छप्पंचणवविहाणं, अत्थाणं जिणवरोवइट्ठाणं।
आणाए अहिगमेण य, सद्दहणं होइ सम्मत्तं।।१४९।।
षट्पंचनवविधानामर्थानां जिनवरोपदिष्टानाम्।
आज्ञया अधिगमेन च श्रद्धानं भवति सम्यक्त्वम्।।१४९।।
अर्थ—छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, नव पदार्थ इनका जिनेन्द्रदेव ने जिस प्रकार से वर्णन किया है उस ही प्रकार से इनका जो श्रद्धान करना उसको सम्यक्त्व कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है—एक तो केवल आज्ञा से दूसरा अधिगम से।
भावार्थ —जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये छह द्रव्य हैंं तथा काल को छोड़कर शेष ये ही पाँच अस्तिकाय कहे जाते हैं और जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य, पाप ये नव प्रकार के पदार्थ हैं। इनका ‘‘जिनेन्द्रदेव ने जैसा स्वरूप कहा है वास्तव में वही सत्य है’’ इस तरह बिना युक्ती से निश्चय किये ही जो श्रद्धान होता है उसको आज्ञा सम्यक्त्व कहते हैं तथा इनके विषय में प्रत्यक्ष परोक्ष रूप प्रमाण, द्रव्यार्थिक आदि नय, नाम स्थापना आदि निक्षेप इत्यादि के द्वारा निश्चय करके जो श्रद्धान होता है उसको अधिगम सम्यक्त्व कहते हैं
तेरसकोडी देसे, बावण्णं सासणे मुणेदव्वा।
मिस्सा वि य तद्दुगुणा, असंजदा सत्तकोडिसयं।।१५०।।
त्रयोदशकोट्यो देशे द्वापंचाशत् सासने मंतव्या:।
मिश्रा अपि चतद्विगुणा असंयता: सप्तकोटिशतम्।।१५०।।
अर्थ—देशसंयम गुणस्थान में तेरह करोड़, सासादन में बावन करोड़, मिश्र में एक सौ चार करोड़ एवं असंयत में सात सौ करोड़ मनुष्य हैं। प्रमत्तादि गुणस्थान वाले जीवों का प्रमाण पूर्व में ही बता चुके हैं। इस प्रकार यह गुणस्थानों में मनुष्य जीवों का प्रमाण है।
सत्तादी अट्ठंता, छण्णवमज्झा य संजदा सव्वे।
अंजलिमोलियहत्थो, तियरणसुद्धे णमंसामि।।१५१।।
सप्तादयोऽष्टान्ता: षण्णवमध्याश्च संयता: सर्वे।
अञ्जलिमौलिकहस्तस्त्रिकरणशुद्ध्या नमस्यामि।।१५१।।
अर्थ—सात आदि में, आठ अन्त में दोनों अंकों के मध्य में छह जगह नौ का अंक ‘‘अंकानां वामतो गति:’’ के नियमानुसार रखने पर सम्पूर्ण संयमियों का प्रमाण होता है अर्थात् छट्ठे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक के सर्व संयमियों का प्रमाण तीन कम नव करोड़ है (८९९९९९९७) इनको मैं हाथ जोड़कर शिर नवाकर मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक नमस्कार करता हूँ।
भावार्थ -प्रमत्त वाले जीव ५९३९८२०६, अप्रमत्त वाले २९६९९१०३, उपशमश्रेणी वाले चारों गुणस्थानवर्ती ११९६, क्षपकश्रेणी वाले चार गुणस्थानवर्ती २३९२, सयोगीजिन ८९८५१२, इन सबका जोड़ ८९९९९३९९ होता है। सो इसको सर्व संयमियों के प्रमाण में से घटाने पर शेष अयोगी जीवों का प्रमाण ५९८ रहता है। इसको भी संयमियों के प्रमाण में जोड़ने से संयमियों का कुल प्रमाण तीन कम नौ करोड़ होता है।
खीणे दंसणमोहे, जं सद्दहणं सुणिम्मलं होई।
तं खाइयसम्मत्तं, णिच्चं कम्मक्खवणहेदू।।१५२।।
क्षीणे दर्शनमोहे यच्छ्रद्धानं सुनिर्मलं भवति।
तत्क्षायिकसम्यक्त्वं नित्यं कर्मक्षपणहेतु।।१५२।।
अर्थ—दर्शनमोहनीय कर्म के क्षीण हो जाने पर जो निर्मल श्रद्धान होता है उसको क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैंं। यह सम्यक्त्व नित्य है और कर्मों के क्षय होने का कारण है।
भावार्थ —यद्यपि दर्शनमोहनीय के मिथ्यात्व, मिश्र, सम्यक्त्वप्रकृति ये तीन ही भेद हैं तथापि अनंतानुबंधी कषाय भी दर्शनगुण को विपरीत करता है इसलिये इसको भी दर्शनमोहनीय कहते हैं। पंचाध्यायी में भी कहा है कि-‘‘सप्तैते दृष्टिमोहनम्’’। अतएव इन सात प्रकृतियों के सर्वथा क्षीण हो जाने से दर्शन गुण की जो अत्यंत निर्मल अवस्था होती है उसको क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं। इसके प्रतिपक्षी कर्मों का एक देश भी अवशिष्ट नहीं रहा है। इस ही लिये यह दूसरे सम्यक्त्वों की तरह सांत नहीं हैं तथा इसके होने पर असंख्यातगुणी कर्मों की निर्जरा होती है इसलिये यह कर्मक्षय का हेतु है।
दंसणमोहक्खवणापट्ठवगो कम्मभूमिजादो हु।
मणुसो केवलिमूले णिट्ठवगो होदि सव्वत्थ।।१५३।।
दर्शनमोहक्षपणाप्रस्थापक: कर्मभूमिजातो हि।
मनुष्य: केवलिमूले निष्ठापको भवति सर्वत्र।।१५३।।
अर्थ—दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय होेने का प्रारंभ केवली के पाद मूल में कर्मभूमि का उत्पन्न होने वाला मनुष्य ही करता है तथा निष्ठापन सर्वत्र होता है।
भावार्थ —दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय होेने का जो क्रम है उसका प्रारंभ केवली, श्रुतकेवली के पादमूल में (निकट) ही होता है तथा उसका (प्रारंभ का) करने वाला कर्मभूमिज मनुष्य ही होता है। यदि कदाचित् पूर्ण क्षय होने के प्रथम ही मरण हो जाय तो उसकी (क्षपणा की) समाप्ति चारों गतियों में से किसी भी गति में हो सकती है।
दंसणमोहुदयादो, उप्पज्जइ जं पयत्थसद्दहणं।
चलमलिणमगाढं तं, वेदयसम्मत्तमिदि जाणे।।१५४।।
दर्शनमोहोदयादुत्पद्यते यत् पदार्थश्रद्धानम्।
चलमलिनमगाढं तद् वेदकसम्यक्त्वमिति जानीहि।।१५४।।
अर्थ—सम्यक्त्वमोहनीय प्रकृति के उदय से पदार्थों का जो चल, मलिन, अगाढ़रूप श्रद्धान उत्पन्न होता है उसको वेदकसम्यक्त्व कहते हैं।
भावार्थ —मिथ्यात्व, मिश्र और अनंतानुबंधी चतुष्क इनका सर्वथा क्षय अथवा उदयाभावी क्षय और उपशम हो चुकने पर किन्तु अवशिष्ट सम्यक्त्व प्रकृति के उदय होते हुए पदार्थों का जो श्रद्धान होता है उसको वेदक सम्यक्त्व कहते हैं। यहाँ पर सम्यक्त्व प्रकृति के उदयजनित चलता, मलिनता और अगाढ़ता ये तीन दोष होते हैं। इन तीनों का लक्षण पहले कह चुके हैं।
दंसणमोहुवसमदो, उप्पज्जइ जं पयत्थसद्दहणं।
उवसमसम्मत्तमिणं, पसण्णमलपंकतोयसमं।।१५५।।
दर्शनमोहोपशमादुत्पद्यते यत्पदार्थश्रद्धानम्।
उपशमसम्यक्त्वमिदं प्रसन्नमलपंकतोयसमम्।।१५५।।
अर्थ—उक्त सम्यक्त्व विरोधिनी पाँच अथवा सात प्रकृतियों के उपशम से जो पदार्थों का श्रद्धान होता है उसको उपशमसम्यक्त्व कहते हैं। यह सम्यक्त्व इस तरह का निर्मल होता है जैसा कि निर्मली आदि पदार्थों के निमित्त से कीचड़ आदि जल के नीचे बैठ जाने पर जल निर्मल होता है।
भावार्थ —उपशम सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व निर्मलता की अपेक्षा समान हैं क्योंकि प्रतिपक्षी कर्मों का उदय दोनों ही स्थान पर नहीं है किन्तु विशेषता इतनी ही है कि क्षायिक सम्यक्त्व के प्रतिपक्षी कर्म का सर्वथा अभाव हो गया है और उपशम सम्यक्त्व के प्रतिपक्षी कर्म की सत्ता है। जैसे—किसी जल में निर्मली आदि के द्वारा ऊपर से निर्मलता होने पर भी नीचे कीचड़ जमी रहती है और किसी जल के नीचे कीचड़ रहती ही नहीं। ये दोनों जल निर्मलता की अपेक्षा समान हैं। अंतर यही है कि एक के नीचे कीचड़ है दूसरे के नीचे कीचड़ नहीं है। जिसके नीचे कीचड़ है ऊपर से स्वच्छ है उस निर्मल जल के समान ही औपशमिक सम्यक्त्व है और जिसके नीचे कीचड़ नहीं है उस निर्मल जल के सदृश क्षायिक सम्यक्त्व होता है। औपशमिक सम्यक्त्व अनादि मिथ्यादृष्टि के पाँच प्रकृतियों के उपशम से और सादि मिथ्यादृष्टि के सात प्रकृतियों के उपशम से हुआ करता है।
खयउवसमियविसोही, देसणपाउग्गकरणलद्धी य।
चत्तारि वि सामण्णा, करणं पुण होदि सम्मत्ते।।१५६।।
क्षायोपशमिकविशुद्धो देशना प्रायोग्यकरणलब्धी च।
चतस्रोऽपि सामान्या: करणं पुनर्भवति सम्यक्त्वे।।१५६।।
अर्थ—क्षायोपशमिक, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य, करण ये पाँच लब्धि हैं। इनमें पहली चार तो सामान्य हैं, भव्य-अभव्य दोनों के ही संभव हैं किन्तु करण लब्धि विशेष है। यह भव्य के ही हुआ करती है और इसके होेने पर सम्यक्त्व या चारित्र नियम से होता है।
भावार्थ —लब्धि शब्द का अर्थ प्राप्ति है। प्रकृत में सम्यक्त्व ग्रहण करने के योग्य सामग्री की प्राप्ति होना इसको लब्धि कहते हैं। उसके उक्त पाँच भेद हैं। अशुभ कर्मों के अनुभागेक उत्तरोत्तर होने को क्षायोपशमिक लब्धि कहते हैं। निर्मलता विशेष को विशुद्धि कहते हैं। योग्य उपदेश को देशना कहते हैं। पंचेन्द्रियादि स्वरूप योग्यता के मिलने को प्रायोग्यलब्धि कहते हैं। अध:करण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरणरूप परिणामों को करणलब्धि कहते हैं। इन तीनों करणों का स्वरूप पहले कह चुके हैं। इन पाँच लब्धियों में से आदि की चार लब्धि तो सामान्य हैं अर्थात् भव्य-अभव्य दोनों के होती हैं किन्तु करणलब्धि असाधारण है, इसके होने पर नियम से सम्यक्त्व या चारित्र होता है। जब तक करणलब्धि नहीं होती तब तक सम्यक्त्व नहीं होता।
चदुगदिभव्वो सण्णी, पज्जत्तो सुज्झगो य सागारो।
जागारो सल्लेसो, सलद्धिगो सम्ममुबगमई।।१५७।।
चतुर्गतिभव्य: संज्ञी पर्याप्त: शुद्धकश्च साकार:।
जागरूक: सल्लेश्य: सलब्धिक: सम्यक्त्वमुपगच्छति।।१५७।।
अर्थ—जो जीव चार गतियों में से किसी एक गति का धारक तथा भव्य संज्ञी, पर्याप्त, विशुद्धि—सातादि के बंध के योग्य परिणति से युक्त, जागृत—स्त्यानगृद्धि आदि तीन निद्राओं के रहित, साकार उपयोग युक्त और शुभ लेश्या का धारक होकर करणलब्धिरूप परिणामों का धारक होता है वह जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करता है।
चत्तारि वि खेत्ताइं, आउगबंधेण होदि सम्मत्तं।
अणुवदमहव्वदाइं, ण लहइ देवाउगं मोत्तुं।।१५८।।
चत्वार्यपि क्षेत्राणि आयुष्कबन्धेन भवति सम्यक्त्वम्।
अणुव्रतमहाव्रतानि न लभते देवायुष्कं मुक्त्वा।।१५८।।
अर्थ—चारों गति संबंधी आयुकर्म का बंध हो जाने पर भी सम्यक्त्व हो सकता है किन्तु देवायु को छोड़कर शेष आयु का बंध होने पर अणुव्रत और महाव्रत नहीं होता।
भावार्थ —चारों गतियों में से किसी भी गति में रहने वाले जीव के चार प्रकार की आयु में से किसी भी आयु का बंध होने पर भी सम्यक्त्व की उत्पत्ति हो सकती है—इसमें कोई बाधा नहीं है किन्तु अणुव्रत या महाव्रत उसी जीव के हो सकते हैं जिसके चार आयुकर्मों में से केवल देवायु का ही बंध हुआ हो अथवा किसी भी आयु का बंध न हुआ हो। नरकायु, तिर्यगायु, मनुष्यायु इन तीन आयुओं में से किसी भी आयु का बंध करके पुन: सम्यक्त्व प्राप्त करने वाले जीव के अणुव्रत या महाव्रत नहीं होते।
सम्यक्त्व का लक्षण—छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, नव पदार्थ इनका जिनेन्द्रदेव के कहे अनुसार श्रद्धान करना सम्यक्त्व है। इसके दो भेद हैं-आज्ञासम्यक्त्व एवं अधिगम सम्यक्त्व। सूक्ष्मादि तत्त्वों में जिनेन्द्रदेव ने जो कहा सो ठीक है, वे अन्यथावादी नहीं हैं ऐसा श्रद्धान करना आज्ञासम्यक्त्व है और प्रमाण नयादि से समझकर या परोपदेशपूर्वक श्रद्धान करना अधिगम सम्यक्त्व है।
सम्यक्त्व मार्गणा के छह भेद हैं—क्षायिक, वेदक, उपशमसम्यक्त्व, सासादन, मिश्र और मिथ्यात्व।
अनंतानुबंधी कषाय की चार और दर्शन मोहनीय की तीन ऐसे सात प्रकृतियों के अत्यंत क्षय से जो निर्मल श्रद्धान होता है उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं। यह सम्यक्त्व नित्य है और असंख्यात गुण श्रेणीरूप से कर्मों के क्षय में कारण है। क्षायिक सम्यक्त्व होने पर यह जीव उसी भव से मुक्त हो जाता है अथवा देवायु का बंध हो गया है तो तीसरे भव से मुक्त होता है। यदि सम्यक्त्व के पहले मिथ्यात्व अवस्था में मनुष्य या तिर्यंचायु का बंध कर लिया है तो उत्तम भोगभूमि में मनुष्य या तिर्यंच होकर स्वर्ग जाकर पुन: मनुष्य होकर मुक्त होता है। अत: चौथे भव में नियम से सिद्ध हो जाता है उसका उल्लंघन नहीं करता है। सम्यक्त्व के पहले कदाचित् नरकायु का बंध कर ले तो भी श्रेणिक के समान तृतीय भव से ही मोक्ष जायेगा अत: यह सम्यक्त्व सादि अनंत है। कर्मभूमि का मनुष्य केवली के पादमूल में ही दर्शनमोहनीय का क्षय प्रारंभ करता है अन्यत्र नहीं। अत: आजकल वह सम्यक्त्व नहीं है।
सम्यक्त्व मोहनीय प्रकृति के उदय से पदार्थों का जो चल-मलिन-अगाढ़ रूप श्रद्धान होता है वह वेदकसम्यक्त्व है यद्यपि सभी तीर्थंकर समान हैं, पार्श्र्वनाथ संकट हरने वाले हैं, ऐसा जो भाव है वह चलदोष है। कदाचित् अतिचार के लग जाने से मलिन दोष आता है। अपने बनाये हुए मंदिर में ‘‘यह मंदिर मेरा है’’ इत्यादि भावों से अगाढ़ दोष होता है। सम्यक्त्व प्रकृति के निमित्त से दोष हो जाया करते हैं। इसकी जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति छ्यासठ सागर प्रमाण है।
पाँच अथवा सात प्रकृतियों के उपशम से जो सम्यक्त्व होता है वह उपशम सम्यक्त्व है। कीचड़ के नीचे बैठ जाने से निर्मल जल के सदृश यह सम्यक्त्व भी निर्मल होता है। इसकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अंतर्मुहूर्त है। यह सम्यक्त्व अनादि मिथ्यादृष्टि के पाँच प्रकृतियों के उपशम से (सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति को छोड़कर) और सादि मिथ्यादृष्टि के सात प्रकृतियों के उपशम से होता है।
कोई भी जीव चारों गति में से किसी एक गति में हो, भव्य, संज्ञी, पर्याप्त, मंदकषाय से युक्त, जाग्रत, ज्ञानोपयोग युक्त शुभ लेश्या का धारक होकर करणलब्धि रूप परिणाम को प्राप्त करता है तब सम्यक्त्व को प्राप्त करता है अर्थात् सम्यक्त्व प्राप्ति के लिए पांच लब्धि हैं-क्षायोपशमिक, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण। इनमें पहली चार तो सामान्य हैं, भव्य-अभव्य दोनों के सम्भव है किन्तु करणलब्धि होेने पर नियम से सम्यक्त्व प्रकट हो जाता है। सबसे प्रथम अनादि मिथ्यादृष्टि को उपशम सम्यक्त्व ही होता है। अनंतर वेदक और क्षायिक होते हैं।
सम्यग्दृष्टि जीव की विशेषता—चारों गति सम्बंधी आयु के बंध हो जाने पर भी सम्यक्त्व हो सकता है किन्तु देवायु को छोड़कर शेष आयु का बंध होने पर अणुव्रत और महाव्रत नहीं हो सकते हैं।
जो जीव सम्यक्त्व से च्युत हो गया है किन्तु मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं हुआ है वह सासादन गुणस्थान वाला है।
मिश्र—विरताविरत की तरह जिसके तत्त्वों का श्रद्धान और अश्रद्धान दोनों है, वह मिश्रगुणस्थान वाला है।
मिथ्यात्व—जो जिनेन्द्र कथित आप्तादि का श्रद्धान नहीं करता है और कुदेव, कुतत्व आदि का श्रद्धान करता है वह मिथ्यादृष्टि है।
पुण्य-पाप जीव—मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थान वाले जीव पाप जीव है। मिश्रगुण स्थान वाले पुण्य पाप के मिश्ररूप हैंं तथा चौथे गुणस्थान के असंयत से लेकर सभी पुण्य जीव हैं।
एक बार जिस जीव को सम्यग्दर्शन हो जाता है वह जीव नियम से मोक्ष को प्राप्त करता है। कम से कम अंतर्मुहूर्त में और अधिक से अधिक अर्धपुद्गल परिवर्तन काल तक वह संसार में रह सकता है। इसलिये करोड़ों उपाय करके सम्यक्त्व रूपी रत्न को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये।