पुरिसिच्छिसंढवेदोदयेण पुरिसिच्छिसंढओ भावे।
णामोदयेण दव्वे, पाएण समा कहिं विसमा।।८३।।
पुरुषस्त्रीषण्ढवेदोदयेन पुरुषस्त्रीषण्ढा: भावे।
नामोदयेन द्रव्ये प्रायेण समा: क्वचिद् विषमा:।।८३।।
अर्थ—पुरुष, स्त्री और नपुंसक वेदकर्म के उदय से भावपुरुष, भावस्त्री, भावनपुंसक होता है और नामकर्म के उदय से द्रव्यपुरुष, द्रव्यस्त्री, द्रव्यनपुंसक होता है। सो यह भाव वेद और द्रव्य वेद प्राय: करके समान होता है परन्तु कहीं-कहीं विषम भी होता है।
भावार्थ —वेद नामक नो कषाय के उदय से जीवों के भाववेद होता है और निर्माण नामकर्म सहित आंगोपांग नामकर्म के उदय से द्रव्य वेद होता है। ये दोनों ही वेद प्राय: करके तो समान ही होते हैं अर्थात् जो भाव वेद वही द्रव्य वेद और जो द्रव्य वेद वही भाव वेद। परन्तु कहीं-कहीं विषमता भी हो जाती है अर्थात् भाववेद दूसरा द्रव्यवेद दूसरा। यह विषमता देवगति और नरकगति में तो सर्वथा नहीं पाई जाती। मनुष्य और तिर्यग्गति में जो भोगभूमिज हैं उनमें भी नहीं पाई जाती, बाकी के तिर्यग् मनुष्यों में क्वचित् वैषम्य भी पाया जाता है।
पुरुगुणभोगे सेदे, करेदि लोयम्मि पुरुगुणं कम्मं।
पुरुउत्तमो य जम्हा, तम्हा सो वण्णिओ पुरिसो।।८४।।
पुरुगुणभोगे शेते करोति लोके पुरुगुणं कर्म।
पुरुरुत्तमश्च यस्मात् तस्मात् स वर्णित: पुरुष:।।८४।।
अर्थ—उत्कृष्ट गुण अथवा उत्कृष्ट भोगों का जो स्वामी हो अथवा जो लोक में उत्कृष्ट गुणयुक्त कर्म को करे, यद्वा जो स्वयं उत्तम हो उसको पुरुष कहते हैं।
भावार्थ —उत्कृष्ट सम्यग्ज्ञानादि गुणों का वह स्वामी होता है, इंद्र चक्रवर्ती आदि पदों को भोगता है, चारों पुरुषार्थों का पालन करता है, परमेष्ठी पद में स्थित रहता है इसलिये इसको पुरुष कहते हैं।
छादयदि सयं दोसे, णयदो छाददि परं वि दोसेण।
छादणसीला जम्हा, तम्हा सा वण्णिया इत्थी।।८५।।
छादयति स्वकं दौषै: नयत: छायदति परमपि दोषेण।
छादनशीला यस्मात् तस्मात् सा वणणता स्त्री।।८५।।
अर्थ—जो मिथ्यादर्शन, अज्ञान, असंयम आदि दोषों से अपने को आच्छादित करे और मृदुभाषण, तिरछी चितवन आदि व्यापार से जो दूसरे पुरुषों को भी हिंसा, अब्रह्म आदि दोषों से आच्छादित करे उसको आच्छादन—स्वभावयुक्त होने से स्त्री कहते हैं।
भावार्थ —यद्यपि तीर्थंकरों की माता या सम्यक्त्वादि गुणों से भूषित दूसरी भी बहुत सी स्त्रियाँ अपने को तथा दूसरों को दोषों से आच्छादित नहीं भी करती हैं—उनमें यह लक्षण नहीं भी घटित होता है तब भी बहुलता की अपेक्षा यह निरुक्ति सिद्ध लक्षण किया है। निरुक्ति के द्वारा मुख्यतया प्रकृति प्रत्यय से निष्पन्न अर्थ का बोध मात्र कराया जाता है।
णेवित्थी णेव पुमं, णउंसओ उहयलिंगवदिरित्तो।
इट्ठावग्गिसमाणगवेदणगरुओ कलुसचित्तो।।८६।।
नैव स्त्री नैव पुमान् नपुंसक उभयलिंगव्यतिरिक्त:।
इष्टापाकाग्निसमानकवेदनागुरुक: कलुषचित्त:।।८६।।
अर्थ—जो न स्त्री हो और न पुरुष हो, ऐसे दोनों ही लिंगों से रहित जीव को नपुंसक कहते हैं। इसके अवा (भट्टा) में पकती हुई र्इंट की अग्नि के समान तीव्र कषाय होती है। अतएव इसका चित्त प्रति समय कलुषित रहता है।
तिणकारिसिट्ठपागग्गिसरिसपरिणामवेदणुम्मुक्का।
अवगयवेदा जीवा, सगसंभवणंतवरसोक्खा।।८७।।
तृणकारीषेष्टपाकाग्निसदृशपरिणामवेदनोन्मुक्ता:।
अपगतवेदा जीवा: स्वकसम्भवानन्तरवरसौख्या:।।८७।।
अर्थ—तृण की अग्नि, कारीष अग्नि, इष्टपाक अग्नि (अवा की अग्नि) के समान वेद के परिणामों से रहित जीवों को अपगतवेद कहते हैं। ये जीव अपनी आत्मा से ही उत्पन्न होने वाले अनन्त और सर्वोत्कृष्ट सुख को भोगते हैं।
भावार्थ -तृण की अग्नि के समान पुरुषवेद की कषाय और कारीष-कंडे की अग्नि के समान स्त्रीवेद की कषाय तथा अवा-भट्टे की अग्नि के समान नपुंसक वेद की कषाय से जो रहित हैं, वे दु:खी नहीं हैं किन्तु आत्मोत्थ सर्वोत्कृष्ट अनन्त सुख के भोक्ता हुआ करते हैं।
प्रश्न—वेद किसे कहते हैं ?
उत्तर—पुरुषादि के उस रूप परिणाम को या शरीर चिन्ह को वेद कहते हैं। वेदों के दो भेद हैं—भाववेद, द्रव्यवेद।
मोहनीय कर्म के अंतर्गत वेद नामक नोकषाय के उदय से जीवों के भाववेद होता है और निर्माण नामकर्म सहित आंगोपांग नामकर्म के उदय से द्रव्यवेद होता है अर्थात् तद्रूप परिणाम को भाववेद और शरीर की रचना को द्रव्यवेद कहते हैं। ये दोनों वेद कहीं समान होते हैं और कहीं विषम भी होते हैं।
वेद के तीन भेद होते हैं—पुरुष, स्त्री और नपुंसक वेद। नरकगति में द्रव्य और भाव दोनोें वेद नपुंसक ही हैं। देवगति में पुरुष, स्त्री रूप दो वेद हैं जिनके जो द्रव्यवेद है वही भाववेद रहता है यही बात भोगभूमिजों में भी है।
कर्मभूमि के तिर्यंच और मनुष्य में विषमता पाई जाती है। किसी का द्रव्यवेद पुरुष है तो भाववेद पुरुष, स्त्री या नपुंसक कोई भी रह सकता है, हाँ! जन्म से लेकर मरण तक एक ही वेद का उदय रहता है, बदलता नहीं है। द्रव्य से पुरुषवेदी आदि भाव से स्त्रीवेदी या नपुंसकवेदी है फिर भी मुनि बनकर छठे-सातवें आदि गुणस्थानों को प्राप्त कर मोक्ष जा सकते हैं। किन्तु यदि द्रव्य से स्त्रीवेद है और भाव से पुरुषवेद है तो भी उसके पंचम गुणस्थान के ऊपर नहीं हो सकता है। अतएव दिगम्बर आम्नाय में स्त्री मुक्ति का निषेध है।
पुरुष वेद—जो उत्कृष्ट गुण या भोगों के स्वामी हैं, लोक में उत्कृष्ट कर्म को करते हैं, स्वयं उत्तम हैं वे पुरुष हैं।
स्त्रीवेद—जो मिथ्यात्व, असंयम आदि से अपने को दोषों से ढके और मृदु भाषण आदि से पर के दोषों को ढके वह स्त्री है।
नपुंसकवेद—जो स्त्री और पुरुष इन दोनों लिंगों से रहित हैं, र्इंट के भट्टे की अग्नि के समान कषाय वाले हैं वे नपुंसक हैं।
स्त्री और पुरुष का यह सामान्य लक्षण है, वास्तव में रावण आदि अनेक पुरुष भी दोषी देखे जाते हैं और भगवान की माता, आर्यिका महासती सीता आदि अनेक स्त्रियाँ महान् श्रेष्ठ देखी जाती हैं। अत: सर्वथा एकान्त नहीं समझना चाहिए।
जो तृण की अग्निवत् पुरुषवेद की कषाय, कंडे की अग्निवत् स्त्रीवेद की कषाय और अवे की अग्नि के समान नपुंसकवेद की कषाय से रहित अपगतवेदी हैं, वे अपनी आत्मा से ही उत्पन्न अनंत सुख को भोगते रहते हैं।