कषाय प्राभृत ग्रंथ का भगवान महावीर की द्वादशांगवाणी से साक्षात् संबंध है। अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर के प्रधान गणधर श्री गौतमस्वामी ने उनकी दिव्यध्वनि को अवधारण करके द्वादशांग श्रुत की रचना की थी। उसके बारहवें अंग का नाम दृष्टिवाद था। यह अंग बहुत विस्तृत था। उसके पाँच भेद थे—परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्व और चूलिका। इनमें से पूर्व के भी चौदह भेद थे। ये चौदह पूर्व इतने विस्तृत और महत्वपूर्ण थे कि इनके द्वारा सम्पूर्ण दृष्टिवाद अंग का उल्लेख किया जाता था और ग्यारह अंग, चौदह पूर्व से सम्पूर्ण द्वादशांग का ग्रहण किया जाता था। द्वादशांग के पारगामी श्रुतकेवली कहे जाते थे। जैन परम्परा में ज्ञानियों में दो ही पद सबसे महान गिने जाते हैं—प्रत्यक्षज्ञानियों में केवलज्ञानी का और परोक्षज्ञानियों में श्रुतकेवली का। जैसे केवलज्ञानी समस्त चराचर जगत को प्रत्यक्ष जानते और देखते हैं वैसे ही श्रुतकेवली शास्त्र में वर्णित प्रत्येक विषय को स्पष्ट जानते थे। भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् तीन केवलज्ञानी हुए और केवलज्ञानियों के पश्चात् पाँच श्रुतकेवली हुए। जिनमें से अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी थे। भगवान महावीर के तीर्थ में होने वाले आरातीय पुरुषों में भद्रबाहु ही एक ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराएँ अपना धर्मगुरू मानती हैं किन्तु श्वेताम्बर अपनी स्थविर परम्परा को भद्रबाहु के नाम से न चलाकर उनके समकालीन संभूतिविजय स्थविर के नाम से चलाते हैं। इस पर डॉ. जैकोबी का कहना है कि पाटलीपुत्र नगर में जैन संघ ने जो अंग संकलित किये थे, वे श्वेताम्बर सम्प्रदाय के ही थे समस्त जैन समाज के नहीं, क्योंकि उस संघ में भद्रबाहु स्वामी सम्मिलित न हो सके थे।
अस्तु, जो कुछ हो, पर इससे इतना सुनिश्चित प्रतीत होता है कि भद्रबाहु श्रुतकेवली के समय में कोई ऐसी घटना जरूर घटी थी जिसने आगे जाकर स्पष्ट संघ भेद का रूप धारण कर लिया। भगवान महावीर के अचेलक निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय के लोग जम्बूस्वामी के बाद ही बिना किसी विशेष कारण के अचेलकता को सर्वथा छोड़ बैठे और उसकी कोई चर्चा भी न रहे, यह मान्यता बुद्धिग्राह्य तो नहीं है अत: भद्रबाहु के समय से संघ भेद होने की जो कथाएँ दिगम्बर साहित्य में पाई जाती हैं और जिनका समर्थन शिलालेखों से होता है उनमें अर्वाचीनता तथा स्थानादि का मतभेद होने पर भी उनकी कथावस्तु को एकदम काल्पनिक नहीं कहा जा सकता। श्रुतकेवली भद्रबाहु के अवसान के साथ ही अंत के चार पूर्व विच्छिन्न हो गये और केवल दस पूर्व का ज्ञान अवशिष्ट रहा। फिर कालक्रम से विच्छिन्न होते—होते वीरनिर्वाण से ६८३ वर्ष बीतने पर अब अंगों और पूर्वों के एकदेश के ज्ञान का भी लोप होने का प्रसंग उपस्थित हुआ, तब दूसरे अग्रायणीय पूर्व के चयनलब्धि नामक अधिकार के चतुर्थ पाहुड कर्मप्रकृति आदि से षट्खण्डागम की रचना की गई और ज्ञानप्रवाद नामक पाँचवें पूर्व के दसवें वस्तु अधिकार के अंतर्गत तीसरे पेज्जदोष प्राभृत से कषायप्राभृत की रचना की गई और इस प्रकार लुप्तप्राय अंगज्ञान का कुछ अंश दिगम्बर परम्परा में सर्वप्रथम पुस्तक रूप में निबद्ध हुआ जो आज भी अपने उसी रूप में सुरक्षित है। श्वेताम्बर परम्परा में जो ग्यारह अंगग्रंथ आज उपलब्ध हैं, उन्हें वी.नि.सं. ९८० में (वि.सं. ५९०) देर्विद्धगणी क्षमाश्रमण ने पुस्तकारूढ़ किया था। यह बात मार्केट की है जो पूर्वज्ञान श्वेताम्बर सम्प्रदाय में सर्वथा लुप्त हो गया उसी का एक अंश दिगम्बर सम्प्रदाय में सुरक्षित है इस कषायप्राभृत ग्रंथ का द्वादशांग वाणी से साक्षात् संबंध है और इसलिये वह अत्यंत आदर और विनय से ग्रहण करने के योग्य है। कषायप्राभृत के प्रस्तुत संस्करण में तीन ग्रंथ एक साथ चलते हैं—कषायप्राभृत मूल, उसकी चूर्णिवृत्ति और उनकी विस्तृत टीका जयधवला। इस विषय के भी तीन मूल विभाग हैं—एक ग्रंथ परिचय, दूसरा ग्रंथकार परिचय और तीसरा विषय परिचय। प्रथम विभाग में उक्त तीनों ग्रंथों का परिचय कराया गया है। दूसरे विभाग में उनके रचयिताओं का परिचय कराकर उनके समय का विचार किया गया है तथा तीसरे विभाग में उनमें चर्चित विषय का परिचय कराया गया है।
ग्रंथ परिचय
इस ग्रंथ का नाम कसायपाहुड है जिसका संस्कृत रूप कषायप्राभृत होता है। यह नाम इस ग्रंथ की प्रथम गाथा में स्वयं ग्रंथकार ने ही दिया है तथा चूर्णिसूत्रकार ने भी अपने चूर्णिसूत्रों में इस नाम का उल्लेख किया है। जैसे—कसायपाहुडे सम्मत्तेति अणिओगद्दारे आदि। नाम—जयधवलाकार ने भी अपनी जयधवला टीका के प्रारंभ में कसायपाहुड का नामोल्लेख करते हुए उसके रचयिता को नमस्कार किया है। श्रुतावतार के कर्ता आचार्य श्री इंद्रनन्दि ने भी इस ग्रंथ का यही नाम दिया है अत: गंरथ का कसायपाहुड या कषायप्राभृत नाम निर्विवाद है। इस ग्रंथ का एक दूसरा नाम भी पाया जाता है और वह नाम भी स्वयं चूर्णिसूत्रकार ने अपने चूर्णिसूत्र में दिया है। यथा—‘‘तस्स पाहुडस्स दुवे णामधेज्जाणि। तं जहा, पेज्ज्दोसपाहुडे त्ति वि कसायपाहुडे त्ति वि’’।अर्थात् उस प्राभृत के दो नाम हैं—पेज्जदोषप्राभृत और कषायप्राभृत। इस चूर्णिसूत्र की उत्थानिका में जयधवलाकार लिखते हैं—‘पेज्जं ति पाहुडम्मि दु हवदि कसायाण पाहुडं णाम-पहली गाथा के इस उत्तराद्र्ध में ग्रंथकार ने इस ग्रंथ के दो नाम बताये हैं—पेज्जदोषप्राभृत और कषायप्राभृत। ये दोनों नाम किस अभिप्राय से बतलाए गये हैं, यह बतलाने के लिए यतिवृषभ आचार्य दो सूत्र कहते हैं। जयधवलाकार की इस उत्थानिका से यह स्पष्ट है कि उनके मत से स्वयं ग्रंथकार ने ही प्रकृत ग्रंथ के दोनों नामों का उल्लेख पहली गाथा के उत्तराद्र्ध में किया है।
यद्यपि पहली गाथा का सीधा अर्थ इतना ही है कि—ज्ञानप्रवाद नामक पांचवें पूर्व की दसवीं वस्तु में तीसरा पेज्जप्राभृत है उससे कषायप्राभृत की उत्पत्ति हुई है’। तथापि जब चूर्णिसूत्रकार स्पष्ट लिखते हैं कि उस प्राभृत के दो नाम हैं तब वे दोनों नाम निराधार तो हो नहीं सकते हैं अत: यह मानना पड़ता है कि पहली गाथा के उत्तरार्ध के आधार पर ही चूर्णिसूत्रकार ने इस ग्रंथ के दो नाम बतलाये हैं और इस प्रकार इन दोनों नामों का निर्देश पहली गाथा के उत्तराद्र्ध में स्वयं ग्रंथकार ने ही किया है, जैसा कि जयधवलाकार की उक्त उत्थानिका से स्पष्ट है। इन्द्रनन्दि ने भी ‘प्रायोदोषप्राभृतकापरसंज्ञं’ लिखकर कषायप्राभृत इस दूसरे नाम का निर्देश किया है। इस प्रकार यद्यपि इस ग्रंथ के दो नाम सिद्ध हैं तथापि उन दोनों नामों में से कषायप्राभृत नाम से ही यह ग्रंथ अधिक प्रसिद्ध है और यही इसका मूल नाम जान पड़ता है क्योंकि चूर्णिसूत्रकार ने अपने चूर्णिसूत्रों में और जयधवलाकार ने अपनी जयधवला टीका में इस ग्रंथ का इसी नाम से उल्लेख किया है। धवला टीका में तथा लब्धिसार की टीका में भी इस ग्रंथ का इसी नाम से उल्लेख है। पेज्जदोषप्राभृत इसका उपनाम जान पड़ता है जैसा कि इन्द्रनन्दि के ‘प्रायोदोषप्राभृतकापरसंज्ञं’ विशेषण से भी स्पष्ट है अत: इस ग्रंथ का मूल और प्रसिद्ध नाम कषायप्राभृत ही समझना चाहिये। नाम पदों का वर्णन करते हुए जयधवलाकार ने इस ग्रंथ के दोनों नामों का अंतर्भाव गौण्य नाम पद में किया है। जो नाम गुण की मुख्यता से व्यवहार में आता है उसे गौण्यनामपद कहते हैं।
दोनों नामों की सार्थकता
इस ग्रंथ में पेज्ज, दोष और कषायों का विस्तार से वर्णन किया गया है इसलिये इसे पेज्जदोषप्राभृत या कषायप्राभृत कहते हैं अत: ये दोनों नाम सार्थक हैं। पेज्ज राग को कहते हैं और दोष से आशय द्वेष का है। राग और द्वेष दोनों कषाय के ही प्रकार हैं। कषाय के बिना राग और द्वेष रह नहीं सकते हैं। कषाय शब्द से राग और द्वेष दोनों का ग्रहण हो जाता है किन्तु राग से अकेले राग का और द्वेष से अकेले द्वेष का ग्रहण होता है इसीलिये चूर्णिसूत्रकार ने पेज्जदोषप्राभृत नाम को अभिव्याहरणनिष्पन्न कहा है और कषायप्राभृत नाम को नयनिष्पन्न कहा है। जिसका यह आशय है कि पेज्जदोषप्राभृत नाम में पेज्ज और दोष दोनों के वाचक शब्दों को अलग—अलग ग्रहण किया है, किसी एक शब्द से दोनों का ग्रहण नहीं किया गया क्योंकि पेज्ज शब्द पेज्ज अर्थ को ही कहता है और द्वेष शब्द दोषरूप अर्थ को ही कहता है किन्तु कषायप्राभृत नाम में यह बात नहीं है। उसमें एक कषाय शब्द से पेज्ज और दोष दोनों का ग्रहण किया जाता है, क्योंकि द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से पेज्ज भी कषाय है और राग भी कषाय है अत: यह नाम नयनिष्पन्न है। सारांश यह है कि इस ग्रंथ में राग और द्वेष का विस्तृत वर्णन किया गया है और ये दोनों ही कषायरूप हैं अत: दोनों धर्मों का पृथक्-पृथक् नामनिर्देश करके इस ग्रंथ का नाम पेज्जदोषप्राभृत रखा गया है और दोनों को एक कषाय शब्द से ग्रहण करके इस ग्रंथ का नाम कषायप्राभृत रखा गया है अत: ये दोनों ही नाम सार्थक हैं और दो भिन्न विवक्षाओं से रखे गये हैं।
कषाय प्राभृत की रचना शैली
प्रकृत ग्रंथ की रचना गाथासूत्रों से की गई है। ये गाथासूत्र बहुत ही संक्षिप्त हैं और उनमें प्रतिपाद्य विषय का सूचनमात्र कर दिया है। बहुत सी गाथाएँ तो मात्र प्रश्नात्मक ही हैं और उनमें प्रतिपाद्य विषय के बारे में प्रश्नमात्र करके ही छोड़ दिया गया है। यथा—किस नय की अपेक्षा कौन कषाय पेज्जरूप है और कौन कषाय दोषरूप है ? यदि चूर्णिसूत्रकार इन गाथासूत्रों पर चूर्णिसूत्रों की रचना न करते तो इन गाथासूत्रों का रहस्य उन्हीं में छिपा रह जाता। इन गाथासूत्रों से यह प्रतीत होता है कि ग्रंथकार ने गागर में सागर भर दिया है। वास्तव में ग्रंथकार का उद्देश्य नष्ट होते हुए पेज्जदोसपाहुड का उद्धार करना था और पेज्जदोसपाहुड का प्रमाण बहुत विस्तृत था। श्री जयधवलाकार के लेखानुसार उसमें १६ हजार मध्यम पद थे, जिनके अक्षरों का प्रमाण दो कोड़ा-कोड़ी, इकसठ लाख सत्तावन हजार दो सौ बानवे करोड़, बासठ लाख, आठ हजार होता है। इतने विस्तृत ग्रंथ को केवल २३३ गाथाओं में निबद्ध करना ग्रंथकार की अनुपम रचनाचातुरी और बहुज्ञता का सूचक है। शास्त्रकारों ने सूत्र का लक्षण करते हुए लिखा है—जिसमें अल्प अक्षर हों, जो असंदिग्ध हो, जिसमें प्रतिपाद्य विषय का सार भर दिया गया हो, जिसका विषय गूढ़ हो, जो निर्दोष सयुक्तिक और तथ्यभूत हो उसे सूत्र कहते हैं। सूत्र का यह लक्षण कषायप्राभृत के गाथासूत्रों में बहुत कुछ अंश में पाया जाता है। संभवत: इसी से ग्रंथकार ने प्रतिज्ञा करते हुए स्वयं ही अपनी गाथाओं को सुत्तगाहा कहा है और जयधवलाकार ने उनकी गाथाओं के सूत्रात्मक होने का समर्थन किया है। चूर्णिसूत्रकार ने भी अपने चूर्णिसूत्रों में प्राय: उन्हें ‘सुत्तगाहा’ ही लिखा है। इस प्रकार संक्षिप्त होने से यद्यपि कषायप्राभृत की सभी गाथाएँ सूत्रात्मक हैं किन्तु कुछ गाथाएँ तो सचमुच ही सूत्रात्मक हैं क्योंकि उनका व्याख्यान करने के लिए स्वयं ग्रंथकार को उनकी भाष्यगाथाएँ बनाने की आवश्यकता प्रतीत हुई। ये भाष्यगाथाएँ भी कुल २३३ गाथाओं में ही सम्मिलित हैं।
इससे स्पष्ट है कि सूत्रात्मक गाथाओं की रचना करके भी ग्रंथकार उन विषयों को स्पष्ट करने में बराबर प्रयत्नशील थे जिनका स्पष्ट करना वे आवश्यक समझते थे। और ऐसा क्यों न होता, जबकि वे प्रवचनवात्सल्य के वश होकर प्रवचन की रक्षा और लोककल्याण की शुभ भावना से ग्रंथ का प्रणयन करने में तत्पर हुए थे। उनकी रचनाशैली का और भी अधिक सौष्ठव जानने के लिए उनकी गाथाओं के विभाग क्रम पर दृष्टि देने की आवश्यकता है। ग्रंथ की २३३ गाथाओं में से पहली गाथा में ग्रंथ का नाम और जिस पूर्व के जिस अवांतर अधिकार से ग्रंथ की रचना की गई है, उसका नाम आदि बतलाया है। दूसरी गाथा में गाथाओं और अधिकारों की संख्या का निर्देश करके जितनी गाथाएँ जिस अधिकार में आई हैं उनका कथन करने की प्रतिज्ञा की है। चौथी, पाँचवी और छठी गाथा में बतलाया है कि प्रारंभ के पाँच अधिकार में तीन गाथाएँ हैं। वेदक नाम के छठे अधिकार में चार गाथाएँ हैं। उपयोग नाम के सातवें अधिकार में सात गाथाएँ हैं। चतु:स्थान नाम के आठवें अधिकार में सोलह गाथाएँ हैं। व्यञ्जन नाम के नौवें अधिकार में पाँच गाथाएँ हैं। दर्शनमोहोपशामना नाम के दसवें अधिकार में पंद्रह गाथाएँ हैं। दर्शनमोहक्षपणा नाम के ग्यारहवें अधिकार में पाँच गाथाएँ हैं। संयमासंयम लब्धि नाम के बारहवें और चारित्रलब्धि नाम के तेरहवें अधिकार में एक गाथा है और चारित्रमोहोपशामना नाम के चौदहवें अधिकार में आठ गाथाएँ हैं। सातवीं और आठवीं गाथा में चारित्रमोहक्षपणा नाम के पंद्रहवें अधिकार के अवान्तर अधिकारों में गाथासंख्या का निर्देश करते हुए अट्ठाईस गाथाएँ बतलार्इं हैं। नौंवी और दसवीं गाथा में बतलाया है कि चारित्रमोहक्षपणा अधिकार संबंधी अट्ठाईस गाथाओं में कितनी सूत्रगाथाएँ है और कितनी असूत्रगाथाएँ हैं। ग्यारहवीं और बारहवीं गाथा में जिस—जिस सूत्रगाथा की जितनी भाष्यगाथाएँ हैं, उनका निर्देश किया है। तेरहवीं और चौदहवीं गाथा में कषायप्राभृत के पंद्रह अधिकारों का नामनिर्देश किया है। प्रारंभ की इन गाथाओं के पर्यवेक्षण से पता चलता है कि आज से लगभग दो हजार वर्ष पहले जब अंगज्ञान एकदम लुप्त नहीं हुआ था किन्तु लुप्त होने के अभिमुख था और ग्रंथरचना का अधिक प्रचार नहीं था, उस समय भी कषायपाहुड के कर्ता ने अपने ग्रंथ के अधिकारों का और उसकी गाथासूची का निर्देश प्रारंभ की गाथाओं से कर दिया है। इससे हम स्वयं अनुमान कर सकते हैं कि ग्रंथकार की रचनाशैली गूढ़ होते हुए भी कितनी क्रमिक और संगत है।
कषाय प्राभृत और षट्खण्डागम
षट्खंडागम में विविध अनुयोगद्वारों से आठों कर्मों के बंध-बंधक आदि का विस्तार से वर्णन किया है और कषायप्राभृत में केवल मोहनीयकर्म का ही मुख्यता से वर्णन है। षट्खंडागम की रचना प्राय: गद्य सूत्रों में की गई है जबकि कषायप्राभृत गाथासूत्रों में ही रचा गया है। दोनो के सुत्रों का तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन करने पर दोनों की परम्परा, मतैक्य या मतभेद आदि बातों पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ सकता है। यद्यपि अभी ऐसा प्रयत्न नहीं किया गया तथापि धवला और जयधवला के कुछ उल्लेखों से ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों ग्रंथों में किन्हीं—किन्हीं मन्तव्यों के संबंध में मतभेद है। उदाहरण के लिये चूर्णिसूत्र में दोष का उत्कृष्ट और जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त बतलाया है। उस पर जयधवला में शंका की गई कि जीवस्थान में एक समय काल बतलाया है सो उसका और इसका विरोध क्यों नहीं है? तो उसका समाधान करते हुए जयधवलाकार ने दोनों के विरोध को स्वीकार किया है और कहा है कि वह उपदेश अन्य आचार्य का है तथा धवला में मोहनीय कर्म की प्रकृतियों के क्षपण का विधान करते हुए धवलाकार ने लिखा है कि यह उपदेश ‘संतकम्मपाहुड’ का है। कषायपाहुड के उपदेशानुसार तो पहले आठ कषायों का क्षपण करके पीछे सोलह प्रकृतियों का क्षपण करता है। इस अंतिम मतभेद का उल्लेख श्री नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती ने भी अपने गोम्मटसार कर्मकाण्ड में ‘केई’ करके किया है। एक दूसरे स्थान पर चारों कषायों का अंतर छह मास बतलाया है और लिखा है कि इसमें पाहुडसुत्त से व्यभिचार नहीं आता है क्योंकि उसका उपदेश भिन्न है। यहाँ पाहुडसुत्त से आशय कषायप्राभृत का ही प्रतीत होता है क्योंकि उसके व्याख्यान में उत्कृष्ट अंतर कुछ अधिक एक वर्ष बतलाया है। यहाँ कषायप्राभृत के उपदेश को षट्खंडागम से भिन्न बतलाने से धवलाकार का आशय ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों ग्रंथों के रचयिताओं को प्राप्त उपदेशों में भेद था। यदि ऐसा न होता तो दोनों के मन्तव्यों में भेद नहीं हो सकता था।
कषायप्राभृत और कर्मप्रकृति
कषायप्राभृत ग्रंथ की २३३ गाथाओं में से ‘सम्माइट्ठी सद्दहदि’ और ‘मिच्छाइट्ठीणियमा’ आदि दो गाथाएँ, जो कि दर्शनमोहोपशमना नामक दसवें अधिकार में आती हैं, ऐसी हैं जो थोड़े से शब्दभेद या पाठव्यतिक्रम से साथ गोमट्टसार जीवकाण्ड में और अनेक श्वेताम्बर ग्रंथों में पाई जाती है।
कषायप्राभृत की टीकाएँ
श्री इन्द्रनन्दि जी ने अपने श्रुतावतार में लिखा है कि गुणधर आचार्य ने कषायप्राभृत की रचना करके नागहस्ती और आर्यमंक्षु आचार्य को उनका व्याख्यान किया। उनके पास में कषायप्राभृत को पढ़कर यतिवृषभ आचार्य ने उस पर छह हजार प्रमाण चूर्णिसूत्रों की रचना की। यतिवृषभ आचार्य से उन चूर्णिसूत्रों का अध्ययन करके उच्चारणाचार्य ने उन पर बारह हजार प्रमाण उच्चारणासूत्रों की रचना की। इस प्रकार गुणधराचार्य के गाथासूत्र, यतिवृषभ आचार्य के चूर्णिसूत्र और उच्चारणाचार्य के उच्चारणसूत्रों के द्वारा कषायप्राभृत उपसंहृत किया गया। षट्खंडागम और कषायप्राभृत ये दोनों ही सिद्धांत ग्रंथ गुरुपरिपाटी से कुण्दकुन्द नगर में श्री पद्मनंदी मुनि को प्राप्त हुए। उन्होंने षट्खंडों में से आदि के तीन खण्डों पर बारह हजार प्रमाण परिकर्म नाम का ग्रंथ रचा। उसके बाद कितना ही काल बीतने पर शामकुण्ड आचार्य ने दोनों आगमों को पूरी तरह से जानकर महाबंध नाम के छठे खण्ड के सिवाय शेष दोनों ग्रंथों पर बारह हजार प्रमाण प्राकृत, संस्कृत और कर्णाटक भाषा से मिश्रित पद्धतिरूप ग्रंथ की रचना की। उसके बाद कितना ही काल बीतने पर तुम्बलूर ग्राम में तुम्बलूर नाम के आचार्य हुए। उन्होंने भी षष्ठ खंड के सिवाय शेष पाँच खण्डों पर तथा कषायप्राभृत पर कर्णाटक भाषा में ८४ हजार प्रमाण चूड़ामणि नाम की महती व्याख्या रची। उसके बाद स्वामी समन्तभद्र हुए। उन्होंने भी षट्खंडागम के प्रथम पाँच खंडों पर अति सुन्दर संस्कृत भाषा में ४८ हजार प्रमाण टीका की रचना की। जब वे दूसरे सिद्धांत ग्रंथ पर व्याख्या लिखने को तैयार हुए तो उनके एक सधर्मा ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया। इस प्रकार दोनों सिद्धांत ग्रंथों का व्याख्यान क्रम गुरुपरम्परा से आता हुआ शुभनंदि और रविनंदि मुनि को प्राप्त हुआ।
भीमरथी और कृष्णमेख नदियों के बीच के प्रदेश में सुन्दर उत्कलिका ग्राम के समीप में स्थित प्रसिद्ध मगणवल्ली ग्राम में उन दोनों मुनियों के पास समस्त सिद्धांत का अध्ययन करके वप्पदेव ने आदि सिद्धांत के पाँच खंडों पर व्याख्याप्रज्ञप्ति नाम की टीका लिखी और कषायप्राभृत पर भी टीका लिखी। इस टीका का प्रमाण ६० हजार था और यह प्राकृत भाषा में थी तथा छठे खण्ड पर पाँच हजार आठ श्लोकप्रमाण व्याख्या लिखी। उसके बाद कितना ही काल बीतने पर चित्रकूटपुर के निवासी एलाचार्य सिद्धांतों के ज्ञाता हुए। उनके पास में सकल सिद्धांत का अध्ययन करके श्री वीरसेन स्वामी ने वाटग्राम में आनतेन्दु के द्वारा बनवाये हुए चैत्यालय में ठहर कर व्याख्याप्रज्ञप्ति नाम की टीका को पाकर षट्खंडागम पर ७२ हजार प्रमाण धवला टीका की रचना की तथा कषाय प्राभृत की चार विभक्तियों पर बीस हजार श्लोकप्रमाण टीका लिखी। उसके बाद वीरसेन स्वामी का स्वर्गवास हो गया तब उनके शिष्य जिनसेन स्वामी ने शेष कषायप्राभृत पर चालीस हजार श्लोकप्रमाण टीका लिखी। इस प्रकार कषायप्राभृत की टीका जयधवला का प्रमाण ६० हजार हुआ। ये दोनों टीकाएँ प्राकृत और संस्कृत में मिश्रित भाषा में रची गई थीं। श्रुतावतार के इस वर्णन से प्रकट होता है कि कषायप्राभृत पर सबसे पहले आचार्य यतिवृषभ ने चूर्णिसूत्रों की रचना की। उसके बाद उच्चारणाचार्य ने उन पर उच्चारणावृत्ति की रचना की। ये चूर्णिसूत्र और उच्चारणावृत्ति मूल कषायप्राभृत के इतने अविभाज्य अंग बन गये कि इन तीनों की ही संज्ञा कषायप्राभृत पड़ गई और कषायप्राभृत का उपसंहार इन तीनों में ही हुआ कहा जाने लगा। उसके बाद शामकुण्डाचार्य ने पद्धतिरूप टीका की रचना की। तुम्बलूर आचार्य ने चूड़ामणि नाम की व्याख्या रची। वप्पदेवगुरु ने व्याख्याप्रज्ञप्ति नामक टीका की रचना की। आचार्य श्री वीरसेन तथा उनके शिष्य आचार्य श्री जिनसेन ने जयधवला टीका की रचना की। आचार्य श्री कुन्दकुन्द और स्वामी श्री समन्तभद्र ने कषायप्राभृत पर कोई टीका नहीं रची।
यतिवृषभ के चूर्णिसूत्र
आचार्य श्री यतिवृषभ के चूर्णिसूत्र तो ग्रंथ में ही मौजूद हैं। जयधवलाकार ने उन्हें लेकर ही अपनी जयधवला टीका का निर्माण किया है। मूल गाथाएँ और चूर्णिसूत्रों की टीका का नाम ही जयधवला है। उच्चारणा वृत्ति—उच्चारणाचार्य की इस उच्चारणावृत्ति का भी उल्लेख जयधवला में बहुतायत से पाया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह वृत्ति बहुत विस्तृत थी। चूर्णिसूत्रकार ने जिन विषयों का निर्देश मात्र किया था या जिन्हें छोड़ दिया था, उनका भी स्पष्ट और विस्तृत वर्णन इस उच्चारणावृत्ति में था। जयधवलाकार ने ऐसे विषयों का वर्णन करने में, खास करके अनुयोगद्वार के व्याख्यान में उच्चारणा का खूब उपयोग किया है और उपयोग करने के कारणों का भी स्पष्ट निर्देश कर दिया है। मालूम होता है यह वृत्ति उनके सामने मौजूद थी। आज भी यदि यह दक्षिण के किसी भण्डार में अपने जीवन के शेष दिन बिता रही हो तो अचरज नहीं। मूलुच्चारणा—स्थितिविभक्ति नामक अधिकार में जघन्य क्षेत्रानुगम का वर्णन करते हुए जयधवलाकार ने एक स्थान पर लिखा है कि यहाँ मूलुच्चारणा के अभिप्राय से ऐसा समझना चाहिए। यहाँ मूलुच्चारणा से अभिप्राय उच्चारणाचार्य निर्मित वृत्ति से है या अन्य किसी उच्चारण से है, यह अभी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता परन्तु उच्चारण के पहले मूल विशेषण लगाने से यह भी संभव हो सकता है कि उच्चारणाचार्य निर्मित वृत्ति के लिये ही मूलुच्चारणा शब्द का प्रयोग किया हो क्योंकि इन्द्रनन्दि के लेख के अनुसार कषायप्राभृत पर चूर्णिसूत्रों की रचना हो जाने के बाद उच्चारणाचार्य ने ही उच्चारणा सूत्रों की रचना की थी और इसलिये वही मूलआद्य उच्चारण कही जा सकती है किन्तु उस उच्चारण का उल्लेख जयधवला में एक सौ से भी अधिक बार होने पर भी जयधवलाकार ने उसे कहीं भी मूलुच्चारणा नहीं कहा। उच्चारणा, उच्चारणाग्रंथ, उच्चारणाइरियवयण या उच्चारणाइरियपरूविदवक्खाण शब्द से ही यत्र—तत्र उसका उल्लेख मिलता है अत: ऐसा प्रतीत होता है कि मूलुच्चारणा कोई दूसरी उच्चारणा थी और यदि उसका मूल विशेषण उसे आद्य उच्चारणा बतलाने के लिये लगाया गया हो तो कहना होगा कि उच्चारणाचार्य की वृत्ति से पहले भी कोई उच्चारणा मौजूद थी किन्तु यह सब संभावना ही है, अन्य भी प्रमाण प्रकाश में आने पर ही इसका निर्णय हो सकता है।
वप्पदेव लिखित उच्चारणा
स्थितिविभक्ति अधिकार में ही कालानुगम का वर्णन करते हुए एक स्थान में जयधवलाकार ने वप्पदेवाचार्य लिखित उच्चारणा का उल्लेख किया है। संभवत: यह वह वृत्ति है जिसका उल्लेख इन्द्रनन्दि ने अपने श्रुतावतार में किया है परन्तु उन्होने उसका नाम व्याख्याप्रज्ञप्ति बतलाया है और व्याख्याप्रज्ञप्ति का उल्लेख धवला में आता है। यदि धवला में उल्लिखित व्याख्याप्रज्ञप्ति के कर्ता वप्पदेवाचार्य ही हों तो कहना होगा कि उन्होंने षट्खंडागम पर जो टीका रची थी उसका नाम व्याख्याप्रज्ञप्ति था और कषायप्राभृत पर जो टीका रची थी उसका नाम उच्चारणा था क्योंकि व्याख्याप्रज्ञप्ति का उल्लेख धवला में आता है और उनकी उच्चारणा का उल्लेख जयधवला में आता है। ऊपर जयधवला में वप्पदेवाचार्य रचित उच्चारणा के जिस उल्लेख का निर्देश किया है उस उल्लेख के साथ ही जयधवलाकार ने ‘अम्हेहि लिहिदुच्चारणा’ का भी निर्देश किया है जिसका अर्थ ‘हमारे द्वारा लिखी हुई उच्चारणा’ होता है। यहाँ जयधवलाकार ने और वप्पदेवाचार्य लिखित उच्चारणा से अपनी उच्चारणा में मदभेद ? बतलाया है। इस निर्देश से तो यही प्रतीत होता है कि स्वामी वीरसेन ने कषायप्राभृत पर उच्चारणा वृत्ति की भी रचना की थी। लिखित उच्चारणा—स्थितिविभक्ति अधिकार में ही उत्कृष्ट कालानुगम तथा अंतरानुगम के अंत में जयधवलाकार ने लिखा है कि यतिवृषभ आचार्य के देशामर्षक सूत्रों का प्ररूपण करके अब उनसे सूचित अर्थ का प्रारूपण करने के लिए लिखित उच्चारणा का अनुवर्तन करते हैं।
यहाँ उच्चारणा के साथ लिखित विशेषण लगाने से जयधवलाकार का क्या अभिप्राय था यह स्पष्ट नहीं हो सका। यदि यह उच्चारणा भी वही उच्चारणा है जिसके अनुवर्तन का उल्लेख जयधवला में जगह—जगह पाया जाता है तो जयधवलाकार ने यहीं उसके साथ लिखित विशेषण क्यों लगाया ? यदि यह दूसरी उच्चारणा है तो संभव है लिखित के पहले उसके लिखने वाले का नाम प्रतियों में छूट गया हो। यदि ऐसा हो तो कहना होगा कि जयधवलाकार ने चूर्णिसूत्रों का व्याख्यान करने के लिए उच्चारणाचार्य रचित उच्चारणा के सिवाय अन्य उच्चारणा का भी उपयोग किया है। उच्चारणाचार्य रचित वृत्ति का नाम उच्चारणावृत्ति है। इस वृत्ति को यह नाम सम्भवत: इसीलिये दिया गया था क्योंकि इसके कत्र्ता का नाम उच्चारणाचार्य था किन्तु कत्र्ता का उच्चारणाचार्य नाम असली मालूम नहीं होता। धवला में सूत्राचार्य, निक्षेपाचार्य, व्याख्यानाचार्य आदि आचार्यों का उल्लेख आता है। ये सब यौगिक संज्ञाएँ या पदवियाँ प्रतीत होती हैं जो सूत्रों के अध्यापन आदि से संबंध रखती थीं। उच्चारणाचार्य भी कोई इसी प्रकार का पद प्रतीत होता है जो सम्भवत: सूत्र गंरथों के उच्चारणकर्ताओं को दिया जाता था। उच्चारणावृत्ति के रचयिता को भी सम्भवत: यह पद प्राप्त था और वे इसी पद से रूढ़ हो गये थे इसीलिये उनकी वृत्ति उच्चारणवृत्ति कहलाई या उन्होंने ही उसका नाम अपने नाम पर उच्चारणावृत्ति रखा किन्तु अन्य आचार्यों की वृत्तियों ? उच्चारणा संज्ञा देखकर मन कुछ भ्रम में पड़ जाता है। सम्भव है उच्चारणाचार्य रचित उच्चारणा वृत्ति के पश्चात् आगमिक परम्परा में उच्चारणा शब्द अमुक प्रकार की वृत्ति के अर्थ में रुढ़ हो गया हो और इसलिये उच्चारण वृत्ति शैली पर रची गर्इं वृत्तियों को उच्चारणा कहा जाने लगा है। यदि ये वृत्तियाँ प्रकाश में आयें तो इस संबंध में विशेष प्रकाश पड़ सकता है।
शामकुण्डाचार्य की पद्धति
श्री इन्द्रनन्दि ने गाथासूत्र, चूर्णिसूत्र और उच्चारण सूत्रों में कषायप्राभृत का उपसंहार हो चुकने के पश्चात् उन पर जिस प्रथम टीका का उल्लेख किया है वह शामकुण्डाचार्य रचित पद्धति थी। जयधवलाकार के अनुसार जिसकी शब्दरचना संक्षिप्त हो और जिसमें सूत्र के अशेष अर्थों का संग्रह किया गया हो ऐसे विवरण को वृत्तिसूत्र कहते हैं। वृत्तिसूत्रों के विवरण को टीका कहते हैं और वृत्तिसूत्रों के विषम पदों का जिसमें भंजन-विश्लेषण किया गया हो उसे पंजिका कहते हैं और सूत्र तथा उसकी वृत्ति के विवरण को पद्धति कहते हैं। पद्धति के इस लक्षण से ऐसा प्रतीत होता है कि शामकुण्डाचार्य की पद्धति रूप टीका गाथासूत्र और चूर्णिसूत्रों पर रची गई थी। जयधवला की अंतिम प्रशस्ति के निम्न श्लोक के द्वारा कषायप्राभृतविषयक साहित्य का विभाग इस प्रकार किया गया है—
अर्थात् सूत्र तो गाथा सूत्र हैं। चूर्णिसत्रू वार्तिक—वृत्तिरूप हैं। टीका श्री वीरसेन रचित है और शेष या तो पद्धतिरूप हैं या पञ्चिका रूप हैं। इसके द्वारा जयधवलाकार ने गाथासूत्र और वीरसेन रचित जयधवला टीका के सिवाय शेष विवरण ग्रंथों को पद्धति या पंजिका बतलाया है। यहाँ बहुवचनान्त ‘शेषा:’ शब्द से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि कषायप्राभृत पर अन्य भी अनेक विवरण ग्रंथ थे जिन्हें जयधवलाकार पद्धति या पंजिका कहते हैं। उन्हीं में शामकुण्डाचार्य रचित पद्धति भी हो सकती है किन्तु उसका कोई उल्लेख जयधवला में दृष्टिगोचर नहीं हो सका।
श्री तुम्बुलूराचार्य कृत चूड़ामणि
इन्द्रनन्दि ने शामकुण्डाचार्य रचित पद्धति के पश्चात् तुम्बुलूराचार्य रचित चूड़ामणि नाम की व्याख्या का उल्लेख किया है और बतलाया है कि यह व्याख्या छठवें खंड के सिवाय शेष दोनों सिद्धांत ग्रंथों पर थी और इसका परिमाण ८४ हजार था तथा भाषा कनाडी थी। जयधवला में इस व्याख्या या उसके कर्ता का कोई उल्लेख हमारे देखने में नहीं आया। भट्टाकलंक नाम के एक विद्वान ने अपने कर्नाटक शब्दानुशासन में कनाडी भाषा में रचित चूड़ामणि नामक महाशास्त्र का उल्लेख किया है और उसे तत्त्वार्थ महाशास्त्र का व्याख्यान बतलाया है तथा उसका परिमाण भी ९६ हजार बतलाया है। फिर भी धवला की प्रस्तावना में यह विचार व्यक्त किया गया है कि यह चूड़ामणि तुम्बुलूराचार्य कृत चूड़ामणि ही जान पड़ती है। श्रवणबेलगोला के ५४ वे शिलालेख में चूड़ामणि नामक काव्य के रचयिता श्री वद्र्धदेव का स्मरण किया है और उनकी प्रशंसा में दण्डी कवि के द्वारा कहा गया एक श्लोक भी उद्धृत किया है। यथा—
‘‘चूडामणि: कवीनां चूणामणिनामसेव्यकाव्यकवि:। श्रीवद्र्धदेव एव हि कृतपुण्य: कीर्तिमाहर्तुं:।।’’
य एवमुपश्लोकितो दण्डिन:—
‘‘जह्नो:कन्यांजटाग्रेणबभारपरमेश्वर:। श्री वद्र्धदेव संघत्से जिह्वाग्रेण सरस्वतीं।।’’
सम्भवत: इसी पर से चूड़ामणि नाम की समानता देखकर कुछ विद्वानों ने तुम्बुलूराचार्य का असली नाम वद्र्धदेव बतलाया है। श्री युत पै महाशय का कहना है कि भट्टाकलंक के द्वारा स्मृत चूड़ामणि तुम्बुलूराचार्य कृत चूड़ामणि नहीं हो सकता क्योंकि पहले का परिमाण ९६ हजार बतलाया गया है और दूसरे का ८४ हजार अत: पै महाशय का कहना है कि इन्द्रनन्दि के श्रुतावतार की ‘कर्णाटभाषयाकृत महतीं चूड़ामणिंव्याख्याम्’ पंक्ति अशुद्ध मालूम होती है। इसमें आये हुए ‘चूड़ामणि’ पद को अलग न पढ़कर आगे के ‘व्याख्यां’ शब्द के साथ मिलाकर ‘चूड़ामणिव्याख्याम्’ पढ़ना चाहिये। तब उस पंक्ति का अर्थ ऐसा होगा—‘तुम्बुलूराचार्य ने कनड़ी में चूड़ामणि की एक बड़ी टीका बनाई।’ इसका आशय यह हुआ कि श्री वद्र्धदेव ने तत्त्वार्थमहाशास्त्र पर कनड़ी में चूड़ामणि नाम की टीका लिखी थी जिसका परिमाण ९६ हजार था और उस चूड़ामणि पर तुम्बुलूराचार्य ने ८४ हजार प्रमाण टीका बनाई थी। इस प्रकार पै महाशय ने विभिन्न उल्लेखों के समीकरण करने का प्रयास किया है किन्तु मालूम होता है कि उन्होंने श्रुतावतार के तुम्बुलूराचार्यविषयक उक्त श्लोकों के सिवाय उनसे ऊपर के श्लोक नहीं देखे क्योंकि उन्होंने अपने लेख में जो उक्त श्लोक उद्धृत किये हैं वे ‘कर्नाटककविचरिते’ पर से किये हैं। यदि वे पूरा श्रुतावतार देख जाते तो ‘चूड़ामणिव्याख्याम्’ का अर्थ चूड़ामणि की व्याख्या न करते; क्योंकि श्रुतावतार में सिद्धांतग्रंथों के व्याख्यानों का वर्णन किया है, तत्त्वार्थ महाशास्त्र के व्याख्यानों का नहीं अत: उनका उक्त प्रयास निष्फल ही साबित होता है। यथार्थ में श्रीवद्र्धदेव, तुम्बुलूराचार्य और चूड़ाणिविषयक उक्त उल्लेख इस अवस्था में नहीं है कि उनका समीकरण किया जा सके। शिलालेख में श्री वद्र्धदेव को चूड़ामणि काव्य का रचयिता बताया है न कि चूड़ामणि नामक किसी व्याख्या का और वह भी तत्त्वार्थमहाशास्त्र की तथा दण्डि कवि के द्वारा उनकी प्रशंसा किये जाने से तो यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि श्रीवद्र्धदेव एक बड़े भारी कवि थे और उनकी चूड़ामणि नामक ग्रंथ कोई श्रेष्ठ काव्य था जिसकी भाषा अवश्य ही संस्कृत रही होगी क्योंकि संस्कृत भाषा के एक अजैन कवि से यह आशा नहीं होती कि वह धार्मिक ग्रंथों पर टीका लिखने वाले किसी कन्नड़ कवि की इतनी प्रशंसा करे। इसी प्रकार यदि भट्टाकलंक के शब्दानुशासन वाले उल्लेख में कोई गलती नहीं है तो उसका भी तात्पर्य तुम्बुलूराचार्य की चूड़ामणि व्याख्या से नहीं जान पड़ता क्योंकि यदि श्लोक संख्या के प्रमाण के अंतर को महत्त्व न भी दिया जाये तो भी यह तो नहीं भुलाया जा सकता कि उसे भट्टाकलंक तत्त्वार्थ महाशास्त्र की टीका बतलाते हैं। हां, यदि उन्होंने भ्रमवश ऐसा उल्लेख कर दिया हो तो बात दूसरी है। राजावलिकथे में भी तुम्बुलूराचार्य की चूड़ामणि व्याख्या का उल्लेख है, उसकी भाषा भी कनडी बतलाई है और प्रमाण भी ८४ हजार ही बतलाया है। चामुण्डराय ने अपने चामुण्डराय पुराण में, जो कि ई.सं. ९७८ में कनडी पद्यों में रचा गया था, तुम्बुलूराचार्य की प्रशंसा की है। तुम्बुलूराचार्य और उनकी चूड़ामणि व्याख्या के संबंध में हमें केवल इतना ही ज्ञात हो सका है और उस पर से केवल इतना ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि तुम्बुलूराचार्य नाम के कोई आचार्य अवश्य हो गये हैं और उन्होंने सिद्धांत ग्रंथों पर चूड़ामणि नाम की कनडी व्याख्या लिखी थी, जिसका प्रमाण ८४ हजार था।
अन्य व्याख्याएँ
जयधवला में कितने ही स्थलों पर अन्य व्याख्यानाचार्यों का अभिप्राय दिया है और उनके अभिप्रायों की आलोचना भी की है। कुछ स्थलों पर चिरंतन व्याख्यानाचार्यों के मतों का उल्लेख किया है और उच्चारणाचार्य के मत के साथ उनके मत की तुलना करके उच्चारणाचार्य के मत को ही ठीक बतलाया है। ये चिरंतन व्याख्यानाचार्य कौन थे, यह तो कुछ कहा नहीं जा सकता। शायद इस नाम के भी कोई व्याख्यानाचार्य हुए हों किन्तु यदि चिरन्तन नाम न होकर विशेषण है तो चिरंतन विशेषण से ऐसा प्रतीत होता है कि अन्य व्याख्यानाचार्यों से वे पुरातन थे अन्यथा उनके पहले चिरंतन विशेषण लगाने की आवश्यकता ही क्या थी ? सम्भव है वे उच्चारणाचार्य से भी प्राचीन हों। इन या इनमें से कुछ व्याख्यानाचार्यों ने कषायप्राभृत या उसके चूर्णिसूत्र पर व्याख्याएँ लिखी थीं, ऐसा प्रतीत होता है। यदि ऐसा न होता तो उनके व्याख्यानों का कहीं—कहीं शब्दश: उल्लेख जयधवला में न होता। इनमें से कुछ व्याख्याएँ तो उन व्याख्याओं से अतिरिक्त प्रतीत होती हैं जिनका उल्लेख इन्द्रनन्दिजी ने अपने श्रुतावतार में किया है क्योंकि उनमें से उच्चारणावृत्ति और वप्पदेव की उच्चारणा का उल्लेख तो जयधवलाकार ने नाम लेकर किया है। रह जाती हैं शामकुण्डाचार्य की पद्धति और तुम्बुलूराचार्य की कनड़ी टीका। सो जगह—जगह इन दोनों व्याख्यानकारों का उल्लेख ‘अण्णो वक्खाणाइरिया’पद से किया जाना संभव प्रतीत नहीं होता। अत: कषायप्राभृत और चूर्णिसूत्र पर कुछ अन्य व्याख्याएँ भी थीं, ऐसा प्रतीत होता है।