स्थापना
(दोहा)
सदी बीसवीं के प्रथम, शान्तिसागराचार्य।
उनके पट पर शोभते, षष्ठम पट्टाचार्य।।१।।
अभिनन्दनसागर गुरू, है उनका शुभ नाम।
गुरु चरणों मे है मेरा, बारम्बार प्रणाम।।२।।
गुरुपूजन के हेतु मैं, करूँ यहाँ आह्वान।
स्थापनसन्निधिकरण, में है भाव प्रधान।।३।।
ॐ ह्रीं आचार्यश्रीअभिनंदनसागरमुनीन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं आचार्यश्रीअभिनंदनसागरमुनीन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं आचार्यश्रीअभिनंदनसागरमुनीन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अष्टक
(शेर छंद)
स्वर्णिम कलश से नीर की धारा करूँ पद में।
मन शांति हेतु नमन है आचार्य के पद में।।
आचार्य श्री अभिनंदनसागर की अर्चना।
मन को करे आनंदित गुरु पाद वंदना।।१।।
ॐ ह्रीं आचार्यश्रीअभिनन्दनसागरमुनीन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चन्दन मलयगिरी का ले चर्चूं गुरूपद में।
तन मन बने शीतल नमूँ आचार्य के पद में।।
आचार्य श्री अभिनंदनसागर की अर्चना।
मन को करे आनंदित गुरु पाद वंदना।।२।।
ॐ ह्रीं आचार्यश्रीअभिनन्दनसागरमुनीन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोती समान अक्षत के पुंज धरूँ मैं।
अक्षय सुखों की प्राप्ति हेतु नमन करूँ मैं।।
आचार्य श्री अभिनंदनसागर की अर्चना।
मन को करे आनंदित गुरु पाद वंदना।।३।।
ॐ ह्रीं आचार्यश्रीअभिनन्दनसागरमुनीन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
चंपा चमेली आदि पुष्प से करूँ पूजा।
आत्मीक सुख से भिन्न कोई सुख न है दूजा।।
आचार्य श्री अभिनंदनसागर की अर्चना।
मन को करे आनंदित गुरु पाद वंदना।।४।।
ॐ ह्रीं आचार्यश्रीअभिनन्दनसागरमुनीन्द्राय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
नैवेद्य थाल लेके गुरु की अर्चना करूँ।
क्षुधरोग नाश करके आत्मसौख्य को वरूँ।।
आचार्य श्री अभिनंदनसागर की अर्चना।
मन को करे आनंदित गुरु पाद वंदना।।५।।
ॐ ह्रीं आचार्यश्रीअभिनन्दनसागरमुनीन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत दीप जला पूजन में आरती करूँ।
हो मोहतिमिर नाश ज्ञानभारती भरूँ।।
आचार्य श्री अभिनंदनसागर की अर्चना।
मन को करे आनंदित गुरु पाद वंदना।।६।।
ॐ ह्रीं आचार्यश्रीअभिनन्दनसागरमुनीन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदन कपूर की सुगंध धूप जलाऊँ।
पूजन में कर्मनाश हेतु धूप चढ़ाऊँ।।
आचार्य श्री अभिनंदनसागर की अर्चना।
मन को करे आनंदित गुरु पाद वंदना।।७।।
ॐ ह्रीं आचार्यश्रीअभिनन्दनसागरमुनीन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर आम्र आदि फल पूजन में चढ़ाऊँ।
शिवफल की प्राप्ति हेतु गुरु को शीश झुकाऊँ।।
आचार्य श्री अभिनंदनसागर की अर्चना।
मन को करे आनंदित गुरु पाद वंदना।।८।।
ॐ ह्रीं आचार्यश्रीअभिनन्दनसागरमुनीन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंध आदि अष्ट द्रव्य अघ्र्य बनाया।
गुरु पद में ‘चन्दनामती’ भावों से चढ़ाया।।
आचार्य श्री अभिनंदनसागर की अर्चना।
मन को करे आनंदित गुरु पाद वंदना।।९।।
ॐ ह्रीं आचार्यश्रीअभिनन्दनसागरमुनीन्द्राय अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रत्नत्रयधारी गुरू, के पद में त्रयधार।
करके रत्नत्रय वरूँ, यह है शांतीधार।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
गुण पुष्पों युत गुरुचरण, भक्ति करूँ दिन रात।
पुष्पांजलि करके मुझे, हो जावें गुण प्राप्त।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
शंभु छंद
जिनशासन में शुभ देव शास्त्र गुरु परमपूज्य माने जाते।
इनकी भक्ती से सम्यक्दर्शन ज्ञान चरित हैं मिल जाते।।
उन रत्नत्रय को नमन करूँ आत्मा में इनको प्रगट करूँ।
रत्नत्रय में ही रम करके इक दिन मैं भी शिवसौख्य वरूँ।।१।।
आचार्य उपाध्याय साधु सभी इनका सदैव पालन करते।
अतएव वही क्रम से अरिहंत तथा सिद्धों का पद वरते।।
गुरुपूजन करके मैंने यह जयमाल का थाल सजाया है।
आचार्यप्रवर अभिनन्दनसागर पद में इसे चढ़ाया है।।२।।
शुभ नगर शेषपुर राजस्थान में जिला उदयपुर कहलाता।
श्रावक श्री अमरचन्द रूपाबाई परिवार वहाँ रहता।।
धनराज पुत्र को जन्म दिया रूपाबाई माँ धन्य हुई।
सन् उन्निस सौ ब्यालिस में प्रथम ज्येष्ठ कृष्णा पंचमि तिथि थी।।३।।
धार्मिक संस्कारों के कारण आजन्म ब्रह्मचारी बनकर।
क्षुल्लक ऐलक दीक्षा नन्तर मुनिदीक्षा प्राप्त किया सुखकर।।
सन् उन्निस सौ उनहत्तर में फाल्गुन शुक्ला अष्टमि के दिन।
गुरु धर्म सिन्धु से दीक्षा ले बन गये मुनिश्री अभिनंदन।।४।।
अट्ठाइस मूलगुणों में रत मुनिवर का नाम प्रसिद्ध हुआ।
परमेष्ठी उपाध्याय पद पर रहकर भी गौरव वृद्धि किया।।
फिर इक दिन गुरुवर के जीवन में ऐसी सुखद घड़ी आई।
षष्ठम आचार्य पदारोहण करके सब जनता हरषाई।।५।।
बीसवीं सदी के प्रथम सूरि की इस अक्षुण्ण शृँखला में।
अभिनन्दनसागर वर्तमान आचार्य संघ के नायक हैं।।
ये दीर्घकाल दीक्षित मुनिवर इन चरणों में शत वन्दन है।
आचार्यदेव की पूजन में जयमाला अघ्र्य समर्पण है।।६।।
गणिनी माताश्री ज्ञानमती जी की शिष्या चन्दनामती।
आचार्यदेव की पूजन रचकर चाहे हो मम शुद्ध मती।।
शांतीसागर से लेकर अब तक सब आचार्यों को वंदन।
संघस्थ सभी मुनिराजों के चरणों में भी शत बार नमन।।७।।
ॐ ह्रीं आचार्यश्रीअभिनन्दनसागरमुनीन्द्राय जयमाला महाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
अभिनन्दन आचार्य की, पूजन है सुखकार।
गुरुभक्ती संसार से, कर सकती है पार।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।