अहम मनोरचना का मुख्य बिन्दु है। मानवीय व्यवहार में और मूल प्रवृत्तियां में अहम का मुख्य स्थान होता है । आत्म प्रदर्शन की भावना और श्रेष्ठता सिद्ध करने का संवेग अहम की रचना करता है। प्रत्येक मनुष्य अपनी जाति और कुल की श्रेष्ठता के साथ—साथ धन रूप और शक्ति की श्रेष्ठता प्रदर्शित करने से कभी पीछे नहीं हटता है। अर्जित की हुई जानकारियाँ या उत्पन्न हुआ ज्ञान प्रदर्शित करके भी व्यक्ति अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने का प्रयास करता है।जीवन की धार्मिक साधना या अपने त्याग और तप द्वारा बनाये हुए प्रतिमानों के आधार पर स्वयं को सर्वोच्च व्यक्तित्व का धनी सिद्ध करने का प्रयास, साथ ही अपने प्रभाव और जन समर्थन के माध्यम से भी अपनी उच्च स्थिति मानने वाला व्यक्ति ही अहंकार और आत्म प्रदर्शन की मूल प्रवृत्ति से अहम या परा अहम् का सृजन करता है। अह्म से व्यक्ति का व्यवहार आदतें और उसका व्यक्तित्व प्रभावित होता है। अहंकार के कारण सामाजिक अपराध, पारिवारिक बिखराव, प्रेम, भाईचारा और रिश्तों की आत्मीयता सदैव समाप्त होती है। चिन्ता, तनाव , अवसाद जैसी मानसिक विकृतियाँ अहंकार की पृष्ठभूमि पर ही उत्पन्न एवं विकसित होती है। अहंकार के माध्यम से सबसे बड़ा भ्रम यह पैदा हो जाता है। कि व्यक्ति आत्मीय चैतन्य शक्तियों का यथार्थ बोध—प्राप्त नहीं कर पाता है। यथार्थ बोध के अभाव में उसका ज्ञान और चारित्र तथा अनुभूतियां भी विकृत हो जाती है। यहाँ तक की उसकी अधिगम क्षमता कम होती है। विनय और विवेक जैसे व्यक्तित्व के सदगुण अहंकार की वजह से समाप्त हो जाते हैं। अहंकार के कारण शारीरिक रासायनिक प्रक्रिया भी प्रभावित होती है। अंत:श्रावी ग्रान्थियां का संतुलन बिगड़ जाता है और हम यह कह सकते हैं कि अहंकार के परिणाम मानिसक और आध्यात्मिक दोनों दृष्टियों से पतोन्मुखी होते हैं। इस मूल प्रवृत्ति को परिवर्तित करने का साधन प्रतिष्ठा और प्रदर्शन को संतुलित करना आवश्यक होता है। इसी से अहंकार समाप्त होकर आत्मीय बोध में परिवर्तित हो जाता है।
संस्कार सागर जुलाई, २०१४