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अभी तो हम जमीन पर बने खड़े परमाणु बिजलीघरों की कई सारी समस्याओं में उलझे पड़े हैं और इधर इनकों समुद्र में उतारने की तैयारी भी चल निकली है। जिस दिमाग ने जमीन पर इन्हें बनाया है और बेहद सुरक्षित बताया है, वही जुबान समुद्र में तैरने वाले परमाणु बिजलीघरों को भी एक आदर्श बिलकुल निरापद योजना बता रही है। एक बार ये बन गए तो फिर हमारे जैसे देशों में उसी ढंग से बचे जाएंगे जैसे परमाणु ऊर्जा करार ने हमें अपने बिजलीघर टिका दिए है। तैरते हुए परमाणु संयंत्रों के निर्माण की एक योजना पर काम शुरू हो चुका है। इसे बना रहा है रूस। उसने इस काम के लिए अपने उत्तरी और पूर्वी तटों का विशेष रूप से चयन भी कर लिया है। योजना सफल हो गई तो वह भविष्य में इनको पूरी दुनिया को बेचने की तैयारी कर रहा है। रूस से राजकीय परमाणु ऊर्जा आयोग रोस्टोम के निदेशक सोरजी किरिचें को का कहना है कि ऐसे तैरते बिजलीघर पूरी तरह से सुरक्षित हैं। आयोग ने सेंट पीटर्सबर्ग में ऐसा एक विशाल जहाज समुद्र में उतारा है जिस पर पहला तैरता परमाणु संयंत्र लगाया जाएगा। दुनिया में कुछ ऐसे भी वैज्ञानिक हैं जो इन सब बातों पर नजर रखते हैं ।
उनका एक संगठन भी है : यूनियन ऑफ कंसर्ड साइंटिस्ट संगठन के वरिष्ठ सुरक्षा अभियंता ने तैरते परमाणु संयंत्र में दुर्घटना को जमीन पर होने वाली दुर्घटना से भी बदतर करार दिया है । वाशिंगटन स्थित इस संगठन के परमाणु सुरक्षा परियोजना के निदेशक लोचबाब का कहना है कि परमाणु बिजली घर में किसी दुर्घटना की स्थिति में कुछ परमाणु पदार्थ पिघल कर जमीन में उत्तर जाता है और वहां बना रहता है। परंतु तैरते परमाणु संयंत्र में ऐसी दुर्घटना में सारा पिघला जहरीला पदार्थ समुद्र में गिरेगा और उससे भाप का विस्फोट होगा, जिससे बड़ी मात्रा में ऊर्जा और रेडियोधर्मी पदार्थ निकल कर पूरे वातावरण में फैल जाएंगे। यह तो अणुबम के फट जाने जैसा ही होगा। पूरे पर्यावरण में भी बड़ी मात्रा में रेडियोधर्मिता प्रवेश करेगी। रेडियोधर्मिता जहर का बड़ा आवरण बन जाएगा। यह भयानक जहर हवा, पानी, बरसात के साथ कहां—कहां जाएगा, बरसेगा फिर जमीन पर बहेगा, कहां—कहां किस—किस नदी नाले तालाब, झील में मिलेगा, कितने लोगों को चौपट करेगा— इसका तो कोई हिसाब ही नहीं है। इससे समुद्री में तो रेडियोधर्म प्रदूषण होगा ही और उसका असर समुद्री जीवों पर मछलियों आदि पर भी पड़ेगा। सोवियत रूस की परमाणु संचालित पनडुब्बी के पूर्व मुख्य अभियंता और रक्षा मंत्रालय के परमाणु और रेडिएशन सुरक्षा निरीक्षण के पूर्व वरिष्ठ इंस्पेक्टर अलेक्जेंडर निटकिन का कहना है कि यह निश्चित ही एक जोखिम भरी योजना है। वे अब एक अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण संगठन बेल्लाना फाउंडेशन की सेंट पीटर्सबर्ग स्थित शाखा के प्रमुख हैं। वे बताते हैं कि असंतोष वाले क्षेत्रों में तैरते हुए परमाणु संयंत्रों की बिक्री के माध्यम से लाभ कमाने की लालच में सुरक्षा को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।
इन तैरते परमाणु संयंत्रों में भूमि पर बने संयंत्रों की तुलना में और भी अधिक खतरनाक र्इंधन जैसे युद्धक श्रेणी का यूरेनियम २३५ इस्तेमाल किया जाएगा। इसमें ४० प्रतिशत यूरेनियम होता है। भूमि पर बने ऐसे बिजलीघरों में यू—२३५ का संवर्धन स्तर ३ प्रतिशत होता है। पीटर्सबर्ग में फुटबाल के मैदान के आकार के एक बड़े जहाज के लोकार्पण के दौरान प्रेस विज्ञप्ति में रोस्टोम ने कहा था कि बहुत से देश जिसमें विकासशील देश भी शामिल हैं, इन परमाणु संयंत्रों में रूचि दिखा रहे हैं। द टाइम्स ऑफ लंदन के अनुसार जो देश इन संयंत्रों को खरीदने में रूचि दिखा रहे हैं उनमें चीन, इंडोनेशिया, मलेशिया, आल्जीरिया और अर्जेंटीना शामिल हैं। वल्र्ड न्यूक्लीयर न्यूज के अपने लेख में इस सूची में नामीबिया और केप बेरडे को भी जोड़ दिया है। इस तैरते परमाणु संयंत्र के विचार पर रूस में जन्में एक व्यक्ति ने अमेरिका में काफी काम किया था। लेकिन वहां इसे अत्यधिक लागत, सार्वजनिक विरोध और ऊर्जा जरूरतों की कमी को देखते हुए पूरा बढ़ावा नहीं मिल पाया था। अमेरिका की एक कंपनी ने अपने दस्तावेज में जिक्र किया था कि १९६९ में यह विचार पहली बार न्यूजर्सी स्थित पब्लिक इलेक्ट्रिक एंड गैस कंपनी के उपाध्यक्ष रिचर्ड इकट्र के मन में आया था। उनका कहना था कि जमीन पर बने परमाणु संयंत्रों को ठंडा रखने के लिए बहुत ज्यादा मात्रा में पानी की जरूरत पड़ती है। तब क्यों न हम ऐसे बिजली घर पानी के बीच में ही बना लें। फिर इस कंपनी ने अपना यह विचार वेस्टिंग हाउस इलेक्ट्रिक कंपनी को बताया । वह इस तरह के संयंत्र बनाने के लिए तैयार हो गई थी। सन् १९७० में वेस्टिंग हाउस और रैन्ने को ने फ्लोरिडा के ब्लाउट आईलैंड पर इस तरह की सुविधा को बनाने हेतु एक संयंत्र भी स्थापित कर लिया था। इस तरह के पहले चार संयंत्रों को सर्वप्रथम न्यूजर्सी के लिटिल एग हार्बर और शहर से ११ किलोमीटर पर समुद्र के बीच बांधना था।
इस बीच कीमतें आसमान पर पहुंच गई और फिर बढ़े हुए खर्च के अलावा इन दोनों शहरों के साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर भी योजना का बड़े पैमाने पर विरोध हुआ। सन् १९७३ में आए तेल संकट ने पीएसई एंड जी की अधिक ऊर्जा संरक्षण कर आवश्यकताओं को भी कम कर दिया। १९८४ में ऑफशोर पॉवर सिस्टम नामक एक कंपनी ने ८० अरब रूपये खर्च करने के बाद किए गए करार को रद्द करते हुए इस असफल योजना को हमेशा—हमेशा के लिए बंद कर दिया था। इस तरह जो योजना अमेरिका में शुरू हुई और वहां ठप भी हो गई , उसे अब रूस आगे ले जा रहा है और पूरी दुनिया में उसे फैला कर भारी लाभ कमाने की तैयारी कर रहा है। ये तैरते हुए अणुबम न जाने कितनों को डुबोएंगे।