लेखक डॉ. नेमीचंद जैन, हीरा भैया प्रकाशन,
65 पत्रकार कालोनी, कनाडिया मार्ग,
इन्दौर 452001
अण्डे दो प्रकार के होते है एक वे जिनसे बच्चे निकल सकते हैं तथा दूसरे वे जिनसे बच्चे नहीं निकलते । मुर्गी यदि मुर्गे के संसर्ग में न आए तो भी जवानी में अण्डे दे सकती है । इन अण्डों की तुलना स्त्री के रजःस्राव से की जा सकती हैं । जिस प्रकार स्त्री के मासिक धर्म होता है उसी तरह मुर्गी के भी यह धर्म अण्डों के रूप में होता है । यह अण्डा मुर्गी की आन्तरिक गन्दगी का परिणाम है । आजकल इन्हीं अण्डों को व्यावसायिक स्वार्थवश लोग अहिंसक, शाकाहारी, वैज आदि भ्रामक नामो से पुकारते हैं, किन्तु ये शाकाहारी नहीं होते । ऐसे अण्डों की प्राप्ति भी एक जीव के अंदर से ही होती है किसी वनस्पति से नहीं । शाकाहारी पदार्थ मिट्टी, सूर्य किरणों व जल वायु से विभिन्न तत्व प्राप्त कर उत्पन्न होते है जबकि किसी भी प्रकार के अण्डे ऐसे प्राप्त नहीं होते ।
दोनों प्रकार के अण्डों की उत्पत्ति मुर्गी से ही होती है व दोनों के रासायनिक तत्व (Chemical Composition) में भी कोई भिन्नता नहीं होती । यदि कोई भेद करना ही हो तो ऐसे अण्डों को अपरिपक्व (Immeture) मुर्दा (Dead) या भूण (Still Born) भले ही कह लें, किन्तु शाकाहारी कभी नहीं कह सकते । ऐसे अण्डों को अधिक मात्रा में प्राप्त कर शीघ्र धन प्राप्त करने के लिए मुर्गियों पर कैसे अत्याचार किए जाते है, क्या क्रुरता पूर्ण विधि अपनाई जाती है और मुर्गियों को धंधे की दृष्टि से लाभप्रद बनाए रखने के लिए उनसे कैसे त्रासदायी वातावरण में अण्डे लिए जाते है और वह त्रासदाई वातावरण जो मुर्गी से अण्डे में कैद हो कर खाने वाले के उदर में उतर कर उसके खून में घुल मिल जाता है, वह इस प्रकार है ।
मुर्गियां जो अण्डे देती है वे सब अपनी स्वेच्छा से या स्वभावतया नहीं देती बल्कि उन्हें विशिष्ट हार्मोन्स और एक-फॅर्म्मुलेशन के इंजेक्शन दिये जाते है । इन इंजेक्शनों के कारण ही मुर्गियां लगातार अण्डे दे पाती है । अण्डे के बाहर आते ही उसे इखूबेटर (सेटर) में डाल दिया जाता है ताकि उसमें से 21 दिन की जगह 18 दिनों में ही चूजा बहार आ जाए । मुर्गी का बच्चा जैसे ही अण्डे से बाहर निकलता है, नर तथा मादा बच्चों को अलग अलग कर दिया जाता है । मादा बच्चों को शीघ्र जवान करने के लिए एक खास प्रकार की खुराक दी जाती है और इन्हें चौबीसों घन्टे तेज प्रकाश मे रखकर सोने नही दिया जाता ताकि ये दिन रात खा-खा कर जल्दी ही रज:स्राव करने लगे और अण्डा देने लायक हो जाएं ।
अब इन्हें जमीन की जगह तंग पिंजरों में रख दिया जाता है, इन पिंजरों में इतनी अधिक मुर्गियां भर दी जाती हैं कि वे पंख भी नहीं फड़फड़ा सकती । तंग जगह के कारण आपस में चोंचें मारती है जख्मी होती है गुस्सा करती है व कष्ट भोगती है । जब मुर्गी अण्डा देती है तो अण्डा जाली में से किनारे पकड़कर अलग हो जाता है और उसे अपनी अण्डे सेने की प्राकृतिक भावना से वंचित रखा जाता है ताकी वह अगला अण्डा जल्दी दे । जिन्दगी भर पिंजरे में कैद रहने व चलफिर न सकने के कारण उसकी टांगें बेकार हो जाती हैं जब उसकी उपयोगिता घट जाती है तो उसे कत्लखाने भेज दिया जाता है । इस प्रकार से प्राप्त अण्डे अहिंसक व शाकाहारी कैसे हो सकते हैं?