वत्थुणिमित्तं भावो, जादो जीवस्स जो दु उवजोगो।
सो दुविहो णायव्वो, सायारो चेव णायारो।।१६६।।
वस्तुनिमित्तं भावो जातो जीवस्य यस्तूपयोग:।
स द्विविधो ज्ञातव्य: साकारश्चैवानाकार:।।१६६।।
अर्थ—जीव का जो भाव वस्तु (ज्ञेय को) ग्रहण करने के लिए प्रवृत्त होता है उसको उपयोग कहते हैं। इसके दो भेद हैं—एक साकार (सविकल्प) दूसरा निराकार (निर्विकल्प)।
णाणं पंचविहं पि य, अण्णाणतियं च सागरूवजोगो।
चदुदंसणमणगारो, सव्वे तल्लक्खणा जीवा:।।१६७।।
ज्ञानं पंचविधमपि च अज्ञानत्रिकं च साकारोपयोग:।
चतुर्दर्शनमनाकार: सर्वे तल्लक्षणा जीवा:।।१६७।।
अर्थ—पाँच प्रकार का सम्यग्ज्ञान—मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय तथा केवलज्ञान, तीन प्रकार का अज्ञान—मिथ्यात्व—कुमति, कुश्रुत, विभंग ये आठ साकार उपयोग के भेद हैं। चार प्रकार का दर्शन—चक्षुर्दशन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन अनाकार उपयोग हैं। यह उपयोग ही सम्पूर्ण जीवों का लक्षण है क्योंकि उपयोग के इन १२ प्रकारों में से जीव के कोई न कोई उपयोग अवश्य रहा करता है।
मदिसुदओहिमणेहि य, सगसगविसये विसेसविण्णाणंं।
अंतोमुहुत्तकालो, उवजोगो सो दु सायारो।।१६८।।
मतिश्रुतावधिमनोभिश्च स्वकस्वकविषये विशेषविज्ञानम्।
अंतर्मुहूर्तकाल उपयोग: स तु साकार:।।१६८।।
अर्थ—मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय इनके द्वारा अपने-अपने विषय का अंतर्मुहूर्तकाल पर्यन्त जो विशेष ज्ञान होता है उसको ही साकार उपयोग कहते हैं।
भावार्थ —साकार उपयोग के पाँच भेद हैं—मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल। इनमें से आदि के चार ही उपयोग छद्मस्थ जीवों के होते हैैं। उपयोग चेतना का एक परिणमन है तथा एक वस्तु के ग्रहणरूप चेतना का यह परिणमन छद्मस्थ जीव के अधिक से अधिक अंतर्मुहूर्तकाल तक ही रह सकता है। इस साकार उपयोग में यही विशेषता है कि यह वस्तु के विशेष अंश को ग्रहण करता है।
इंदियमणोहिणा वा, अत्थे अविसेसिदूण जं गहणं।
अंतोमुहुत्तकालो, उवजोगो सो अणायारो।।१६९।।
इंद्रियमनोऽवधिना वा अर्थे अविशेष्य यद्ग्रहणम्।
अंतर्मुहूर्तकाल: उपयोग: स अनाकार:।।१६९।।
अर्थ—इंद्रिय, मन और अवधि के द्वारा अंतर्मुहूर्तकाल तक पदार्थों का जो सामान्यरूप से ग्रहण होता है उसको निराकार उपयोग कहते हैं।
भावार्थ —दर्शन के चार भेद हैं—चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन। इनमें से आदि के तीन दर्शन छद्मस्थ जीवों के होते हैं। नेत्र के द्वारा पदार्थ का जो सामान्यावलोकन होता है उसको चक्षुदर्शन कहते हैं और नेत्र को छोड़कर शेष चार इंद्रिय तथा मन के द्वारा जो सामान्यावलोकन होता है उसको अचक्षुदर्शन कहते हैं। अवधिज्ञान के पहले इंद्रिय और मन की सहायता के बिना आत्म मात्र से जो रूपी पदार्थ विषयक सामान्यावलोकन होता है उसको अवधिदर्शन कहते हैं। यह दर्शनरूप निराकार उपयोग भी साकार उपयोग की तरह छद्मस्थ जीवों के अधिक से अधिक अंतर्मुहूर्त तक होता है।
सिद्धाणं सिद्धगई, केवलणाणं च दंसणं खयियं।
सम्मत्तमणाहारं, उवजोगाणक्कमपउत्ती।।१७०।।
सिद्धानां सिद्धगति: केवलज्ञानं च दर्शनं क्षायिकम्।
सम्यक्त्वमनाहारमुपयोगानामक्रमप्रवृत्ति:।।१७०।।
अर्थ—सिद्ध जीवों के सिद्धगति, केवलज्ञान, क्षायिकदर्शन, क्षायिक-सम्यक्त्व, अनाहार और उपयोग की अक्रम प्रवृत्ति होती है।
भावार्थ -छद्मस्थ जीवों के क्षायोपशमिक ज्ञान, दर्शन की तरह सिद्धों के क्षायिक ज्ञान दर्शनरूप उपयोग की क्रम से प्रवृत्ति नहीं होती किन्तु युगपत् होती है तथा सिद्धों के आहार नहीं होता, वे अनाहार होते हैं क्योंकि उनसे कर्म का और नोकर्म का सर्वथा संबंध ही छूट गया है। ‘‘णोकम्मकम्महारो कवलाहारो य लेप्पमाहारो, ओजमणोवि य कमसो आहारो छब्भिहो णेयो’’।।१।। इस गाथा के अनुसार नोकर्म और कर्म भी आहार ही हैं अत: सर्वथा अनाहार सिद्धों के ही होता है।
गुणजीवठाणरहिया, सण्णापज्जत्तिपाणपरिहीणा।
सेसणवमग्गणूणा, सिद्धा सुद्धा सदा होंति।।१७१।।
गुणजीवस्थानरहिता: संज्ञापर्याप्तिप्राणपरिहीना:।
शेषनवमार्गणोना: सिद्धा: शुद्धा: सदा भवन्ति।।१७१।।
अर्थ—सिद्ध परमेष्ठी, चौदह गुणस्थान, चौदह जीवसमास, चार संज्ञा, छह पर्याप्ति, दश प्राण इनसे रहित होते हैं तथा इनके सिद्धगति ज्ञान दर्शन सम्यक्त्व और अनाहार को छोड़कर शेष नव मार्गणा नहीं पाई जातीं और ये सिद्ध सदा शुद्ध ही रहते हैं क्योंकि मुक्ति प्राप्ति के बाद पुन: कर्म का बंध नहीं होता।
णिक्खेवे एयत्थे, णयप्पमाणे णिरुत्तिअणियोगे।
मग्गइ वीसं भेयं, सो जाणइ अप्पसब्भावं।।१७२।।
निक्षेपे एकार्थे नयप्रमाणे निरुक्त्यनुयोगयो:।
मार्गयति विशं भेदं स जानाति आत्मसद्भावम्।।१७२।।
अर्थ—जो भव्य उक्त गुणस्थानादिक बीस भेदों को निक्षेप एकार्थ नय प्रमाण निरुक्ति अनुयोग आदि के द्वारा जान लेता है, वही आत्म सद्भाव को समझता है।
भावार्थ -जिनके द्वारा पदार्थों का समीचीन व्यवहार हो, ऐसे उपायविशेष को निक्षेप कहते हैं। इसके चार भेद हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। इनके द्वारा जीवादिक समस्त पदार्थों का समीचीन व्यवहार होता है। जैसे-किसी अर्थ विशेष की अपेक्षा न करके किसी की ‘जीव’ यह संज्ञा रख दी, इसको जीव का नाम निक्षेप कहते हैं। किसी काष्ठ चित्र या मूर्ति आदि में किसी जीव की ‘‘यह वही है’’ ऐसे संकल्परूप को स्थापना निक्षेप कहते हैं। स्थापना में स्थाप्यमान पदार्थ की तरह ही उसका आदर अनुग्रह होता है। भविष्यत् या भूत को वर्तमानवत् कहना द्रव्यनिक्षेप है। जैसे-कोई देव मरकर मनुष्य होने वाला है। उसको देवपर्याय में मनुष्य कहना अथवा मनुष्य होने पर देव कहना यह द्रव्यनिक्षेप का विषय है। वर्तमान मनुष्य को मनुष्य कहना यह भावनिक्षेप का विषय है। प्राणभूत असाधारण लक्षण को एकार्थ कहते हैं। जैसे-जीव का लक्षण दश प्राणों में से यथासंभव प्राणों का धारण करना या चेतना (जानना या देखना) है। यही जीव का एकार्थ है। अथवा एक ही अर्थ के वाचक भिन्न-भिन्न शब्दों को भी एकार्थ कहते हैं। जैसे कि प्राणीभूत जीव और सत्व ये शब्द भिन्न-भिन्न अर्थों की अपेक्षा रखते हुए भी एक जीव अर्थ के वाचक हैं। वस्तु के अंशग्रहण को नय कहते हैं। जैसे-जीव शब्द के द्वारा आत्मा की एक जीवत्वशक्ति का ग्रहण करना। एक शक्ति के द्वारा समस्त वस्तु के ग्रहण को प्रमाण कहते हैं। जैसे-जीव शब्द के द्वारा सम्पूर्ण आत्मा का ग्रहण करना। जिस धातु और प्रत्यय द्वारा जिस अर्थ में जो शब्द निष्पन्न हुआ है, उसको उस ही प्रकार से दिखाने को निरुक्ति कहते हैं। जैसे-जीवति जीविष्यति अजीवित् वा स जीव:-जो जीता है या जीवेगा या जीया हो उसको जीव कहते हैं। जीवादिक पदार्थों के जानने के उपायविशेष को अनुयोग कहते हैं। उसके छह भेद हैं-निर्देश (नाममात्र या स्वरूप अथवा लक्षण कहना), स्वामित्व, साधन (उत्पत्ति के निमित्त), अधिकरण, स्थिति (काल की मर्यादा) और निधान अर्थात् भेद। इन उपायों से जो उक्त बीस प्ररूपणाओं को जान लेता है, वही आत्मा के समीचीन स्वरूप को समझ सकता है।
अज्जज्जसेणगुणगणसमूहसंधारिअजियसेणगुरू।
भुवणगुरु जस्स गुरु सो राओ गोम्मटो जयतु।।१७३।।
आचार्यसेनगुणगणसमूहसंधार्यजितसेनगुरु:।
भुवनगुरुर्यस्य गुरु: स राजा गोम्मटो जयतु।।१७३।।
अर्थ—श्री आर्यसेन आचार्य के अनेक गुणगण को धारण करने वाले और तीन लोक के गुरू श्री अजितसेन आचार्य जिसके गुरू हैं वह श्री गोम्मट (चामुण्डराय) राजा जयवंत रहो।
जीव का जो भाव वस्तु को ग्रहण करने के लिये प्रवृत्त होता है उसको उपयोग कहते हैं। इसके दो भेद हैं—एक साकार दूसरा निराकार। साकार को ज्ञान और निराकार को दर्शन कहते हैं।
ज्ञान के पाँच भेद हैं और अज्ञान के तीन भेद हैं। मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय, केवलज्ञान, कुमति कुश्रुत, कुअवधिज्ञान।
दर्शन के चार भेद हैं—चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन। इनका वर्णन ज्ञानमार्गणा में आ चुका है।
उपयोग चेतना का एक परिणमन है। यह छद्मस्थ जीवों में अधिक से अधिक अंतर्मुहूर्त तक ही रह सकता है। चार ज्ञान, तीन अज्ञान और तीन दर्शन क्षायोपशमिक हैं तथा केवलज्ञान और केवलदर्शन क्षायिक है। छद्मस्थ-जीवों में एक साथ दो उपयोग नहीं हो सकते हैं किन्तु केवली भगवान में एक साथ केवलज्ञान, दर्शन ये दोनों उपयोग होते हैं और ये शाश्वत, अनंत काल तक रहते हैंं। केवली भगवान और सिद्ध इन उपयोगों के द्वारा समस्त लोक, अलोक और उनकी भूत, भविष्यत, वर्तमानकालीन सभी पर्यायों को एक समय में युगपत् देखते और जानते हैं।
इस प्रकार गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणा और उपयोग इन बीस प्ररूपणाओं का संक्षिप्त वर्णन किया गया है।
सिद्ध भगवान चौदह गुणस्थान, चौदह जीवसमास, चार संज्ञा, छह पर्याप्ति, दश प्राण इनसे रहित होते हैं तथा इनके सिद्धगति, केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व और अनाहार को छोड़कर शेष नौ मार्गणाएँ नहीं पायी जाती हैं अर्थात् गति, ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व और आहार मार्गणा के अतिरिक्त इंद्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, संयम, लेश्या, भव्यत्व, संज्ञी ये नौ मार्गणायें सिद्धों में नहीं हैं। सिद्धों में पाँच मार्गणा और केवलज्ञान, दर्शन, उपयोग ये विद्यमान हैं। ये सिद्ध सदा ही शुद्ध रहते हैं क्योेंकि मुक्ति प्राप्ति के बाद पुन: कर्मबंधन नहीं होता है।
जो भव्य जीव उक्त गुणस्थानादि बीस भेदों को (प्ररूपणाओं को) निक्षेप, एकार्थ (असाधारण लक्षण) नय, प्रमाण, निरुक्ति, अनुयोग आदि के द्वारा जान लेता है वही आत्मा के सद्भाव को समझता है अर्थात् जो भव्य जीव गुणस्थान, जीवसमास आदि बीस प्ररूपणाओं को प्रमाण, नय आदि से अच्छी तरह से समझ लेते हैं वे ही भव्य अपनी आत्मा के अस्तित्व को समझकर आत्मदया के साथ-साथ परदया का पालन करते हुए शीघ्र ही बीस प्ररूपणाओं में से छह प्ररूपणा से सहित एवं चौदह प्ररूपणा से रहित शाश्वत सिद्धधाम में विराजमान हो जाते हैं और वहाँ अनंतानंत काल तक पूर्ण ज्ञान में मग्न रहते हुए पूर्ण अक्षय सौख्य का उपभोग करते रहेंगे।