बंध प्रत्यय अर्थात् बंध के कारण चार माने हैं। श्री गौतमस्वामी ने प्रतिक्रमण पाठ में अनेक बार—चउण्णं पच्चयाणं।’’ चउसु पच्चएसु।।’’टीकाकारों ने मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ऐसे नाम दिये हैं। षट्खण्डागम में तो अनेक स्थलों पर ये प्रत्यय चार ही माने हैं। षट्खण्डागम में तृतीय खण्ड का नाम ही ‘‘बंध स्वामित्व-विचय’’ है। धवला पु. ८, में देखिए—
अर्थात् मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग ये चार मूल प्रत्यय हैं। इनके भेद ५७ हैं। मिथ्यात्व के ५, अविरति के १२, कषाय के २५ एवं योग के १५ भेद होते हैं। इस तृतीय खंड में इन ५७ प्रत्यय-कारणों को गुणस्थान व मार्गणाओं में घटित किया है। विशेष-यहाँ यह बात ध्यान में रखना है कि-जो बन्ध के कारण हैं वे ही कर्म के आस्रव के कारण हैं। अतः यह ‘आस्रव त्रिभंगी’ छोटा सा ग्रंथ है। इसमें भी इन्हीं चार भेद के ५७ भेद करके गुणस्थान और मार्गणाओं में आस्रव, अनास्रव व आस्रव व्युच्छित्ति को अच्छी तरह समझाया गया है। समयसार ग्रंथ मे श्री कुन्दकुन्ददेव ने भी कहा है—
सामण्णपच्चया खलु, चउरो भण्णंति बंध कत्तारो।
मिच्छत्तं अविरमणं, कसायजोगा य बोद्धव्वा४।।१०९।।
अर्थ—सामान्य से बंध के करने वाले प्रत्यय-कारण चार हैं। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग। ऐसा जानना चाहिये। मूलाचार मे भी चार प्रत्यय माने हैं। आगे श्री उमास्वामी आचार्यदेव ने बंध के पांच कारण माने हैं। देखिये-तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ८ का प्रथम सूत्र-मिथ्यादर्शनाविरति-प्रमादकषाययोगा बंधहेतव:।।१।। यहाँ मिथ्यात्व के ५ भेद, अविरति के १२, प्रमाद के १५, कषाय के २५ व योग के १५ भेद लिये हैं। सर्वार्थसिद्धि ग्रंथ में श्री पूज्यपाद स्वामी ने अनेक भेद कहे है—
मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये बन्ध के हेतु हैं।।१।।
मिथ्यादर्शन दो प्रकार का है—नैसर्गिक और परोपदेशपूर्वक। इनमें से जो परोपदेश के बिना मिथ्यादर्शन कर्म के उदय से जीवादि पदार्थों का अश्रद्धानरूप भाव होता है वह नैसर्गिक मिथ्यादर्शन है तथा परोपदेश के निमित्त से होने वाला मिथ्यादर्शन चार प्रकार का है-क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानी और वैनयिक। अथवा मिथ्यादर्शन पाँच प्रकार का है-एकान्त मिथ्यादर्शन, विपरीतमिथ्यादर्शन, संशयमिथ्यादर्शन, वैनयिकमिथ्यादर्शन और अज्ञानिक मिथ्यादर्शन। यही है, इसी प्रकार का है इस प्रकार धर्म और धर्मों में एकान्तरूप अभिप्राय रखना एकान्त मिथ्यादर्शन है। जैसे यह सब जग परब्रह्मरूप ही है, या सब पदार्थ अनित्य ही हैं या नित्य ही हैं। सग्रन्थ को निग्र्रन्थ मानना, केवली को कवलाहारी मानना और स्त्री सिद्ध होती है इत्यादि मानना विपर्यय मिथ्यादर्शन है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र ये तीनों मिलकर क्या मोक्षमार्ग है या नहीं इस प्रकार किसी एक पक्ष को स्वीकार नहीं करना संशय मिथ्यादर्शन है। सब देवता और सब मतों को एक समान मानना वैनयिक मिथ्यादर्शन है। हिताहित की परीक्षा से रहित होना अज्ञानिक मिथ्यादर्शन है। कहा भी है—‘‘क्रियावादियों के एक सौ अस्सी, अक्रियावादियों के चौरासी, अज्ञानियों के सड़सठ और वैनयिकों के बत्तीस भेद हैं। छहकाय के जीवों की दया न करने से और छह इन्द्रियों के विषय भेद से अविरति बारह प्रकार की है। सोलह कषाय और नौ नोकषाय ये पच्चीस कषाय हैं। यद्यपि कषायों से नोकषायों में थोड़ा भेद है पर वह यहाँ विवक्षित नहीं है, इसलिए सबको कषाय कहा है। चार मनोयोग, चार वचनयोग और पाँच काययोग ये योग के तेरह भेद हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थान में आहारक ऋद्धिधारी मुनि के आहारककाययोग और आहारक मिश्रकाययोग भी सम्भव हैं इस प्रकार योग पन्द्रह भी होते हैं। शुद्ध्यष्टक और उत्तम क्षमा आदि विषयक भेद से प्रमाद अनेक प्रकार का है। इस प्रकार ये मिथ्यादर्शन आदि पाँचों मिलकर या पृथक-पृथक बन्ध के हेतु हैं। स्पष्टीकरण इस प्रकार है-मिथ्यादृष्टि जीव के पाँचों ही मिलकर बंध के हेतु हैं। सासादन-सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अविरतसम्यग्दृष्टि के अविरति आदि चार बंध के हेतु हैं। संयतासंयत के विरति और अविरति ये दोनों मिश्ररूप तथा प्रमाद, कषाय और योग ये बन्ध के हेतु हैं। प्रमत्तसंयत के प्रमाद, कषाय और योग ये तीन बन्ध के हेतु हैं। अप्रमत्तसंयत आदि चार के योग और कषाय ये दो बन्ध के हेतु हैं। उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगकेवली इनके एक योग ही बन्ध का हेतु है। अयोगकेवली के बन्ध का हेतु नहीं है। द्रव्यसंग्रह में मूल में पाँच भेद मानकर उनके प्रभेद कम किये है। यथा-
मिच्छत्ताविरदिपमाद-जोगकोधादओथ विण्णेया।
पण पण पणदस तिय चउ, कमसो भेदा दु पुव्वस्स।।३०।।
अर्थ—पाँच मिथ्यात्व, पाँच अविरति, पंद्रह प्रमाद, तीनयोग, और चार कषाय ये बत्तीस भेद भी भावास्रव के होते हैं। इन दो प्रकार से कहे बंध अथवा आस्रव के कारणों को समझ कर उन-उन आचार्यों की कृति में परिवर्तन या परिवर्धन नहीं करना चाहिये। श्री गौतमस्वामी, श्री पुष्पदंत-भूतबली आचार्य, श्रीकुंदकुददेव के कथित ग्रंथों में बंध के चार कारण व उनके ५७ भेदों को समझना चाहिये। आगे श्री उमास्वामी आचार्य व श्री नेमिचंद्राचार्य आदि आचार्यों के प्रमाद सहित पाँच भेदों को व उनके प्रभेदों को भी उनके टीका ग्रंथों से जानना चाहिये। हमारे व आपके लिये ये सभी आचार्यदेव प्रमाणीक हैं व उनके ग्रन्थ प्रमाणीक हैं।