(श्री ज्ञानमती माताजी के प्रवचन)
चन्दनामती-पूज्य माताजी! इस परिचर्चा में मैं आपसे दिगम्बर जैन साधुचर्या और उनके प्रतिक्रमण संबंधी कुछ प्रश्न पूछना चाहती हूँ।
श्री ज्ञानमती माताजी-पूछो, क्या पूछ रही हो?
चन्दनामती-हम लोग जो प्रतिदिन दैवसिक-रात्रिक प्रतिक्रमण और चतुर्दशी को पाक्षिक प्रतिक्रमण करते हैं, उसमें सिद्ध, चैत्य आदि भक्तियाँ पढ़ने से पूर्व जो प्रतिज्ञा की जाती है जैसे-
‘‘दैवसिक प्रतिक्रमण क्रियायां सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं’’
इत्यादि पाठ पढ़ते हैं। पिछले कुछ वर्षों से कतिपय नई पुस्तकों में ‘‘कायोत्सर्गं कुर्वेऽहं’’ पाठ छप रहा है, जबकि आप हम लोगों को ‘करोम्यहं’ ही पढ़ने को कहती हैं। इस विषय में जानना चाहती हूँ कि आप कुर्वेऽहं क्यों नहीं पढ़ती हैं तथा इस विषय में आगम प्रमाण क्या है?
श्री ज्ञानमती माताजी-डुकृञ्-करणे धातु से करोमि और कुर्वे ये दोनों क्रिया उत्तम पुरुष के एक वचन में बनती हैं। जिसमें ‘करोमि’ परस्मैपदी है और ‘कुर्वे’ आत्मनेपदी है। अहं कर्ता के साथ करोमि या कुर्वे क्रिया का प्रयोग किया जाता है।