आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव ने समयसार नामक महानग्रंथ की रचना करके बहुत बड़ा उपकार किया है। इस ग्रंथ के बारे में कहा जाता है कि-
तरणकला जाने बिना, ज्यों नहिं नैया पार।
समयसार जाने बिना, त्यों नहिं हो भव पार।।
यह समयसार जीवन की अमूल्य निधिस्वरूप है। पूज्य आर्यिका श्री अभयमती माताजी ने इस ग्रंथ की आत्मख्याति टीका में आचार्य श्री अमृतचन्द्रसूरि द्वारा रचित काव्य कलशों का पद्यानुवाद करके इसे जन-जन के लिए सरल एवं सरस बना दिया है। इसमें सर्वप्रथम पूर्व रंग- भूमिका में शुद्ध आत्मतत्त्व का विवेचन किया है, उसमें स्पष्टरूप से बताया है कि यह समयसार द्रव्यगुण पर्यायों से सहित अनेकान्त धर्म से सुशोभित है। ‘समय’ शब्द के अनेक अर्थ हैं-‘समय’ यानि घंटा, घड़ी, दिन आदि, ‘समय’ यानि शास्त्र, ‘समय’ यानि पदार्थ, परन्तु यहाँ पर ‘समय’ यानि शुद्ध आत्मतत्त्व का ‘‘सार’’ अथवा उपादेयस्वरूप है जिसमें, उसका नाम है समयसार। ऐसा यह समयसार अनेकान्त धर्म से गुंफित है, उस अनेकांत पर जो आस्था रखते हैं, वे ही भव्यजीव संसार-समुद्र से पार होते हैं। यद्यपि प्रारंभिक अवस्था में व्यवहारनय कार्यकारी है पर शुद्धोपयोगदशा में वह व्यवहारनय अकिंचित्कर बन जाता है। इस प्रकार इस जीवाजीवाधिकार में प्रारंभ से लेकर ३२ कलश काव्यों तक तो ‘रंगभूमि’ संज्ञा दी है। आगे जीवाजीवाधिकार में चेतन-अचेतन का भिन्न रूप से स्पष्ट विवेचन किया है, अनेक उदाहरणों से इसी बात को दृढ़ करते हुए कहा है कि भाई! लक्षण की अपेक्षा जीव से अजीव भिन्न है फिर भी ज्ञानीजन ही इसका अनुभव कर सकते हैं, अज्ञानीजन नहीं। यहाँ पर ज्ञानी शब्द से निर्विकल्प ध्यान में स्थित महामुनि ही विवक्षित हैं क्योंकि इसके पूर्व तो शुद्ध आत्मा का श्रद्धान ही माना गया है। इस ‘जीवाजीवाधिकार’ को पूर्ण करते हुए अंत में उपसंहाररूप से श्री अमृतचन्द्रसूरि कहते हैं कि ‘ज्ञानरूपी’ करोंत के द्वारा जीव और अजीव को पृथक् करना है तो इस करोंत को तब तक चलाते रहना चाहिए कि जब तक यह चिच्चैतन्यस्वरूप आत्मा पर से पृथक् होकर सिद्ध-शुद्ध अवस्था को न प्राप्त हो जाए। ऐसी भेदज्ञान की भावना करते-करते एक दिन यह आत्मा शरीर से रहित अशरीरी हो जाएगा। इस प्रकार इस अधिकार में ४५ कलशकाव्य हैं।
इसके पश्चात् द्वितीय कत्र्तृ-कर्म अधिकार में ज्ञानी-अज्ञानी की प्रवृत्ति दिखाई गई है कि ज्ञानी अपने स्वभाव का ही कत्र्ता है पर अज्ञानी निमित्त-नैमित्तिक संबंध से परभाव का ही कत्र्ता है, इस विषय का सुन्दर विवेचन किया है। इन कलश काव्यों के पद्यानुवाद में पूज्य आर्यिका अभयमती माताजी ने ५२ प्रकार के सुन्दर छंदों का प्रयोग किया है, जिनके द्वारा इस पद्यावली में अद्भुत सरसता आ गई है। इस द्वितीय कत्र्तृ-कर्म अधिकार में ४६ से ९९ तक कलशकाव्य हैं। पुन: पुण्यपापाधिकार में पुण्य-पाप के फल को एवं क्रिया को दर्शाया है कि यह जीव स्वयं ही अपने शुभ-अशुभ भावों के द्वारा पुण्य-पाप का कर्ता है और वही स्वयं ही उसके फल का भोक्ता भी है। इस अधिकार में एक विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि छठे गुणस्थानवर्ती मुनि, आचार्य, उपाध्याय, साधु अर्थात् आज के मुनिराज इन पुण्य-पाप से परे-शुद्धोपयोगी नहीं हो सकते हैं तो फिर श्रावकों अथवा अविरत सम्यग्दृष्टियों के लिए पुण्य को भी हेय कह देना गलत है। जब छठे-सातवें गुणस्थान तक पुण्यक्रियाएँ उपादेय हैं तो चौथे-पाँचवें गुणस्थानवर्तियों के लिए तो उपादेय हैं ही हैं। हाँ! इन सबके लिए पापक्रियाएँ सर्वथा हेय ही हैं आगे चलकर पुण्य क्रियाएँ ध्यान में स्वयं छूट जाती हैं तभी पुण्य और पाप एक कोटि में आ जाते हैं। इस प्रकार इस तृतीय अधिकार में १०० से लेकर ११२ तक ऐसे १३ कलश काव्य हैं।
आगे चतुर्थ ‘आस्रव अधिकार’ की टीका में प्रयुक्त संस्कृत काव्यों में बताया है कि अज्ञानी प्राणी कर्मरूप आस्रव द्वारा हमेशा दु:खी रहते हैं और ज्ञानी प्राणी आस्रव को रोकने के लिए सदा प्रयत्नशील रहते हैं। इसमें बताया है कि शुद्ध आत्मतत्त्व में लीन शुद्धोपयोगी मुनि ही ११वें, १२वें गुणस्थान में पहुँचकर कर्मों के आस्रव को रोकते हैं। इस प्रकार ११३ से १२४ तक कलश काव्यों में यह चतुर्थ अधिकार वर्णित है।
पुन: संवर अधिकार में कहा है कि यह ज्ञानी जीव कर्मों का संवर करके अपनी आत्मा में रमण करता है। मूलग्रंथ समयसार में आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव ने इस संवर का क्रम बतलाते हुए इसे सर्वपरिग्रह त्यागी महामुनियों में ही माना है। इस अधिकार में १२५ से १३२ तक ऐसे ८ कलशकाव्य हैं।
छठे निर्जरा अधिकार में कहते हैं कि ध्यानी योगी महामुनि तप, ध्यान आदि के द्वारा अनन्तकर्मों की निर्जरा करते हुए ज्ञानज्योति को प्रगट करते हैं। पुन: बताते हैं कि जो सातभयों से रहित अपनी शुद्ध आत्मा को टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक स्वभावमात्र अनुभव करते हैं, उनके किंचित् भी कर्म का बंधन नहीं होता है प्रत्युत् पूर्व में बंधे हुए कर्मों की निर्जरा ही हो जाती है। इस प्रकार से इस अधिकार में १३३ से १६२ तक कलश काव्य हैं। पुन: बंधाधिकार में बताया है कि यह अज्ञानी जीव रागभाव द्वारा पुन:-पुन: कर्मों का बंध करता है परन्तु ज्ञानी जीव इन विभावभावों से सदैव विरागी ही रहता है। इस अधिकार में १६३ से १७९ तक कलशकाव्य हैं।
आगे ‘मोक्ष अधिकार’ में कहा है कि ज्ञानी जीव प्रज्ञारूपी छैनी के द्वारा सभी द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म को दूर करके मोक्ष में जाकर विराजमान हो जाते हैं। जहाँ पर शाश्वत सुख है, उसी का नाम मोक्ष है। १९०वें कलशकाव्य में कहा है कि जो आलस्य और प्रमाद को छोड़कर अपने आत्मस्वरूप में स्थिर हो जाता है, वही मुनि परमशुद्धि को प्राप्त होता हुआ बहुत शीघ्र ही कर्मों से छूट जाता है। इस अधिकार में १८० से १९२ तक कलश काव्य हैं।
तत्पश्चात् सर्वविशुद्ध नामक अधिकार में इस बात पर अधिक जोर दिया गया है कि अज्ञान से ही यह आत्मा कर्मों का कत्र्ता-भोक्ता है किन्तु ज्ञानी आत्मा अपने ज्ञान के बल से कर्मों का कत्र्ता-भोक्ता नहीं होता है। इस अधिकार में १९३ से २४६ तक कलशकाव्य हैं।
आगे ‘स्याद्वाद अधिकार’ में अनेकान्त धर्म का स्पष्ट विवेचन करते हुए कहते हैं कि एक ही वस्तु में अनन्त गुण, धर्म, पर्यायें सदा विद्यमान हैं। साथ ही इस अधिकार में स्याद्वाद की शुद्धि के लिए वस्तुतत्त्व की व्यवस्था पर तथा उपाय-मोक्षमार्ग और उपेय-मोक्ष इन दोनों पर किंचित् विचार किया गया है। वस्तु के किसी एक धर्म को एकान्त से मानने वाले मिथ्यादृष्टि हैं, यहाँ उन्हें अज्ञानी कहा है क्योंकि वे स्वयं के हित-अहित के विवेक से शून्य हैं, इससे अतिरिक्त एक-एक धर्म को एक-एक नयविवक्षा से परस्पर सापेक्ष ग्रहण करने वाले स्याद्वादी हैं, वे ही तत्त्ववेत्ता हैं और ज्ञानी हैं।
इस प्रकार इस अधिकार में २४६ से २६१ तक १४ कलश काव्यों में यही बताया है कि एकान्तमान्यता से ज्ञानमात्र आत्मा का अभाव हो जाता है किन्तु अनेकांत मान्यतानुसार आत्मा और ज्ञान एक-दूसरे से अभिन्न रहते हुए शाश्वत सत्ता वाला है।
अन्त मेें साध्य-साधक विचार के अन्तर्गत ‘आत्मा अनन्तशक्तियुक्त है’ ऐसा कहा है। इस प्रकार क्रम-क्रम से सभी अधिकारों के सुन्दर विवेचन के पश्चात् पद्यानुवादकत्र्री पूज्य आर्यिका श्री अभयमती माताजी अपनी अल्पज्ञता प्रदर्शित की है।