प्राण का लक्षण बाहिरपाणेिंह जहा, तहेव अब्भंतरेहिं पाणेहिं।
पाणंति जेहिं जीवा, पाणा ते होंति णिद्दिट्ठा।।३७।।
बाह्यप्राणैर्यथा तथैवाभ्यन्तरै: प्राणै:।
प्राणन्ति यैर्जीवा: प्राणास्ते भवन्ति निर्दिष्टा:।।३७।।
अर्थ—जिस प्रकार अभ्यन्तर प्राणों के कार्यभूत नेत्रों का खोलना, वचन प्रवृत्ति, उच्छ्वास, नि:श्वास आदि बाह्य प्राणों के द्वारा जीव जीते हैं, उस ही प्रकार जिन अभ्यंतर इन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशमादि के द्वारा जीव में जीवितपने का व्यवहार हो उसको प्राण कहते हैं।
भावार्थ —जिनके सद्भाव में जीवितपने का वियोग होने पर मरणपने का व्यवहार हो उनको प्राण कहते हैं। ये प्राण पूर्वोक्त पर्याप्तियों के कार्यरूप हैं अर्थात् प्राण और पर्याप्ति में कार्य और कारण का अंतर है। पर्याप्ति कारण है और प्राण कार्य है क्योंकि गृहीत पुद्गलस्कन्ध विशेषों को इंद्रिय वचन आदि रूप परिणमावने की शक्ति की पूर्णता को पर्याप्ति और वचन व्यापार आदि की कारणभूत योग्यता शक्ति को तथा वचन आदि रूप प्रवृत्ति को प्राण कहते हैं।
पंच वि इंदियपाणा, मणवचिकायेसु तिण्णि बलपाणा।
आणापाणप्पाणा, आउगपाणेण होंति दस पाणा।।३८।।
पंचापि इंद्रियप्राणा: मनोवच: कायेषु त्रीणि बलप्राणा:।
आनापानप्राणा आयुष्कप्राणेन भवन्ति दश प्राणा:।।३८।।
अर्थ—पाँच इंद्रियप्राण—स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र। तीन बलप्राण—मनोबल, वचनबल, कायबल। एक श्वासोच्छ्वास तथा एक आयु इस प्रकार ये दश प्राण हैं।
बाह्य उच्छ्वास आदि बाह्य प्राणों से तथा इंद्रियावरण कर्म के क्षयोपशम आदि अभ्यन्तर प्राणों से जिनमें जीवितपने का व्यवहार होता है वे जीव हैं अर्थात् जिनके सद्भाव में जीव में जीवितपने का और वियोग होने पर मरणपने का व्यवहार हो, उनको प्राण कहते हैं। पर्याप्ति कारण है आौर प्राण कार्य है। प्राणों के भेद—पाँच इंद्रिय—स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र। तीन बल—मनोबल, वचनबल, कायबल, एक श्वासोच्छ्वास तथा एक आयु इस प्रकार ये दश प्राण हैं।
प्राणों के स्वामी—एकेन्द्रिय के ४ प्राण—स्पर्शन इंद्रिय, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास।
द्वीन्द्रिय के ६—उपर्युक्त चार प्राण, रसना इंद्रिय और वचनबल।
चतुरिन्द्रिय के ८—उपर्युक्त ७ और चक्षुरिन्द्रिय।
असंज्ञी पंचेन्द्रिय के ९—उपर्युक्त ८ और कर्णेन्द्रिय।
संज्ञी पंचेन्द्रिय के १०—मनोबल सहित सभी हैं।
अपर्याप्त जीवों में कुछ अंतर है—एकेन्द्रिय के ३ प्राण—स्पर्शन इंद्रिय, कायबल, आयु।
द्वीन्द्रिय के—उपर्युक्त ३ में एक रसना इंद्रिय होने से ४।
त्रीन्द्रिय के—उपर्युक्त चार में घ्राण इंद्रिय होने से ५।
चतुरिन्द्रिय के—उपर्युक्त ५ में चक्षुरिन्द्रिय मिलने से ६।
असंज्ञी और संज्ञी के—उपर्युक्त ६ में कर्णेन्द्रिय मिलने से ७ प्राण होते हैं अर्थात् अपर्याप्त अवस्था में श्वासोच्छ्वास, मनोबल और वचनबल नहीं होता है। ये बाह्यप्राण और अभ्यंतर प्राण पौद्गलिक हैं। द्रव्यसंग्रह में जीव के दस प्राणों को व्यवहार नय से प्राण माना है एवं निश्चय से चेतना लक्षण को प्राण माना है।