सेवानिवृत्त प्राचार्य—श्री चित्रगुप्त स्नातकोत्तर महाविद्यालय प्रतिपाद्य विषय के मुख्य बिन्दु का स्पर्श करने से पूर्व यह जानना परम आवश्यक है कि जैन आगमों में धर्मगुरु का क्या स्वरूप है? यों तो संसार में गुरूओं की कमी नहीं है। एक ढूंढो अनेक मिल जाते है। महाकवि तुलसीदास ने कलयुग में सन्यासियों की दिनदूनी रात चौगुनी बढ़ती हुई संख्या पर व्यंग्य करते हुए लिखा था—
किन्तु पेट—पालन के लिए सन्यासी का वेष धारण करने वाले सही अर्थों में गुरु नहीं गुरु घंटाल होते हैं। ये स्वयं तो संसार सागर में डूबते ही हैं, अपने अनुयायियों को भी डुबाने में कोई कसर बाकी नहीं छोडते। जैनेन्द्र सिद्धांतकोष भाग २ में गुरु शब्द का विश्लेषण निम्न प्रकार किया गया है— ‘गुरु शब्द का अर्थ महान होता है। लोक में अध्यापकों को गुरु कहते हैं। माता—पिता भी गुरु कहलाते हैं क्योंकि वे जीव को उपदेश देकर अथवा बिना उपदेश दिए ही केवल अपने जीवन का दर्शन कराकर कल्याणक का वह सच्चा मार्ग दिखाते हैं जिसे पाकर वह सदा के लिए कृतकृत्य हो जाता है। इसके अतिरिक्त विरक्त चित्त सम्यग्दृष्टि श्रावक भी उपरोक्त कारणवश ही गुरु संज्ञा को प्राप्त होते हैं।’ कवि द्यानतराय ने ‘देव शास्त्र पूजा’ में गुरु संज्ञा को प्राप्त होते हैं।’ कवि द्यानतराय ने ‘देव शास्त्र पूजा’ में गुरु के स्वरूप का विश्लेषण करते हुए जैनेन्द्र सिद्धांत कोष के कथन का ही समर्थन किया है—गुरु आचारज उबझाय साध तन नगन रतनत्रय निधि अगाध संसारदेह वैराग्य धार, निरवांछि तपै शिवपद निहार गुणछत्तिस पच्चिस आठ बीस भवतारन तरन जिहाज ईस निश्चय से अपना आत्मा ही आत्मा गुरु है— ‘स्वस्मिन्सदाभिलाषित्वादभीष्ट ज्ञापकत्व: स्वयंहि प्रयोक्दृत्वा दात्मैव गुरुरात्मन:’
(इष्टोपदेश ३४/३०)
वास्तव में आत्मा का गुरु आत्मा ही है। क्योंकि वही सदा मोक्ष की अभिलाषा करता है, मोक्ष सुख का ज्ञान करता है और स्वयं ही उसे परम हितकर जान उसकी प्राप्ति में अपने को लगाता है। व्यवहार से अरहंत भगवान परम गुरु है। प्रवचनसार में लिखा है —
सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्र इन गुणों के द्वारा जो बड़े बन चुके हैं उनको गुरु कहते हैं। आचार्य, उपाध्याय, साधु ये तीन परमेष्ठी गुरु हैं। ‘ज्ञानसार’ में लिखा है—
‘पंचमहाव्रतकलितोमदमंथन: क्रोधलोभभयव्यक्त:
एथ गुरु रितिमन्यते तस्माज्जानीहि उपदेशं’
पंच महाव्रतधारी, मद का मंथन करने वाले, क्रोध, लोभ, भय का त्याग करने वाले गुरू कहे जाते हैं। जैन शास्त्रों में वर्णित उपरोक्त आचारण वाले दिगम्बर मुनि ही धर्मगुरु की संज्ञा से अभिहित किए जाने योग्य हैं। पंच महाव्रत, तीन गुप्ति , पांच समितियों को धारण करने वाले ये धर्मगुरु समस्त बाह्य एवं अभ्यंतर परिग्रहों से मुक्त हो बाईस परीषहों को सहन करते हुए निरन्तर अपनी आत्मा के ध्यान में एवं परहित चिंतन में ही लीन रहते हैं। धरती ही इनका बिछौना है, आकाश ही इनका उड़ौना है, दिशायें ही इनका वस्त्र है, तत्वों का चिंतन करना ही इनकी चर्या है—
हो अद्र्ध निशा का सन्नाटा, वन में वनचारी चरते हो।
तब शान्त निराकुल मानस तुम तत्वों का चिन्तन करते हो।।‘
श्री जुगल किशोर कृत देव गुरु शास्त्र पूजा’ धर्मगुरु के स्वरूप और आचरण का विवेचन करने के उपरांत अब हम विषय के मुख्य बिन्दु पर आते हैं कि नगरों में ऐसे धर्मगुरुओं के आगमन की क्या उपयोगिता है— एकान्त, वन प्रदेश में, प्रकृति की गोद में तत्व—चिंतन में लीन रहने वाले इन धर्मगुरुओं के चरण कमल जब बाह्य एवं अभ्यंतर दोनों प्रकार से प्रदूषित नगरों में पड़ते हैं तब नगरों का समस्त परिवेश ही परिवर्तित हो जाता है। नगरों में धर्मगुरुओं के आगमन की उपयोगिता का आकलन निम्न प्रकार से किया जा सकता है—
(१) धर्मगुरूओं का आगमन अज्ञान की निद्रा से सुषुप्त नगरवासियों के लिए शंखनाद के समान है । ये धर्मगुरु जब अपनी ओजस्वी एवं सुमधुर वाणी में धर्मोपदेश करते हैं तब श्रोताओं के ज्ञान चक्षु खुल जाते हैं। इनका धर्मोपदेश प्राणियों को सांसारिक मोहबंधनों का परित्याग कर आत्मकल्याण की ओर प्रवृत्त करता है। श्री जुगलकिशोर जी ने अपनी ‘ देव,शास्त्र, गुरु, पूजा’ में धर्म गुरुओं के इसी उपकार का वर्णन करते हुए लिखा है।
स्याद्वादमयी तेरी वाणी, शुभनय के झरने झरते हैं
उस पावन नौका पर, लाखों, प्राणी भववारिधि तिरते हैं,
अन्तर ज्वाला हरती वाणी, मानो झड़ती हों फुलझड़ियां
भवबंधन तड़ तड़ टूट पड़ें, खिल जावें अन्तर की कलियां,
ये धर्मगुरू ज्ञान अंजन की शलाका से, अज्ञान के तिमिर से, अंधे प्राणियों के नेत्रों को खोलने में समर्थ होते हैं—
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानांजन शलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरुवे नम:।।
(२)धर्मगुरुओं का जीवन आचरण की प्रयोगशाला है। नगरवासी जब त्याग और तपस्या के धनी धर्म गुरुओं की कठोर जीवनचर्या को अपने नेत्रों से देखते हैं तब उसका प्रभाव उनकी अन्तरात्मा पर पड़ता है और वे भी शनै:शनै: व्रत नियमों की साधना करने लगते हैं।
(३)सामाजिक उत्थान की दृष्टि से भी धर्मगुरुओं का नगरों में आगमन उपयोगी है। धर्मगुरूओं की प्रेरणा से अनेक नगरों में स्थापित औषधालय, विद्यालय, शोध पीठ, अनाथाश्रम, विधवाश्रम, धर्मशालाएं—इस तथ्य का प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। वाराणसी का स्याद्वाद विद्यालय, सागर का वर्णी विद्यालय, ईसरी का उदासीन आश्रम, श्री महावीर जी स्थित ब्रह्मचारिणी कृष्णाबाई का आश्रम, चंदाबाई जी द्वारा स्थापित श्री जैन बाला विश्राम, हस्तिनापुर का त्रिलोक शोध संस्थान, देहली स्थित कुन्दकुन्द भारती, इंदौर स्थित कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ आदि संस्थाएं समाज का कितना बहुआयामी कल्याण कर रही हैं— यह सर्वविदित है।
(४)जहाँ—जहाँ संतों का पदार्पण होता है वहाँ प्राचीन जिनमंदिरों का जीर्णोद्धार तथा नवीन देवालयों एवं तीर्थों का निर्माण सुगमता से सम्पन्न हो जाता है। हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप की रचना, इन्दौर में गोम्मटगिरि का निर्माण, बावनगजा में भगवान आदिनाथ की विशाल प्रतिमा आदि विदुषी तपस्विनी आर्यिकाओं के धर्मोपदेश, स्त्री—समाज में व्याप्त कुरीतियों तथा अंधविश्वासों का निराकरण करने में सक्षम सिद्ध होते हैं।
(५)शहरों में धर्म गुरुओं का आगमन जैन धर्म की प्रभावना में भी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है। जब कोई समताधारी विद्वान तपस्वी नगर के मध्य अपने मुखचन्द्र से धर्मामृत की वर्षा करता है तब अन्य धर्मावलंबी भी उसके उस उपदेशों से प्रभावित हो जैनधर्म के सिद्धांतों के प्रति आस्थावान हो जाते हैं। स्पष्ट है कि जैन धर्म के प्रचार एवं प्रसार के लिए धर्म गुरुओं का नगरों में आगमन आवश्यक है।
(६) नगरों में धर्मगुरुओं का आगमन समाज के पारस्परिक मनोमालिन्य और विघटन को भी दूर करने में सहायक है। धर्मागुरुओं का स्नेहसिक्त वात्सल्यपूर्ण उद्बोधन विरोधी पक्षों की कटुता को दूर कर उन्हें मैत्री और एकता के सुदृढ़ बंधन में आबद्ध कर देता है। जैन धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्म भी ईश्वर प्राप्ति में गुरु की महत्ता को मुक्त कंठ से स्वीकार करते हैं। प्रसिद्ध संत कवि कबीर ने कहा है—
सद्गुरू की महिमा अनन्त, अनन्त किया उपकार लोचन अनन्त उघाड़िया, अनन्त दिखावणहार
सूफी कवियों की प्रेम साधना तो गुरु के बिना असंभव ही है—
गुरु विरह चिनगी जो मेला जो सुलगाय लेय सो चेला जायसी
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि धर्म गुरुओं का पदार्पण जहां कहीं भी होता है वहां जंगल में मंगल हो जाता है। समस्त पर्यावरण शुद्ध हो जाता है, धरती धन्य हो जाती है, ईष्र्या, द्वेष, विरोध, कटुता जैसे दूषित मनोविकार शांत हो जाते हैं। सुख, शांति, समरसता चतुर्दिक वातावरण में व्याप्त हो जाती है। धर्म प्रचार, सामाजिक कल्याण, नवनिर्माण के विविध आयाम प्रकट हो जाते हैं। कहना न होगा— धर्मगुरूओं के आगमन से इसी धरती पर स्वर्ग उतर आता हैै।
तुम सा दानी क्या कोई हो। जग को दे दी जग की निधियां
दिन रात लुटाया करते हो। सम—शम की अविनश्वर मणियां।
ऐसे पथिक धर्म गुरूओं के चरणों में मेरा शत—शत नमन, वंदन, अभिनंदन।
हे शांति, त्याग के मूर्तिमान शिवपथ— पंथी गुरूवर प्रणाम।