टित करें यह अग्निमंडल लाल बन गया है। इन रेफ समूह से मैं सातधातुमयी शरीर को जला रहा हूँ। दग्धायमान अग्नि समूह से मेरा औदारिक शरीर जल रहा है ऐसा चिंतन करें।। 1314।।
नाभिस्थसस्वरद्वष्ट-पत्राब्जांतरर्हं रतः। दहेच्छिखौघैरुद्यद्भि-रष्टकर्ममयं वपुः ।। 14 ।।
कार्मणदेहदहनम् ।। (कार्मण शरीर जल रहा है) नाभि में स्थित सोलहदल वाले कमल में 16 स्वर लिखे हैं और कर्णिका में ‘र्’ बीजाक्षर लिखा है ‘इस ‘‘र्’’ से अग्नि निकलकर हृदय में स्थित आठ पांखुड़ी के ऊपर लिखित आठ कर्मों को जला रही है ऐसा चिंतन करें।। 15 ।। (यह आग्नेयी धारणा है)
वृत्तात्सबिंदोर्दिक्कोणस्वायाद्गोमूत्रिकाकृतेः।। कृष्णाद्वायुपुराज्जातैः प्रेरयद्भस्म वायुभिः ।। 15 ।।
भस्मापसारणं ।। (तीव्र हवा से भस्म दूर हो रही है ऐसा चिंतन करें) गोल, बिंदुसहित, गोमूत्रसदृश वक्र, कृष्ण वायुमंडल से उत्पन्न हुई वायु मेरे शरीर पर लगी कर्मभस्म को उड़ा रही है इसमें ‘स्वाय स्वाय’ लिखा है ऐसा चिंतन करें ।। 16 ।। यह श्वसना या वायवी धारणा है।
व्योमव्यापिघनासारैः स्वमाप्लाव्यामृतस्रुतम्।। खेहं ध्यायन्सृजाम्यंगममृतैरन्यदिन्दुवत् ।। 16 ।।
अमृतप्लावनममृतमयदेहकरणं च । (अमृत में स्नान कर शरीर अमृतमय हो गया है) तदनंतर आकाश को व्याप्त करके मेघ से जलवृष्टि हो रही है और उसमें मैं भीग रहा हूँ, मेरे ऊपर अमृत का सिंचन हो रहा है और इस अमृत से चंद्रसमान उज्ज्वल मेरी आत्मा निर्मल हो रही है ऐसा चिंतन करें। यह वारुणी जल धारणा है। ==
हस्तद्वये कनीयस्याद्यंगुलीनां यथाक्रमम्। मूले रेखात्रयस्योध्र्वमग्रे च युगपत्सुधीः।।17।।
न्यस्योंमादिहोमाढ्यान्नमस्कारान्करौ मिथः। संयुज्यांगुष्टयुग्मेन स्वांगेषु द्विन्र्यसामि तान्।।18।।
अंगुलियों में मंत्र न्यास करनाµ दोनों हाथों की कनिष्ठा आदि अंगुलियों पर मूलभाग से लेकर अग्रभाग पर्यंत तीनों रेखाओं पर क्रम से मंत्र लिखें-
कनिष्ठा पर ॐ ह्रां णमो अरिहंताणं स्वाहा। अनामिका पर ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं स्वाहा। मध्यमा पर ॐ ह्रूं णमो आइरियाणं स्वाहा। तर्जनी पर ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं स्वाहा। अंगूठे पर ॐ ह्र: णमो लोए सव्वसाहूणं स्वाहा।
इन मंत्रों को चंदन से लिखकर पुनः उपर्युक्त श्लोक बोलते हुये दोनों हाथ मिलावें। (मंत्र लिखित दोनों हाथो को मिलाकर दोनो अंगूठे ऊपर करके उनसे आगे कथित मंत्र बोलते हुये उन उन स्थानों का स्पर्श करें।)
ॐ ह्रां णमो अरिहंताणं स्वाहा । हृदये ।। (दोनों अंगूठों से हृदय का स्पर्श करें) ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं स्वाहा । ललाटे ।। (ललाट का स्पर्श करें) ॐ ह्रूं णमो आइरियाणं स्वाहा । शिरसो दक्षिणे ।। (शिर के दाहिने भाग का स्पर्श करें) ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं स्वाहा । पश्चिमे ।। (शिर के पश्चिम भाग का स्पर्श करें) ॐ ह्र: णमो लोए सव्वसाहूणं स्वाहा। उत्तरे ।। (शिर के उत्तर बायीं तरफ स्पर्श करें)
पुनः इन्हीं मंत्रों को बोलते हुये क्रम से स्पर्श करें। पुनस्तानेव मंत्रान् शिरःप्राग्भागे शिरसो दक्षिणे पश्चिमे उत्तरे च क्रमेण विन्यसेत् ।
ॐ हां णमो अरिहंताणं स्वाहा। (शिर के पूर्व ललाट का स्पर्श करें) ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं स्वाहा। (शिर के मध्य का स्पर्श करें) ॐ ह्रूं णमो आइरियाणं स्वाहा। (शिर के दायें भाग का स्पर्श करें) ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं स्वाहा। (शिर के पीछे भाग का स्पर्श करे) ॐ ह्र: णमो लोए सव्वसाहूणं स्वाहा। (शिर के बायें भाग का स्पर्श करें)
(इस तरह सकलीकरण से अपने शरीर को कवच पहनाकर संपूर्ण इष्ट पूजादि मंत्रादि क्रियाओं को करते हुये पूजक किसी भी विघ्न से बाधित नहीं होता है।) वर्मितोऽनेन सकलीकरणेन महामनाः ।। कुर्वन्निष्टानि कर्माणि केनापि न विहन्यते ।। पुनः आगे के मंत्र को सात बार बोलकर पुष्पाक्षतों को मंत्रित कर सभी पूजक आदि के मस्तक पर क्षेपण करें।
ॐ नमोऽर्हते सर्वं रक्ष रक्ष हूं फट् स्वाहा ।
अनेन पुष्पाक्षतान् सप्तवारान् प्रजप्य परिचारकाणां शीर्षेषु प्रक्षिपेत् ।। इति परिचारकरक्षा ।।
ॐ हूं फट् किरटिं घातय घातय परविघ्नान् स्फोटय स्फोटय सहस्रखंडान् कुरु कुरु आत्मविद्यां रक्ष रक्ष परविद्यां छिंद छिंद परमंत्रान् भिंद भिंद क्षः फट् स्वाहा।। अनेन सिद्धार्थानभिमंत्र्य सर्वविघ्नोपशमनार्थं सर्वदिक्षु क्षिपेत्।।
(पुनः ॐ हूं फट् . . . इत्यादि मंत्र से पीली या सफेद सरसों मंत्रित कर सर्वविघ्न दूर करने के लिए सर्वत्र क्षेपण करें।) ।। इति सकलीकरणविधानम् ।। (यह सकलीकरणविधान पूर्ण हुआ।) ==
दृष्टे मृष्टे भुवि न्यस्ते संनिविष्टः सुविष्टरे।। समीपस्थार्चनाद्रव्यो मौनमाकर्मिकं दधे ।। 9 ।।
ॐ क्ष्वीं भूः शुद्ध्यतु स्वाहा । (जमीन पर जल छिड़कें) ॐ ह्रीं क्ष्वीं आसनं निक्षिपामि स्वाहा । (आसन बिछावें) ॐ ह्रीं णिसिहि आसने उपविशामि स्वाहा। (इस मंत्र को बोलकर आसन पर बैठें।) ॐ ह्रीं मौनस्थिताय स्वाहा । इति मौनव्रतं गृह्णीयात् ।। (पूजा के शब्द बोलने के सिवाय अन्य वार्तालाप हेतु मौन रखें) शोधये सर्वपात्राणि पूजार्थानपि वारिभिः।। समाहितो यथाम्नायं करोमि सकलीक्रियाम् ।। 10 ।। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: नमोऽर्हते श्रीमते पवित्रतरजलेन पात्रशुद्धिं करोमि स्वाहा।
(इस श्लोक व मंत्र को पढ़कर पूजा के पात्रों पर जल छिड़कें।)
ॐ ह्रीं अर्हं ह्मममफ वं मं हं सं तं पं झ्वीं क्ष्वीं हं सः असिआउसा समस्ततीर्थपवित्रतरजलेन शुद्धपात्रनिक्षिप्तपूजाद्रव्याणि शोधयामि स्वाहा ।। (सामग्री का शोधन करें अर्थात् जल छिड़कें) गुरुमुद्राग्रभूः झं वं व्हः पोहोभ्योऽमृतं स्वकैः।। स्रवद्भिः सिच्यमानं स्वं ध्याये मंत्रमिमं पठन् ।। 11 ।।
ॐ अमृते अमृतोद्भवे अमृतवर्षिणि अमृतं स्रावय स्रावय सं सं क्लीं क्लीं ब्लूं ब्लूं द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्रावय सं हं झं क्ष्वीं हं सः स्वाहा । अमृतोक्षणम् ।। (गुरुमुद्रा पंचगुरुमुद्रा बनाकर उनके अग्रभाग में ‘झं वं व्हः पः हः’ इन बीजाक्षरों को लिखकर वह मुद्रा मस्तक पर रखकर मंत्र पढ़ते हुये चिंतन करें कि इन अक्षरों से अमृत प्रवाह निकलता हुआ मेरे सर्वांग को सिंचित कर रहा है। यही अमृत प्रोक्षण विधि है, मस्तक पर मंत्रित जल भी छिड़कें)
स्वस्तिकाग्रत्रिकोणान्त-र्गतरेफं शिखावृतम् ।। अग्निमंडलमोंकार-गर्भं रक्ताभमास्थितम्।। 12।।
दहामि सप्तधात्वंग-मंगं रेफार्चिषां चयैः ।। सर्वांगदेशगैर्विष्वग्धूयमानैर्नभस्वता ।। 13 ।।
औदारिकदेहदहनध्यानम् ।। (औदारिक देह जल रहा है ऐसा चिंतन करें अथवा रकेबी में कपूर जलाकर सामने रखें।) शरीर को त्रिकोणाकार समझें अर्थात् पद्मासन से बैठकर त्रिकोणाकार में स्वस्तिक पर बनावें और त्रिकोणाकार को रं रं रं से वेष्टित करें यह अग्निमंडल लाल बन गया है। इन रेफ समूह से मैं सातधातुमयी शरीर को जला रहा हूँ। दग्धायमान अग्नि समूह से मेरा औदारिक शरीर जल रहा है ऐसा चिंतन करें।। 1314।।
नाभिस्थसस्वरद्वष्ट-पत्राब्जांतरर्हं रतः। दहेच्छिखौघैरुद्यद्भि-रष्टकर्ममयं वपुः ।। 14 ।।
कार्मणदेहदहनम् ।। (कार्मण शरीर जल रहा है) नाभि में स्थित सोलहदल वाले कमल में 16 स्वर लिखे हैं और कर्णिका में ‘र्’ बीजाक्षर लिखा है ‘इस ‘‘र्’’ से अग्नि निकलकर हृदय में स्थित आठ पांखुड़ी के ऊपर लिखित आठ कर्मों को जला रही है ऐसा चिंतन करें।। 15 ।। (यह आग्नेयी धारणा है)
वृत्तात्सबिंदोर्दिक्कोणस्वायाद्गोमूत्रिकाकृतेः।। कृष्णाद्वायुपुराज्जातैः प्रेरयद्भस्म वायुभिः ।। 15 ।।
भस्मापसारणं ।। (तीव्र हवा से भस्म दूर हो रही है ऐसा चिंतन करें) गोल, बिंदुसहित, गोमूत्रसदृश वक्र, कृष्ण वायुमंडल से उत्पन्न हुई वायु मेरे शरीर पर लगी कर्मभस्म को उड़ा रही है इसमें ‘स्वाय स्वाय’ लिखा है ऐसा चिंतन करें ।। 16 ।। यह श्वसना या वायवी धारणा है।
व्योमव्यापिघनासारैः स्वमाप्लाव्यामृतस्रुतम्।। खेहं ध्यायन्सृजाम्यंगममृतैरन्यदिन्दुवत् ।। 16 ।।
अमृतप्लावनममृतमयदेहकरणं च । (अमृत में स्नान कर शरीर अमृतमय हो गया है) तदनंतर आकाश को व्याप्त करके मेघ से जलवृष्टि हो रही है और उसमें मैं भीग रहा हूँ, मेरे ऊपर अमृत का सिंचन हो रहा है और इस अमृत से चंद्रसमान उज्ज्वल मेरी आत्मा निर्मल हो रही है ऐसा चिंतन करें। यह वारुणी जल धारणा है।
अंगन्यास विधि हस्तद्वये कनीयस्याद्यंगुलीनां यथाक्रमम्। मूले रेखात्रयस्योध्र्वमग्रे च युगपत्सुधीः।।17।।
न्यस्योंमादिहोमाढ्यान्नमस्कारान्करौ मिथः। संयुज्यांगुष्टयुग्मेन स्वांगेषु द्विन्र्यसामि तान्।।18।।
अंगुलियों में मंत्र न्यास करना दोनों हाथों की कनिष्ठा आदि अंगुलियों पर मूलभाग से लेकर अग्रभाग पर्यंत तीनों रेखाओं पर क्रम से मंत्र लिखें-
कनिष्ठा पर ॐ ह्रां णमो अरिहंताणं स्वाहा। अनामिका पर ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं स्वाहा। मध्यमा पर ॐ ह्रूं णमो आइरियाणं स्वाहा। तर्जनी पर ॐ ह्रौंणमो उवज्झायाणं स्वाहा। अंगूठे पर ॐ ह: णमो लोए सव्वसाहूणं स्वाहा।
इन मंत्रों को चंदन से लिखकर पुनः उपर्युक्त श्लोक बोलते हुये दोनों हाथ मिलावें। (मंत्र लिखित दोनों हाथो को मिलाकर दोनो अंगूठे ऊपर करके उनसे आगे कथित मंत्र बोलते हुये उन उन स्थानों का स्पर्श करें।)
ॐ ह्रां णमो अरिहंताणं स्वाहा । दिये ।। (दोनों अंगूठों से हृदय का स्पर्श करें) ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं स्वाहा । ललाटे ।। (ललाट का स्पर्श करें) ॐ ह्रूं णमो आइरियाणं स्वाहा । शिरसो दक्षिणे ।। (शिर के दाहिने भाग का स्पर्श करें) ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं स्वाहा । पश्चिमे ।। (शिर के पश्चिम भाग का स्पर्श करें) ॐ ह: णमो लोए सव्वसाहूणं स्वाहा। उत्तरे ।। (शिर के उत्तर बायीं तरफ स्पर्श करें)
पुनः इन्हीं मंत्रों को बोलते हुये क्रम से स्पर्श करें। पुनस्तानेव मंत्रान् शिरःप्राग्भागे शिरसो दक्षिणे पश्चिमे उत्तरे च क्रमेण विन्यसेत् ।
ॐ ह्रां णमो अरिहंताणं स्वाहा। (शिर के पूर्व ललाट का स्पर्श करें) ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं स्वाहा। (शिर के मध्य का स्पर्श करें) ॐ ह्रूं णमो आइरियाणं स्वाहा। (शिर के दायें भाग का स्पर्श करें) ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं स्वाहा। (शिर के पीछे भाग का स्पर्श करे) ॐ ह्र: णमो लोए सव्वसाहूणं स्वाहा। (शिर के बायें भाग का स्पर्श करें)
उद्घाट्य वदनवस्त्रं प्रवंद्य परमेष्ठिनं च मुखवस्त्रम् ।।
उत्सारयामि पुरतः सति सत्तौर्यत्रिकारंभे ।।
विधियज्ञप्रतिज्ञापनाय पुष्पांजलिः ।।
(पुष्पांजलि क्षेपण करें)
-पृथ्वीछंद-
कनत्कनकघंटिकं विमलचीनपट्टोज्ज्वलम्। बहुप्रकटवर्णकैः कुशलशिल्पिभिर्निर्मितम्।।
जिनेन्द्रचरणाम्बुजद्वयसमर्चनार्थं मया । समस्तदुरितापहृद्वदनवस्त्रमुद्घाट्यते ।। 1 ।।
वदनवस्त्रोद्घाटनमंत्रः ।। (वेदी के सामने का वस्त्र हटा देवें) जिनेंद्रदेवस्तुति –
-वसंततिलका-छंद-
अद्याभवत्सफलता नयनद्वयस्य । देव ! त्वदीयचरणांबुजवीक्षणेन ।।
अद्य त्रिलोकतिलक ! प्रतिभासते मे। संसारवारिधिरयं चुलुकप्रमाणं ।। 2 ।।
अनुष्टुपछंद- अद्य मे सफलं जन्म, नेत्रे च विमले मम । त्वामद्राक्षं यतो देव !, हेतुमक्षयसंपदः ।। 3।।
अद्य संसारगंभीर-पारावारः सुदुस्तरः । सुतरोऽयं क्षणेनैव, जिनेन्द्र ! तव दर्शनात् ।। 4 ।।
-वंशस्थछंद-
समस्तवस्तुप्रतिभासमूर्तये । जगत्त्रयानंदनिकेतकीर्तये ।। जिनाय सर्वेप्सितकामधेनवे। नमस्तमोध्वंसविधानभानवे ।। 5 ।।
-वसंततिलकाछंद-
देवाधिदेव परमेश्वर वीतराग । सर्वज्ञ तीर्थकर सिद्ध महानुभाव ।।
त्रैलोक्यनाथ जिनपुंगव वद्र्धमान । स्वामिन्गतोऽस्मि शरणं चरणद्वयं ते ।। 6 ।।
इति भगवंतमभिवीक्ष्य वंदेत् ।। (भगवान का मुखकमल देखते हुए नमस्कार करें)
-वसंततिलका- नानाभवप्रभवदुःसहघोरदुःख, संतानदुस्तरमहोदधिपारगत्यै ।।
द्रष्टुं जिनेन्द्रवदनं बहुवर्णपूर्ण-मुद्घाटयामि मुखवस्त्रमनेकवस्त्रम् ।। 7।। ।।
इति मुखवस्त्रमुद्घाटयेत् ।।
–शार्दूलविक्रीडित-
आवेद्यासनतः क्रियां प्रणमनं, पश्चाद्विधेया स्थिति-स् यावत्र्येकशिरोनतिः प्रथमतः, साम्यं तदन्तेऽपि च ।।
कायोत्सर्गविधिर्नतिः स्तवनमायोज्यं च तत्साम्यवत्। कार्या भक्तिरभीप्सिताप्यवसितावालोचनाप्यासनात्।। 8 ।।
-अनुष्टुप्छंद-
इति लक्षणतः कृत्वा सिद्धभक्तिमनाकुलः । प्रतोष्ये जिननाथस्य विधिना स्नपनक्रियाम् ।। 9 ।।
(पहले सामायिक स्वीकार कर पूजा क्रिया की प्रतिज्ञा करके नमस्कार करें पुनः तीन आवर्त एक शिरोनति करके णमोकार मंत्र, चत्तारिमंगलादि सामायिक दण्डक पढ़कर तीन आवर्त एक शिरोनति करके 9 बार णमोकार मंत्र जपकर पुनः नमस्कार करें। अनंतर तीन आवर्त एक शिरोनति करके थोस्सामि स्तव पढ़कर पुनः तीन आवर्त एक शिरोनति करें। अनंतर सिद्ध भक्ति पढ़ें। यह विधि आगे दी गई है। तदनंतर अभिषेक विधि करें।)
अथ कृत्यविज्ञापना भगवन्नमोऽस्तु ते एषोऽहं जिनेंद्रपूजावंदनां कुर्याम् ।
अथ सामायिकस्वीकारः
-अनुष्टुपछंद-
जयंति दूरमुन्मुक्तगमागमपरिश्रमाः। संसारविवरोत्तारतीर्थभूता जिनक्रमाः ।। 10 ।।
नमोऽस्तु धूतपापेभ्यः सिद्धेभ्यः ऋषिपरिषदे ।। सामायिकं प्रपद्येऽहं भवभ्रमणसूदनम् ।। 11 ।।
साम्यं मे सर्वभूतेषु वैरं मम न केनचित् ।। आशाः सर्वाः परित्यज्य समाधिमहमाश्रये ।। 12 ।।
अथ कृत्यविज्ञापना । नमोऽस्तु प्रसीदन्तु प्रभुपादा वंदिष्येऽहं । एषोऽहं तावच्च सर्वसावद्ययोगविरतोऽस्मीति ।। अथ जिनेन्द्रपूजावंदनायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं श्रीमत्सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं। णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं।। चत्तारि मंगलं-अरिहंत मंगलं । सिद्ध मंगलं। साहु मंगलं । केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं ।। चत्तारि लोगुत्तमा-अरिहंत लोगुत्तमा। सिद्ध लोगुत्तमा । साहु लोगुत्तमा । केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा। चत्तारि सरणं पव्वज्जामि- अरिहंत सरणं पव्वज्जामि । सिद्धसरणं पव्वज्जामि । साहु सरणं पव्वज्जामि । केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि।। जाव अरहंताणं । भयवंताणं । पज्जुवासं करेमि । तावकायं पावकम्मं दुच्चरियं वोस्सरामि । (यहाँ 9 बार णमोकार मंत्र का जाप्य करें। ) थोस्सामिस्तव आर्याछंद-थोस्सामि हं जिणवरे तित्थयरे केवली अणंतजिणे । णरपवरलोयमहिये विहुयरयमले महप्पण्णे ।।1।। लोयस्सुज्जोययरे धम्मं तित्थंकरे जिणे वंदे । अरहंते कित्तिस्से चउवीसं चेव केवलिणो ।।2।। अथवा चउवीसं तित्थयरे उसहाई वीरपच्छिमे वंदे । सव्वे सगणगणहरे सिद्धे सिरसा णमंसामि ।।1।। लघु सिद्धभक्ति तवसिद्धे णयसिद्धे संजमसिद्धे चरित्तसिद्धे य । णाणह्मि दंसणह्मि य, सिद्धे सिरसा णमंसामि ।। इच्छामि भंते । सिद्धभत्तिकाउस्सग्गो कओ तस्स आलोचेउं । सम्मणाणसम्मदंसणसम्मचारित्तजुत्ताणं । अट्ठविहकम्मविप्पमुक्काणं अट्ठगुणसंपण्णाणं । उड्ढलोयमत्थयह्मि पयिट्ठियाणं तवसिद्धाणं, णयसिद्धाणं, संजमसिद्धाणं, चरित्तसिद्धाणं अतीदाणागदवट्टमाणकालत्तय सिद्धाणं सव्वसिद्धाणं णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं।। ।। पुष्पांजलिः।। इति पूजामुखविधिः यह पूजामुख विधि पूर्ण हुई।
।। अथ नित्यमहः।।
पंचामृत अभिषेक पाठ (पंचामृताभिषेक पाठ सहित नित्यपूजा विधि)
शार्दूलविक्रीडित- श्रीमत्पंचमवार्धिनिर्मलपयःपूरैः सुधासंन्निभैः । यज्जन्माभिषवं सुराद्रिशिखरे सर्वे सुराश्चक्रिरे ।
त्रैलोक्यैकमहापतेर्जिनपतेस्तस्याभिषेकोत्सवं। कर्तं भव्यमलोपलेपविलयं प्राज्ञैः स्तुतं प्रस्तुवे ।।1।।
(अमृततुल्य ऐसे क्षीरसमुद्र के जल से देवों ने मेरुपर्वत पर तीन लोक के नाथ ऐसे जिनेंद्रदेव का जन्माभिषेक किया है, वह अभिषेकोत्सव मैं करना प्रारंभ करता हूं। यह अभिषेकोत्सव भव्यों के पापमल को दूर करेगा। उपर्युक्त श्लोक पढ़कर आगे का मंत्र बोलकर पुष्पांजलि क्षेपण करें।) ॐ ह्रीं श्रीं क्षीं भूः स्वाहा । इति पुष्पांजलिं कुर्यात् ।
-उपजातिछंद-विहारकाले जगदीश्वराणा-मवाप्तसेवार्थकृतापदान ।। हुत्वार्चितो वायुकुमारदेव ! त्वं वायुना शोधय यागभूमिम् ।।2।। (तीर्थंकरों के विहार के समय भगवान की सेवा करके तुमने जो अपनी शक्ति प्रगट की है इसलिये मैंने तुम्हें बुलाकर तुम्हारी पूजा की है। तुम वायु से इस यज्ञभूमि को शुद्ध करो।)
ॐ हीं वायुकुमाराय सर्वविघ्नविनाशनाय महीं पूतां कुरु कुरु हूं फट् स्वाहा । षड्दर्भपूलेन भूमिं सम्मार्जयेत् ।।
(षड्दर्भ पूले से भूमि को संमार्जित करें)
-उपजातिछंद-
विहारकाले जगदीश्वराणा-मवाप्तसेवार्थकृतापदान ।। हुत्वार्चितो मेघकुमारदेव! त्वं वारिणा शोधय यागभूमिम्।।3।।
ॐ ह्रीं क्षीं भूः शुद्ध्यतु स्वाहा । षड्दर्भपूलोपात्तजलेन भूमिं सिंचेत् । (डाभ के पूले से जल लेकर भूमि पर छिड़कें)
गर्भान्वयादौ महितद्विजेन्द्रैर्निर्वाणपूजासु कृतापदान ।। हुत्वार्चितो वन्हिकुमारदेव! त्वं ज्वालया शोधय यागभूमिम् ।।4।।
(गर्भान्वय आदि में द्विजोंµविधानाचार्यों ने जिसकी पूजा की है तीर्थंकरादि के निर्वाण कल्याणक में जिसकी पूजा की गई है। ऐसे हे अग्निकुमार देव! तुम ज्वाला से यज्ञभूमि को शुद्ध करो।) ॐ ह्रीं क्षीं अग्निं प्रज्वालयामि निर्मलाय स्वाहा । षड्दर्भपूलानलेन भूमिं ज्वालयेत् । (डाभ के पूले से अग्नि जलाकर भूमि पर रख दें)
तुष्टा अमी षष्टिसहस्रनागा भवंत्ववार्या भुवि कामचाराः ।। यज्ञावनीशानदिशाप्रदत्तसुधोपमानांजलिपूर्णवार्भिः ।। 5 ।।
ॐ ह्रीं श्रीं क्षीं भूः षष्टिसहस्रसंख्येभ्यो नागेभ्यः स्वाहा । इति नागतर्पणार्थमैशान्यां दिशि जलांजलिं क्षिपेत् । (नागसंतर्पण के लिये ईशान दिशा में जलांजलि देवे)
ब्रह्मप्रदेशे निदधामि पूर्वं पूर्वादिकाष्ठासु पुनः क्रमेण ।। दर्भं जगद्गर्भजिनेन्द्रयज्ञविघ्नौघविध्वंसकृते समंत्रम् ।।6।।
ॐ दर्पमथनाय नमः । इति ब्रह्मस्थानादिषु दर्भखंडानवस्थापयेत् । (इन मंत्रों से ब्रह्मस्थान आदि में दर्भ स्थापित करें)
श्वेतं पूतं सांतरीयोत्तरीयं धृत्वा नव्यं धारयेऽहं पवित्रम् ।। आलेप्याद्र्रं चंदनं सर्वगात्रे सारं पुष्पं धारये चोत्तमांगे ।। 7 ।।
ॐ ह्रीं श्वेतवर्णे सर्वोपद्रवहारिणी सर्वजनमनोरंजिनी परिधानोत्तरीये धारिणोऽहं झं झं वं वं सं सं तं तं पं पं परिधानोत्तरीये धारयामि स्वाहा ।। वस्त्रावरणम् (धोती-दुपट्टे पर जल छिड़कें)। ॐ ह्रीं परमपवित्राय नमः। पवित्रधारणम् (पवित्र या अंगूठी को चंदन लगावें)। श्रीचंदनानुलेपनं स्रग्धारणं च ।। (चंदन लगावे और माला पहनें) भावश्रुतोपासकदिव्यसूत्रं द्रव्यं च सूत्रं त्रिगुणं दधानः ।। सस्वेन्द्रमात्मानमुदारमुद्रां, श्रीकंकणं सन्मुकुटं दधेऽहं ।। 8 ।।
ॐ हीं श्रीसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राय स्वाहा । इति ब्रह्मसूत्रं बिभृयात् ।। (यज्ञोपवीत पहनें) ॐ ह्रीं सग्यग्दर्शनाय स्वाहा । इति मुद्राम् । (अंगूठी पहनें)। ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानाय स्वाहा । इति कंकणम् । (कंकण पहनें) ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्राय स्वाहा । इति शेखरम् (मुकुट पहनें)
शार्दूलविक्रीडित- संस्थाप्याढकवारिपूर्णकलशान्पद्मापिधानाननान् । प्रायो मध्यघटान्वितानुपहितान्सद्गंधचूर्णादिभिः।।
द्रोणाम्भःपरिपूरितांश्चतुरशः कोणेषु यज्ञक्षितेः। कुंभान्न्यस्य समंगलेषु निदधे तेषु प्रसूनं वरं ।।9।।
(श्वेत अक्षत को बिछाकर उन पर अभिषेक हेतु पांच कलश स्थापित करके नीचे लिखे मंत्र से उनमें जल डालें)
ह्रीं नमोऽर्हते भगवते श्रीमते पद्ममहापद्मतिगिंच्छकेसरिमहापुंडरीकपुंडरीकगंगासिंधु- रोहिद्रोहितास्याहरिद्धरिकान्तासीतासीतोदानारीनरकांतासुवर्णकूलारूप्यकूलारक्तारक्तोदाक्षीराम्भोनिधिजलं स्वर्णघट- प्रक्षिप्तं गंधपुष्पाढ्यमामोदकं पवित्रं कुरु कुरु ह्मममफ ह्मममफ वं मं हं सं तं पं स्वाहा ।। इति जलशुद्धिं कुर्यात् ।। ॐ ह्रीं स्वस्तये कलशस्थापनं करोमि स्वाहा ।। इति कलशस्थापनम्। ॐ ह्रीं नेत्राय संवौषट् । इति कोणकुंभेषु पुष्पाणि क्षिपेत् ।
(कलशों में चंदन आदि लगाकर पुष्प अक्षत क्षेपण करें)
-शार्दूलविक्रीडित-
स्वच्छैस्तीर्थजलैरतुच्छसहजप्रोद्गंधिगंधैः सितैः । सूक्ष्मत्वायतिशालिशालिसदकैर्गंधोद्गमैरुद्गमैः।।
हव्यैर्नव्यरसैः प्रदीपितशुभैर्दीपैर्विपद्धूपकैः। धूपैरिष्टफलावहैर्बहुफलैः कुंभान्समभ्यर्चये।।10।।
ॐ ह्रीं नेत्राय संवौषट् । इति कलशानभ्यर्चयेत् ।। (कलशों को अर्घ्य चढ़ावें)
हिरण्मयं हीरहरिन्मणीद्धश्रीपद्मरागादिविचित्रपाश्र्वं । पीठं समुत्त्तुंगमिदं निवेश्य प्रक्षालयामः सलिलैः पवित्रैः।।11।।
ॐ ह्रीं क्ष्मं ठ ठ श्रीपीठं स्थापयामि स्वाहा।। इति श्रीपीठं स्थापयेत् ।।
(जिसमें भगवान का अभिषेक करना है उसे पीठ कहते हैं उस जलोट या थाल को स्थापित करें)। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: नमोऽर्हते भगवते श्रीमत्पवित्रजलेन श्रीपीठप्रक्षालनं करोमि स्वाहा । इति श्रीपीठं प्रक्षालयेत्। (श्रीपीठ को प्रक्षालित करे)
स्वच्छैस्तीर्थजलैरतुच्छसहजप्रोद्गंधिगंधैः सितैः । सूक्ष्मत्वायतिशालिशालिसदकैर्गंधोद्गमैरुद्गमैः।।
हव्यैर्नव्यरसैः प्रदीपितशुभैर्दीपैर्विपद्धूपकैः। धूपैरिष्टफलावहैर्बहुफलैः पीठं समभ्यर्चये।।12।।
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राय नमः स्वाहा । इति श्रीपीठं अभ्यर्चयेत्।। (श्रीपीठ-अभिषेक पात्र को अर्घ्य चढ़ावें)
-इन्द्रवज्रा-
नाकेन्द्रनागेन्द्रनरेन्द्रभास्वत्कोटीरधृष्टोज्ज्वलपादपीठं ।। आरोपये लोकजितं जिनेन्द्रं श्रीवर्णकीर्णाक्षतमध्यपीठम्।।13।।
ॐ ह्रीं श्रीलेखनं करोमि स्वाहा । इति श्रीवर्णमालिखेत् ।। (पीठ में ‘श्रीकार’ लिखें, ‘श्रीः’ विसर्ग सहित लिखें) ॐ ह्रीं धात्रे वषट् । इति श्रीपादौ स्पृष्ट्वा ।। (जिनेंद्रदेव के चरण स्पर्श करें) भगवान को अभिषेक पात्र में विराजमान करना ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं र्हं स्वाहा । इति श्री जिनबिंबं श्रीवर्णे स्थापयेत्।। (मंत्र पढ़कर प्रतिमाजी को श्रीवर्ण पर विराजमान करें) ==
-शार्दूलविक्रीडित-
आहूता भवनामरैरनुगता यं सर्वदेवास्तदा । तस्थौ यस्त्रिजगत्सभांतरमहापीठाग्रसिंहासने ।।
यं हृद्यं हृदि संनिधाप्य सततं ध्यायंति योगीश्वराः। तं देवं जिनमर्चितं कृतधियामावाहनाद्यैर्भजे।।14।।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र:असि आ उसा र्हं! अत्र एहि एहि संवौषट् । ॐ हां ह्रीं हूं हौं ह: असि आ उसा र्हं! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आ उसा र्हं! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।। तीर्थोदकैर्जिनपादौ प्रक्षाल्य तदग्रे पृथगिमान्मंत्रानुच्चारयन्पुष्पांजलिं प्रयुंजीत । (स्थापना विधि करें)
-उपजातिछंद-
सुराचलाग्रे सुरपुंगवेन प्रक्लृप्तपाद्याचमनक्रियस्य । वारास्य कुर्वे चरणेत्र पाणौ पाद्यक्रियामाचमनक्रियां च ।। 15 ।।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं नमोऽर्हते स्वाहा । पाद्यमंत्रः ।। ॐ ह्रीं झ्वीं क्ष्वीं वं मं हं सं तं पं द्रां द्रीं हं सः स्वाहा । आचमनमंत्रः ।
-इन्द्रवज्रा-
भस्मान्नमृद्गोमयपिण्डदीपैरद्भिः फलैरक्षतमिश्रपुष्पैः ।। त्वां वद्र्धमानैः सहपात्रसंस्थैर्दर्भाग्निकीलैरवतारयेऽर्हन् ।। 16।।
ॐ ह्रीं नीराजनं करोमि दुरितमस्माकमपहरतु भगवान् स्वाहा। इति नीराजनं कुर्यात् । (थाली या रकेबी में पुष्पाक्षत आदि रखकर कपूर जलाकर आरती करें। अवतरण विधि करना ही नीराजन कहलाता है।)
स्वच्छैस्तीर्थजलैरतुच्छसहजप्रोद्गंधिगंधैः सितैः । सूक्ष्मत्वायतिशालिशालिसदकैर्गंधोद्गमैरुद्गमैः।।
हव्यैर्नव्यरसैः प्रदीपितशुभैर्दीपैर्विपद्धूपकैः। धूपैरिष्टफलावहैर्बहुफलैर्देवं समभ्यर्चये ।। 17 ।।
ॐ नमः परमेष्ठिभ्यः स्वाहा । इति जलैरभ्यर्चयेत् ।। जल चढ़ावें। ॐ नमः परमात्मकेभ्यः स्वाहा । इति गंधैरभ्यर्चयेत् । चंदन चढ़ावें। ॐ नमोऽनादिनिधनेभ्यः स्वाहा । इत्यक्षतैरभ्यर्चयेत्। अक्षत चढ़ावें। ॐ नमः सर्वनृसुरासुरपूजितेभ्यः स्वाहा । इति पुष्पैरभ्यर्चयेत् । पुष्प चढ़ावें। ॐ नमोऽनंतज्ञानेभ्यः स्वाहा । इति चरुभिरभ्यर्चयेत् । नैवेद्य चढ़ावें। ॐ नमोऽनंतदर्शनेभ्यः स्वाहा । इति दीपैरभ्यर्चयेत्। दीपक से आरती करें। ॐ नमोऽनंतवीर्येभ्यः स्वाहा । इति धूपैरभ्यर्चयेत् । धूप अग्नि में खेवें। ॐ नमोऽनंतसौख्येभ्यः स्वाहा । इति फलैरभ्यर्चयेत् । फल चढ़ावें। ॐ नमः परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अथ दिक्पाल आह्नाननम् (दश दिक्पालपूजा)
-शार्दूलविक्रीडित-
उत्त्तुंगंशरदभ्रशुभ्रमुचितादभ्रस्फुरद्विभ्रमम् । तं दिव्याभ्रमुवल्लभं द्विपमुपारूढं प्रगाढश्रियम्।।
दंभोलिश्रितपाणिमप्रतिहताज्ञैश्वर्यविभ्राजितम्। शच्या संयुतमाह्वयामि मरुतामिंद्रं जिनेन्द्राध्वरे ।। 18 ।।
ॐ ह्रीं क्रों सुवर्णवर्णसर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवार हे इंद्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् ।। ॐ ह्रीं क्रों सुवर्णवर्णसर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवार हे इंद्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं क्रां सुवर्णवर्णसर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवार हे इंद्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। इंद्राय स्वाहा । इंद्रपरिजनाय स्वाहा । इंद्रानुचराय स्वाहा । इंद्रमहत्तराय स्वाहा । अग्नये स्वाहा । अनिलाय स्वाहा । वरुणाय स्वाहा । प्रजापतये स्वाहा । ¬ स्वाहा । भूः स्वाहा । भुवः स्वाहा । भूर्भुवः स्वाहा। स्वः स्वाहा स्वधा । इंद्राय स्वगणपरिवृताय इदमघ्र्यं पाद्यं, गंधं, अक्षतान्, पुष्पं, दीपं, धूपं, चरुं, बलिं, स्वस्तिकं यज्ञभागं दधामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां इति स्वाहा ।। शांतिः सदास्तु तस्यायं देवो यस्य कृतेऽच्र्यते ।। उपजातिछंद- भ्रूश्मश्रुकेशादिपिशंगवर्णं निर्वर्णनाभीलसशोणमूर्तिम् ।। प्रत्युज्ज्वलज्ज्वालजटालशक्तिं स्वाहायुतं वन्हिमिहाह्वयामि ।। 19 ।।ॐ ह्रीं क्रों रक्तवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्ण स्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवार हे अग्ने! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट्।। ॐ ह्रीं क्रों रक्तवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवार हे अग्ने! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं क्रां रक्तवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवार हे अग्ने! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्।
अग्नये स्वाहा। अग्नि परिजनाय स्वाहा। अग्नि अनुचराय स्वाहा। अग्नि महत्तराय स्वाहा। अग्नये स्वाहा। अनिलाय स्वाहा। वरुणाय स्वाहा। प्रजापतये स्वाहा। ¬ स्वाहा। भूः स्वाहा। भुवः स्वाहा। भूर्भुवः स्वाहा। स्वः स्वाहा, स्वधा। अग्नये स्वगणपरिवृताय इदमघ्र्यं पाद्यं, जलं, गंधं, अक्षतान्, पुष्पं, दीपं, धूपं, चरुं, बलिं, स्वस्तिकं यज्ञभागं दधामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां इति स्वाहा।। मालिनीछंद- गवलयुगलघृष्टाम्भोदमारूढवन्तं, महितमहिषमुच्चैरंजनाद्रीन्द्रकल्पं ।। असितमहिषभूषं भीषणं चंडदंडं, विदितमदयधर्मं व्याव्हये धर्मराजं ।। 20 ।।
ॐ ह्रीं क्रों कृष्णवर्णसर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवार हे यम! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् ।। ॐ ह्रीं क्रों कृष्णवर्णसर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवार हे यम! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं क्रां कृष्णवर्णसर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवार हे यम! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्।
यमाय स्वाहा। यमपरिजनाय स्वाहा। यमानुचराय स्वाहा। यममहत्तराय स्वाहा। अग्नये स्वाहा। अनिलाय स्वाहा। वरुणाय स्वाहा। प्रजापतये स्वाहा। ¬ स्वाहा। भूः स्वाहा। भुवः स्वाहा। भूर्भुवः स्वाहा। स्वः स्वाहा, स्वधा। यमाय स्वगणपरिवृताय इदमघ्र्यं पाद्यं, जलं, गंधं, अक्षतान्, पुष्पं, दीपं, धूपं, चरुं, बलिं, स्वस्तिकं यज्ञभागं दधामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां इति स्वाहा।। उपजातिछंद- तमालनीलं पुरतोवलम्बिस्फुटत्सटाभारमुदारमृक्षम् ।। आरूढमाभीलमुदूढशक्तिं वधूयुतं नैऋतमाव्हयामि।।21।।
ॐ ह्रीं क्रों श्यामवर्णसर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवार हे नैऋत! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् ।। ॐ ह्रीं क्रों श्यामवर्णसर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवार हे नैऋत! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं क्रां श्यामवर्णसर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवार हे नैऋत! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्।
नैऋताय स्वाहा। नैऋतपरिजनाय स्वाहा। नैऋतानुचराय स्वाहा। नैऋतमहत्तराय स्वाहा। अग्नये स्वाहा। अनिलाय स्वाहा। वरुणाय स्वाहा। प्रजापतये स्वाहा। ¬ स्वाहा। भूः स्वाहा। भुवः स्वाहा। भूर्भुवः स्वाहा। स्वः स्वाहा, स्वधा। नैऋताय स्वगणपरिवृताय इदमघ्र्यं पाद्यं, जलं, गंधं, अक्षतान्, पुष्पं, दीपं, धूपं, चरुं, बलिं, स्वस्तिकं यज्ञभागं दधामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां इति स्वाहा।। उपजातिछंद- करी कथंचिन्मकरः कथंचित्सत्यापयेज्जैनकथंचिदुक्तिम् ।। यस्तं करिप्राङ्मकरं गतोहिपाशोच्र्यते विश्रुतपाशपाणिः ।।22।।
ॐ ह्रीं क्रों धवलवर्णसर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवार हे वरुण! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् ।। ॐ ह्रीं क्रों धवलवर्णसर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवार हे वरुण! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं क्रांधवलवर्णसर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवार हे वरुण! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्।
वरुणाय स्वाहा। वरुणपरिजनाय स्वाहा। वरुणानुचराय स्वाहा। वरुणमहत्तराय स्वाहा। अग्नये स्वाहा। अनिलाय स्वाहा। वरुणाय स्वाहा। प्रजापतये स्वाहा। ॐ स्वाहा। भूः स्वाहा। भुवः स्वाहा। भूर्भुवः स्वाहा।स्वः स्वाहा, स्वधा। वरुणाय स्वगणपरिवृताय इदमघ्र्यं पाद्यं, जलं, गंधं, अक्षतान्, पुष्पं, दीपं, धूपं, चरुं, बलिं, स्वस्तिकं यज्ञभागं च दधामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां इति स्वाहा।। उपजातिछंद- यः पंचधाराचतुरं तुरंगं समारुरोहोरुमहीरुहास्त्रः ।। तं वायुवेगीयुतवायुदेवं व्याव्हानये व्याहतयागविघ्नं ।। 23 ।।
ॐ ह्रीं क्रों कृष्णवर्णसर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवार हे पवन! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् ।। ॐ ह्रीं क्रों कृष्णवर्णसर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवार हे पवन! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं क्रां कृष्णवर्णसर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवार हे पवन! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्।
पवनाय स्वाहा। पवनपरिजनाय स्वाहा। पवनानुचराय स्वाहा। पवनमहत्तराय स्वाहा। अग्नये स्वाहा। अनिलाय स्वाहा। वरुणाय स्वाहा। प्रजापतये स्वाहा। ॐ स्वाहा। भूः स्वाहा। भुवः स्वाहा। भूर्भुवः स्वाहा। स्वः स्वाहा, स्वधा। पवनाय स्वगणपरिवृताय इदमघ्र्यं पाद्यं, जलं, गंधं, अक्षतान्, पुष्पं, दीपं, धूपं, चरुं, बलिं, स्वस्तिकं यज्ञभागं च दधामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां इति स्वाहा।।
चारुनूत्नरत्नराजिभाभराहितेन्द्रचापचित्रिताश । हारगौरराजहंसनीयमान माननीय केतनौधव्योमयानमारुरोह ।।
यस्त्वमेष भूषणाभिराजमान राजराज-सर्वलोकराजराजयागमंडपं समेहि ।।24।।
ॐ ह्रीं क्रों पीतवर्णसर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवार हे कुबेर! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् ।। ॐ ह्रीं क्रों पीतवर्णसर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवार हे कुबेर! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं क्रां पीतवर्णसर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवार हे कुबेर! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्।
कुबेराय स्वाहा। कुबेरपरिजनाय स्वाहा। कुबेरानुचराय स्वाहा। कुबेरमहत्तराय स्वाहा। अग्नये स्वाहा। अनिलाय स्वाहा। वरुणाय स्वाहा। प्रजापतये स्वाहा।ॐ स्वाहा। भूः स्वाहा। भुवः स्वाहा। भूर्भुवः स्वाहा। स्वः स्वाहा, स्वधा। कुबेराय स्वगणपरिवृताय इदमघ्र्यं पाद्यं, जलं, गंधं, अक्षतान्, पुष्पं, दीपं, धूपं, चरुं, बलिं, स्वस्तिकं यज्ञभागं च दधामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां इति स्वाहा।।
-शार्दूलविक्रीडित-
कैलासाचलसंनिभायतसितोत्त्तुंगांगविभ्राजितं। पर्जन्योर्जितगर्जनं वृषभमारूढं जगद्रूढकम् ।।
नागाकल्पमनल्पपिंगलजटा-जूटार्धचंद्रोज्वलम् । पार्वत्याः पतिमाव्हये त्रिणयनं, भास्वत्त्रिशूलायुधम् ।।25।।
ॐ ह्रीं क्रों धवलवर्णसर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवार हे ईशान! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् ।। ॐ ह्रीं क्रों धवलवर्णसर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवार हे ईशान! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं क्रां धवलवर्णसर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवार हे ईशान! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्।
ईशानाय स्वाहा। ईशानपरिजनाय स्वाहा। ईशानानुचराय स्वाहा। ईशानमहत्तराय स्वाहा। अग्नये स्वाहा। अनिलाय स्वाहा। वरुणाय स्वाहा। प्रजापतये स्वाहा। ॐ स्वाहा। भूः स्वाहा। भुवः स्वाहा। भूर्भुवः स्वाहा। स्वः स्वाहा, स्वधा। ईशानाय स्वगणपरिवृताय इदमघ्र्यं पाद्यं, जलं, गंधं, अक्षतान्, पुष्पं, दीपं, धूपं, चरुं, बलिं, स्वस्तिकं यज्ञभागं दधामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां इति स्वाहा।।
-उपजातिछंद-
ऐरावणोरुचरणातिपृथुत्वधर्मं-श्रीकूर्भवज्रनिभपृष्ठकृतप्रतिष्ठम् ।।
व्याव्हानये धवलमंकुशपाशहस्तं, पद्मापतिं फणिपतिं फणिमौलिचूलिम् ।। 26 ।।
ॐ ह्रीं क्रों धवलवर्णसर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवार हे धरणेन्द्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् ।। ॐ ह्रीं क्रों धवलवर्णसर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवार हे धरणेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं क्रां धवलवर्णसर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवार हे धरणेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्।
धरणेन्द्राय स्वाहा। धरणेन्द्रपरिजनाय स्वाहा। धरणेन्द्रानुचराय स्वाहा। धरणेन्द्रमहत्तराय स्वाहा। अग्नये स्वाहा। अनिलाय स्वाहा। वरुणाय स्वाहा। प्रजापतये स्वाहा। ॐ स्वाहा। भूः स्वाहा। भुवः स्वाहा। भूर्भुवः स्वाहा। स्वः स्वाहा, स्वधा। धरणेन्द्राय स्वगणपरिवृताय इदमघ्र्यं पाद्यं, जलं, गंधं, अक्षतान्, पुष्पं, दीपं, धूपं, चरुं, बलिं, स्वस्तिकं यज्ञभागं दधामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां इति स्वाहा।।
-मालिनीछंद-
अरुणसितसटौघभ्राजितश्वेतगात्र-प्रखरनखररंहःसिंहमारूढवन्तम् ।।
कुवलयमयमालं कांतकांतं सकुन्तं, सितनुतकरसांद्रं चंद्रमाव्हानयामि ।। 27 ।।
ॐ ह्रीं क्रों धवलवर्णसर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवार हे चंद्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् ।। ॐ ह्रीं क्रों धवलवर्णसर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवार हे चंद्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं क्रां धवलवर्णसर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवार हे चंद्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्।
चंद्राय स्वाहा। चंद्रपरिजनाय स्वाहा। चंद्रानुचराय स्वाहा। चन्द्रमहत्तराय स्वाहा। अग्नये स्वाहा। अनिलाय स्वाहा। वरुणाय स्वाहा। प्रजापतये स्वाहा। ॐ स्वाहा। भूः स्वाहा। भुवः स्वाहा। भूर्भुवः स्वाहा। स्वः स्वाहा, स्वधा। चन्द्राय स्वगणपरिवृताय इदमघ्र्यं पाद्यं, जलं, गंधं, अक्षतान्, पुष्पं, दीपं, धूपं, चरुं, बलिं, स्वस्तिकं यज्ञभागं दधामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां इति स्वाहा।।
-बसंततिलकाछंद-
इंद्राग्निकालनिकषात्मजपाशिवायु-श्रीदेन्दुशेखरफणाधरराजचंद्राः।।
अर्घ्यादिपूजनविधेर्भवत प्रसन्नाः, प्रत्यूहजालमपसारयताध्वरस्य ।। 28 ।।
ॐ ह्रीं क्रों इंद्रादिदशदिक्पालकदेवा यजमानप्रभृतीनां शांतिं कुरुत कुरुत स्वाहा । पूर्णाघ्र्यं । ।। अथाभिषेकविधिः ।।
-इंद्रवज्रा-
येनोद्धृतं भव्यजगद्भवाब्धेरभ्युद्धृतं येन दुरंतमेनः ।। पूर्णार्थमर्हन्तमिहाभिषेक्तुं तं पूर्णकुंभं वयमुद्धरामः ।। 29 ।।
ॐ ह्रीं कलशोद्धरणं करोमि स्वाहा ।। इति कलशमुद्धरेत् । (कलश हाथ में लेवंे) ==
-शार्दूलविक्रीडित-
यज्ज्ञानादिमहत्त्वनिर्मितमहत्त्वाकाशमेत्यांभसा। व्याजात्तं न्वभिषिंचतीह जिनमित्याविष्कृताशंककैः।।
अच्छाच्छैरपि शीतलैः सुमधुरैस्तीर्थोपनीतैर्जलैः। शांत्यापादितवारिपूर्णमनघं देवं जिनं स्नापये ।।30।।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं सं तं तं पं पं झ्वीं झ्वीं क्ष्वीं क्ष्वीं हं सःत्रैलोक्यस्वामिनो जलाभिषेकं करोमि नमोऽर्हते स्वाहा । ==
-शार्दूलविक्रीडितं-
तापध्वंसिभिरर्हदागमनिभैश्चोचाम्बुभिश्शीतलैः, पुण्डेªक्षुप्रभवैः रसैश्च मधुरैः संतुष्टिपुष्टिप्रदैः।
चोचाद्युद्धफलप्रभूतसुरसैः सुस्वादुसौरभ्यकै-र्नित्यानंदरसैकतृप्तमरहद्देवं तरां स्नापये ।। 31 ।।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं सं तं तं पं पं झ्वीं झ्वीं क्ष्वीं क्ष्वीं हं सःत्रजगद्गुरोर्नालिकेरादिरसाभिषेकं करोमि नमोऽर्हते स्वाहा ।। ==
सौरभ्यं वरमाद्र्रता यदि सुवर्णस्येह सम्पद्यते । तत्तेन ह्युपमीयते घृतमिदं नान्येन केनापि च ।।
धीरैरित्यभिवर्णितेन महता हैयंगवीनेन वै । सिंचामो बलकान्तिपुष्टिसुखदं श्रेयस्करं श्रीजिनम् ।। 32 ।।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं सं तं तं पं पं झ्वीं झ्वीं क्ष्वीं क्ष्वीं हं सःत्रैलोक्यस्वामिनो घृताभिषेकं करोमि नमोऽर्हते स्वाहा । ==
आकृष्टत्वममत्र्यकैरसदृशं देवस्य सेवाकृते। मत्वेति स्वयमेत्य तं स्नपयति क्षीराम्बुराशिध्र्रुवम्।।
इत्युद्भावितशंकनैर्बहुशुभैः क्षीरैर्जिनं स्नापये । क्षीराभास्रवनुं सुमेरुशिखरे क्षीराभिषेकाप्तये ।।33।।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं सं तं तं पं पं झ्वीं झ्वीं क्ष्वीं क्ष्वीं हं सःत्रैलोक्यस्वामिनः क्षीराभिषेकं करोमि नमोऽर्हते स्वाहा ।। ==
लेश्या किं बहिरुद्गता जिनपतेः शुक्ला समुज्जृम्भणा-दन्तर्मातुमशक्तितः किमथवा ध्यानं नु शुक्लाव्हयम्।
किंवा केवलनामधीः किमथवा तीर्थंकरं पुण्यमि-त्याशंक्येन शशांकदीधितिरुचा दध्ना जिनं स्नापये ।। 34 ।।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं सं तं तं पं पं झ्वीं झ्वीं क्ष्वीं क्ष्वीं हं सःत्रैलोक्यस्वामिनो दधिस्नपनं करोमि नमोऽर्हते स्वाहा ।। ==
-उपजाति छंदः-
काश्मीरकृष्णागरुसल्लवंग-निशाक्षतानामवधूल्यचूर्णैः । शालेयचूर्णैर्हरिचंदनाद्र्रै – रुद्वर्तये स्नेहहरैर्जिनांगम् ।। 35 ।।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं सं तं तं पं पं झ्वीं झ्वीं क्ष्वीं क्ष्वीं हं सःत्रैलोक्यस्वामिनः कल्कचूर्णेन उद्वर्तनं करोमि नमोऽर्हते स्वाहा । ==
सपंचवर्णैर्वरवल्भपिण्डैर्निर्वत्र्य कार्तस्वरभाजनस्थैः । नीराजनार्थैरपि पूर्वमुक्तैर्नीराजयामो भगवज्जिनेन्द्रम् ।। 36।।
ॐ ह्रीं क्रौं समस्तनीराजनद्रव्यैर्नीराजनं करोमि दुरितमस्माकमपहरतु भगवान् स्वाहा । ==
क्षीरद्रुमत्वक्कलितैः सुखोष्णैः, कषायनीरैरभिषेचयामः। कषायनाशोद्यदनंतबोधं, भवज्वरामूलविलोपनार्थम्।। 37 ।।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं त्रिभुवनपतेः सर्वौषधिना1 अभिषेकं करोमि नमोऽर्हते स्वाहा । ==
-उपजातिछंद-
बिसेन बोधद्रुमपल्लवेन, धामार्गवेणापि युतैः सुवार्भिः । सहोद्धृतैः कोणघटैश्चतुर्भिः, संस्थापये तच्चतुरस्रबोधम्।। 38 ।।
ॐ ह्रीं हीं हूं हौं ह: असिआउसा नमोऽर्हते भगवते मंगललोकोत्तमशरणाय कोणकलशजलाभिषेकं करोमि नमोऽर्हते स्वाहा । ==
-शार्दूलविक्रीडित-
मध्यस्थापितचारुभूषितबृहत्कुंभीयगंधांभसा । सौरभ्याहृतचंचरीकनिचयैः पंकापनोदक्षमाम् ।।
स्वामुद्घोषयतेव शक्तिमभितो भव्यात्मनां भूरिणा । गंगाव्योमरयोपमेन जगतामीशं जिनं स्नापये।।39।।
ॐ नमोऽर्हते भगवते श्रीमते प्रक्षीणाशेषदोषकल्मषाय दिव्यतेजोमूर्तये नमः श्रीशांतिनाथाय शांतिकराय सर्वपापप्रणाशनाय सर्वविघ्नविनाशनाय सर्वरोगापमृत्युविनाशनाय सर्वपरकृतक्षुद्रोपद्रवविनाशनाय सर्वक्षामडामरविनाशनाय ॐ हां हीं हूं हौं ह: असिआउसा नमः सर्वशांतिं कुरु कुरु तुष्टिं कुरु कुरु पुष्टिं कुरु कुरु स्वाहा स्वधा । गंधोदकाभिषेकः। (मध्य के पंचम कलश से अभिषेक करना)
घातिव्रातविघातजातविपुल-श्रीकेवलज्योतिषः । देवस्यास्य पवित्रगात्रकलनात्-पूतं हितं मंगलम्।।
कुर्याद्भव्यभवार्तिदावशमनं, स्वर्मोक्षलक्ष्मीफल प्रोद्यद्धर्मलताभिवद्र्धनमिदं सद्गंधगंधोदकम् ।।40।।
निःशेषाभ्युदयोपभोगफलवत्-पुण्यांकुरोत्पादकम् । धृत्वा पंकनिवारकं भगवतः, स्नानोदकं मस्तके ।।
ध्यातौ सर्वमुनीश्वरैरभिनुतौ प्रेक्षावतामर्चिता विन्द्राद्यैर्मुहुरर्चितौ जिनपतेः, पादौ समभ्यर्चये।।41।।
ॐ नमोऽर्हत्परमेष्ठिभ्यो मम सर्वशांतिर्भवतु स्वाहा। आत्मपवित्रीकरणम् ।। (गंधोदक लगावें) ॐ हीं ध्यातृभ्योऽभीप्सितफलदेभ्यः स्वाहा । पुष्पांजलिः।
-शार्दूलविक्रीडित-
यत्रागाधविशालनिर्मलगुणे, लोकत्रयं सर्वदा। सालोकं प्रतिबिंबितं प्रविशतां, नित्यामृतानंदनम् ।।
सर्वाब्जानिमिषास्पदं स्मृतिगतं, तापापहं धीमता मर्हत्तीर्थमपूर्वमक्षयमिदं, वार्धारया धारये ।। 1 ।।
ॐ ह्रीं परमब्रह्मणे अनंतानंतज्ञानशक्तये जलम् निर्वपामीति स्वाहा ।
गंधश्चंदनगंधबंधुरतरो, यद्दिव्यदेहोद्भवो, गंधर्वाद्यमरस्तुतो विजयते, गंधांतरं सर्वतः ।।
गंधादीनखिलानवैति विशदं, गंधाधिमुक्तोऽपि यस्तं गंधाद्यघगंधमात्रहतये गंधेन संपूजये ।। 2 ।।
ॐ ह्रीं परमब्रह्मणे सहजसौगन्ध्यबन्धुराय गंधं निर्वपामीति स्वाहा।
इन्द्राहीन्द्रसमर्चितैरनुपमैर्दिव्यैर्वलक्षाक्षतैर्यस्य श्रीपदसन्नखेन्दुसविधे नक्षत्रजालायितम्।
ज्ञानं यस्य समक्षमक्षतमभूद्वीर्यं सुखं दर्शनं, यायज्म्यक्षतसंपदे जिनमिमं सूक्ष्माक्षतैरक्षतैः।। 3 ।।
ॐ ह्रीं परमब्रह्मणे अक्षयफलप्रदाय अक्षतम् निर्वपामीति स्वाहा ।
यस्य द्वादशयोजने सदसि सद्गंधादिभिः स्वोपमा-नप्यर्थात्सुमनोगणान्सुमनसां, वर्षन्ति विष्वक्सदा।
यः सिद्धिं सुमनःसुखं सुमनसां, स्वं ध्यायतामावहे त्तं देवं सुमनोमुखैश्च सुमनो-भेदैः समभ्यर्चये ।। 4 ।।
ॐ ह्रीं परमब्रह्मणे सुमनःसुखप्रदाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा ।
-शार्दूलविक्रीडितं-
यद्व्याबाधविवर्जितं निरुपमं, स्वात्मोत्थमत्यूर्जितम् । नित्यानंदसुखेन तेन लभते, यस्तृप्तिमात्यन्तिकीम् ।।
यं चाराध्य सुधाशिनो ननु सुधा-स्वादं लभंते चिरम् । तस्योद्यद्रसचारुणैव चरुणा, श्रीपादमाराधये ।।5।।
ॐ ह्रीं परमब्रह्मणे अनंतानंतसुसंतृप्ताय चरुं निर्वपामीति स्वाहा ।
स्वस्यान्यस्य सह प्रकाशनविधौ, दीपोपमेऽप्यन्वहम्। यः सर्वं ज्वलयन्ननंतकिरणै-स्त्रैलोक्यदीपोऽस्त्यतः ।।
येनोद्दीपितधर्मतीर्थमभवत्सत्यं विभोस्तस्य स-द्दीप्त्या दीपितदिङ्मुखस्य चरणौ, दीपैः समुद्दीपये ।।6।।
ॐ ह्रीं परमब्रह्मणे अनंतदर्शनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
येनेदं भुवनत्रयं चिरमभू-दुद्धूपितं सोप्यहो । मोहो येन सुधूपितो निजमहा-ध्यानाग्निना निर्दयम् ।।
यस्यास्थानपथस्य धूपघटजैर्धूमैर्जगद्धूपितम्। धूपैस्तस्य जगद्वशीकरणसद्धूपैः पदं धूपये ।।7।।
ॐ ह्रीं परमब्रह्मणे वशीकृतत्रिलोकनाथाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
यद्भक्त्या फलदायि पुण्यमुदितं, पुण्यं नवं बध्यते । पापं नैव फलप्रदं किमपि नो, पापं नवं प्राप्यते ।।
आर्हन्त्यं फलमद्भुतं शिवसुखं, नित्यं फलं लभ्यते । पादौ तस्य फलोत्तमादिसुफलैः, श्रेयःफलायाच्र्यते ।। 8 ।।
ॐ ह्रीं परमब्रह्मणे अभीष्टफलप्रदाय फलं निर्वपामीति स्वाहा।
मंगं लाति मलं च गालयति यन्मुख्यं ततो मंगलं। देवोर्हन्वृषमंगलोऽभिविनुतस्तैर्मंगलैः साधुभिः ।।
चंचच्चामरतालबृंतमुकुरैर्मुख्येतरैर्मंगलै-र्मुख्यं मंगलमिद्धसिद्धसुगुणान्सम्प्राप्तुमाराध्यते ।। 9 ।।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं र्हं अर्हंतः! इदं सकलमंगलद्रव्यार्चनं गृण्हीध्वं गृण्हीध्वं नमः परममंगलेभ्यः स्वाहा। अर्घ्यं।
-मालिनीछंद- ज्वलितसकललोकालोकलोकोत्तरश्री कलितललितमूर्ते कीर्तितेन्द्रैर्मुनीन्द्रैः। जिनवर तव पादोपांततः पातयामो, भवदवशमनार्थामर्थतः शांतिधाराम् ।। 10 ।।
शांतिकृद्भ्यः स्वाहा । शांतिधारां ।। शार्दूलविक्रीडितं- पुष्पेषोरिषवो वयं पुनरिदं, पुष्पेषुनिष्पेषकम् । निष्पीतानि मधुव्रतैर्वयमिदं, निष्पापसंसेवितम् ।। इत्यालोच्य नमंत्यपास्य मदमित्याशंकयंतीश ते । निष्पीताखिलतत्वपादकमले, पुष्पाणि निःपातये ।। 11 ।। ॐ ह्रीं अर्हंतः! इदं पुष्पांजलिप्रार्चनं गृण्हीध्वं गृण्हीध्वं नमोर्हद्भ्यो ध्यातृभ्योऽभीप्सितफलदेभ्यः स्वाहा । पुष्पांजलिः। इत्येकादशविधमहः । (जल, चंदन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल, अर्घ्य, शांतिधारा और पुष्पांजलि इन द्रव्यों से पूजा करना ‘‘एकादशमह’ एकादशप्रकारी पूजा कहलाती है।)
-उपजातिछंदः-
अपौरुषेयानखिलानदोषा-नशेषविद्भिर्विहितप्रकाशान्। प्रकाशितार्थान्प्रयजे प्रमाणं, प्रवेदयद्द्वादशदिव्यवेदान् ।। 1 ।।
ॐ हीं श्रीं क्लीं ऐं र्हं हसी हसं सरस्वति सर्वशास्त्रप्रकाशिनि वद वद वाग्वादिनि ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् नमः सरस्वत्यै स्वाहा । ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं र्हं हसी हसं सरस्वति सर्वशास्त्रप्रकाशिनि वद वद वाग्वादिनि ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ नमः सरस्वत्यै स्वाहा । ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं र्हं हसी हसं सरस्वति सर्वशास्त्रप्रकाशिनि! वद वद वाग्वादिनि ! मम सज्ज्ञानं कुरु कुरु नमः सरस्वत्यै स्वाहा।
1. ॐ ह्रीं शब्दब्रह्मणे जलं निर्वपामीति स्वाहा । 2. ॐ ह्रीं शब्दब्रह्मणे गंधं निर्वपामीति स्वाहा। 3. ॐ ह्रीं शब्दब्रह्मणे अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। 4. ॐ ह्रीं शब्दब्रह्मणे पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। 5. ॐ ह्रीं शब्दब्रह्मणे चरुं निर्वपामीति स्वाहा। 6. ॐ ह्रीं शब्दब्रह्मणे दीपं निर्वपामीति स्वाहा। 7. ॐ ह्रीं शब्दब्रह्मणे धूपं निर्वपामीति स्वाहा । 8. ॐ ह्रीं शब्दब्रह्मणे फलं निर्वपामीति स्वाहा। 9. ॐ ह्रीं शब्दब्रह्मणे अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । शांतिधारां। पुष्पांजलिं ।।
-उपजातिछंदः-
ये येऽनगारा ऋषयो यतीन्द्रा, मुनीश्वरा भव्यभवद्व्यतीताः । तेषां समेषां पदपंकजानि, संपूजयामो गुणशीलसिद्ध्यै ।।1।।
ॐ हीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपवित्रतरगात्रचतुरशीतिगुणगणधरचरणा! अत्र आगच्छत आगच्छत संवौषट् ।। ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपवित्रतरगात्रचतुरशीतिगुणगणधरचरणा! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः।। ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपवित्रतरगात्रचतुरशीतिगुणगणधरचरणा! अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वषट् सन्निधीकरणं मम रत्नत्रयशुद्धिं कुरुत कुरुत वषट् ।। स्थापनं।।
ॐ ह्रीं गणधरचरणेभ्यः जलं निर्वपामीति स्वाहा । ॐ ह्रीं गणधरचरणेभ्यः चंदनं निर्वपामीति स्वाहा । ॐ ह्रीं गणधरचरणेभ्यः अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा । ॐ ह्रीं गणधरचरणेभ्यः पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा । ॐ ह्रीं गणधरचरणेभ्यः नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा । ॐ ह्रीं गणधरचरणेभ्यः दीपं निर्वपामीति स्वाहा । ॐ ह्रीं गणधरचरणेभ्यः धूपं निर्वपामीति स्वाहा । ॐ ह्रीं गणधरचरणेभ्यः फलं निर्वपामीति स्वाहा । ॐ ह्रीं गणधरचरणेभ्यः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। शांतये शांतिधारा, पुष्पांजलिः।। ==
-उपजातिछंदः-
यक्षं यजामो जिनमार्गरक्षा-दक्षं सदा भव्यजनैकपक्षम् । निर्दग्धनिःशेषविपक्षकक्षं, प्रतीक्ष्यमत्यक्षसुखे विलक्षम् ।।1।।
ॐ ह्रीं हे यक्ष ! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् ।। ॐ ह्रीं हे यक्ष! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ।। ॐ ह्रीं हे यक्ष ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।। स्थापनं।। ॐ ह्रीं यक्षाय इदमघ्र्यं पाद्यं गंधं अक्षतं पुष्पं दीपं धूपं चरुं बलिं फलं स्वस्तिकं यज्ञभागं यजामहे प्रतिगृह्यताम् प्रतिगृह्यताम् स्वाहा ।। (जिनशासन यक्ष देवों को अर्घ्य चढ़ाना) ==
उपजातिछंदः-यक्षीं सपक्षीकृतभव्यलोकां, लोकाधिकैश्वर्यनिवासभूताम्। भूतानुकंपादिगुणानुमोदां, मोदांचितामर्चनमातनोमि।।1।। ॐ ह्रीं हे यक्षि ! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट्। ॐ ह्रीं हे यक्षि! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं हे यक्षि! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । ॐ ह्रीं हे यक्षी देवि! इदं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।
(जिनशासनयक्षी देवी को अर्घ्य चढ़ाना)
-उपजातिछंदः-
यः सारसम्यग्गुणब्रह्मणेन, ब्रह्माणमेकं भजते जिनेन्द्रम्। ब्रह्माणमेनं परिपूजयाम स्तं ब्रह्मविद्विघ्नविघातरक्षम्1।।1।।
ॐ ह्रीं हे ब्रह्मन् ! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् । ॐ ह्रीं हे ब्रह्मन् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं हे ब्रह्मन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। ॐ ह्रीं ब्रह्मणे इदमघ्र्यं पाद्यं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा। (ब्रह्मदेव को अर्घ्य चढ़ाना) ।। इति मूलवेराद्यर्चनम् ।। ==
(जो इष्ट अर्थ को प्रदान करने वाले हैं और अठासी देवों से सहित हैं ऐसे नवदेवताओं की पूजा करते हैं। अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, जिनधर्म, जिनागम, जिनचैत्य, चैत्यालय ये नवदेवता हैं। 15 तिथिदेव, 9 नवग्रहदेव, 24 यक्ष, 24 यक्षी, 8 दिक्पाल और 8 द्वारपाल ये 88 देव हैं। इनका यंत्र या मंडल ऐसा बनाना, कर्णिका सहित 8 दल का कमल बनाकर उनके बाहर चैकोन पांच मंडल बनावें, चारों तरफ द्वार बना देवें। पुनः क्रम से पूजा करे। परिशिष्ट में पीठयंत्र दिया हुआ है।)
-इन्द्रवज्रा-
अष्टाधिकाशीतिसुरावृतानां, इष्टार्थदानां नवदेवतानाम् ।
आराधनां नित्यमहांगभूतां, श्रीपीठयंत्रे विधिना विधास्ये।। 1 ।।
ॐ ह्रीं श्रीं क्षीं भूः स्वाहा। विधियज्ञप्रतिज्ञापनाय पुष्पांजलिः ।
-उपजाति-
संसेचये यागभुवं जिनानां, अनाविलैस्तीर्थजलैः समंत्रम् ।।
दर्भाग्निकीलैरपि शोधये तां, संतर्पये तान्फणिनोऽमृतेन।।2।।
ॐ क्षीं भूः शुद्ध्यतु स्वाहा। इति दर्भपूलोपात्तजलेन भूमिं सिंचयेत्। (डाभ से भूमि पर जल छिड़कें) ॐ ह्रीं क्षीं अग्निं प्रज्वालयामि स्वाहा । ज्वलद्दर्भपूलानलेन भूमिं ज्वालयेत् । (डाभ जलाकर भूमि पर डाले) ॐ ह्रीं श्रीं क्षीं भूः स्वाहा । इति नागतर्पणार्थमैशान्यां दिशि जलांजलिं क्षिपेत् ।।
(ईशान दिशा में जलांजलि देवे)
-उपजाति-
ये घातिजातप्रतिघातजातं, शक्राद्यलङ्घ्यं जगदेकसारम् । प्रपेदिरेऽनंतचतुष्टयं तान्, यजे जिनेंद्रानिह कर्णिकायाम् ।। 1 ।।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आ उसा अर्हत्परमेष्ठिन् ! अत्र एहि एहि संवौषट् । ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आ उसा अर्हत्परमेष्ठिन् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आ उसा अर्हत्परमेष्ठिन् ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। स्थापनं।। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आ उसा अर्हत्परमेष्ठिने जलं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आ उसा अर्हत्परमेष्ठिने चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र:असि आ उसा अर्हत्परमेष्ठिने अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आ उसा अर्हत्परमेष्ठिने पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आ उसा अर्हत्परमेष्ठिने नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आ उसा अर्हत्परमेष्ठिने दीपं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आ उसा अर्हत्परमेष्ठिने धूपं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आ उसा अर्हत्परमेष्ठिने फलं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आ उसा अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। शांतिधारा, पुष्पांजलिः। ==
-उपजाति-
निःशेषबंधक्षयलब्धशुद्ध – बुद्धस्वभावान्निजसौख्यवृद्धान् । आराधये पूर्वदलेत्र सिद्धान्स्वात्मोपलब्ध्यै स्फुटमष्टधेष्ट्या ।। 2 ।।
ॐ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिन् ! अत्र एहि एहि संवौषट् । ॐ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।। स्थापनं।। ॐ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिने जलं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिने चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिने अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिने पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिने नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिने दीपं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिने धूपं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिने फलं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ हीं सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। शांतिधारा, पुष्पांजलिः।
-इन्द्रवज्रा-
ये पंचधाचारभरं मुमुक्षू-नाचारयंति स्वयमाचरन्तः । अभ्यर्चये दक्षिणदिग्दले ता-नाचार्यवर्यान्स्वपरार्थवर्यान् ।। 3 ।।
ॐ ह्रीं आचार्यपरमेष्ठिन् ! अत्र एहि एहि संवौषट् । ॐ ह्रीं आचार्यपरमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं आचार्यपरमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। स्थापनं।। ॐ ह्रीं आचार्यपरमेष्ठिने जलं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं आचार्यपरमेष्ठिने चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं आचार्यपरमेष्ठिने अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं आचार्यपरमेष्ठिने पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं आचार्यपरमेष्ठिने नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं आचार्यपरमेष्ठिने दीपं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं आचार्यपरमेष्ठिने धूपं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं आचार्यपरमेष्ठिने फलं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं आचार्यपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। शांतिधारा, पुष्पांजलिः।
-उपजातिछंदः-
येषामुपान्तं समुपेत्य शास्त्राण्यधीयते मुक्तिकृते विनेयाः । अपश्चिमान्पश्चिमदिग्दलेऽस्मिन्नमूनुपाध्यायगुरून्महामि ।। 4 ।।
ॐ ह्रीं उपाध्यायपरमेष्ठिन्! अत्र एहि एहि संवौषट् । ॐ ह्रीं उपाध्यायपरमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं उपाध्यायपरमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। स्थापनं।। ॐ ह्रीं उपाध्यायपरमेष्ठिने जलं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं उपाध्यायपरमेष्ठिने चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं उपाध्यायपरमेष्ठिने अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं उपाध्यायपरमेष्ठिने पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं उपाध्यायपरमेष्ठिने नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं उपाध्यायपरमेष्ठिने दीपं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं उपाध्यायपरमेष्ठिने धूपं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं उपाध्यायपरमेष्ठिने फलं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं उपाध्यायपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। शांतिधारा, पुष्पांजलिः।
-इन्द्रवज्रा-
ध्यानैकतानानबहिःप्रचारान्, सर्वंसहान्निर्वृतिसाधनार्थान्। संपूजयाम्युत्तरदिग्दलान्तः, साधूनशेषान्गुणशीलसिंधून् ।। 5 ।।
ॐ ह्रीं साधुपरमेष्ठिन् ! अत्र एहि एहि संवौषट् । ॐ ह्रीं साधुपरमेष्ठिन् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं साधुपरमेष्ठिन् ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । स्थापनं।। ॐ ह्रीं साधुपरमेष्ठिने जलं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं साधुपरमेष्ठिने चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं साधुपरमेष्ठिने अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं साधुपरमेष्ठिने पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं साधुपरमेष्ठिने नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं साधुपरमेष्ठिने दीपं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं साधुपरमेष्ठिने धूपं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं साधुपरमेष्ठिने फलं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं साधुपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। शांतिधारा, पुष्पांजलिः।।
-उपजातिछंदः-
आराधकानभ्युदये समस्ते, निःश्रेयसे वा धरति ध्रुवं यः । तं धर्ममाग्नेयविदिग्दलान्तः, समर्चये केवलिनोपदिष्टम् ।। 6 ।।
ॐ ह्रीं केवलिप्रज्ञप्तधर्म ! अत्र एहि एहि संवौषट्। ॐ ह्रीं केवलिप्रज्ञप्तधर्म! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं केवलिप्रज्ञप्तधर्म! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। स्थापनं।। ॐ ह्रीं केवलिप्रज्ञप्तधर्माय जलं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ हीं केवलिप्रज्ञप्तधर्माय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ हीं केवलिप्रज्ञप्तधर्माय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ हीं केवलिप्रज्ञप्तधर्माय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ हीं केवलिप्रज्ञप्तधर्माय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ हीं केवलिप्रज्ञप्तधर्माय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ हीं केवलिप्रज्ञप्तधर्माय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ हीं केवलिप्रज्ञप्तधर्माय फलं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ हीं केवलिप्रज्ञप्तधर्माय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। शांतिधारा, पुष्पांजलिः।।
-उपजातिछंद-
सुनिश्चयासंभवबाधकत्वात्, प्रमाणभूतं सनयप्रमाणम् । यजे द्विनानाद्विषभेदवेदं, मत्यादिकं नैऋतकोणपत्रे।। 7।।
ॐ हीं जिनागम! अत्र एहि एहि संवौषट् । ॐ हीं जिनागम! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ हीं जिनागम! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। स्थापनं।। ॐ हीं श्रीं क्लीं ऐं र्हं हसीं हसों जिनागमाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ हीं श्रीं क्लीं ऐं र्हं हसीं हसों जिनागमाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ हीं श्रीं क्लीं ऐं र्हं हसीं हसों जिनागमाय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ हीं श्रीं क्लीं ऐं र्हं हसीं हसों जिनागमाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ हीं श्रीं क्लीं ऐं र्हं हसीं हसों जिनागमाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ हीं श्रीं क्लीं ऐं र्हं हसीं हसों जिनागमाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ हीं श्रीं क्लीं ऐं र्हं हसीं हसों जिनागमाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ हीं श्रीं क्लीं ऐं र्हं हसीं हसों जिनागमाय फलं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ हीं श्रीं क्लीं ऐं र्हं हसीं हसों जिनागमाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। शांतिधारा, पुष्पांजलिः।।
-उपजातिछंद-
व्यपेतभूषायुधवेषदोषा-नुपेतनिःसंगदयाद्र्रमूर्तीन्। जिनेन्द्रबिंबान्भुवनत्रयस्थान्यजामहे वायुविदिग्दलेऽस्मिन् ।। 8 ।।
ॐ हीं सर्वजिनचैत्य! अत्र एहि एहि संवौषट्। ॐ हीं सर्वजिनचैत्य! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ हीं सर्वजिनचैत्य! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । स्थापनं।। ॐ हीं सर्वजिनचैत्येभ्यः जलं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ हीं सर्वजिनचैत्येभ्यः चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ हीं सर्वजिनचैत्येभ्यः अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ हीं सर्वजिनचैत्येभ्यः पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ हीं सर्वजिनचैत्येभ्यः नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ हीं सर्वजिनचैत्येभ्यः दीपं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ हीं सर्वजिनचैत्येभ्यः धूपं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ हीं सर्वजिनचैत्येभ्यः फलं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ हीं सर्वजिनचैत्येभ्यः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। शांतिधारा, पुष्पांजलिः।।
-उपजातिछंद-
सालत्रयान्सद्वनकेतुमानस्तंभालयान्मंडलमंगलाढ्यान् । गृहाजिनानामकृतान्कृतांश्च, भूतेशकोणस्थदले यजामि ।। 9 ।।
ॐ हीं सर्वजिनचैत्यालय! अत्र एहि एहि संवौषट् । ॐ हीं सर्वजिनचैत्यालय! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ हीं सर्वजिनचैत्यालय! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। स्थापनं।। ॐ हीं सर्वजिनचैत्यालयेभ्यः जलं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ हीं सर्वजिनचैत्यालयेभ्यः चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ हीं सर्वजिनचैत्यालयेभ्यः अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ हीं सर्वजिनचैत्यालयेभ्यः पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ हीं सर्वजिनचैत्यालयेभ्यः नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ हीं सर्वजिनचैत्यालयेभ्यः दीपं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ हीं सर्वजिनचैत्यालयेभ्यः धूपं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ हीं सर्वजिनचैत्यालयेभ्यः फलं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ हीं सर्वजिनचैत्यालयेभ्यः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। शांतिधारा, पुष्पांजलिः।।
अथवा समासेन नवदेवताराधनमेवं कुर्यात् (अथवा संक्षेप से नवदेवता पूजा करें) (आठ दल के कमल में कर्णिका में अर्हंत को, पूर्व आदि दिशाओं में सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु को एवं विदिशाओं की पंखुड़ियों पर जिनधर्म, जिनागम, जिनचैत्य और जिनचैत्यालय को स्थापित करके पूजा करें)
मध्येकर्णिकमर्हदार्यमनघं, बाह्येऽष्टपत्रोदरे। सिद्धान्सूरिवरांश्च पाठकगुरून्, साधूंश्च दिक्पत्रगान्। सद्धर्मागम जैनबिंबनिलयान्कोणस्थपत्रस्थितान्। भक्त्या सर्वसुरासुरेन्द्रमहितांस्तानष्टधेष्ट्या यजे।।10।। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र:अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुधर्मश्रुतचैत्यचैत्यालयाख्यनवदेवता! अत्र आगच्छत आगच्छत संवौषट्। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुधर्मश्रुतचैत्यचैत्यालयाख्यनवदेवता ! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुधर्मश्रुतचैत्यचैत्यालयाख्यनवदेवता ! अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वषट् । स्थापनं।। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुधर्मश्रुतचैत्यचैत्यालयाख्य नवदेवताभ्यः जलं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुधर्मश्रुतचैत्यचैत्यालयाख्य नवदेवताभ्यः चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुधर्मश्रुतचैत्यचैत्यालयाख्य नवदेवताभ्यः अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुधर्मश्रुतचैत्यचैत्यालयाख्य नवदेवताभ्यः पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुधर्मश्रुतचैत्यचैत्यालयाख्य नवदेवताभ्यः नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुधर्मश्रुतचैत्यचैत्यालयाख्य नवदेवताभ्यः दीपं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुधर्मश्रुतचैत्यचैत्यालयाख्य नवदेवताभ्यः धूपं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुधर्मश्रुतचैत्यचैत्यालयाख्य नवदेवताभ्यः फलं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुधर्मश्रुतचैत्यचैत्यालयाख्य नवदेवताभ्यः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। शांतिधारा, पुष्पांजलिः।
-उपजातिछंदः-
श्रीजैनमार्गप्रसितान्तरंगास्तिथिप्रमाणास्तिथिदेवतास्ताः।। यक्षादिका वर्तितपक्षभेदाः, संपूजयाम्यादिममंडलस्थाः ।। 11 ।।
ॐ ह्रीं यक्षवैश्वानरराक्षसनधृत पन्नग असुरसुकुमारपितृविश्वमालिनिचमर वैरोचनमहाविद्यमार- विश्वेश्वरपिंडाशिन्निति पंचदशतिथिदेवा! अत्र आगच्छत आगच्छत संवौषट् । ॐ ह्रीं यक्षवैश्वानरराक्षसनधृत पन्नग असुर सुकुमारपितृ विश्वमालिनि चमर वैरोचनमहाविद्यमार- विश्वेश्वरपिंडाशिन्निति पंचदशतिथिदेवा! अत्र स्थाने तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः। ॐ ह्रीं यक्षवैश्वानरराक्षसनधृत पन्नग असुर सुकुमारपितृ विश्वमालिनि चमर वैरोचनमहाविद्यमार- विश्वेश्वरपिंडाशिन्निति पंचदशतिथिदेवा! अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वषट् । ॐ ह्रीं पंचदशतिथिदेवेभ्य इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतान् पुष्पं दीपं धूपं चरुं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा। (अर्घ्य चढ़ावे)
-उपजातिछंद-
प्रदक्षिणीकृत्य चरन्ति मेरुं, ये निग्रहानुग्रहयोः प्रतीताः ।। ग्रहाननादन्निव वै द्वितीये, तान्मंडलेऽस्मिन् बहु मानयामि ।। 12 ।।
ॐ ह्रीं आदित्यसोमकुजबुधबृहस्पतिशुक्रशनैश्चरराहुकेतव, इति नवग्रहदेवाः! अत्र आगच्छत आगच्छत संवौषट्। ॐ ह्रीं आदित्यसोमकुजबुधबृहस्पतिशुक्रशनैश्चरराहुकेतव, इति नवग्रहदेवाः! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः । ॐ ह्रीं आदित्यसोमकुजबुधबृहस्पतिशुक्रशनैश्चरराहुकेतव, इति नवग्रहदेवाः! अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वषट्। ॐ ह्रीं आदित्यादिनवग्रहेभ्य इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतान् पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा। (अर्घ्य चढ़ावे)
-उपजातिछंद-
यक्षाधिका रक्षितधर्ममार्गा, ये गोमुखाद्यास्त्रिगुणाष्टसंख्याः ।। तृतीयसन्मंडलवर्तिनस्तान्-सपर्यया प्रीतिजुषस्तनोमि ।। 13 ।।
ॐ ह्रीं गोमुख-महायक्ष-त्रिमुख-यक्षेश्वर-तुंबरु-कुसुम-वरनंदि-विजय-अजित-ब्रह्मेश्वर-कुमार-षण्मुख-पाताल- किन्नर-किंपुरुष-गरुड-गंधर्व-खेन्द्र-कुबेर-वरुण-भृकुटि-सर्वाण्ह-धरणेन्द्र-मातंगाभिधानचतुर्विंशतियक्षदेवताः! अत्र आगच्छत आगच्छत संवौषट्। ॐ ह्रीं…..अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः। ॐ हीं……अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वषट् । ॐ ह्रीं गोमुखादिचतुर्विंशतियक्षेभ्य इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतान् पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा। (अर्घ्य चढ़ावे)
-उपजातिछंद-
सम्यक्प्रभावितजिनेश्वरशासनश्री-चक्रेश्वरीप्रभृतिशासनदेवता याः ।।
यक्षप्रमाणकलिता गुणिसंघगृह्यास्तास्तुर्यमंडलगता बलिना धिनोमि ।। 14 ।।
ॐ ह्रीं चक्रेश्वरी-रोहिणी-प्रज्ञप्ती-वज्रश्रृंखला-पुरुषदत्ता-मनोवेगा-काली-ज्वालामालिनी-महाकाली-मानवी- गौरी-गांधारी-वैरोटी-अनंतमती-मानसी-महामानसी-जया-विजया-अपराजिता-बहुरूपिणी-चामुंडी-कूष्मांडिनी- पद्मावती-सिद्धायिन्यश्चेति चतुर्विंशतिदेवताः! अत्र आगच्छत आगच्छत संवौषट् । ॐ ह्रीं ……अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः । ॐ हीं ….. अत्र सन्निहिता भवत भवत वषट् । ॐ ह्रीं चक्रेश्वर्यादिशासनदेवताभ्य इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतान् पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा। (अर्घ्य चढ़ावे)
-उपजातिछंद-
दिशाधिनाथा जिननाथयज्ञ-विघ्नौघविध्वंसविधानवित्ताः । इंद्रादयः पंचममंडलस्थाः, सपर्यया तेऽष्ट भवन्तु तुष्टाः ।। 15 ।।
ॐ ह्रीं इंद्राग्नियमनैऋतवरुणवायुकुबेरैशानाभिधानाष्टदिक्पालदेवाः! अत्र आगच्छत आगच्छत संवौषट् । ॐ ह्रीं इंद्राग्नियमनैऋतवरुणवायुकुबेरैशानाभिधानाष्टदिक्पालदेवाः! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः। ॐ ह्रीं इंद्राग्नियमनैऋतवरुणवायुकुबेरैशानाभिधानाष्टदिक्पालदेवाः! अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वषट् । ॐ ह्रीं इंद्राद्यष्टदिक्पालकदेवेभ्य इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतान् पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा। (अर्घ्य चढ़ावे)
-उपजातिछंद-
द्वे राक्षसी द्वावसुरावही द्वौ, द्वौ वैनतेयाविति साष्टसंख्यान् ।।
दौवारिकानिष्टबलिप्रदानात्पूर्वादिदिग्द्वारगतान् धिनोमि ।। 16 ।।
ॐ ह्रीं राक्षसाद्यष्टदौवारिका! अत्र आगच्छत आगच्छत संवौषट् । ॐ ह्रीं राक्षसाद्यष्टदौवारिका! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः। ॐह्रीं राक्षसाद्यष्टदौवारिका! अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वषट् । ॐ ह्रीं राक्षसाद्यष्ट दौवारिक देवेभ्य इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतान् पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा। (अर्घ्य चढ़ावे) 108 सुगंधित पुष्पों से आगे लिखित मंत्र को जपें
-उपजातिछंद-
शुभप्रसन्नैर्मणिभिर्विशुद्धैस्तथा समंत्रैरथवाङ्गुलीभिः ।।
आराधयाम्यष्टशतं सुरेन्द्रैराराध्यपादं भगवज्जिनेन्द्रम्।। 17 ।।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आ उ सा स्वाहा ।
अनेनाष्टोत्तरशतपुष्पैरर्हन्तमाराधयेत् ।। स्तुतिः
-शार्दूलविक्रीडितं-
येऽर्हन्तस्त्रिजगज्जनैकशरणाः, सिद्धा निरुद्धान्तक व्यापारा गणरक्षिणःशिवपथाभ्युद्धारिणोध्यापकाः।
धीमत्सर्वपदीनलोचनसृजो, वाचंयमाः संयम ज्ञानध्यानजुषो मनीषितपुषस्तान्नौम्यहं भक्तितः ।। 18 ।।
स्रग्धराछंद- दिग्विन्यस्तक्षिबीजांतरलिखितलकारं ठकारावृतांगम्। द्विर्धात्रीमंडलान्तर्निहितमुपहितब्रह्मलींकारकोष्ठं।।
ग्लौं क्ष्मं ठं वेष्टितांतं क्षितितलमहितं ध्यायति प्रत्यहं यो। देवं ह्म्ल्व्र्यूंकाररूपं रिपुकुलमखिलं तस्य संस्तम्भमेति ।। 19 ।।
ऊर्ध्ववाधःपार्श्वदत्तांकुशमितरदिशा योजितं क्लीं सबीजं । जंभामोहात्तकोष्ठज्वलनपुरपुटाग्लांतरों प्लूं समेतम् ।।
ॐ ब्लें धात्रे वषंऽवेष्टितमवनिपुरान्तर्गतं देव यस्त्वां । ॐ हींकारं ध्यायतीद्ध्द्युतिमखिलजगद्वश्यतां तस्य याति ।। 20।।
झं वं व्हः पः क्षि बीजाक्षरमयवपुषं ठस्वरैरावृतांगं । त्रिघ्नाष्टार्धाब्जपत्रार्पितसकलसितं सांतसत्संपुटास्थम् ।।
क्लीं हं सः सक्तमंभः पुरपुटघटितं मूध्र्नि देवं भवन्तं । ध्यायेद्यस्तस्य भद्रं शिवममलमलं मंगलं सर्वकालम् ।। 21 ।।
-शार्दूलविक्रीडितं-
आकृष्टिं सुरसंपदां विदधते मुक्तिश्रियो वश्यतां । उच्चाटं विपदां चतुर्गतिभुवां विद्वेषमात्मैनसाम् ।।
स्तंभं दुर्गमनं प्रति प्रयततो मोहस्य संमोहनं । पायात्पंचनमस्क्रियाक्षरमयी साराधना देवता ।। 22 ।।
अथ जिनेन्द्रमहापूजास्तवसमेतं श्रीचैत्यभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं। (प्रतिज्ञा करके ‘णमो अरहंताणं से दुच्चरियं वोस्सरामि’ बोलकर 9 बार णमोकार मंत्र का जप करके ‘चउवीसं’ आदि स्तुति पढ़कर चैत्यभक्ति पढ़ें।) णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं ।। चत्तारिमंगलं-अरिहंत मंगलं। सिद्ध मंगलं। साहु मंगलं। केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारि लोगुत्तमा-अरिहंत लोगुत्तमा सिद्ध लोगुत्तमा। साहु लोगुत्तमा। केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा। चत्तारि सरणं पव्वज्जामि-अरिहंत सरणं पव्वज्जामि। सिद्ध सरणं पव्वज्जामि। साहु सरणं पव्वज्जामि। केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि। जाव अरहंताणं भयवंताणं पज्जुवासं करेमि तावकायं पावकम्मं दुच्चरियं वोस्सरामि । (9 बार णमोकार मंत्र पढ़ना) थोस्सामि स्तव या- चउवीसं तित्थयरे उसहाइवीर पच्छिमे वंदे। सव्वे सगणगणहरे, सिद्धे सिरसा णमंसामि । पुनः-
-शार्दूलविक्री-
कोट्योऽर्हत्प्रतिमाः शतानि नवतिः, पंचोत्तरा विंशतिः । पंचाशत्त्रियुता जगत्सु गुणिता, लक्षाः सहस्राणि तु ।।
सप्ताग्रापि च विंशतिर्नवशतिद्व्यूनं शतार्धं मता स्ता नित्याः पुरुतुंगपूर्वमुखसत्पर्यंकबंधाः स्तुवे ।। 23 ।।
इच्छामि भंत्ते । चेइयभत्तिकाओसग्गो कओ तस्सालोचेउं । अहलोयतिरियलोयउड्ढलोयम्हि किट्टिमाकिट्टिमाणि जाणि जिणचेइयाणि ताणि सव्वाणि तिसु वि लोएसु भवणवासियवाणवेंतरजोयिसियकप्पवासियन्ति चउविहा देवा सपरिवारा दिव्वेहिं गंधेहिं, दिव्वेहिं अक्खेहिं, दिव्वेहिं पुप्फेहिं, दिव्वेहिं दीवेहिं, दिव्वेहिं धूवेहिं, दिव्वेहिं चुण्णेहिं, दिव्वेहिं वासेहिं, दिव्वेहिं ण्हाणेहिं, णिच्चकालमच्चंति, पुज्जंति, वंदंति, णमंसन्ति चेदियमहाकल्लाणं करंति। अहमवि इह संतो तत्थ संताइं णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं। अथ जिनेंद्रमहापूजास्तवसमेतं पंचगुरुभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं। शेषं णमो अरिहंताणं, चत्तारि मंगलमित्यादि पूर्ववत् । (पूर्ववत् विधि से कायोत्सर्ग करें)
-पंचगुरु भक्ति अनुष्टुप् छंद-
प्रातिहार्यैर्जिनान्सिद्धान्गुणैः सूरीन्स्वमातृभिः। पाठकान्विनयैः साधून्योगांगैरष्टभिः स्तुवे ।। 24 ।।
इच्छामि भंत्ते ! पंचगुरुभत्तिकाओसग्गो कओ तस्स आलोचेउं । अट्ठमहापाडिहेर सहियाणं अरहंताणं। अट्ठमहाकम्मविप्पमुक्काणं सिद्धाणं। अठ्ठपवयणमाउसंजुत्ताणं आइरियाणं। आयारादिसुदणाणोवदेसयाणं उवज्झायाणं। तिरयणगुणपालणरयाणं सव्वसाहूणं। भत्तीए णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं । अथ जिनेन्द्रमहापूजास्तवसमेतं श्रीशांतिभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं। शेषं पूर्ववत् । (विधिपूर्वक कायोत्सर्ग करें) शांतिभक्ति शार्दूलविक्रीडित-श्रीमत्पंचमसार्वभौमपदवीं, प्रद्युम्नरूपश्रियं। प्राप्तः षोडशतीर्थकृत्वमखिल-त्रैलोक्यपूजास्पदम्।। यस्तापत्रयशांतितः स्वयमितः, शांतिं प्रशांतात्मनाम्। शांतिं यच्छति तं नमामि परमं, शांतिं जिनं शांतये।।25।। इच्छामि भंते ! संतिभत्तिकाओसग्गो कओ तस्सालोचेउं। अठ्ठमहापाडिहेरसहियाणं पंचमहाकल्लाणसंपण्णाणं, चउत्तीसअइसयविसेससंजुत्ताणं, बत्तीसदेविंदमणिमौलिमत्थमहियाणं, बलदेववासुदेवचक्कहररिसिमुणिजयिअणगारावगूढाणं, थुयिसयसहस्सणिलयाणं, उसहायिवीरावसाणाणं मंगलमहापुरुसाणं, भत्तीये णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं ।। अथ जिनेन्द्रमहापूजास्तववंदनासमेतं सिद्धचैत्यपंचगुरुशांतिभक्तीर्विधाय तद्धीनाधिकदोषविशुद्ध्यर्थं समाधिभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं।। शेषं पूर्ववत् । (पूर्ववत्, णमोकार आदि चत्तारिदण्डक 9 बार जाप्य व थोस्सामिस्तव पढ़कर पूरी विधि करें)
-समाधिभक्ति अनुष्टुप् छंद-
स्वात्माभिमुखसंवित्ति-लक्षणं श्रुतचक्षुषा । पश्यन्पश्यामि देव ! त्वां, केवलज्ञानचक्षुषा ।। 26 ।।
इच्छामि भंते ! समाहिभत्तिकाओस्सग्गो कओ तस्स आलोचेउं । रयणत्तयसरूवपरमप्पज्झाणलक्खणं समाहिं सव्वकालमंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं ।।
प्रध्वस्ताशेषघातिप्रकटनिरवधिज्ञानदृग्वीर्यसौख्यः। कल्याणैः पंचभेदैः प्रविलसति चतुस्त्रिंशता चातिशेषैः।।
तैरष्टप्रातिहार्यैस्त्रिजगदधिपतिर्यस्तमेनं प्रवंदे । स्याद्वादामोघवाक्यं सकलसुखकरं सन्नतेन्द्रं जिनेन्द्रम् ।।27।।
इति पंचांगप्रणामः। (पंचांग नमस्कार करें)। शांतिमंत्रं पंचकृत्वः गणधरवलयं पुण्याहमंत्रं च जप्त्वा जिनपादशेषं मूध्र्नि धारयेत् ।।
(शांति मंत्र को पांच बार पढ़कर गणधरवलय मंत्र पढ़ें पुनः पुण्याहमंत्र को बोलकर जिनेंद्रदेव की शेषा को मस्तक पर धारण करें।) शांतिमंत्र (शांति मंत्र को 5 बार पढ़ें) ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अ सि आ उ सा नमः सर्वशांतिं कुरु कुरु वषट् स्वाहा।
णमो जिणाणं, णमो ओहिजिणाणं, णमो परमोहि-जिणाणं, णमो सव्वोहिजिणाणं, णमो अणंतोहिजिणाणं, णमो कोट्ठबुद्धीणं, णमो बीजबुद्धीणं, णमो पादाणु-सारीणं, णमो संभिण्णसोदाराणं, णमो सयंबुद्धाणं, णमो पत्तेयबुद्धाणं, णमो बोहियबुद्धाणं, णमो उजुमदीणं, णमो विउलमदीणं, णमो दसपुव्वीणं, णमो चउदस-पुव्वीणं, णमो अट्ठंग-महा-णिमित्तकुसलाणं,णमो विउव्व-इड्ढि-पत्ताणं, णमो विज्जाहराणं, णमो चारणाणं, णमो पण्णसमणाणं, णमो आगास-गामीणं, णमो आसीविसाणं, णमो दिट्ठिविसाणं, णमो उग्गतवाणं, णमो दित्ततवाणं, णमो तत्ततवाणं, णमो महातवाणं, णमो घोरतवाणं, णमो घोरगुणाणं, णमो घोर-परक्कमाणं, णमो घोरगुण-बंभयारीणं, णमो आमोसहिपत्ताणं, णमो खेल्लोसहिपत्ताणं, णमो जल्लोसहिपत्ताणं, णमो विप्पोसहिपत्ताणं, णमो सव्वोसहिपत्ताणं, णमो मणबलीणं, णमो वचिबलीणं, णमो कायबलीणं, णमो खीरसवीणं, णमो सप्पिसवीणं, णमो महुरसवीणं, णमो अमियसवीणं, णमो अक्खीणमहाणसाणं, णमो वड्ढमाणाणं, णमो सिद्धायदणाणं, णमो भयवदो महदिमहावीर-वड्ढमाणबुद्धरिसीणं, ॐ हां हीं हूं हौं ह: अ सि आ उ सा अप्रतिचक्रे फट् विचक्राय ह्मममफ ह्मममफ नमः स्वाहा।
।। अथ धर्माचार्यस्यार्चनम् ।।
-अष्टकम् आचार्यदेव की पूजा रथोद्धताछंदः-
शांतिकुंभमयकुंभसंभृतामोदमुख्यगुणशुंभदम्भसा । धर्मसूरिपदपंकजद्वयं यायजीमि भुवनैकभूषणम् ।। 1 ।।
ॐ ह्रीं आचार्यदेवाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मंदगंधवहसंगसंसरद्गंधबंधुरसुगंधचर्चया ।। धर्मसूरिपदपंकजद्वयं यायजीमि भुवनैकभूषणम् ।। 2 ।।
ॐ ह्रीं आचार्यदेवाय गंधं निर्वपामीति स्वाहा।
ऋक्षभाक्षपणदक्षकक्षतक्षेपसौक्ष्म्यपरिलक्षिताक्षतैः ।। धर्मसूरिपदपंकजद्वयं यायजीमि भुवनैकभूषणम् ।। 3।।
ॐ ह्रीं आचार्यदेवाय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मंजुगुंजदलिपुंजमंजुलानेकनूतनविनूतपुष्पकैः ।। धर्मसूरिपदपंकजद्वयं यायजीमि भुवनैकभूषणम् ।। 4 ।।
ॐ ह्रीं आचार्यदेवाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
वर्णगंधरसपाकसारतामेदुरान्नपरमान्नभक्ष्यकैः ।। धर्मसूरिपदपंकजद्वयं यायजीमि भुवनैकभूषणम् ।। 5 ।।
ॐ ह्रीं आचार्यदेवाय चरुं निर्वपामीति स्वाहा।
लोलुपालिकुलवच्छिखालसत्कालिकाकलितकर्पुरार्चिषा ।। धर्मसूरिपदपंकजद्वयं यायजीमि भुवनैकभूषणम् ।। 6 ।।
ॐ ह्रीं आचार्यदेवाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
भृंगमंगलनिनादतो नभोरंगनृत्यदुरुधूपधूमकैः ।। धर्मसूरिपदपंकजद्वयं यायजीमि भुवनैकभूषणम् ।। 7 ।।
ॐ ह्रीं आचार्यदेवाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
बीजपूरसहकारसौरभैः चोचमोचपनसादिसत्फलैः ।। धर्मसूरिपदपंकजद्वयं यायजीमि भुवनैकभूषणम् ।। 8 ।।
ॐ ह्रीं आचार्यदेवाय फलं निर्वपामीति स्वाहा।
-मालिनीछंद-
विनुतविनयसिंधुर्भव्यलोकैकबंधुः । प्रकटितनिजधर्मो भूरिसत्पुण्यकर्मा ।।
निखिलमुनिजनेन्द्रो नम्रनानानरेन्द्रो । जयतु विनुतधैर्यः सन्नुताचार्यवर्यः ।। 9 ।।
ॐ ह्रीं आचार्यदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। शांतिधारा, पुष्पांजलिः।
अनेनाघ्र्यं दत्वा पंचांग प्रणामं कृत्वा प्रागुक्तविधिना यज्ञदीक्षामिंद्रः स्वीकुर्यात् ।।
(इस पद्य से अर्घ्य चढ़ाकर पंचांग नमस्कार करें पुनः प्रतिष्ठाचार्य यज्ञदीक्षा ग्रहण करें।) अथ यंत्रदेवताविसर्जनादिविधानम् (आगे की विधि से विसर्जन करें)
-अनुष्टुपछंद-
अष्टाशीतिसुरा हूताः शिष्टार्हत्प्रभुपूजने ।। इष्टमस्माकमापाद्य तुष्टा यांतु यथायथम् ।। 1 ।। 1.
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आ उसा नवदेवताः स्वस्थानं गच्छत गच्छत जः जः जः।। ॐ हीं अष्टाशीतिपरिवारदेवाः स्वस्थानं गच्छत गच्छत जः जः जः । इति यंत्रदेवताविसर्जनम् । तदन्ते अर्चनावेरं स्वस्थाने विनिवेशयेत् ।। (इस विसर्जन के बाद भगवान को वेदी में विराजमान कर दें।)
अथ द्वारपालबलिः (द्वारपाल पूजा) शिलामध्येथ नासाया मध्ये सव्येतराग्रयोः ।।
शिलाया अपि षड्द्वारदेवताभ्यो बलिं ददे ।। 1 ।। 2.
ॐ ह्रीं क्रों प्रशस्तवर्णा हे सर्वलक्षणसंपूर्णायुधसपरिवाराः क्षेत्रपालाः श्रियः गंधर्वाः किन्नराः प्रेताः भूताः सर्वेपि ॐ भूर्भुवः स्वाहा । इमं साघ्र्यं चरुममृतमिव स्वस्तिकं यज्ञभागं गृण्हीत गृण्हीत ।। इति द्वारपालबलिः ।। (क्षेत्रपाल, श्री, गंधर्व, किन्नर, प्रेत और भूत इन छह को नैवेद्य सहित अर्घ्य समर्पित करना द्वारपाल बलि कहलाती है। यह विधि मंदिर के द्वार पर की जाती है।)
अथ ब्रह्माष्टदिक्पालबलिः (ब्रह्मदेव एवं दिक्पालपूजा) मध्येगृहं विधातारमर्चये सलिलादिभिः। अष्टौ दिक्पालकान् दिक्षु बलिपीठे पदामरान्।।1।।
(जिनमंदिर के मध्य भाग में और आठों दिशाओं में एक एक पात्र रखना उन्हीं में क्रम से µ मध्य में ब्रह्मदेव को अर्घ्य देना पुनः आठों दिशाओं में क्रम से नैवेद्य सहित अर्घ्य समर्पण करना यही ब्रह्मबलि एवं दिक्पाल बलि विधि है।) ॐ ह्रीं क्रों रक्तवर्णसर्वलक्षणसंपूर्ण यानायुधयुवतिजनसहित ब्रह्मन् भूर्भुवः स्वः स्वाहा । इदं साघ्र्यं चरुं अमृतमिव स्वस्तिकं यज्ञभागं गृहाण गृहाण स्वाहा। इति ब्रह्मबलि ।। (मध्य में अर्घ्य देना) ॐ ह्रीं कनकवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्ण यानायुधयुवतिजनसहित हे इंद्र! एहि एहि। (पुष्पांजलिः) ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा इदं साघ्र्यं चरुं अमृतमिव स्वस्तिकं यज्ञभागं गृहाण गृहाण स्वाहा ।। पूर्व दिशा में अर्घ्य ॐ ह्रीं रक्तवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्ण यानायुधयुवतिजनसहित हे अग्ने! एहि एहि। (पुष्पांजलिः) ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा इदं साघ्र्यं चरुं अमृतमिव स्वस्तिकं यज्ञभागं गृहाण गृहाण स्वाहा ।। आग्नेय में अर्घ्य ॐ ह्रीं कृष्णवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्ण यानायुधयुवतिजनसहित हे यम! एहि एहि। (पुष्पांजलिः) ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा इदं साघ्र्यं चरुं अमृतमिव स्वस्तिकं यज्ञभागं गृहाण गृहाण स्वाहा ।। दक्षिण में अर्घ्य ॐ ह्रीं श्यामवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्ण यानायुधयुवतिजनसहित हे नैऋत! एहि एहि। (पुष्पांजलिः) ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा इदं साघ्र्यं चरुं अमृतमिव स्वस्तिकं यज्ञभागं गृहाण गृहाण स्वाहा।। नैऋत में अर्घ्य ॐ ह्रीं धवलवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्ण यानायुधयुवतिजनसहित हे वरुण! एहि एहि। (पुष्पांजलिः) ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा इदं साघ्र्यं चरुं अमृतमिव स्वस्तिकं यज्ञभागं गृहाण गृहाण स्वाहा।। पश्चिम में अर्घ्य ॐ ह्रीं कृष्णवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्ण यानायुधयुवतिजनसहित हे पवन! एहि एहि। (पुष्पांजलिः) ॐ भुर्भुवः स्वः स्वाहा इदं साघ्र्यं चरुं अमृतमिव स्वस्तिकं यज्ञभागं गृहाण गृहाण स्वाहा ।। वायव्य में अर्घ्य ॐ ह्रीं पीतवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्ण यानायुधयुवतिजनसहित हे कुबेर! एहि एहि। (पुष्पांजलिः) ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा इदं साघ्र्यं चरुं अमृतमिव स्वस्तिकं यज्ञभागं गृहाण गृहाण स्वाहा ।। उत्तर में अर्घ्य ॐ ह्रीं धवलवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्ण यानायुधयुवतिजनसहित हे ईशान! एहि एहि। (पुष्पांजलिः) ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा इदं साघ्र्यं चरुं अमृतमिव स्वस्तिकं यज्ञभागं गृहाण गृहाण स्वाहा।। ईशान में अर्घ्य देना।। ।। इति दिक्पालबलिः।। ॐ हीं क्रों अपदाः सर्वे देवाः इमं बलिं गृण्हीत गृण्हीत ।। इत्यपददेवेभ्यो बलिं बलिपीठे दद्यात् ।। इत्यपददेवताबलिः।। (बलिपीठ बलि पूजा के पात्र में अर्घ्य देना)
गद्य ॐ समस्ताभ्युदयनिःश्रेयससमुद्भूतदुस्तरसुखनिस्तीरनिजानंदनिदाननित्यमहादिजैनमहामहं विधाय, तस्यांते सकलमंगलकुलमंदिर- भगवज्जिनमंदिरमुखमंडपदक्षिणदिग्भागरचित-चतुरस्रमंडलविन्यस्तस्य, द्वित्रिचतुस्तालान्यतमव्यासैकांगुलतटोच्छ्रयस्य, रजतमहारजतादिमयस्य बलितालस्य तत्त्रिभागविष्कंभायामे तद्दलायामाष्टदलवेष्टितायां एकांगुलोच्छ्राय-तन्मध्यकर्णिकायां पंचकुटपप्रस्थद्वयाढकान्यतममानकलमतंडुलसुश्रुतेन दधिपक्वफलादिकलितेन बलिवल्भेन अष्टांशवर्जितकर्णिकासममूलव्यासद्वयं-गुलाग्रव्यासक्रमहानिरूपेण बलिपिंडं परिकल्प्य, तदुपरि पंचाक्षरीरूपपंचनमस्कारं विन्यस्य, पंचगुरुसंकल्पेन बलिपिंडं समभ्यच्र्य, शुद्धदर्शनसुलक्षणोपलक्षितबलिवाहकस्य, प्राण्हे शोणोत्तरीयमाल्यानुलेपन- स्यायोदंड-मंडितस्य समौनस्योदङ्मुखस्य शिरसि सोष्णीषे बलितालं समारोप्य शंखकाहलाभ्यां अन्यत्र सकलवादित्रशब्दरहितं द्वारतो निर्गत्य छत्रचामरगानानेकनानावाद्यनिनादविराजितेन जिनबिंबपुरःसरेण बलितालेन जिनमंदिरं मंगिणीतालेन प्रथमवारे परीत्य पूर्वादिदिक्षु क्रमेण समहस्तलिंगितकर्तृवाद्यतुटंकरीखर्जुसकौंचवटभविषमंजरीतालैद्र्वितीयवारे तत्परीत्य बलिपीठं सकृत्प्रदक्षिणीकृत्य प्रक्षाल्य पादौ जिनावासं प्रविश्य तदभ्यंतरे बलिस्थापनभंगिमल्लनवनागकौलिककटंकरीतालैस्तृतीयवारे तत्परीत्य द्वारोपांते जिनार्चामभ्यच्र्य तां बलिं च पूर्वस्थाने निवेश्य, बलिदेवानभ्यच्र्य, विनम्य, विसृज्य, बल्यन्नमंभःसंभृतं बलिपीठे निधाप्य, बलिक्रियां मध्यान्हे सितांबरादिमद्धृततद्बलिना, निशि पीतांबरादिमद्- धृततद्बलिना जिनबिंबवियुक्तेन तां तथैव निष्ठाप्य, राजराष्ट्रश्रीबलकरश्रीबलिनामनित्योत्सवं एवं विधाय नित्यानंद- निबंधननित्यमहादिजैनमहामहमंगलं सांगं विधातुमिमे वयं उत्सहामहे। क्रमविध्यवधानाय पुष्पांजलिः।। पात्र में निक्षिप्त बलिपिंड की पूजा (सर्वत्र बलि का अर्थ नैवेद्य आदि से पूजा करना है) (पिंड के मध्य अरिहंत को, पूर्वादिदिशाओं में सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु को स्थापित कर उनकी पूजा करें।) मध्ये जिनेन्द्रानिह वल्भपिंडे, क्रमेण पूर्वादिषु दिक्षु सिद्धान्।। सूरीनुपाध्यायगुरूंश्च साधू-नाराधयामो विधिना स्वमंत्रैः।। 1।।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आउसा पंचपरमेष्ठिनः! अत्र आगच्छत आगच्छत संवौषट् । ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आउसा पंचपरमेष्ठिनः! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः।। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आउसा पंचपरमेष्ठिनः! अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वषट् ।। स्वच्छैस्तीर्थजलैरतुच्छसहजप्रोद्गंधिगंधैः सितैः।। सूक्ष्मत्वायति शालिशालिसदकैर्गंधोद्गमैरुद्गमैः। हव्यैर्नव्यरसैः प्रदीपितशुभैर्दीपैर्विपद्धूपकैः।। धूपैरिष्टफलावहैर्बहुफलैः पंचापि चाये गुरून्।। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: पंचपरमेष्ठिनः! जलं गृण्हीध्वं गृण्हीध्वं नमः । ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: पंचपरमेष्ठिनः! गंधं गृण्हीध्वं गृण्हीध्वं नमः । ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: पंचपरमेष्ठिनः! अक्षतं गृण्हीध्वं गृण्हीध्वं नमः । ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: पंचपरमेष्ठिनः! पुष्पं गृण्हीध्वं गृण्हीध्वं नमः। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: पंचपरमेष्ठिनः! चरुं गृण्हीध्वं गृण्हीध्वं नमः । ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: पंचपरमेष्ठिनः! दीपं गृण्हीध्वं गृण्हीध्वं नमः । ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: पंचपरमेष्ठिनः! धूपं गृण्हीध्वं गृण्हीध्वं नमः । ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र:पंचपरमेष्ठिनः! फलं गृण्हीध्वं गृण्हीध्वं नमः । ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: पंचपरमेष्ठिनः! अर्घ्यम् गृण्हीध्वं गृण्हीध्वं नमः ।। 2 ।। प्रथम पर्यये (प्रथम प्रदक्षिणा में)-
भवेयुर्मंगिणीताले लघुर्बिंदू र्लघू गुरू ।। नांदीनामांतरं पूर्वपर्यये तं प्रयोजय ।। मंगिणीतालम्।। (मंगिणी ताल पर नृत्य करते हुए मंदिर की प्रदक्षिणा देवें) तक्कत्तो दिगिदिगिणां ण्णंतकणां। दिक्किणगिणदो। तक्ंकिंणंगण्णिं गिडिदिरगिड। तगदरगिडदगिडतक्कणंगी। तद्दित्त। तक्कडतगदरगिडदगिदो।। इति प्रथमपर्ययः। द्वितीय पर्यये (दूसरी प्रदक्षिणा में)-
(पूर्व दिशा में इस ताल पर नृत्य करें)� समहस्ते लघुद्वंद्वं विरामंतं द्रुतद्वयम् ।। द्वितीयपर्यये प्राच्यां सामान्याख्यः स योज्यताम् ।। 00 ।।
तक्कतरिकी तकणंगि तोकणं तकणं। दिक्किणगिणदो दिक्कणगिणदो।।
तक्कडदरिगिड तगदर गिडदगि तक्कणंगि तरिकिट तदित्ततक्कइ तगदरगिडदगिदो ।।1।।
(आग्नेय दिशा में इस ताल पर नृत्य करें)
ताले लिंगितसंज्ञे स्याद् द्रुतद्वंद्वं गुरुर्लघुः ।। ललितापरनामानं आग्नैय्यां तं प्रवादय ।। 7009 ।।
तद्धित्तगणंग तोक । दिगिदिगिणां दिक्किणगिणदो । दरिगिडदरिगिडतगदरगिडदगि ।
तक्कंणं गित्तरिकिट्टतद्दित्ततक्कड तगदरगिडदगिदो ।। 2 ।।
(दक्षिण दिशा में निम्नलिखित ताल पर नृत्य करें)
कर्तृवाद्याव्हये ताले द्रुतद्वंद्वं लघुद्वयम्।। कुडुक्कापरनामानं अपाच्यां तं प्रयोजय ।। 700 ।।
तक्कणं दिक्कणदिद्धि । णंतकणं दिक्किणगिणदो तत्तरगिडदगि । तक्कणंगि तक्कत्तरि । तत्तरगिडदगि। तदित्ततक्कड तगदरगिडदगिदो ।। 3 ।।
(नैऋत्य दिशा में निम्नलिखित ताल पर नृत्य करें)
ताले तुटंकरीनाम्नि द्रुतद्वंद्वं लघुस्तथा।। तं तुरंगापराभिख्यं नैऋत्यां दिशि योजय ।। 0 0 ।।
तक्कतोक । तरिकितो कणंगतोक । दिगिदिगिणं तक्कणंगि दिक्किण गिणदो।
टिक्किटिक्किडदगिणंगु। णंगिड दगिदरि गिडदरि गिडदाग तक्कत्तरि कितकणंगि तक्कट दगिदरि गिडदगिदो तम् ।। 4 ।।
(पश्चिमदिशा में निम्नलिखित ताल पर नृत्य करें)
चत्वारो लघवश्चांते गुरुः खर्जुसतालके।। कंतुकापरसंज्ञं तं प्रतीच्यां परिवादय।।
दिकितोक णकतोक णंदिणं तकणं दिक्किणगिणदो । दित्तगणंगिड तक्कड दिक्कड।
तगदरगिडदगि तक्कणंगि। तद्दित्त तक्कड तगदर गिडदगिदो ।। 5 ।।
(वायव्यदिशा में निम्नलिखित ताल पर नृत्य करें)
क्रौंचताले द्रुतं द्वंद्वं यगणः परिकीर्तितः।। कंदर्पापरसंज्ञं तं वायव्यां दिशि वादय।। 70099 ।।
तद्दिक्कित्तोंग दरिगिड तगदरगिडदगि तद्दिगि दिंदिं निदिगिणां तकणां दिक्किणं
गिणंतो तक्कड तगदरगिडदगिदरिगिददगिनं गिडदगि।
तत्तरि तरिक्कितगणंगिदो। गिडदगितद्धि । तक्कडतगदरगिडदगिदो ।। 6।।
(उत्तर दिशा में निम्नलिखित ताल पर नृत्य करें)
ताले वटभसंज्ञे स्यान्नगणो मगणस्तथा ।। वसंतापरनामानं उदीच्यां तं प्रयोजय ।। 7 ।। 999 ।।
तद्दिगदीं। तद्दिगदीं। दिकितोक तदिगिदि णंतकणां दिक्किणगिणंदो ।
तक्कड दगिदरि गिडदगि तक्कडतगदरगिडदगि।
तक्कतरि तत्तरगिडदगि तद्दित्त। तक्कड तगदर गिडदगिदो ।। 7 ।।
(ईशान दिशा में निम्नलिखित ताल पर नृत्य करें)
वेदद्रुता विरामांता द्विवारं विषमंजरौ।। विषमापरसंज्ञां तामैशान्यां दिशि वादयेत् ।। 700000000 ।।
तक्किटकातक तरिकिणां तक्कणंगि । धिकिणगिणतो । तक्कडदगि दरिगिड दरिगिड। तक्कडदगित । तक्कडदगि ।
दरिगिड दरिगिड । तक्कड दगित । तक्कडदगि । दरिगिड दरिगिड दगितोतम् ।। 8 ।।
इति द्वितीयपर्ययः।
यह द्वितीय प्रदक्षिणा हुई। बलिपीठं सकृत्प्रदक्षिणीकृत्य प्रक्षाल्य पादौ जिनावासं प्रविश्य तदभ्यन्तरे।
(द्वितीय प्रदक्षिणा के अनंतर बलिपीठ को एक प्रदक्षिणा देकर पैर धोकर जिनमंदिर में प्रवेश करके तीसरी प्रदक्षिणा में पूर्व आदि दिशाओं में आगे कहे हुये ताल पर नृत्य करते हुए विधि करें)।।(पुनः पूर्व दिशा में आगे लिखा हुआ श्लोक व गद्य पढ़कर नृत्य करें) तृतीय पर्यये (तीसरी प्रदक्षिणा में)-
लघुद्वयाप्लुतस्ताले बल्याख्ये तं प्रयोजय। तृतीयपर्यये प्राच्यामुत्सवापरनामकम् ।।7।।9।।
तक्कतोक दिकितोक णं दिक्किडदगित्तक्कणां दिकिण गिणदो । दरिगिड तगदर गिडदगि ।
दरिगिड तगदर गिडदगि । तकणंकि तरिकिट्ट । तत्तरगिडदगि । तद्दित्त तक्कड । तगदर गिडदगिदो ।। 1 ।।
(ऐसे ही दिशाओं के क्रम से श्लोक व गद्य पढ़-पढ़कर नृत्य करें)
स्थापनाख्ये भवेत्ताले द्रुतद्वंद्वं लघुः प्लुतः ।। तं वद्र्धनापराभिख्यं आग्नेय्यां दिशि योजय ।। 7009 ।।
दिगि दिगिणं । दिक्किणदिं। णंदिक्किड दगितक्कणं दिक्किण । गिणगिणदो ।
तत्तरगिडदे गिडदगिगिड दगिगिड तगदरगिड देगिड दगिडंगिड ।
तक्कडदरिगिड । तगदरगिडदगि । तद्दित्त तक्कड तगदर गिडदगिदो ।। 2 ।।
भंगिनामनि ताले स्याल्लघुद्वंद्वं गुरुद्वयम् ।। त्रिभंग्यपरसंज्ञं तं यमाशायां प्रयोजय ।। 7 ।। 99 ।।
तक्कतरिकि तोक तक्कडदगि दरिगिड दगितोक तक्कण दिक्किणं तकणां।
दिक्किणगिणदो तत्तरगिडदगि। तक्कणंगि तक्कुत्तरिगित्त तक्कुत्तरिगि ।
तक्कडदरिगिड । तगदरिगिड दगिणां । तद्दित्ततक्कड तगदरगिडदगिदो।।
मल्लताले चतुर्मात्रं विरामांतं द्रुतद्वयं ।। नैऋत्यां दिशि तं वाद्यवादनाभिख्य वादय ।। 00।।
तक्कतोक दिकितोकणं दिक्किणदि णंतकणं दिक्किणगिणदो । तक्कण दरिगिड ।
तगदरगिडदगि। तक्कणंगि तरिकिट्ट तद्दित्त । तक्कड तगदर गिडदगिदो । ।। 4 ।।
नवताले लघुद्वन्द्वं गुरुद्वन्द्वं प्लुतस्तथा ।। नंदनापरनामानं प्रतीच्यां तं प्रयोजय ।।7।।999।।
तक्कत्तो तरिकि तक्कडदगि। तक्कणंग तोक तक्कणदोक तक्कणां।
दिकिणंगिणंदो तत्तरगिडदगि । तक्कणंगि। तगदर गिडदगि। तक्कणंगि ।
तक्कडदरिगिड । तगदरगिदगि तक्कणंगि । तरिकिट तद्दित्त । तक्कट तगदर गिडदगिदो ।। 4 ।।
-अनुष्टुप् छंद-
नागताले विरामान्तं भवेल्लघुचतुष्टयम् ।। गजलीलपराख्यं तं वायव्यां दिशि योजय ।। 7 ।।
दिगिदिगिणं णंतकणां । णंतकणं। दिक्किणगिणदो । तक्कडदरिगिड ।
तक्कडदगि । दरिगिडदगि ।। तक्कडदरिगिड तगदरगिडदगि । तक्कतरिकिट ।
तत्तरगिडदगि । तद्दित्ततक्कड तगदरगिडदगिदो ।। 6 ।।
ताले कौलिकसंज्ञे स्युः क्रमाद्गुरुलघुप्लुताः ।। तं कोकिलाप्रियान्याख्यमुदीच्यां दिशि वादय ।। 79 ।। 9 ।।
तद्दिगदिं । दिगिदिगिणां । दिगिणां। दिगिदिगिणंदि । दिक्किणगिणंदो ।
तत्तरगिडदगि तक्कणंगि । तद्दित्त तक्कड तगदरगिड दगिदो ।।
कंटकर्यां लघुद्वंद्वं गुरुर्लघुयुगं गुरुः।। जयमंगलरूढीं तामैशान्यां दिशि वादय ।। 7 ।। 9 ।। 9 ।।
णंदिक्किणंग तोंगा णंतकणां। दिक्किणगिणदो । दरिगिड तगदरगिडदगि ।
तक्कणंगि । तरिकिट । तद्दित्त तक्कड तगदरगिडदगिदो ।। ततो द्वारोपांते जिनबिंबार्चनम्
(इसके बाद द्वार के पास आकर श्रीजिनेंद्रदेव को अर्घ्य चढ़ावें) ।।
-शार्दूलविक्रीडितं-
स्वच्छैस्तीर्थजलैरतुच्छसहजप्रोद्गंधिगंधैः सितैः।।
सूक्ष्मत्वायति शालिशालिसदकैर्गंधोद्गमैरुद्गमैः।
हव्यैर्नव्यरसैः प्रदीपितशुभैर्दीपैर्विपद्धूपकैः।।
धूपैरिष्टफलावहैर्बहुफलैः देवं समभ्यर्चये।।
ॐ ह्रीं श्रीमदर्हत्परमेष्ठिने जलं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं श्रीमदर्हत्परमेष्ठिने चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं श्रीमदर्हत्परमेष्ठिने अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं श्रीमदर्हत्परमेष्ठिने पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं श्रीमदर्हत्परमेष्ठिने नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं श्रीमदर्हत्परमेष्ठिने दीपं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं श्रीमदर्हत्परमेष्ठिने धूपं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं श्रीमदर्हत्परमेष्ठिने फलं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं श्रीमदर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। (तदनंतर उस बलिपिंड को पूर्वस्थान में रखकर बलिदेवतार्चन करावें) अथ तां बलिं च पूर्वस्थाने निवेश्य बलिदेवार्चनम् ।। स्वच्छैस्तीर्थजलैरतुच्छसहजप्रोद्गंधिगंधैः सितैः।। सूक्ष्मत्वायति शालिशालिसदकैर्गंधोद्गमैरुद्गमैः। हव्यैर्नव्यरसैः प्रदीपितशुभैर्दीपैर्विपद्धूपकैः।। धूपैरिष्टफलावहैर्बहुफलैः पंचापि चाये गुरून्।। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आ उसा पंचपरमेष्ठिभ्यः जलं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आ उसा पंचपरमेष्ठिभ्यः चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आ उसा पंचपरमेष्ठिभ्यः अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आ उसा पंचपरमेष्ठिभ्यः पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आ उसा पंचपरमेष्ठिभ्यः नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आ उसा पंचपरमेष्ठिभ्यः दीपं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आ उसा पंचपरमेष्ठिभ्यः धूपं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र:असि आ उसा पंचपरमेष्ठिभ्यः फलं निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आ उसा पंचपरमेष्ठिभ्यः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-बसंततिलकाछंद-
तुभ्यं नमोस्तु नवकेवलपूर्वलब्धे! । तुभ्यं नमोस्तु परमैश्वर्योपलब्धे! ।।
तुभ्यं नमोस्तु मुनिकुंजर यूथनाथ!। तुभ्यं नमोस्तु भुवनत्रितयैकनाथ!।। 1 ।।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आ उसा पंचपरमेष्ठिनः स्वस्थानं गच्छत गच्छत जः जः जः।। इति बलिदेवताविसर्जनम् ।। ॐ ह्रीं क्रों अपदाः सर्वे देवा इमं बलिं गृण्हीत । इत्यपददेवेभ्यो बल्यन्नमंभःसंभृतं बलिपीठे दद्यात् ।। (इस मंत्र से अपददेवों को जलसहित बलि-अन्न को बलिपीठ पर अर्पित करें) शार्दूलविक्रीडितं- इत्थं नित्यमहं विधाय विधिना निर्वत्र्यते श्रीबलि र्योसौ तेन बलारिवद्बहुबलो राजा स्वयं श्रीबली।। देशोऽयं दिशतात्सुखानि बलवद्वर्णाश्रमाणां सदा, भूयात्सर्वबलं जिताहितबलं जैनं मतं वद्र्धताम् ।। इस प्रकार जो नित्यपूजाविधि को करके विधिवत् श्रीबलि करते हैं उसके प्रभाव से राजा स्वयं श्री लक्ष्मी से संपन्न हो जाते हैं। यह पूजाविधि देश, वर्ण एवं आश्रमों को सुख प्रदान करे। शत्रु के बल को जीतने वाला जैनमत बलशाली होवे एवं वृद्धि को प्राप्त करे।
इति श्रीबलिविधानम् अथ मूलवेराग्रतः (मूलवेद्यग्रतः) स्वेष्टप्रार्थना
(अब मूलवेदी के सामने इष्ट प्रार्थना करें)
जय जय जिन शश्वद्विश्वविद्यैकमूर्ते । हर हर दुरितं मे ध्वस्तनिःशेषदोष।।
नय नय नतनाकिव्रात मां मुक्तिमार्गं । भव भव शरणं मे जन्मजन्मन्यधीश ।। 1 ।।
अथ शुभानुध्यानम् शांतिः शिरोधृतजिनेश्वरशासनानां। शांतिर्निरंतरतपोवरभावितानाम्।।
शांतिः कषायजयजंभितवैभवानां । शांतिः स्वभावमहिमानमुपागतानाम् ।। 2 ।।
जीवंतु संयमसुधारसपानतृप्ता । नंदन्तु शुद्धसहजोदयसुप्रसन्नाः।।
सिध्यंतु सिद्धिसुखसंगकृताभियोगास्तीव्रं तपंतु जगतां त्रितयेऽर्हदाज्ञाः ।। 3 ।।
तद्द्रव्यमव्ययमुदेतु शुभैः स देशः। संतन्यतां प्रतपतु सततं स कालः।।
भावः स नंदतु सदा यदनुग्रहेण । प्रस्नौति तत्त्वरुचिमाप्तगवी नरस्य।। 4 ।। ।।
अथ जिनेश्वरविसर्जनम् ।।
प्रक्षीणदोषमलमिद्धमणिप्रकाशं। लोकैकभूषणमहो जिनदिव्यरत्नम्।।
मुक्तिश्रियः सपदि संवदनं विधातुं । पूज्यं प्रपूज्य हृदये जिनदिव्यरत्नम्।।5।।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र:असि आउसा अर्हत्परमेष्ठिन् स्वस्थानं गच्छ गच्छ जः जः जः।।
प्रमादाज्ज्ञानदर्पाद्यैर्विहितं विहितं न यत्। जिनेन्द्रास्तु प्रसादात्ते सकलं सकलं च तत्।।6।। ।।
क्षमापणपूर्वकं पंचांगप्रणामः ।।
-शार्दूलविक्रीडित-
मोहध्वांतविदारणं विशदविश्वोद्भासिदीप्तिश्रियम्। सन्मार्गप्रतिभासकं विबुधसंदोहामृतापादकम्।।
श्रीपादं जिनचंद्रशांतशरणं सद्भक्तिमाने मिते ।। भूयस्तापहरस्य देव भवतो भूयात्पुनर्दर्शनम्।।7।।