जाहि व जासु व जीवा, मग्गिज्जंते जहा तहा दिट्ठा।
ताओ चोदस जाणे, सुयणाणे मग्गणा होंति।।४४।।
यभिर्वा यासु वा जीवा मृग्यन्ते यथा तथा दृष्टा:।
ताश्चतुर्दश जानीहि श्रुतज्ञाने मार्गणा भवन्ति।।४४।।
अर्थ—प्रवचन में जिस प्रकार से देखे हों उसी प्रकार से जीवादि पदार्थों का जिन भावों के द्वारा अथवा जिन पर्यायों में विचार—अन्वेषण किया जाय उनको मार्गणा कहते हैं, उनके चौदह भेद हैं ऐसा समझना चाहिए।
भावार्थ —मार्गण शब्द का अर्थ होता है—अन्वेषण। अतएव जिन करणरूप परिणामों के द्वारा अथवा जिन अधिकरण रूप पर्यायों में जीव का अन्वेषण किया जा सके उनको कहते हैं मार्गणा। किन्तु ये परिणाम और पर्याय यद्वा-तद्वा कपोलकल्पित युक्तिविरुद्ध आगम द्वारा प्रतिपादित न होकर सर्वज्ञ वीतराग जिनेन्द्र भगवान के उपदिष्ट प्रवचन—श्रुत में जिस तरह से बताये गये हैं उसके अनुसार ही होने चाहिये अन्यथा जीवतत्व का ठीक-ठीक परिज्ञान नहीं हो सकता।
तात्त्पर्य यह है यह मार्गणा महाधिकार या तो जीव के उन असाधारण कारणरूप परिणामों का बोध कराता है जो कि गुणस्थानों की सिद्धि में साधन हैं अथवा अपनी (जीव की) उन अधिकरण रूप पर्यायोंअवस्थाओं को बताता है जिनमें कि विवक्षित गुणस्थानों की सिद्धि शक्य एवं प्राप्ति संभव है। यद्यपि ये परिणाम और पर्याय अशुद्ध जीव के होते हैं फिर भी उसकी शुद्धि में साधन और आधार हैं अतएव अन्वेष्य हैं। किन्तु ध्यान रहे जैनागम में जिस प्रकार से इनका वर्णन किया गया है उसी प्रकार से समझकर और तदनुसार ही उपयोग में लाने पर ये वास्तव में कार्यकारी हो सकते हैं। मुख्यतया इन परिणाम या पर्यायरूप मार्गणाओं के १४ भेद हैं जो कि आगे गिनाये गये हैं।
गइइंदियेसु काये, जोगे वेदे कसायणाणे य।
संजमदंसणलेस्सा, भवियासम्मत्तसण्णि आहारे।।४५।।
गतीन्द्रियेषु काये योगे वेदे कषायज्ञाने च।
संयमदर्शनलेश्याभव्यतासम्यक्त्वसंज्ञयाहारे।।४५।।
अर्थ—गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञा और आहार ये चौदह मार्गणा हैं।
भावार्थ —ऊपर मार्गणा का निरुक्त्यर्थ बताते समय करण और अधिकरण इस दो रूप में अर्थ किया गया है। किन्तु इस गाथा में सर्वत्र सप्तमी विभक्ति का निर्देश करके अधिकरण अर्थ ही व्यक्त किया गया है। इससे करणरूप अर्थ का निषेध नहीं समझना चाहिये। यद्यपि अधिकरण अर्थ की यहाँ मुख्यतया विवक्षा है ऐसा सूचित होता है। फिर भी गत्यादि पदों का अर्थ तृतीयान्त एवं सप्तम्यन्त दोनों ही तरह का माना गया है।
गइउदयजपज्जाया, चउगइगमणस्स हेउ वा हु गई।
णारयतिरिक्खमाणुसदेवगई त्ति य हवे चदुधा।।४६।।
गत्युदयजपर्याय: चतुर्गतिगमनस्य हेतुर्वा हि गति:।
नारकर्तिर्यग्मानुषदेवगतिरिति च भवेत् चतुर्धा।।४६।।
अर्थ—गति नाम कर्म के उदय से होने वाली जीव की पर्याय को अथवा चारों गतियों में गमन करने के कारण को गति कहते हैं। उसके चार भेद हैं—नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, देवगति।
भावार्थ —गति शब्द की निरुक्ति के अनुसार तीन तरह से ही निरुक्ति हो सकती है—गम्यते इति गति:, गमनं वा गति: और गम्यते अनेन सा गति:।
इनमें से पहली निरुक्ति के अनुसार जीव को प्राप्त होने वाली किसी भी वस्तु का नाम गति नहीं समझना चाहिए किन्तु गतिनाम कर्म के उदय से प्राप्त होने वाली जीव की पर्याय विशेष को ही गति शब्द से ग्रहण करना उचित है। इसी तरह गमन का अर्थ ग्रामादि के लिए जाना ऐसा न लेकर विवक्षित भव को छोड़कर दूसरे भव का धारण करना—भवांतर रूप में परिणत होना अर्थ ग्रहण करना चाहिए। तीसरी निरुक्ति के अनुसार नाम कर्म की उस प्रकृति को गति कहते हैं जो कि जीव की पर्याय भवान्तररूप परिणमन में कारण है किन्तु इस प्रकरण में कर्म अर्थ ग्रहण करने की मुख्यता नहीं है अर्थात् मार्गणा के इस प्रकरण में जीव की पर्याय अर्थ करना ही मुख्यतया विवक्षित है।
ण रमंति जदो णिच्चं, दव्वे खेत्ते य काल भावे य।
अण्णोण्णेिंह य जम्हा, तम्हा ते णारया भणिया।।४७।।
न रमन्ते यतो नित्यं द्रव्ये क्षेत्रे च कालभावे च।
अन्योन्यैश्च यस्मात्तस्मात्ते नारता भणिता:।।४७।।
अर्थ—जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में स्वयं तथा परस्पर में प्रीति को प्राप्त नहीं होते उनको नारत (नारकी) कहते हैं।
भावार्थ —शरीर और इंद्रियों के विषयों में, उत्पत्ति, शयन, विहार, उठने, बैठने आदि के स्थान में, भोजन आदि के समय में अथवा और भी अनेक अवस्थाओं में जो स्वयं अथवा परस्पर में प्रीति (सुख) को प्राप्त न हों उनको नारत कहते हैं। इस गाथा में जो ‘च’ शब्द पड़ा है उससे इसका दूसरा भी निरुक्ति सिद्ध अर्थ समझना चाहिए अर्थात् जो नरकगति नामकर्म के उदय से हों उनको अथवा नरान्—मनुष्यों को कायन्ति—क्लेश पहुँचावें उनको नारक कहते हैं क्योंकि नीचे सातों ही भूमियों में रहने वाले नारकी निरंतर ही स्वाभाविक, शारीरिक, मानसिक, आगन्तुक तथा क्षेत्रजन्य इन पाँच प्रकार के दु:खों से दुखी रहते हैं।
तिरियंति कुडिलभावं, सुविउलसण्णा णिगिट्ठिमण्णाणा।
अच्चंतपावबहुला, तम्हा तेरिच्छया भणिया।।४८।।
तिरोचन्ति कुटिलभावं सुविबृतसंज्ञा निकृष्टमज्ञाना:।
अत्यन्तपापबहुलास्तस्मा त्तैरश्चका भणिता:।।४८।।
अर्थ—जो मन, वचन, काय की कुटिलता को प्राप्त हों अथवा जिनकी आहारादि विषयक संज्ञा दूसरे मनुष्यों को अच्छी तरह प्रकट हो और जो निकृष्ट अज्ञानी हों तथा जिनमें अत्यन्त पाप का बाहुल्य पाया जाय उनको तिर्यंच कहते हैंं।
भावार्थ —जिनमें कुटिलता की प्रधानता हो, क्योंकि प्राय: करके सब ही तिर्यंच जो उनके मन में होता है उसको वचन के द्वारा व्यक्त नहीं कर सकते क्योंकि उनके उस प्रकार की वचन शक्ति ही नहीं है और जो वचन से कहते हैं उसको काय से नहीं करते तथा जिनकी आहारादि संज्ञा प्रकट हो और श्रुत का अभ्यास तथा शुभोपयोगादि के न कर सकने से जिनमें अत्यंत अज्ञानता पाई जाए तथा मनुष्य की तरह महाव्रतादिक को धारण न कर सकने और सम्यग्दर्शन की विशुद्धि आदि के न हो सकने से जिनमें अत्यंत पाप का बाहुल्य पाया जाय उनको तिर्यंच कहते हैं।
तात्पर्य यह है कि निरुक्ति के अनुसार तिर्यंच गति का अर्थ माया की प्रधानता को बताता है।
यथा—तिर: तिर्यग्भावं—कुटिलपरिणामं अंचन्ति इति तिर्यंच:।
माया प्रधान परिणामों से संचित कर्म के उदय से यह गति-पर्याय प्राप्त होती है। यहाँ पर जो पर्यायाश्रित भाव हुआ करते हैं वे भी मुख्यतया कुटिलता को ही सूचित करते हैं। उनकी भाषा अव्यक्त होने से वे अपने मनोभावों को व्यक्त करने में असमर्थ रहा करते हैं। प्राय: मैथुन संज्ञा आदि मनुष्यों की तरह उनकी गूढ़ नहीं हुआ करती। मनुष्यों के समान इनमें विवेक, हेयोपादेय का भेद ज्ञान, श्रुताभ्यास, शुभोपयोग आदि भी नहीं पाया जाता। प्रभाव, सुख, द्युति, लेश्या आदि की अपेक्षा से भी वे मनुष्यों से निकृष्ट हैं। महाव्रतादि गुणों को वे धारण नहीं कर सकते। इस गति में जिनका प्रमाण सबसे अधिक है उन एकेन्द्रिय जीवों में तथा असंज्ञि पंचेन्द्रिय पर्यन्त त्रस जीवों में भी जिससे सम्यग्दर्शन प्राप्त हो सकता है ऐसी विशुद्धि नहीं पाई जाती अतएव यह पर्याय अत्यन्त पाप बहुल है। सारांश यह है कि जिसके होने पर यह भाव हुआ करते या पाये जाते हैं जीव की उस द्रव्यपर्याय को ही तिर्यग्गति कहते हैं। मनुष्यों की अपेक्षा यह निकृष्ट पर्याय है, ऐसा समझना चाहिए।
मण्णंति जदो णिच्चं, मणेण णिउणा मणुक्कडा जम्हा।
मण्णुब्भवा य सव्वे, तम्हा ते माणुसा भणिदा।।४९।।
मन्यन्ते यतो नित्यं मनसा निपुणा मनसोत्कटा यस्मात्।
मनूभद्वाश्च सर्वे तस्मात्ते मानुषा भणिता:।।४९।।
अर्थ—जो नित्य ही हेय-उपादेय, तत्व-अतत्व, आप्त-अनाप्त, धर्म-अधर्म आदि का विचार करें और जो मन के द्वारा गुण दोषादि का विचार स्मरण आदि कर सके, जो पूर्वोक्त मन के विषय में उत्कृष्ट हों, शिल्पकला आदि में भी कुशल हों तथा युग की आदि में जो मनुओं से उत्पन्न हों उनको मनुष्य कहते हैं।
भावार्थ —मन का विषय तीव्र होने से गुण दोषादि, विचार, स्मरण आदि जिनमें उत्कृष्ट रूप से पाया जाय, अवधानादि करने में जिनका उपयोग दृढ़ हो तथा कर्मभूमि की आदि में आदीश्वर भगवान् तथा कुलकरों ने जिनको व्यवहार का उपदेश दिया इसलिए जो उन्हीं की—मनुओं की संतान कहे या माने जाते हैं उनको मनुष्य कहते हैं क्योंकि अवबोधनार्थक मनु धातु से मनु शब्द बनता है और जो मनु की संतान हैं उनको कहते हैं मनुष्य। अतएव इस शब्द का यहाँ पर जो अर्थ किया गया है वह निरुक्ति के अनुसार है। लक्षण की अपेक्षा से अल्पारम्भ परिग्रह के परिणामों द्वारा संचित मनुष्य आयु और मनुष्यगति नामकर्म के उदय से जो ढाई द्वीप के क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले हैं उनको कहते हैं मनुष्य। ये ज्ञान विज्ञान मन पवित्र संस्कार आदि की अपेक्षा अन्य जीवों से उत्कृष्ट हुआ करते हैं। जैसा कि निरुक्ति के द्वारा बताया गया है।
इस गाथा में एक ‘यत:’ शब्द है और दूसरा ‘यस्मात्’ शब्द है। अर्थ दोनों शब्दों का एक ही होता है। अतएव इनमें एक शब्द व्यर्थ पड़ता है। वह व्यर्थ पड़कर विशिष्ट अर्थ का ज्ञापन करता है कि यद्यपि लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों में यह विशेष स्वरूप—निरुक्त्यर्थ घटित नहीं होता फिर भी उनको मनुष्यगति नामकर्म और मनुष्य आयु के उदय रूप लक्षण मात्र की अपेक्षा से मनुष्य कहते हैं, ऐसा समझना चाहिए।
दीव्वंति जदो णिच्चं, गुणेहिं अट्ठेहिं दिव्वभावेहिं।
भासंतदिव्वकाया, तम्हा ते वण्णिया देवा।।५०।।
दीव्यन्ति यतो नित्यं गुणैरष्टाभिर्दिव्यभावै:।
भासमानदिव्यकाया: तस्मात्ते वर्णिता देवा:।।५०।।
अर्थ—जो देवगति में होेने वाले या पाये जाने वाले परिणामों—परिणमनों से सदा सुखी रहते हैं और जो अणिमा, महिमा आदि आठ गुणों (ऋद्धियों) के द्वारा सदा अप्रतिहत (निर्बाध) रूप से विहार करते हैं और जिनका रूप लावण्य, यौवन आदि सदा प्रकाशमान रहता है, उनको परमागम में देव कहा है।
भावार्थ —देव शब्द दिव् धातु से बनता है जिसके कि क्रीड़ा, विजिगीषा, व्यवहार, द्युति, स्तुति, मोह, मद आदि अनेक अर्थ होते हैं। अतएव निरुक्ति के अनुसार जो मनुष्यों में न पाये जा सकने वाले प्रभाव से युक्त हैं तथा कुलाचलों पर वनों में या महासमुद्रों में सपरिवार विहार—क्रीड़ा किया करते हैं, बलवानों को भी जीतने का भाव रखते हैं, पंचपरमेष्ठियों या अकृत्रिम चैत्य, चैत्यालयों आदि की स्तुति वंदना किया करते हैं, सदा पंचेन्द्रियों से संबंधित विषयों के भोगों से मुद्रित रहा करते हैं, जो विशिष्ट दीप्ति के धारण करने वाले हैं, जिनका शरीर धातुमल दोष रहित एवं अविच्छिन्न रूप लावण्य से युक्त सदा यौवन अवस्था में रहा करता है और जो अणिमा आदि आठ प्रकार की ऋद्धियों को धारण करने वाले हैं उनको देव कहते हैं। यह देवपर्याय के स्वरूप मात्र का निदर्शन है। लक्षण के अनुसार जो अपने कारणों से संचित देवायु और देवगति नाम कर्म के उदय से प्राप्त पर्याय को धारण करने वाले संसारी जीव हैं वे सब देव हैं।
जाइजरामरणभया, संजोगविजोगदुक्खसण्णाओ।
रोगादिगा य जिस्से, ण संति सा होदि सिद्ध गई।।५१।।
जातिजरामरणभया, संयोगवियोगदु:खसंज्ञा:।
रोगादिकाश्च यस्यां न संति सा भवति सिद्धगति:।।५१।।
अर्थ—एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक पाँच प्रकार की जाति, बुढ़ापा, मरण, भय, अनिष्ट संयोग, इष्ट वियोग, इनसे होने वाले दु:ख, आहारादि विषयक संज्ञाएँ—वांछाएं और रोग आदि की व्याधि इत्यादि विरुद्ध विषय जिस गति में नहीं पाये जाते उसको सिद्धगति कहते हैं।
भावार्थ —जाति नामकर्म के उदय से प्राप्त होने वाली एकेन्द्रियादिक जीव की पाँच अवस्थाएँ, आयुकर्म के विपाक आदि कारणों से शरीर के शिथिल होने पर जरा, नवीन आयु के बंधपूर्वक भुज्यमान आयु के अभाव से होने वाले प्राणों के त्याग रूप मरण, अनर्थ की आशंका करके अपकारक वस्तु से दूर रहने या भागने की इच्छारूप भय, क्लेश के कारणभूत अनिष्ट पदार्थ की प्राप्ति रूप संयोग, सुख के कारणभूत अभीष्ट पदार्थ के दूर हो जाने रूप वियोग, इनसे होने वाले अन्य भी अनेक प्रकार के दु:ख तथा आहार आदि विषयक तीन प्रकार की संज्ञाएँ, शरीर की अस्वस्थता रूप अनेक प्रकार की व्याधि तथा आदि शब्द में मानभंग-वध-बंधन आदि दु:ख जिस गति में अपने-अपने कारणभूत कर्मों का अभाव हो जाने से नहीं पाये जाते उसको सिद्धगति कहते हैं।
गति मार्गणा के चार ही भेद हैं क्योंकि वह उस नाम कर्म विशेष के उदय की अपेक्षा रखता है जो कि गति नाम से ही कहा गया है और जिसके चार ही भेद हैं किन्तु जीव की जिस गति—द्रव्यपर्याय विशेष को यहाँ बताया गया है वह मार्गणातीत है। वह किसी कर्म के उदय से नहीं किन्तु समस्त कर्मों के क्षय से प्रादुर्भूत हुआ करती है। अतएव चारों गतियों के अनंतर इसका पृथक् वर्णन किया गया है और सम्पूर्ण कर्मजन्य विकारी भावों से रहित इसको बताया गया है। इस अवस्था में आत्मद्रव्य के सभी स्वाभाविक गुणों का जो सद्भाव रहता है।
तलली नमधुगविमलंधूमसिलागाविचोरभयमेरू।
तटहरिखझसा होंति हु, माणुसपज्जत्तसंखंका।।५२।।
तलली नमधुगविमलंधूमसिलागाविचोरभयमेरू।
तटहरिखझसा भवन्ति हि मानुषपर्याप्तसंख्यांका:।।५२।।
अर्थ—तकार से लेकर सकारपर्यन्त जितने अक्षर इस गाथा में बताये हैं, उतने ही अंकप्रमाण पर्याप्त मनुष्यों की संख्या है।
भावार्थ —इस गाथा में तकारादि अक्षरों के अंकों का ग्रहण करना चाहिये, परन्तु किस अक्षर से किस अंक का ग्रहण चाहिए इसके लिये ‘कटपयपुरस्थवर्णैर्नवनवपंचाष्टकल्पितै: क्रमश:। स्वरञनशून्यं संख्यामात्रोपरि-माक्षरं त्याज्यम्’’ यह गाथा उपयोगी है। अर्थात् क से लेकर आगे के झ तक के नव अक्षरों से क्रम से एक दो आदि नव अंक समझने चाहिए। इस प्रकार ट से लेकर नव अंक और प से लेकर पाँच अंक तथा य से लेकर आठ अक्षरों से आठ अंक एवं सोलह स्वर और न इनसे शून्य (०) समझना चाहिए। किन्तु मात्रा और उपरिम अक्षर, इससे कोई भी अंक ग्रहण नहीं करना चाहिए। इस नियम से और ‘‘अंकों की विपरीतगति होती है’’ इस नियम के अनुसार इस गाथा में कहे हुए अक्षरों से पर्याप्त मनुष्यों की संख्या ७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ निकलती है।
मार्गणा—जिनके द्वारा अथवा जिनमें जीवों का मार्गण्—अन्वेषण किया जाता है उन्हें मार्गणा कहते हैं। मार्गणा के १४ भेद हैं।
गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञा और आहार ये चौदह मार्गणा हैं।
मार्गणा के दो भेद भी हैं—सान्तर और निरंतर। उपर्युक्त चौदह मार्गणायें निरंतर मार्गणा कहलाती हैं जिनमें
अंतर—विच्छेद नहीं पड़ता उनको निरंतर मार्गणा कहते हैं। संसारी जीवों के उपर्युक्त १४ मार्गणाओं में से किसी का विच्छेद नहीं पड़ता वे सभी जीवों के और सदा ही पाई जाती है इसलिए निरंतर मार्गणा कही जाती हैं और जिनमें अंतर—विच्छेद पड़ जाता है उन्हें सान्तर मार्गणा कहते हैं अर्थात् कुछ मार्गणा ऐसी भी हैं कि जिनमें समय के एक नियत प्रमाण तक विच्छेद पाया जाता है। उन्हीं को सांतर मार्गणा कहते हैं।
ये सांतर मार्गणाएँ आठ हैं—उपशम सम्यक्त्व, सूक्ष्मसांपराय संयम, आहारककाय योग, आहारक मिश्र योग, वैक्रियक मिश्र काययोग, लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य, सासादन सम्यक्त्व और मिश्र ये आठ सांतर मार्गणाएँ हैं। उपशम सम्यक्त्व का उत्कृष्ट विरह काल ७ दिन का है। सूक्ष्म सांपराय का महीना, आहारक योग का पृथक्त्व वर्ष, आहारक मिश्र का पृथक्त्व वर्ष, वैक्रियक मिश्र का १२ मुहूर्त, अपर्याप्त मनुष्य का पल्य से असंख्यातवें भाग, सासादन सम्यक्त्व और मिश्र का पल्य के असंख्यातवें भाग है और सबका जघन्य अंतर काल एक समय है। मतलब यह है कि यदि तीन लोक में कोई भी उपशम सम्यग्दृष्टि न रहे तो ऐसा अंतर सात दिन के लिए पड़ सकता है। उसके बाद कोई न कोई उपशम सम्यग्दृष्टि अवश्य ही होता है।
गति नामकर्म के उदय से होने वाली जीव की पर्याय विशेष को अथवा चारों गतियों में गमन करने के कारण को गति कहते हैं। गति शब्द के निरुक्ति के अनुसार तीन तरह के अर्थ संभव हैं। गम्यते इति गति:, गमनं वा गति: और गम्यते अनेन सा गति:। इन निरुक्ति अर्थों में गतिनाम कर्म के उदय से होने वाली जीव की नर, नारक आदि पर्याय विशेष को ही ग्रहण करना चाहिए।
गति के चार भेद हैं—नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, देवगति।
जो द्रव्य क्षेत्र काल भाव में स्वयं तथा परस्पर में प्रीति को प्राप्त नहीं होते हैं उनको ‘नारत’ कहते है अर्थात् जो किसी भी अवस्था में स्वयं या परस्पर में प्रीति को प्राप्त न हों वे नारत—नारकी कहलाते हैं अथवा जो ‘नरान् कायंति’ मनुष्यों को क्लेश पहुँचावें उनको नारक कहते हैं क्योंकि नीचे सातों ही भूमियों में रहने वाले नारकी निरंतर ही स्वाभाविक, शारीरिक, मानसिक, आगंतुक तथा क्षेत्रजन्य इन पाँच प्रकार के दु:खों से दु:खी रहते हैं। नरकगति नामकर्म के उदय से जीव नरक में आयु पर्यंत महान् कष्टों का अनुभव करते रहते हैं। न रमन्ते इति नारता—नारका—इस व्युत्पत्ति के अनुसार नारकी आपस में कभी भी प्रेम नहीं करते हैं।
जो मन वचन काय की कुटिलता को प्राप्त हों अथवा जिनकी आहारादि संज्ञायें दूसरों को स्पष्ट दिखें और जो निकृष्ट अज्ञानी हों, जिनमें पाप की बहुलता हो वे तिर्यंच कहलाते हैं। निरुक्ति के अनुसार ‘तिर: तिर्यग्भावं-कुटिल परिणामं अन्वति इति तिर्यंच’ जो कुटिल-मायाचार परिणामों को प्राप्त करें वे तिर्यंच कहलाते हैं। इससे तिर्यंचगति में मायाचार की बहुलता जानी जाती है।
जो नित्य ही तत्व-अतत्व, आप्त-अनाप्त आदि का विचार करें, जो मन के द्वारा गुण-दोषादि का विचार स्मरण आदि कर सके, जो मन के विषय में उत्कृष्ट हों, शिल्प कलादि में कुशल हों तथा युग की आदि में मनुओं से उत्पन्न हुये हों वे मनुष्य कहलाते हैं। ‘मनु अवबोधने’ मनु धातु से मनु शब्द बनता है और जो मनु की संतान हैं उसे मनुष्य कहते हैं। यहाँ निरुक्ति के अनुसार अर्थ किया गया है।
जो देवगति में होने वाली अणिमा, महिमा आदि आठ ऋद्धियों से सुखी होें, सदा रूप यौवन आदि में दीप्ति को प्राप्त हों वे देव कहलाते हैं। ‘दीव्यंति इति देव:’ दिव् धातु क्रीड़ा, विजिगीषा, दीप्ति, मोद आदि अर्थ में है उससे देव शब्द निष्पन्न हुआ है।
इन चारों गतियों के अर्थ में निरुक्ति अर्थ प्रधान है किन्तु यह सर्वथा लागू नहीं होता है। मुख्यत: जो उन-उन गति नामकर्म के उदय से उस-उस भव को प्राप्त करते हैं। वे उस गति वाले कहलाते हैं।
एकेन्द्रिय आदि जाति, वृद्धावस्था, मरण, भय, अनिष्ट संयोग, इष्ट वियोग, इनसे होने वाले दु:ख, आहारादि वाञ्छायें, रोग आदि जिस गति में नहीं पाये जायें वह ‘सिद्धगति’ कहलाती है। इसे पंचम गति भी कहते हैं। यह सिद्धगति मार्गणातीत है, सभी कर्मों के क्षय से प्रकट होती है।
विशेष—तिर्यंचों के पाँच भेद हैं—सामान्य तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पर्याप्त तिर्यंच, योनिमती (भावस्त्री वेदी) तिर्यंच और अपर्याप्त तिर्यंच।
मनुष्यों के चार भेद हैं—सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य, योनिमती (भावस्त्री वेदी) मनुष्य और लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य। इनमें पंचेन्द्रिय भेद इसलिये पृथक नहीं हैं कि मनुष्यों में पंचेन्द्रिय मनुष्य ही होते हैं एकेन्द्रिय आदि नहीं होते हैं।
पर्याप्त मनुष्यों की संख्या—७ ९ २ २ ८ १ ६ २ ५ १ ४ २ ६ ४ ३ ३ ७ ५ ९ ३ ५ ४ ३ ९ ५ ० ३ ३ ६ ।
इन चारों गतियों में एक मनुष्यगति ही ऐसी गति है कि जिसमें आठों कर्मों का नाश कर यह जीव सिद्धपद को प्राप्त कर सकता है अतएव इस दुर्लभ मनुष्य पर्याय को प्राप्त करके संयम को धारण करके संसार परम्परा को समाप्त करना चाहिये।