जैन संस्कृति, भारत की ही नहीं, विश्व की एक मौलिक संस्कृति है। इस संस्कृति के बीच वर्तमान इतिहास की परिधि से बहुत परे प्राचीनतम भारत की मूल संस्कृति में हैं। सिन्धु उपत्यका की खुदाई से प्राप्त होने वाली सामग्री से इस बात पर प्रकाश पड़ता है कि आर्यों के भारत आगमन के पूर्व भी यहां एक विशिष्ट सभ्यता प्रचलित थी।
साम्य
जैन संस्कृति साम्य पर प्रतिष्ठित है। सामाजिक साम्य और प्राणि जगत के प्रति दृष्टि विषयक साम्य— यह इसकी मुख्य विशेषता है।सामाजिक साम्य का अर्थ यह हैै कि जैन संस्कृति समाज और धर्म के क्षेत्र में सब जीवों को समान अधिकार देती है। प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह किसी भी वर्ण का हो, स्त्री हो या पुरुष, रंक हो राव, धर्म के क्षेत्र में समान अधिकार वाला है। उच्च वर्ण का व्यक्ति यदि गुण—कर्म से हीन है तो वह इसकी दृष्टि में हीन है और यदि निम्न वर्ण का व्यक्ति गुण—कर्म से श्रेष्ठ है तो वह जैन दृष्टि से श्रेष्ठ है। यह जैन संस्कृति का सामाजिक साम्य है। जैन दृष्टि का साध्य ऐहिलौकिक या पारलौकिक भौतिक अभ्युदय नहीं है। इसका साध्य है परम और चरम नि:श्रेयस (मोक्ष) की प्राप्ति । उस अवस्था में सम्पूर्ण साम्य प्रकट होता है। कोई किसी से न्यून या अधिक नहीं रहता है। जीव जगत के प्रति जैन दृष्टि पूर्ण आत्म साम्य की है।न केवल पशु—पक्षी किन्तु कीट पतंग और वनस्पति, जल, पृथ्वी आदि के सूक्ष्म एवं अव्यक्त चेतना वाले जीवों को भी वह मनुष्य के समान ही मानती है। अत: यह सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव की हिंसा को भी आत्म वध के समान ही मानती है। इस प्रकार जैन संस्कृति साम्य के तत्व पर प्रतिष्ठित है। ब्राह्मण संस्कृति का आधार वैषम्य है। यही जैन और ब्राह्मण संस्कृति है।
हिंसा का विरोध
जैन धर्म की यह साम्य दृष्टि मुख्यतया दो प्रकार से व्यक्त हुई है। आचार में और विचार में जैन धर्म का बाह्य अभ्यन्तर, स्थूल, सूक्ष्म सब आचार साम्य दृष्टि मूलक अहिंसा के केन्द्र के आस—पास ही निर्मित हुआ है। जिस आचार के द्वारा अहिंसा की रक्षा और पुष्टि न होती हो ऐसे किसी भी आचार को जैन परम्परा मान्यता नहीं देती । जैन परम्परा हिंसा का किसी भी रूप में समर्थन नहीं करती है। । वह दृढ़ता के साथ अहिंसा का पालन करने का जोर देती है। किसी भी निर्मित से की जाने वाली हिंसा को वह क्षन्तत्व नहीं मानती है। उसकी सब जीवों के प्रति साम्य दृष्टि होने से वह मनुष्य या पशु—पक्षी की तो क्या वनस्पति, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु के सूक्ष्मगति सूक्ष्म जन्तुओं तक की हिंसा को क्षन्तव्य नहीं मानती है। ब्राह्मण और श्रमण जैन संस्कृति का यह पारम्परिक मुख्य विरोध है।
अहिंसा परमो धर्म
भगवान महावीर ने हिंसा के विरोध में जो प्रबल आन्दोलन किया उसका ब्राह्मण संस्कृति पर गहरा असर हुआ। इसके सम्बन्ध में आचार्य आनन्द शंकर ध्रुव ने इस प्रकार कहा है—‘‘वेद विहित यज्ञीय हिंसा को तोड़कर औपनिषद, भागवत और पंचयज्ञानुष्ठान के धर्म ने अहिंसा धर्म का विस्तार किया परन्तु इस अहिंसा के मार्ग में बहने वाला सबसे बड़ा प्रवाह महावीर स्वामी और गौतम बुद्ध के उपदेशों का है। महावीर स्वामी ने संसार और कर्म के बन्धनों को तोड़ने के लिये तप की महिमा बताई और अहिंसा को पंच व्रतों में प्रथम स्थान दिया। इनके पहले भी अहिंसा व्रत का स्वीकार चला आ रहा था परन्तु उन्होंने इसका ऐसा समर्थ उपदेश दिया कि औपनिषद और भागवत धर्म के बाहर मनुस्मृति में वर्णित जो द्वेषी भाव की स्थिति विद्यमान थी उसने देश के बड़े भाग का उद्धार किया। हजारों स्त्री—पुरुषों ने अहिंसा परमो धर्म: को जीवन का महामंत्र बनाया। आज हिन्दुस्तान अहिंसा धर्म के आचार के द्वारा पृथ्वी के सब देशों से अनोखा दिखाई देता है वह महिमा अधिकांशत: महावीर स्वामी की है।
मांसाहार का विरोध
जैन संस्कृति ने मांसाहार का बड़ी दृढ़ता से विरोध किया है। उसकी दृष्टि में मांसाहार करने वाले मानवीय जघन्तया की सीमा को पार कर हिंसक पशुओं की कोटि में आ जाते हैं। जैन धर्म में मांसाहार को नरक का कारण बताया गया है और इसे महा भयंकर सप्त व्यसनों में गिनाया गया है।जैन दृष्टि तो सब प्राणियों को अपने समान समझती है अत: उसकी दृष्टि से जो दूसरे प्राणियों का मांस खाता है वह मानों अपना स्वयं का मांस खा रहा है । इस दृष्टि के कारण जैन परम्परा में मांसाहार का कतई प्रयोग नहीं किया जाता ।
रात्रि भोजन वर्जन
जैन जाति अहिंसा की भावना से रात्रि भोजन नहीं करती । प्राय: जैन लोग सूर्य छिपने से पहले ही भोजन से निवृत हो जाते हैं ।रात्रि के समय भोजन करना जैनियों में निषिद्ध है। इसका कारण यह है कि रात्रि के समय अन्धकार होने से कई छोटे छोटे जीव दृष्टिगत नहीं होते। वे भोजन की सामग्री पर बैठे जाते हैं और भोजन के अंदर मिलकर पेट में चले जाते हैं। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी रात्रि भोजन वर्जनीय हैं। रात्रि में हृदय और नाभि कमल संकुचित हो जाते हैं — अत: भोजन का पचाव अच्छी तरह नहीं हो पाता। शरीर शास्त्र के वेत्ता रात्रि भोजन को बल, बुद्धि और आयु का नाश करने वाला बतलाते हैं। जैन धर्म का रात्रि भोजन न करने का नियम वैज्ञानिक, आध्यात्मिक और स्वास्थ्य की दृष्टि को लिये हुए हैं। यह नियम उनकी अहिंसा की भावना का पोषक और परिचायक है।
दया और दान का महत्व
जैन संस्कृति में दया और दान का बहुत अधिक महत्व है। अहिंसा की भावना को व्यवहारिक एवं सामाजिक रूप देने के लिये दया और दान की आवश्यकता रहती है। इसलिये जैन समाज में इन दोनों का अत्यधिक प्रचलन है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जैन धर्मावलम्बी दया और दान के अप्रतिम उपासक है। संसार दु:खों को मिटाने के लिये दुखियों के दुख को दूर करने के लिये मूक पशुओं की रक्षा और हिफाजत के लिये, गरीबों की सहायता के लिये और पीड़ितों की पीड़ा निवारण करने के लिये जैन लोग सबसे अधिक प्रयत्न करते हैं इसी तरह जैन जाति प्रत्येक क्षेत्र में मुक्त हस्त से दान देती आई हैं। जैन जाति की उदारता विख्यात है। जैन जाति की यह दानशीलता उसकी विशाल एवं उदार मनोवृत्ति की सूचना देती है।
ईश्वर विषयक अवधारणा
जैन धर्म की वैज्ञानिक दृष्टि ईश्वर को शुद्ध परमात्मा के रूप में स्वीकार करती है। परन्तु उसे सृष्टि का कर्ता और हर्ता नहीं मानती। उसका मन्तव्य है कि विशुद्ध परमात्मा सृष्टि के सर्जन या विसर्जन के प्रपंच में नहीं पड़ सकता। यह सृष्टि प्रवाह अनादिकाल से प्रवाहित है और अनन्तकाल तक प्रवाहित रहेगा। इस वैज्ञानिक विचारधारा के कारण जैन संस्कृति में परावलम्बता और अकर्मण्यता न आ सकी जो ईश्वर को कर्ता—हर्ता मानने वालों में आ गई है। जैन संस्कृति में प्रत्येक प्राणी अपने सुख दुख के लिये, अपने अभ्युदय या पतन के लिये, अपने उत्कर्ष या अपकर्ष के लिये स्वयं उत्तरदायी है। सच्चा जैन अपने पर आई हुई विपत्ति के समय घबराकर परमात्मा को कभी नहीं कोसता। वह अपने ही कर्मों को इसके लिये उत्तरदायी समझता है। वह मानता है कि मेरे ही किये हुए शुभ व अशुभ कर्मों का परिणाम मुझे ही भोगना पड़ता है। जैन संस्कृति व्यक्ति को पुरुषार्थ करने की प्रेरणा देती है। वह प्राख्यवागिनी या किसी अन्य शक्ति पर अवलम्बित नहीं है। वह तो व्यक्ति मात्र को अपने पुरुषार्थ के द्वारा अभ्युदय करने की शिक्षा देने वाली श्रम प्रधान संस्कृति है। अहिंसा के विविध आयाम—जैन धर्म की अहिंसा की आध्यात्मिक भावना ने समाज—व्यवस्था, राज्य व्यवस्था, उद्योग और कला—कौशल को भी अपने रंग में रंग दिया है । जैनाचार्यों ने राजनीति में भी अहिंसा का पुट दिया है। जैनाचार्यों ने राजा के कर्तव्य , उसके अधिकार आदि बातों पर प्रकाश डालने वाले विविध सुन्दर ग्रन्थों का निर्माण किया है। भद्रबाहु संहिता नामक ग्रन्थ में राजा के कर्तव्यों का निरूपण किया गया है। उद्योग के क्षेत्र में भी जैन समाज बहुत आगे बढ़ा हुआ है। भारत के उद्योग और वाणिज्य के विकास में जैन जाति ने बहुत बड़ा भाग लिया है। जैन जाति ने उद्योग और व्यवसाय के चुनाव में भी अहिंसक भावना को स्थान दिया है। जैसे लोग ऐसा व्यापार नहीं करते जिसमें भारी हिंसा होती है। इस तरह हम देखते हैं कि धर्म , समाज, राजनीति, उद्योग, कला आदि सब क्षेत्रों में जैन जाति की अपनी विशिष्ट विशेषताएं हैं जिनके कारण जैन संस्कृति खूब फली फूली है।