किसी समय एक विद्वान् राजगृह नगर के राजदरबार में उत्तम रत्नों की भेंट लेकर जरासंध अर्धचक्री के पास गया और नमस्कार किया, तब राजा जरासंध ने पूछा—‘‘तुम कहाँ से आए हो और यह रत्न कहाँ से लाए हो’’ ? उत्तर में उसने कहा राजन् ! ‘द्वारिका में नेमिप्रभु के साथ श्रीकृष्ण राजा राज्य करते हैं। श्री नेमि तीर्थंकर के गर्भ में आने के पहले से लेकर पन्द्रह मास तक वहाँ देवों ने रत्न बरसाए थे उनमें के ये रत्न हैं, मैं वहीं से आपके दर्शनार्थ आया हूँ। यह सुनते ही जरासंध चक्री भड़क उठे और युद्ध के लिए प्रयाण कर दिया तथा दुर्योधन आदि राजाओं के पास समाचार भेज दिए। दुर्योधन बहुत ही प्रसन्न हुआ उसने सोचा यह पांडवों को समाप्त करने का अच्छा अवसर हाथ लगा है। जरासंध ने द्वारावती में दूत भेजा, वह दूत जाकर बोला—हे यादवों! आपको चक्री ने कहलाया है कि आप देश छोड़कर इस महासमुद्र में कैसे रहते हैं ? आप लोग गर्व छोड़कर चक्री जरासंध की सेवा करें। तब बलभद्र व्रुद्ध होकर बोले—श्रीकृष्ण को छोड़कर अन्य चक्रवर्ती भला और कौन है ? तथा दूत को फटकार कर निकाल दिया। यह सुनकर राजा जरासंध सेना के साथ युद्ध के लिए कुरुक्षेत्र में आ गया। उस समय श्रीकृष्ण ने कर्ण के पास दूत से समाचार भेजा कि आप पांडु राजा के पुत्र युधिष्ठिर आदि के बड़े भाई हैं, आप सम्पूर्ण कुरुक्षेत्र का राज्य ग्रहण कीजिए, इधर आइए। माता कुन्ती ने भी उस समय कर्ण को वास्तविक स्थिति बताकर उस पक्ष से युद्ध करने के लिए बहुत रोका किन्तु कर्ण ने सारी बातें समझकर भी यह कहा कि राजा जरासंध के हमारे ऊपर बहुत उपकार हैं अत: इस समय स्वामी की सहायता करना हमारा कर्तव्य है न कि बन्धुवर्गों की। यदि युद्ध में जीवित रहे तो पुन: बन्धुओं का समागम प्राप्त करेंगे। कर्ण ने दूत के द्वारा जरासंघ के पास समाचार भेजा कि आप यादवों से संधि कर लीजिए अन्यथा श्रीकृष्ण के हाथ से आपका मरण होगा। इन सब बातों की जरासंघ ने उपेक्षा कर दी।’ श्रीकृष्ण भगवान् नेमिनाथ के पास गए और पूछा कि शत्रु का क्षय होकर क्या मुझे विजय प्राप्त होगी ? उस समय इन्द्रादिवंद्य भगवान् ने ‘ऊँ ’ ऐसा उत्तर दिया। इस उत्तर से और नेमिप्रभु के मंद हास्य से श्रीकृष्ण ने अपनी विजय को निश्चित कर लिया। इस समय भगवान् गृहस्थाश्रम में थे और सरागी थे। जरासंध के प्रयाण के समय अनेक अपशकुन हुए, तब राजा ने मन्त्री से इसका फल पूछा! विद्वान् मंत्रियों ने कहा राजन् ! जिसने आपकी कन्या के पति कंस को मारा है, मुष्टियों के प्रहार से चाणूर मल्ल को चूर्ण किया है और जिसने कोटिशिला उठाकर ‘‘मैं नारायण हूँ ’’ इस बात को प्रगट कर दिया है, उस कृष्ण के साथ आप लोगों का युद्ध अनिष्टसूचक ही है। जिसके साथ अर्जुन हैं, भीम हैं और भी अनेक भूमिगोचरी हैं, विद्याधर राजा हैं। भगवान नेमिनाथ के भाई ऐसे यादवों का तुम कुछ भी बिगाड़ नहीं कर सकोगे। फिर भी ये र्गिवष्ठ राजागण कुछ नहीं माने। इधर नारायण श्रीकृष्ण भी सात अक्षौहिणी सेना सहित कुरुक्षेत्र में आ गए।
घोड़े, हाथी, पदाति और रथों से युक्त सेना अक्षौहिणी कहलाती है जिसमें ९००० हाथी, ९०,०००० रथ, ९,००,००० घोड़े और ९,००,००,०००,०० (नौ सौ करोड़) पदाति हों उसे अक्षौहिणी कहते हैं। यादव पक्ष में अतिरथ, महारथ, समरथ, अर्धरथ और रथी ऐसे राजागण थे। बलदेव और कृष्ण अतिरथ थे। राजा समुद्रविजय, वसुदेव, युधिष्ठिर, अर्जुन आदि बहुत से राजा महारथ थे। स्तिमितसागर आदि वसुदेव के आठ भाई, शंब, द्रुपद आदि राजा समरथ थे। महानेमि, विराट आदि राजा अर्धरथ थे और इनके सिवाय अनेकों राजा रथी थे। इस समय एक दूसरे के सम्बन्धी ही विरोध पक्ष में थे। प्रद्युम्न इधर था तो उसके धर्मपिता कालसंवर जरासंध के साथ थे, अर्जुन के पितामह, बड़े भाई कर्ण, गुरु द्रोणाचार्य आदि कौरवों के साथ थे। यादव पक्ष में उनके साढ़े तीन करोड़ कुमार रणविद्या में कुशल थे और हजारों राजागण श्रीकृष्ण के साथ थे।
जरासंध की सेना में कुशल राजाओं ने शत्रुओं को जीतने के लिए चक्रव्यूह की रचना की। उस चक्रव्यूह में जो चक्राकार रचना की गई थी उसके एक हजार आरे थे, एक-एक राजा स्थित था, एक-एक राजा के सौ-सौ हाथी थे, दो-दो हजार रथ थे, पाँच-पाँच हजार घोड़े थे और सोलह-सोलह हजार पैदल सैनिक थे और उन राजाओं के हाथी, घोड़े आदि का प्रमाण पूर्वोक्त प्रमाण से चौथाई था। कर्ण आदि पाँच हजार राजाओं से सुशोभित राजा जरासंध स्वयं उस चक्र के मध्य भाग में स्थित था। गांधार और सिंध देश की सेना, दुर्योधन के सहित सौ कौरव और मध्य देश के राजा भी उसी चक्र के मध्य भाग में स्थित थे। धीर, वीर, पराक्रमी पचास राजा अपनी-अपनी सेना के साथ चक्रधारा की संधियों पर अवस्थित थे। आरों के बीच-बीच के स्थान अपनी-अपनी विशिष्ट सेनाओं से युक्त राजाओं से सहित थे। इनके सिवाय व्यूह के बाहर भी अनेक राजा नाना प्रकार के व्यूह बनकर स्थित थे।
इधर जब वसुदेव को पता चला कि जरासंध की सेना में चक्रव्यूह की रचना की गई है तब उसने भी चक्रव्यूह को भेदने के लिए गरुड़व्यूह की रचना कर डाली। नाना प्रकार के शस्त्रों से सुसज्जित पचास लाख यादव कुमार उस गरुड़व्यूह के मुख पर खड़े किए गए। अतिरथ, बलदेव और श्रीकृष्ण उसके मस्तक पर स्थित हुए। अव्रूर, कुमुद आदि जो वसुदेव के पुत्र थे वे बलदेव और श्रीकृष्ण की रक्षा करने के लिए उनके पृष्ठ रक्षक बनाए गए। एक करोड़ रथों से सहित भोज राजा गरुड़ के पृष्ठ भाग पर स्थित हुआ। राजा भोज की रक्षा के लिए धारण, सागर आदि अनेक राजा नियुक्त हुए। अपने महारथी पुत्रों तथा बहुत बड़ी सेना से युक्त राजा समुद्रविजय (नेमिनाथ के पिता) उस गरुड़ के दाहिने पंख पर स्थित हुए और उसकी आजू-बाजू की रक्षा के लिए सत्यनेमि, महानेमि आदि सैकड़ों प्रसिद्ध राजा पच्चीस लाख रथों से सहित स्थित हुए। बलदेव के पुत्र और पांडव गरुड़ के बायें पक्ष पर आश्रय लेकर खड़े हुए, इन्हीं के समीप उल्मुक, निषध आदि अनेक शस्त्रधारी राजा स्थित थे। ये सभी कुमार अनेक लाख रथों से युक्त थे। इनके पीछे राजा सिंहल, चन्द्रयश आदि राजा साठ-साठ हजार रथ लेकर स्थित थे। ये बलशाली राजा उस गरुड़ की रक्षा करते हुए स्थित थे। इनके सिवाय अशित, भानु आदि बहुत से राजा अपनी-अपनी सेनाओं से युक्त हो श्रीकृष्ण के कुल की रक्षा कर रहे थे। जिसके भीतर स्थित महारथी राजा उत्साह प्रगट कर रहे थे ऐसा ये वसुदेव के द्वारा निर्मित गरुड़व्यूह जरासंध के चक्रव्यूह को भेदन करने की इच्छा कर रहा था। यह अक्षौहिणी सेना का चक्रव्यूह गरुड़व्यूह की रचना का विस्तार हरिवंश पुराण के आधार से है। इधर दुर्योधन गांगेय (पितामह) और द्रोण गुरु पर अधिक कोप करने लगा कि हे तात ! आप यदि अर्जुन से युद्ध नहीं करेंगे तो महान अनर्थ होगा।
वे बोले हम क्या करें? वह अर्जुन स्वयं हमें पूज्य समझकर हम लोगों से युद्ध नहीं चाहता है। खैर, अन्त में परस्पर में गुरु-शिष्य, पितामह-पोते आदि के भेदभाव को छोड़कर वहाँ सब युद्ध में संलग्न हो गये। धृष्टद्युम्न (द्रौपदी के भ्राता) ने भीष्म पितामह को युद्ध में मृतकप्राय करके गिरा दिया। तब उन्होंने उसी रणभूमि में ही सन्यास धारण कर लिया, उस समय दोनों पक्ष के लोग रण छोड़कर पितामह के पास आये और उनके चरणवन्दन कर रोने लगे, तब गांगेय ने कौरव-पांडवों को बहुत ही उपदेश दिया और मैत्रीभाव करने को कहा किन्तु उसका कुछ भी असर नहीं हुआ। इधर आकाशमार्ग से हंस और परमहंस नाम के दो चारणमुनि आये और भीष्म को चतुराहार का त्याग कराकर विधिवत् सल्लेखना ग्रहण करा दी। उन्होंने पंच महामन्त्र का स्मरण करते हुए शरीर का त्याग किया और आजन्म ब्रह्मचर्य के प्रभाव से पाँचवें ब्रह्मस्वर्ग में देव हो गये। इधर पुन: युद्ध प्रारम्भ हुआ, अभिमन्यु की वीरता से युद्ध में कौरव पक्ष में हाहाकार मच गया तब द्रोण की आज्ञा से जयाद्र्रकुमार (जयद्रथ) ने अन्यायपूर्वक युद्ध करके अभिमन्यु को जमीन पर गिरा दिया। देवगणों ने भी कहा कि अन्यायी राजाओं ने यह अन्याय किया है। कर्ण ने अभिमन्यु से कहा ‘‘पानी पिओ’’ किन्तु अभिमन्यु ने उपवास ग्रहण करके पंचपरमेष्ठी का स्मरण करते हुए शरीर से निर्मम हो प्राण त्याग किया और देवगति प्राप्त की। चक्रव्यूह में मेरा पुत्र अभिमन्यु मारा गया है यह सुन सुभद्रा के शोक का पार नहीं रहा। अर्जुन ने इसका बदला चुकाने के लिए जयाद्र्र की अनेकों रक्षा करने पर भी युद्ध में उसे मार डाला। शासनदेवता के निमित्त से अर्जुन और कृष्ण को वहाँ अनेकों बाण प्राप्त हुये। एक समय युद्ध में कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि ये घोड़े प्यासे हैं, तब अर्जुन ने उसी समय दिव्य बाण से पाताल से गंगा जल निकालकर घोड़ों को पिलाया। एक समय द्रोणाचार्य आदि ने रात्रि में पांडवसैन्य पर हमला किया, द्रोणाचार्य भी बार-बार अर्जुन आदि के बाण छोड़ दिए जाने पर भी युद्ध में आगे आते थे, उस समय ‘‘अश्वत्थामा’ नाम का एक हाथी युद्ध में गिरा दिया गया। तब पांडवों के सैन्य ने धर्मराज युधिष्ठिर को नमस्कार कर प्रार्थना की कि ‘गुरुद्रोण के रहते हुए हम लोग जीत नहीं सकते हैं इसलिए आप द्रोणाचार्य को कहें ेिक ‘अश्वत्थामा’ मारा गया है तो वे युद्ध से पराङ्मुख हो सकते हैं’’ परन्तु धर्मराज ने कहा—‘‘मैं असत्य वैâसे कहूँ ’’ फिर भी अत्यधिक आग्रह से अन्त में उन्होंने वैसा कपट करना स्वीकार कर लिया। युधिष्ठिर ने कहा—अश्वत्थामा हत:—‘‘अश्वत्थामा’’ मारा गया है, पुन: धीरे से कहा—‘‘नरो या वंâजरो वा’’ बस इतना सुनते ही द्रोणाचार्य पुत्र शोक से व्याकुल हो गये तब पुन: युधिष्ठिर ने कहा—अश्वत्थामा हाथी मारा गया है आपका पुत्र नहीं। इतने में ही धृष्टद्युम्न ने आकर आचार्य का मस्तक काट लिया।
इस घटना से कौरव-पांडव रोने लगे और धृष्टद्युम्न को बहुत कुछ फटकारा किन्तु धृष्टद्युम्न ने कहा कि युद्ध में गुरु-शिष्य आदि का क्या पक्ष हो सकता है ? इस तरह महायुद्ध में सत्रह दिन समाप्त हो गये। आगम में जो मनुष्यों का कदलीघात नाम का अकालमरण बतलाया गया है उसकी अधिक से अधिक संख्या यदि हुई थी तो उस युद्ध के मैदान के विषय में कहा जाता है। अठारहवें दिन युद्ध में मकरव्यूह की रचना की गई, अन्त में कौरव-पांडव के भयंकर युद्ध में अर्जुन की बाण वर्षा से कर्ण पृथ्वी पर गिर पड़ा। भीम ने भी दु:शासन आदि कौरवों को यमपुर में भेज दिया और अन्त में दुर्योधन को मार डाला। उसी दिन व्रूर अर्धचक्री जरासंध प्रतिनारायण युद्धभूमि में आया और चक्ररत्न का स्मरण कर श्रीकृष्ण पर चक्र चला दिया। उस चक्र ने श्रीकृष्ण की तीन प्रदक्षिणायें दीं और उनके दाहिने हाथ पर ठहर गया। उस समय श्रीकृष्ण ने जरासंध को कहा—देख! अभी तू मान ले किन्तु जरासंध ने कृष्ण को ग्वालपुत्र आदि कहकर अपमानित किया तब श्रीकृष्ण ने उसी चक्र से जरासंध का मस्तक छेद दिया। उस समय देवों, यादवों और पांडवों ने जय-जयकार किया। आकाश से पुष्पवृष्टि होने लगी, हे कृष्ण ! आप तीन खण्ड के स्वामी नौवें नारायण हैं। आप इस त्रिखंड वसुधा का उपभोग कीजिये। अनन्तर रणभूमि का शोधन करने वाले श्रीकृष्ण ने जरासंध और दुर्योधन आदि को मृतक पड़े हुये देखकर बहुत ही खेद व्यक्त किया। दुर्योधन दुर्भावना के निमित्त से नरकगति को प्राप्त हुआ। यादवों ने इन सबकी अगुरु, चन्दन आदि से दाह क्रिया की और सबकी रानियों को धैर्य बँधाया, श्रीकृष्ण ने जरासंध के पुत्र सहदेव को गोद में लेकर प्रेम किया और उसे मगध देश का राजा बना दिया। बलदेव और श्रीकृष्ण अर्धचक्रवर्ती वाद्य महोत्सवों के साथ द्वारावती नगरी में आ गये और जिनेन्द्र भगवान की पूजा आदि करके पापों की शांति की। कृष्ण की आज्ञा से पांडव भी हस्तिनापुर आकर न्याय से राज्य करने लगे और धर्मक्रियाओं में तत्पर हो गए। इस प्रकार से यह महायुद्ध महाभारत के नाम से प्रसिद्ध है। विशेष वर्णन पांडवपुराण (महाभारत) ग्रंथ, हरिवंशपुराण और उत्तरपुराण में देखा जा सकता है।