गतांक से……… आलोचना के दस दोष अंनुकंपित, अनुमानित, यद्दृष्ट, स्थूल, सूक्ष्म, दन्न, शब्दकुलित, बहुजन, अव्यक्त और तत्सेवी। गुरु के मन में अपने विषय में दया उत्पन्न करके आलोचना करना अनुकंपित दोष है। गुरु के अभिप्राय को किसी उपाय से जानकर आलोचना करना अनुमानित दोष है। जो दोष किसी न देखे हैं केवल वही दोष कहना, यददृष्टि दोष है। छोटे दोष छिपाकर केवल बड़े दोष कहना स्थूल दोष है। और बड़े दोष छिपाकर छोटे दोष कहना सूक्ष्म दोष है। जहाँ सामूहिक प्रतिक्रमण आदि के कारण कोलाहल हो रहा हो, उस वक्त आलोचना करना शब्दाकुलित दोष है। एक आचार्य को दोषों का निवेदन कर पुन: अन्य आचार्य के निकट दोष निवेदन करना बहुजन दोष है। अज्ञानी गुरू को दोष बताना अव्यक्त दोष है और जिन दोषों की आलोचना करना हो, वह दोष जो गुरू करता है, उसके पास आलोचना करना तत्सेवी दोष है। क्षपक साधु को तीन बार की गई शुद्ध आलोचना को भली प्रकार जानकर रागद्वेष उद्रेक से रहित ज्ञानी आचार्य दोषानुसार उचित प्रायश्चित देते हैं। यदि आलोचना के समय परिणाम अति निर्मल हैं तो पाप बंध में बहुत हानि या पाप कर्मों का संक्रमण होकर नाश हो जाता है। यदि आलोचना के समय अल्प निर्मलता होगी तो बंधे पाप में कम हानि होगी।
वसति
क्षपक के लिये वसति ऐसी हो जो निकृष्ट लोगों के निवास से दूर हो। वह स्थान अपने उद्देश्य से बनाया हुआ न हो। ऐसी वसति न हो, तो चटाई बांस आदि से वसति बनानी चाहिये। वसति मजबूत होना चाहिये, द्वारों से ढकी होना चाहिये। जिसमें आना जाना सरल रीति से हो सके। बाल, वृद्ध लोगों से योग्य होना चाहिये। वसति में सुन्दर उद्यान या मंदिर योग्य है अथवा गुफा, शून्यघर, धर्मशाला इत्यादि में समाधि के लिये निवास करना चाहिये। क्षपक की सल्लेखना देखने के लिये भव्य जीव आते हैं। उनको धर्मश्रवण अन्य मुनिजन कराते हैं, अत: धर्मश्रवण अन्य मुनिजन कराते हैं, अत: धर्मश्रवण मंडप भी वसति के पास होना चाहिये।
संस्तर
क्षपक को जिस पर शयन करना है वह जमीन भूमि रूप या पत्थर शिलारूप हो, या घास या लकड़ी की हो। उसमें उत्तर दिशा में मस्तक करके या पूर्व दिशा में मस्तक करके क्षपक शयन करे क्योंकि विदेह क्षेत्रस्थ तीर्थंकर उत्तर दिशा में है और पूर्व दिशा प्रकाशवान सूर्य के उदय के कारण है, अत: ये दिशायें प्रशस्त मानी जाती है। भूमि संस्तर गीलेपन से रहित, सुखस्पर्श वाली, निर्जन्तुक बिल रहित, ठोस, क्षपक के शरीर प्रमाण, रचित समभूमि रूप होना चाहिये। शिलामय संस्तर दाह घर्षण आदि से विध्वस्त हुआ, टूटा हुआ नहीं हो, स्थिर, समतल, जन्तुरहित, चिकना, प्रकाशयुक्त स्थान होना चाहिये। लकड़ी का बनाया हुआ, संस्तर हल्का हो, भूमि बराबर हो, चार पाँच अंगुल जमीन से ऊँचा हो। इससे अधिक ऊँचा होने पर क्षपक को गिरने आदि से अपाय होने की संभावना रहती है। विस्तीर्ण खट खट शब्द नहीं करता हो, क्षपक के शरीर प्रमाण हो, एक लकड़ी से रचित हो, छिद्र रहित हो, चिकना संस्तर हो। तृणमय संस्तर संधि रहित, गाठ रहित, संमूच्र्छन जीवों से रहित, छेह रहित, कोमल, जिसका शोधन भली प्रकार से हो सके, ऐसा तृणमय घास का संस्तर करना चाहिए। अपने शरीर प्रमाण रचा गया, योग्य दोनों संध्याओं में जिसका शोधन किया जाता है, ऐसा यह संस्तर होता है। उस संस्तर में समाधि के लिए क्षपक को अशुभ मन, वचन, काय का गोपन करके आरोहन करना चाहिए।
निर्यापक
क्षपक मुनि की समाधि सहायक ४८ मुनि सहायक होते हैं। ये मुनि चारित्र में स्थिर, रत्नत्रय, धर्मप्रिय, संसार से उदासीन, पापभीरू, क्षपक के इशारे को बिना कहे जानने वाले, योग्य—अयोग्य को जानने में कुशल होते हैं। त्याग की विधि में निपुण, परीषह सहन करने में भी, क्षपक को समाधान करने वाले मुनि समाधि में लगाना अपेक्षित है। उन ४८ पर्यायों के कार्य का विभाजन इस प्रकार किया जाता है—
चार परिचारक मुनि :क्षपक के शरीर में एक देश में हाथ फेरना, गमन करना, खड़ा करना, सुलाना, करवट दिलाना, शरीर का कार्य करने में प्रयत्नशील रहते हैं। चार परिचारक मुनि : धर्मोपदेश क्षपक के लिए देते हैं। धर्म कथा के चार भेद हैं—आक्षेपिणी, विक्षेपिणी, संवेदनी और निर्वेदनी। क्षपक को विक्षेपिणी कथानक सुनाने का विधान है। चार परिचारक मुनि : आहार चर्या में योग्य रहते हैं। वर्तमान में मुनिगण श्रावकों के निकट धर्मशाला आदि में निवास करते हैं। अत: सल्लेखना विधि में हर प्रकार से श्रावकों द्वारा सहायता मिलती है। इसलिये क्षीणकाल क्षपक मुनि के योग्य आहार की व्यवस्था श्रावक कर लेते हैं। चार परिचारक मुनि : क्षपक के लिये योग्य और इष्टपानक द्रव्य को लाते हैं। चार परिचारक मुनि : क्षपक के वसति के द्वार की रक्षा करते हैं जिससे ऐसे मिथ्यादृष्टि जो क्षपक को अशांति उत्पन्न कर सकते हो, प्रवेश न कर सके। चार परिचारक मुनि : धर्म क्षपक के मल मूत्र, कफादि का क्षेपण करते हैं। चार परिचारक मुनि : धर्म श्रवण मण्डप के द्वार की रक्षा करते हैं। चार परिचारक मुनि : देश की शुभ अशुभ बातों का निरीक्षण करते हैं। चार परिचारक मुनि : क्षपक के दर्शनाथ आगत लोगों को धर्म कथायें सुनाते हैं। चार परिचारक मुनि : धर्म श्रवण पाण्डाल की चारों ओर रक्षार्थ विचरण करते हैं। चार मुनि क्षपक के निकट रात्रि जागरण करते हैं। काल परिवर्तन के अनुसार भरत और ऐरावत क्षेत्र में होने वाले ४४ परिचारक मुनि ही ग्रहण करना चाहिये। हीनकाल स्थिति होने से यह संख्या कम होती जायेगी, लेकिन दो निर्यापक मुनि से कम नहीं होने चाहिये। क्योंकि निर्यापक क्षपक को समाधान शांत नहीं करा सकेगा और उसकी असमाधि से मृत्यु हो जायेगी तो दुर्गति हो सकती है। अकेला निर्यापक यदि क्षपक की सेवा, आहार, मलत्याग, आदि कार्यों में सतत् लगा रहेगा तो अपना आहार ग्रहण करना, विश्राम लेना आदि नहीं कर सकेगा। दोनों कार्य एक साथ नहीं कर सकेगा। क्षपक द्वारा प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण, उपदेश सुनना आदि कार्यों को निर्यापक आचार्य की आज्ञानुसार करता है, तीन प्रकार के आहार का त्याग आदि भी उनकी आज्ञानुसार करता है। क्रमश: ………