प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा।।१३।।
प्रमाद के योग से प्राणों के वियोग करने को हिंसा कहते हैं।
इंद्रियों के प्रचार विशेष का निश्चय न करके प्रवृत्ति करने वाला मनुष्य प्रमत्त कहलाता है। जैसे मदिरा पीने वाला मनुष्य मदोन्मत्त होकर कार्य-अकार्य और वाच्य-अवाच्य का विवेक नहीं रखता है उसी तरह प्रमत्त हुआ व्यक्ति जीवस्थान, जीवोत्पत्तिस्थान और जीव के आश्रयभूत स्थान आदि को नहीं जानकर कषायोदय से हिंसा कार्यों को करता रहता है और सामान्यतया अहिंसा में प्रयत्नशील नहीं होता है अथवा स्त्रीकथा, भोजनकथा, राष्ट्र कथा और राजा की कथा ये चार विकथायें हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय हैं। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँच इंद्रियाँ हैं और निद्रा तथा स्नेह ये सब मिलकर पंद्रह प्रमाद कहलाते हैं। इन प्रमादों से युक्त जीव प्रमत्त है। यहाँ पर आत्मा के परिणाम को ही कर्ता माना गया है अत: जो प्रमादरूप से परिणत होता है वह परिणाम ही प्रमत्त कहलाता है। उस परिणाम के योग से अर्थात् संबंध से प्राणियों के प्राणों का घात करना हिंसा है अथवा योग अर्थात् मन, वचन, काय की क्रिया अत: प्रमाद से परिणत हुये व्यक्ति के मन, वचन, काय के व्यापार को प्रमत्तयोग कहते हैं। इस प्रमत्तयोग से प्राणों का वियोग करना हिंसा है।
प्रश्न-आत्मा इंद्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास इन प्राणों से सर्वथा भिन्न है अत: इन प्राणों का वियोग कर देने पर भी आत्मा का कुछ भी बिगाड़ नहीं हो सकता है इसलिये प्राणों के वियोग से अधर्म कैसे हो सकता है ?
उत्तर-ऐसा नहीं कहना, क्योंकि प्राणों का वियोग करने पर उन प्राणों से संबंधित प्राणी जो जीवात्मा है उसको दु:ख उत्पन्न होता है इसलिये अधर्म अर्थात् पाप होता ही है क्योेंकि प्राणों को छोड़कर संसार में प्राणी नहीं पाये जाते हैं और जो प्राणों से रहित हैं ऐसे सिद्धों का घात संभव ही नहीं है।
प्रश्न-जब प्राणों से प्राणी भिन्न है तो प्राणों के वियोग से होने वाला दु:ख उस प्राणी को नहीं हो सकता है ?
उत्तर-ऐसा नहीं कहना, क्योंकि सर्वथा भिन्न भी पुत्र, स्त्री, मित्र आदि के वियोग हो जाने पर संताप देखा जाता है अर्थात् जब पुत्र या धन आदि पदार्थ जीव से पृथक ही हैं यह स्पष्ट है तो भी उनके वियोग हो जाने पर जीवों को दु:ख होता ही होता है। दूसरी बात यह भी है कि ‘बंधं प्रत्येकत्वाच्च।’ यद्यपि शरीरधारी जीव और शरीर में लक्षण भेद होने से भिन्नपना है फिर भी बंध के प्रति एकत्व होने से शरीर का वियोग करने पर उससे जीव को दु:ख की उत्पत्ति होती ही है तथा उससे शरीर के घातक को हिंसा का पाप भी लगता ही है।
हाँ, जो लोग एकांतवादी हैं, आत्मा को सर्वथा निष्क्रिय, नित्य, शुद्ध और सर्वगत मानते हैं, उनके यहाँ शरीर के साथ संबंध का अभाव होने से आत्मा को दु:खादि नहीं होते होंगे और पाप भी नहीं होगा किन्तु हम अनेकांतवादियों के यहाँ तो कथंचित् जीव के साथ शरीर का संबंध होने से उसका वियोग करने में हिंसा होती ही है और उससे अधर्म होता ही है।
प्रश्न-जिनके प्रमाद का योग नहीं है उनके द्वारा जीववध हो जाने पर भी हिंसा नहीं होती है अत: प्राणों का वियोग हिंसा है यह बात नहीं घटती ? देखो! प्रवचनसार में कहा भी है-
मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा।
पयदस्स णत्थि बंधो, हिंसामेत्तेण समिदस्स।।
जीव मरे या न मरे परन्तु सावधानी नहीं बरतने वाले को हिंसा है ही है किन्तु जो प्रयत्नशील हैं, समिति में तत्पर हैं उनके द्वारा हिंसा हो भी जाय तो भी उन्हें बंध नहीं होता है।
उत्तर-आपका यह कथन सत्य है फिर भी जहाँ प्रमाद है वहाँ पर जीव के अपने ज्ञान, दर्शनरूप भाव प्राणों का घात अवश्य होता है अत: भाव प्राणों के वियोग की अपेक्षा दोनों विशेषण सार्थक हैं अर्थात् प्रमत्तयोग से प्राणों का वियोग होना ही हिंसा है। कहा भी है-
स्वयमेवात्मनात्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान्।
पूर्वं प्राण्यन्तराणां तु पश्चात् स्याद्वा न वा बध:।।१
प्रमादवान आत्मा अपने प्रमादी भावों से पहले स्वयं अपनी हिंसा करता ही है पश्चात् दूसरे प्राणी का वध हो न भी हो।
प्रश्न-पुन: किसी को मोक्षप्राप्ति असंभव हो जायेगी क्योंकि इस लोक में तो सर्वत्र जीव भरे पड़े हैं उनकी हिंसा से तो बचा ही नहीं जा सकता है। यथा-
जले जंतु थले जंतुराकाशे जंतुरेव च।
जंतुमालाकुले लोके कथं भिक्षुरहिंसक:।।
जल में जीव हैं, थल पर जीव हैं और आकाश में जीव हैं। जीवों के समूह से व्याप्त इस लोक में साधु अहिंसक कैसे हो सकते हैं ?
उत्तर-आपका कहना ठीक नहीं है, देखो, मैंने पहले ही उत्तर दिया है कि प्रमादवान आत्मा की मन, वचन, काय की क्रियाओं से हिंसा होकर बंध होता है प्रमादरहित आत्मा के नहीं और ज्ञान, ध्यान में तत्पर हुये साधु के प्रमाद के योग का अभाव है अत: वे अहिंसक ही हैं। कहा भी है-
सूक्ष्मा: न प्रतिपीडयन्ते प्राणिन: स्थूलमूर्तय:।
ये शक्यास्ते विवज्र्यन्ते का हिंसा संयतात्मन:।।
जीवों के दो भेद हैं-सूक्ष्म और स्थूल। उनमें से सूक्ष्म जीवों का घात तो होता नहीं है और जो स्थूल प्राणी हैं उनमें भी जिनके घात से बचना शक्य है उनसे बचा जाता है पुन: संयतमुनि के हिंसा वैâसे होगी ? अर्थात् प्रयत्नशील मुनि के हिंसा संभव नहीं है। वे जीवसमूह से भरे हुये इस लोक में विचरण करते हुये भी समितियों में तत्पर रहते हैं, सावधानीपूर्वक प्रवृत्ति करते हैं अत: कुंदकुंददेव के शब्दों में वे हिंसा के कर्मों से नहीं बंधते हैं ऐसा समझना।
(निष्कर्ष यह निकलता है कि समितिपूर्वक प्रवृत्ति करने वाले महाव्रती मुनि ही पूर्णतया अहिंसा का पालन करते हैं अत: श्रावक के तो पूर्ण अहिंसा व्रत नहीं होने से स्तोकव्रत अर्थात् अहिंसा अणुव्रत ही हो सकता है। इसी हेतु से श्रावक-श्राविकाओं का कर्तव्य है कि वे संकल्पी हिंसा का त्याग कर देवें तथा रत्नत्रय में चारित्र के सकल-विकल दो भेद हैं। पूर्ण अहिंसाव्रत तथा एकदेश अहिंसाव्रत ये दोनों ही रत्नत्रय के अंग हैं इसलिये जो कहते हैं कि ‘दया’ करते-करते अनंतकाल व्यतीत हो गया, मुक्ति नहीं मिली वह गलत है। यदि सचमुच में इस जीव ने सच्ची ‘दया’ पाली होती तो मोक्ष अवश्य हो जाता क्योंकि बत्तीस बार से अधिक बार महाव्रती नहीं बनना पड़ता है। जितने भी तीर्थंकर या अन्य महापुरुष सिद्ध हुये हैं या होेंगे वे सब इस अहिंसा व्रत को पालकर ही हुये हैं और होंगे अत: अपनी शक्ति के अनुसार महाव्रत या अणुव्रत का पालन करना चाहिए अव्रती जीवन नहीं बिताना चाहिये। अणुव्रती और महाव्रती इस भव से नियम से स्वर्ग ही जायेगा यह नियम है किन्तु अव्रती कहाँ जायेगा यह नियम नहीं है।)
असदभिधानमनृतम्।।१४।।
अप्रशस्त वचन बोलना असत्य है।
यहाँ पर ‘सत्’ शब्द प्रशंसा अर्थ को कहने वाला है अत: ‘न सत् असत्’ का अर्थ है अप्रशस्त। अभिधान अर्थात् कथन और अनृत अर्थात् झूठ अर्थात् अप्रशस्त अर्थ को कहना सो झूठ है। यदि मिथ्या अर्थ को अर्थात् विपरीत अर्थ को कहना सो असत्य है ऐसा स्वीकार किया जाय तो विद्यमान वस्तु का अभाव कहना असत्य होगा और अविद्यमान वस्तु के अस्तित्व को कहना यह असत्य होगा किन्तु पर प्राणियों के पीड़ाकारक वचन असत्य की कोटि में नहीं आ सकेंगे अत: ‘असत् को कहना सो असत्य है यही लक्षण निर्विवाद है। अभिप्राय यह हुआ कि अप्रशस्त वचन, पर प्राणी पीड़ाकारक वचन आदि सत्य भी हों तो भी असत्य हैं ऐसा समझना। इस असत्य का त्याग करना सत्यव्रत है।
अदत्तादानं स्तेयम्।।१५।।
बिना दिये हुये पर पदार्थ का ग्रहण करना सो चारी है।
प्रश्न-यदि बिना दी हुई पर वस्तु का ग्रहण करना चोरी है तो आठ प्रकार के कर्म और नोकर्म तो बिना दिये हुये ही ग्रहण किये जाते हैं अत: उनका ग्रहण तो चोरी ही कहलायेगा ?
उत्तर-यह आपका कथन ठीक नहीं है, क्योंकि जिन वस्तुओं में लेन-देन का व्यवहार चलता है, ऐसे सोने, चांदी, वस्त्र आदि वस्तुओं के अदत्तादान को ही चोरी कहते हैं किन्तु कर्म और नोकर्म के ग्रहण को नहीं। यदि कर्मों का ग्रहण करना भी चोरी समझा जायेगा तो ‘अदत्तादान’ विशेषण निरर्थक हो जायेगा क्योंकि जिस वस्तु में दत्त का प्रसंग है, उसी का ‘अदत्त’ से निषेध किया जा सकता है। जैसे वस्त्र, पात्र आदि पदार्थ हाथ आदि के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं तथा दूसरों को दिये जाते हैं, उस तरह कर्म नहीं लिये दिये जाते हैं। कर्म अत्यन्त सूक्ष्म हैं, उनका हाथ आदि के द्वारा लेना-देना नहीं हो सकता है। शरीर, आहार तथा शब्द आदि इन्द्रियों के विषयों में राग-द्वेषरूप विकल्प होने से कर्मबंध होता है अत: स्वपरिणाम के आधीन होने से इनका लेन-देन नहीं होता है। जब गुप्ति, समितिरूप संवर परिणाम होते हैं तब आस्रव का निरोध हो जाता है अर्थात् कर्मों का आना रुक जाता है, अत: नित्य ही कर्मबंध का प्रसंग नहीं है।
प्रश्न-इन्द्रियों के द्वारा शब्द आदि विषयों को ग्रहण करने से तथा नगर के दरवाजे आदि को बिना दिये प्रवेश आदि करने से साधु को चोरी का दोष लगना चाहिये ?
उत्तर-प्रयत्नशील अप्रमत्त और ज्ञानी साधु को शास्त्रोक्त आचरण करने पर बाहर के शब्दादि सुनने में चोरी का दोष नहीं है क्योंकि ये सब वस्तुयें तो सबके लिये दी ही गई हैं वे अदत्त नहीं हैं इसीलिये साधु उन दरवाजों में प्रवेश नहीं करता है जो सार्वजनिक नहीं हैं या बन्द हैं। निष्कर्ष यही निकलता है कि प्रमाद के योग से बिना दी हुई वस्तु को ले लेना सो चोरी है और उसका त्याग कर देना सो अचौर्यव्रत है।
मैथुनमब्रह्म।।१६।।
मैथुन क्रिया को अब्रह्म कहते हैं।
चारित्रमोह के उदय से स्त्री और पुरुष का परस्पर शरीर सम्मिलन होने पर सुख प्राप्ति की इच्छा से होने वाला राग परिणाम मैथुन है। यद्यपि ‘मैथुन’ शब्द से इतना अर्थ नहीं निकलता है क्योंकि मिथुन-युगल के कर्म का नाम मैथुन है फिर भी प्रसिद्धिवश इष्ट अर्थ का अध्याहार किया जाता है चूँकि यह मैथुन शब्द लोक में और शास्त्र में भी स्त्री पुरुष के संयोग से होने वाले रतिकर्म में प्रसिद्ध है।
कदाचित् स्त्री और पुरुष मिलकर भोजन बनाने आदि की क्रिया कर रहे हैं और उनमें अंतरंग में राग परिणाम नहीं है तो उनका कार्य मैथुन नहीं कहलाएगा तथा व्रती स्त्री या पुरुष आदि के द्वारा वंदना आदि क्रिया में प्रवृत्ति होने पर भी मैथुन नहीं कहलाएगा क्योंकि वहां पर चारित्रमोह के उद्रेक से होने वाला राग परिणाम नहीं है।
जिसके परिपालन से अहिंसादि गुणों की वृद्धि हो वह ब्रह्म है। इससे विपरीत अब्रह्मसेवन करने वाले के हिंसादि दोष पुष्ट होते हैंं। मैथुनाभिलाषी व्यक्ति स्थावर और त्रस जीवों का घात करता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है, सचेतन और अचेतन परिग्रह का संग्रह भी करता है अत: यह अब्रह्म अथवा कुशील हमेशा ही निन्द्य है। इसके त्याग करने वाले को ब्रह्मचर्य व्रत कहते हैं।
मूच्र्छा परिग्रह:।१७।।
मूच्र्छा परिणाम को परिग्रह कहते हैं।
गाय भैंस मणि-मुक्ता आदि चेतन-अचेतन बाह्य परिग्रहों के और राग-द्वेष आदि अभ्यंतर उपाधियों के संरक्षण, अर्जन, संस्कार आदि व्यापार को मूच्र्छा कहते हैं।
प्रश्न-मूच्र्छि धातु का अर्थ है मूच्र्छित होना सो तो वात, पित्त और कफ आदि विकार के निमित्त से शरीर में होती है ?
उत्तर-यहाँ पर मूच्र्छा शब्द से यह बेहोशी अर्थ विवक्षित नहीं है किन्तु मोह कर्म के निमित्त से होने वाला ममत्व परिणाम विवक्षित है।
प्रश्न-तब तो अभ्यंतर में ममत्व परिणाम ही मूच्र्छा शब्द का अर्थ रहा और उसको परिग्रह कहने पर बाह्य वस्तुओं को परिग्रह नहीं कहा जा सकेगा ?
उत्तर-ऐसी बात नहीं है यद्यपि यहाँ पर अभ्यंतर परिग्रह ही प्रधानभूत है तो भी उसके ग्रहण करने से बाह्य परिग्रह का ग्रहण तो हो ही जाता है। चूँकि जिसने बाह्य परिग्रह छोड़ दिये हैं उसके अभ्यंतर में मूच्र्छा परिणाम कदाचित् रह भी सकता है और छूट भी सकता है किन्तु जिसने परिग्रह को नहीं छोड़ा है उसके उस विषयक ममत्व रहेगा ही रहेगा। जैसे कि धान्य के ऊपर के छिलके के निकल जाने के बाद अभ्यंतर की ललाई निकल जाती है कदाचित् रह भी सकती है किन्तु ऊपर के छिलके को निकाले बिना अभ्यन्तर की ललाई दूर कर सकना असंभव ही है, ऐसा समझना। अत: ममत्व परिणाम मूच्र्छा है, मुख्यरूप से वो ही परिग्रह है और उसके लिये कारणभूत बाह्य सामग्री हैं उनका त्याग करना भी आवश्यक ही है। इन बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह के त्याग को अपरिग्रहव्रत कहते हैं।
इन व्रतों के पालन करने वाले व्रती का लक्षण देखिये-
नि:शल्यो व्रती।।१८।।
शल्य रहित जीव ही व्रती होता है।
अनेक प्रकार की वेदनारूपी सुइयों से जो प्राणी को छेदें वे शल्य हैं। जिस प्रकार शरीर में चुभे हुये कांटा आदि प्राणी को बाधा उत्पन्न करते हैं उसी प्रकार शारीरिक, मानसिक बाधाओं का कारण होने से जो शल्य की तरह दु:खदायी हैं वे शल्य हैं।
शल्य के तीन भेद हैं-माया, मिथ्या, निदान।
वंचना–छल कपट आदि व्यवहार को माया कहते हैं। अतत्त्व श्रद्धान का नाम मिथ्यात्व है और विषय भोगों की आकांक्षा करना निदान है। ये तीनों शल्य जिसके नहीं हैं वही नि:शल्य होता है और ऐसा नि:शल्य व्यक्ति ही व्रती कहलाता है।
प्रश्न-शल्यरहित होने से नि:शल्य और व्रत सहित होने से व्रती होता है ये दोनों पृथक्-पृथक् हैं अत: नि:शल्य होने से व्रती होना यह बात समझ में नहीं आती है ?
उत्तर-आपका कथन ठीक है, फिर भी नि:शल्य और व्रतित्त्व में अंग-अंगी भाव विवक्षित है। केवल िंहसादि से विरतिरूप व्रती के संबंध से ही व्रती नहीं होता है जब तक कि शल्यों का अभाव न हो जाए बल्कि शल्यों का अभाव होने पर ही व्रतों के संबंध से व्रती होता है। जैसे कि ‘बहुत घी दूध वाला गोमान्’ ऐसा कहने पर मात्र गायें रहने पर ही कोई गोमान् नहीं है बल्कि घी, दूध के होने से ही वह ‘गोमान्’ है। इसी तरह शल्यों के रहते हुए व्रतों के रहने पर भी व्रती नहीं है किन्तु जो नि:शल्य होता है वही व्रती है। ऐसा समझना।
व्रतियों में भेद भी होते हैं अथवा सब एक समान हैं ?
अगार्यनगारश्च।।१९।।
अगारी–गृहस्थ और अनगारी-मुनि के भेद से व्रती दो प्रकार के होते हैं। आश्रय के इच्छुक लोग जिसको स्वीकार करते हैं वह अगार-घर है। यहाँ पर चारित्रमोह के उदय से घर के प्रति जिनके परिणाम त्यागरूप नहीं हैं ऐसे भाव अगारी की विवक्षा है अत: ऐसा भाव अगारी व्यक्ति घर छोड़कर किसी कारणवश यदि वन में भी रहता है तो भी वह अगारी ही है अनगार नहीं है और विषय, तृष्णा से निवृत्त हुए मुनि यदि शून्य घर या मंदिर आदि में भी रहते हैं तो भी वे अनगारी ही हैं, अगारी नहीं हैं।
पुन: अगारी के कौन से व्रत होते हैं ?
अणुव्रतोऽगारी।।२०।।
अणुव्रतों का धारक अगारी होता है।
उपर्युक्त कहे गये पाँचों पापों के एकदेश त्याग को अथवा पाँचों व्रतों के एकदेश पालन को अणुव्रत कहते हैं।
अहिंसाणुव्रत-त्रस जीवों की हिंसा से विरक्त होना।
सत्याणुव्रत-स्नेह, द्वेष और मोह के उद्रेक से असत्य वचन नहीं बोलना।
अचौर्याणुव्रत-पर की बिना दी हुई वस्तु को ग्रहण नहीं करना।
ब्रह्मचर्याणुव्रत-परस्त्रीमात्र से विरक्त होना।
परिग्रहपरिमाणाणुव्रत-धन, धान्य, खेत आदि परिग्रहों का अपनी इच्छानुसार परिमाण कर लेना।
इस तरह ये पाँच अणुव्रत हैं जो कि श्रावकों के द्वारा पाले जाते हैं।
सत्याणुव्रत-स्नेह, द्वेष और मोह के उद्रेक से असत्य वचन नहीं बोलना।
अचौर्याणुव्रत-पर की बिना दी हुई वस्तु को ग्रहण नहीं करना।
ब्रह्मचर्याणुव्रत-परस्त्रीमात्र से विरक्त होना।
परिग्रहपरिमाणाणुव्रत-धनधान्य खेत आदि परिग्रहों का अपनी इच्छानुसार परिमाण कर लेना।
इस तरह ये पाँच अणुव्रत हैं जो कि श्रावकों के द्वारा पाले जाते हैं।
(इस महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्र में पहले जो पाँच व्रतों के लिए पाँच-पाँच भावनाएं बतलाई हैं वे महाव्रतों की अपेक्षा से ही हैं। पुन: पाँचों पापों का स्वरूप बतलाया है। तत्त्वार्थवार्तिककार श्री अकलंक देव ने अपने भाष्य में उनका वर्णन करते हुए जो व्रतों का लक्षण बतलाया है वह भी महाव्रतों में ही घटित होता है। पुन: ग्रंथकार स्वयं आगे के सूत्रों से गृहस्थ और मुनि की अपेक्षा से उसमें भेद कर देते हैं और स्पष्ट कह देते हैं कि इन पापों का एक देश त्याग करने वाला गृहस्थ है और पूर्णतया त्याग करने वाले मुनि होते हैं। इन अणुव्रतों का इतना महत्व है कि जिसने इनको ग्रहण कर लिया है वह नियम से देवगति को ही प्राप्त करेगा। अन्य गति को नहीं। यदि कदाचित् किसी की देवायु के सिवाय और कोई आयु बंध गई है तो वह अणुव्रत ले नहीं सकता है ऐसा आगम का नियम है। ये व्रत इस जीवन में भी महान् सुख शांति को देने वाले है अत: प्रत्येक व्यक्ति को अणुव्रत ग्रहण करना ही चाहिए।)