(भारत देश में मान्यखेट नामक नगर में राजा शुभतुंग और रानी पद्मावती राज्य करते थे। वे धर्मप्रिय राजा थे। एक बार उनकी नगरी में एक मुनि का पदार्पण हुआ। उस समय आष्टान्हिक पर्व चल रहा था अत: राजा—रानी अपने पुत्र अकलंक और निकलंक के साथ उनके दर्शनार्थ गए।) (सभी जिनमंदिर में पहुँचकर मुनिराज को नमस्कार करते हैं।)
सभी—(महाराज से) नमोऽस्तु मुनिवर नमोऽस्तु !
मुनिराज चित्रगुप्त—बोधिलाभोऽस्तु ! राजा—हे स्वामी ! हमें अपने धर्ममयी उपदेशामृत से अभिसिञ्चित कीजिए।
मुनि—हे भव्यात्मन् ! सुनो ! यह जीव अनादिकाल से इस संसार सागर में परिभ्रमण कर रहा है, बड़े पुण्य के उदय से उसको मनुष्य पर्याय की प्राप्ति और फिर जैन कुल और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। पुन: महान पुण्य से ही वह मुनिव्रतों को अंगीकार करके सोलहकारण भावनाओं का चिन्तन करते हुए तीर्थंकर प्रकृति का बंध करता है।
राजा—हे प्रभो ! श्रावक कौन—कौन से व्रतों को धारण कर सकता है ?
मुनि—राजन् ! श्रावक पंच अणुव्रतों को धारण कर सकता है, पर्व आदि में भी ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर महान् पुण्य का बंध कर सकता है और षट्आवश्यक कत्र्तव्यों का पालन कर अपने जीवन का उत्थान कर सकता है।
राजा—प्रभो ! हमें भी इस आष्टान्हिक पर्व में ब्रह्मचर्य व्रत दे दीजिए।
मुनि—ठीक है राजन् ! (पुन: राजा—रानी दोनों को आठ दिन का ब्रह्मचर्य व्रत दे देते हैं तभी)
दोनों पुत्र—पिताजी ! हम भी यह व्रत ले लें।
राजा—(अपने बाल सुकुमारों को देखकर हंसते हुए) ठीक है, जैसी तुम्हारी इच्छा। (पुन: मुनि से) भगवन् ! इन बच्चों को भी ब्रह्मचर्य व्रत दे दीजिए। (इतना सुनते ही दोनों बालक घुटने टेककर हाथ जोड़कर मस्तक झुका लेते हैं। मुनिराज मंत्र पढ़ते हुए दोनों के मस्तक पर बड़े प्रेम से पिच्छी रख देते हैं और व्रतारोपण कर देते हैं, पुन: कहते हैं।) मुनि—प्रिय बालकों ! तुम दोनों की आत्मा महान है और भविष्य बहुत उज्ज्वल, जो इस अबोध अवस्था में तुमने यह व्रत ग्रहण किया है।
अगला दृश्य
(अकलंक और निकलंक युवा हो रहे हैं। एक समय की बात है उनके घर में विवाह सा वातावरण है जिसे देखकर दोनों आश्चर्यचकित हैं।)
घर में हो रही साज—सज्जा को देख पिता के पास जाते हैं और कहते हैं—
दोनों पुत्र—पिताश्री ! प्रणाम।
पिता—आयुष्मान भव पुत्रों ! आओ ! बैठो। दोनों बैठ जाते हैं तभी एक कहता है—
पुत्र (१)—पिताश्री ! यह सब इतना बड़ा आयोजन आप किसलिए कर रहे हैं ?
पिता—बच्चों ! आप लोगों के विवाह की तैयारियाँ कर रहा हूँ।
पुत्र (२)—पिताजी ! आपने तो हम लोगों को ब्रह्मचर्य व्रत दिला दिया है, अब ब्याह कैसा ?
पिता—अरे बच्चों ! वह तो बस विनोदवश दिलवा दिया था, तब तो तुम अबोध बालक थे।
दोनों—पिताजी ! धर्म और व्रत में विनोद कैसा ? और ठीक है यदि आपने विनोदवश भी दिया था तो उस व्रत के पालने में लज्जा कैसी ?
पिताजी—ठीक है पुत्रों ! अगर तुम्हारी यही इच्छा है तो यही सही । मैं जबरदस्ती नहीं करूंगा। (दोनों बालकों ने अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार कर लिया।) (पुन: दोनों भाइयों ने शास्त्राभ्यास में चित्त लगाया। इनके समय में बौद्धधर्म का बहुत जोर था अत: इनके मन में बौद्ध तत्त्वों को जानने की इच्छा हुई अत: वे बौद्धधर्म का अभ्यास करने के लिए अज्ञ विद्यार्थी का भेष बनाकर महाबोधि नामक स्थान में बौद्ध धर्माचार्य के पास गए और अध्ययन किया। पुन: किसी समय उन बुद्धिमान बालकों पर जैन होने की शंका होने पर बौद्ध गुरू ने उनकी परीक्षा की और मृत्युदण्ड देने के लिए उद्यत हुए।)
—अगला दृश्य—
बौद्ध गरु—(अपने भिक्षुक शिष्यों से) मैंने इतनी तरह से परीक्षा ली परन्तु अभी तक पता नहीं लग पाया कि इनमें से कुछ बालक जैन हैं या नहीं। ऐसा करो आज तुम जहाँ पर बच्चे सोते हैं वहाँ से कुछ दूरी पर कुछ ऊँचाई से बर्तन की बोरी रख दो और बच्चों के गहरी निद्रा में सोते ही वह बोरी खोलकर बर्तन गिरा दो जिससे सभी बच्चे डर जाएंगे और अपने-अपने इष्टदेव का स्मरण करेंगे। भिक्षुक—ठीक है गुरुदेव ! ऐसा की करता हूँ।
गुरु—और सुनो ! सावधान रहना, देखो प्राचार्य जी ! दो-दो, तीन-तीन बच्चों के पास एक-एक गुप्तचर बैठा दो ताकि पता लगे उनमें कौन सा बच्चा जैन है जो हमारी ही जड़े काटने को आ गया है। सभी भिक्षुक—बहुत ठीक, बहुत ठीक। (रात्रि में वे ऐसा ही करते हैं। तेज धमाका होते ही सभी बच्चे जगकर डर जाते हैं और अपने-अपने इष्टदेव का स्मरण करने लगते हैं।)
सभी—बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं………. अकलंक निकलंक—अरहंत शरणं गच्छामि, अरहंत………।। (बस उसी क्षण एक गुप्तचर उन दोनों को पकड़ लेता है और गुरु के सम्मुख उपस्थित करता है।) जब गुरू पूछते हैं तो वह उन्हीं से शास्त्रार्थ करने लगते हैं तब गुरू क्रोधित हो उन्हें कारागार में बन्द करवा देते हैं)
गुरू—(गुप्तचर से) ले जाओ इन्हें और कैदखाने में डाल दो। अभी रात है, जब थोड़ी रात और हो जाए तो इन्हें श्मशान में ले जाकर तलवार से मौत के घाट उतार देना। समझ गए। और हां, बहुत सावधानी से ये कार्य करना, कोई जान न पाए।
गुप्तचर—जो आज्ञा गुरूजी ! (गुप्तचर उन्हें हथकड़ी डालकर ले जाता है। कारागार में बन्द दोनों भगवान से प्रार्थना करते हैं कि प्रभो ! अब धर्म की लाज आपके हाथ में है। उनकी करुण पुकार से स्वयं ही उनके हाथों की बेड़ियां टूटकर गिर जाती हैं और ताला भी खुल जाता है। दोनों बाहर निकलते हैं तब सिपाही भी सोए मिलते हैं, दोनों चुपचाप वहां से भाग निकलते हैं और भागते ही चले जाते हैं। मार्ग में निकलंक थक जाता है तब अकलंक कुछ क्षण निकलंक को अपनी गोद में सुला लेते हैं और जागने पर आपस में वार्ता करते हैं)
—अगला दृश्य—
(दोनों जंगल में बैठे हैं)
निकलंक—भइया ! महामंत्र का स्मरण करते ही चमत्कार हो गया। सचमुच जिनधर्म से बढ़कर कुछ भी नहीं है। (पुन: कुछ सोचकर) भाई ! कहीं वे दुष्ट हमें ढूंढते हुए इधर ही न आ रहे हों।
अकलंक—हाँ निकलंक ! यह बात हो सकती है। आओ, जल्दी भाग चलें, जितनी दूरी तय कर लेंगे उतना ही अच्छा है। (दोनों भागने लगते हैं। उधर आचार्यश्री सो रहे हैं, सिपाहियों का कोलाहल सुनकर जग जाते हैं और उन दोनों को भागा हुआ जानकर चारों ओर घुड़सवार दौड़ा देते हैं तथा आज्ञा देते हैं कि वे जहां भी मिलें उन्हें खतम कर दो, सेवक नंगी तलवारें लेकर उन्हें खोज रहे हैं। उधर वे दोनों भागते जा रहे हैं। दौड़ते—दौड़ते दोनों के पैरों से रक्त की धार बहने लगती है। तब निकलंक कहते हैं)
निकलंक—भइया ! प्रात: हो गयी भागते—भागते, मुझे तो इसी ओर तेज धूल उड़ती नजर आ रही है, कहीं वे घुड़सवार तो नहीं, जो हमारा पीछा कर रहे हों।
अकलंक—हां भाई ! निश्चित ही वे घुड़सवार हैं, अब तो हमारा प्राण बचाना मुश्किल है। भाई, अब तो मरना ही है अत: णमोकार मंत्र का स्मरण करो।
निकलंक—भइया ! बहुत खेद है कि हम लोग जिनधर्म की कुछ भी सेवा नहीं कर सके। जैनधर्म की रक्षा का जो संकल्प हमारे मन में था वह मन में ही रह गया। (कुछ आगे बढ़कर) हे भाई ! मेरी प्रार्थना स्वीकार करें, आप सामने बने सरोवर में उतर जावें, इसमें बहुत सारे कमल खिले हैं आप उनमें अपने को छिपा लीजिए। शत्रु पीछे से मारने के लिए आ रहे हैं।
अकलंक—अरे मेरे प्यारे भाई ! मैं तुम्हें छोड़कर भला जीवित रह सकता हूँ ? तुमने ऐसा सोच भी कैसे लिया। अगर बचेंगे तो दोनों ही बचेंगे और मरेंगे तो साथ ही मरेंगे।
निकलंक—(चिन्तित होकर) भइया ! जल्दी करिए, यह समय मोह का नहीं है, आप अपने प्राणों की शीघ्र रक्षा करिए। देखिए ना, वह उड़ती हुई धूल और नजदीक आ रही है।
अकलंक—(दुखी होकर) नहीं भइया ! मुझसे यह नहीं होगा। मैं माता—पिता को क्या उत्तर दूँगा ?
निकलंक—(हाथ जोड़कर)भइया ! आप एक पाठी हो, आपके द्वारा जितनी जैनशासन की सेवा हो सकती है उतनी मेरे द्वारा नहीं हो सकती। मैं तो दो पाठी हूँ, जितना अभ्यास आप छ: मास में करेंगे मुझे उसमें एक वर्ष लग जाएगा। आपके द्वारा जिनधर्म की बड़ी प्रभावना होगी। मुझे अपना जीवन भी देना पड़े तो आप परवाह न कीजिए। आपको इन एकान्त क्षणिक मत वालों को परास्त करना है अत: मेरे प्यारे भाई ! जीवित रहकर पवित्र जिनशासन की भरपूर सेवा करें। (पुन:) देखो ! वो धोबी कपड़े धो रहा है, मैं उधर ही जाता हूँ। (इतना कहकर निकलंक तेजी से धोबी की ओर भागते हैं और अकलंक भाई–भाई कहते हुए किं कर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं पुन: अश्रुपूर्ण नजरों से देखते हुए भाई के ओझल हो जाने पर अतीव चतुराई से सरोवर में घुसकर कमल का आश्रय लेकर छिप जाते हैं। उस समय वास्तव में उन्होंने कमल का आश्रय क्या लिया था सच्चे जैनशासन का ही आश्रय लिया था और मन ही मन महामंत्र का स्मरण कर रहे थे।)
निकलंक—(दौड़ते हुए धोबी से घबराकर कहते हैं) जल्दी भागो ! वे घुड़सवार तुम्हें भी मार डालेंगे, उन्हें जो भी मिलता है उसे ही वे मार डालते हैं।
धोबी—रुको भाई ! मैं भी भागता हूँ।
निकलंक—जल्दी आ जाओ ! अपन कहीं झाड़ी में छिप जाते हैं शायद बच जाएं। (दोनों दौड़ते हुए चले जाते हैं, इधर घुड़सवार नजदीक आते जा रहे हैं, उनके हाथों में नंगी तलवार है, निकलंक जोर—जोर से णमोकार मंत्र बोलने लगते हैं और वे हत्यारे उन दोनों को मार डालते हैं, पुन: दोनों का सिर कपड़े में लपेटकर घोड़े पर सवार होकर प्रसन्नमना हो प्राचार्य के पास चले जाते हैं। घोड़ों की टापों की आवाज खत्म होने पर अकलंक उस कमल के पीछे से निकलकर बाहर आते हैं और भाई को ढूंढ़ते हैं पुन: उन्हें खून की धार दिखाई पड़ती है वे धड़ को देखकर चीख उठते हैं और सर ढूढ़ने पर उन्हें सर नहीं मिलता है तब वे रो पड़ते हैं)—
अकलंक—हाय भाई ! तुम कहां चले गए ! क्या सचमुच ही उन दुष्टों ने तुम्हारी हत्या कर दी (मूर्छित हो जाते हैं पुन: होश में आते ही विलाप करने लगते हैं)— हे भाई ! तुम्हारे बिना अब मैं कहां जाऊं ? क्या करूं ? किससे अपने मन की व्यथा सुनाऊं ? हे भगवन् ! पूर्व जन्म में मैंने ऐसा कौन सा पाप किया था जो मुझे मेरे प्यारे भाई से अलग कर दिया। (कुछ देर रोते हैं पुन: धैर्य धारण करते हैं फिर रोने लगते हैं)— हे भगवन् ! मैं माता—पिता को क्या जबाब दूंगा ? उन्हें अपना मुंह कैसे दिखाऊंगा ? हा दुर्दैव ! तू इतना निष्ठुर कैसे हो गया। भइया ! क्या अब तुम मुझसे नहीं बोलोगे ? मैं भला अकेला जिनशासन की रक्षा कैसे करूंगा ? (अनन्तर संसार की स्थिति का विचार करने लगते हैं)—सच ही है ! जब यह शरीर अपना नहीं है तो भाई—भाई का सम्बन्ध क्या ? यह संसार असार है, रिश्ते—नाते क्षणिक हैं मात्र एक आत्मा ही अविनश्वर है यही तो जैनधर्म सिखाता है। अब मुझे भाई के बलिदान को व्यर्थ नहीं जाने देना है और अनेकान्त की विजयपताका फहरानी है। (इत्यादि प्रकार से सोचते हुए वे उठ खड़े होते हैं और भाई के धड़ का विधिवत् संस्कार करके उसी सरोवर में स्नान कर अन्यत्र चले जाते हैं। जगह—जगह अनेक घटनाओं द्वारा बौद्धों को हर एक पर हावी होते देख उनका निश्चय और दृढ़ होता जाता है और वे दिगम्बर साधु हो जाते हैं। रत्नसंचयपुर नगर है जहां राजा हिमशीतल की रानी ने अष्टाह्निक पर्व में रथोत्सव का आयोजन किया था। बौद्ध भिक्षुओं से यह सहन नहीं हुआ उन्होंने रथयात्रा रुकवा दी और शास्त्रार्थ की घोषणा कर दी)—
—अगला दृश्य—
फाल्गुन की आष्टाह्निका है, श्रावक—श्राविकाओं की भीड़ जिनमंदिर में उमड़ पड़ी है। महारानी महाराज से अन्त:पुर में पूछ रही हैं—
महारानी—महाराज ! क्या रथयात्रा की पूरी तैयारी हो गई ?
महाराज—नहीं रानी ! बौद्ध गुरू ने रथयात्रा रुकवा दी।
महारानी—प्रभो ! अब क्या होगा ?
महाराज—प्रिये ! जब तक कोई जैन विद्वान बौद्ध गुरू के साथ शास्त्रार्थ करके जिनधर्म का प्रभाव नहीं फैलाएगा तब तक तुम्हारा उत्सव होना कठिन है।
महारानी—अब तो दिगम्बर गुरू की ही शरण है। हे स्वामी ! मैं जिनमंदिर में जाती हूँ।
महाराज—ठीक है महारानी ! जैसा आप उचित समझें, करें। (महारानी अपनी दासियों के साथ जिनमंदिर में पहुँचीं, वहां अनेक मुनिराज विराजमान हैं, कोई शास्त्र—स्वाध्याय कर रहे हैं, कोई ध्यान कर रहे हैं, कोई साधुओं को पढ़ा रहे हैं। तभी महारानी का प्रवेश, गुरू के सम्मुख आकर श्रीफल चढ़ाकर—
आचार्यश्री—हां महारानी ! तुम्हारा धर्मध्यान उचित प्रकार से चल रहा है ?
रानी—(रुंधे गले से) भगवन् ! आज इस महान आष्टाह्निक पर्व में हमने श्री जिनेन्द्रदेव की रथयात्रा का महान आयोजन किया था किन्तु मेरे दुर्भाग्य से उसमें बहुत बड़ा विघ्न आ गया है, अब आप ही उसका निवारण कर सकते हैं।
आचार्यश्री—ऐसा क्या विघ्न है पुत्री ! बोलो !
रानी—मुनिवर ! महाराज का कहना है कि जब तक कोई जैनधर्मी महापुरुष बौद्धगुरु संघश्री को शास्त्रार्थ में पराजित नहीं कर देगा हमारा जैनरथ नहीं निकल सकता है और न ही हम महामहोत्सव मना सकते हैं। हे गुरुदेव ! अब आप ही बताइए कि ऐसा कौन सा विद्वान है जो उन्हें शास्त्रार्थ में पराजित कर सके।
आचार्यश्री—(एक क्षण सोचकर) हे कल्याणि ! मेरी समझ में इस समय बौद्धगुरु से शास्त्रार्थ करने में आस—पास तो कोई विद्वान नहीं है। हाँ, मान्यखेट नगर में ऐसे विद्वान अवश्य हैं। उन्हें बुलवाने का आप प्रयास करें तो सफलता प्राप्त हो सकती है।
रानी—(दु:खी होकर) प्रभो ! भला इससे क्या सिद्धि हो सकती है ? जान पड़ता है कि आप लोग इस विपत्ति का तत्काल प्रतीकार नहीं कर सकते हैं। हे जिनेन्द्रदेव ! क्या अब जैनधर्म का पतन कराना ही आपको इष्ट है और जब मेरे पवित्र जैनधर्म की यह दुर्दशा होगी तो मैं जीकर क्या करूंगी ? (महारानी आचार्यश्री को नमोऽस्तु कर वहां से उठ आती हैं और राजमहल से अपना सम्बन्ध छोड़कर जिनमंदिर में ही जिनेन्द्र भगवान के समक्ष पहुंचकर प्रतिज्ञा करती हैं)—
महारानी—(हाथ जोड़कर) हे त्रिलोकीनाथ ! जब क्षण संघश्री का अभिमान चूर-चूर नहीं हो जाता और मेरा रथोत्सव ठाठ-बाट के साथ नहीं निकल जाता तब तक मेरा चतुराहार का त्याग है। मैं जैनधर्म की अवमानना नहीं देख सकती। (ऐसी दृढ़ प्रतिज्ञा कर रानी कायोत्सर्ग मुद्रा में बैठ गईं और णमोकार मंत्र का स्मरण करने लगीं। हे भव्यात्माओं! देखो ! जिनभक्ति का फल भव्य जीवों को अवश्य ही मिलता है अत: महारानी के निश्चल ध्यान से पद्मावती देवी का आसन कम्पायमान हो उठा। देवी अर्धरात्रि में वहां आकर रानी से कहती हैं—
पद्मावती देवी—हे रानी ! सुनो ! जब तुम्हारे हृदय में जिनेन्द्र भगवान के प्रति इतनी भक्ति है तो तुम्हें चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं है, तुम्हारे मनोरथ अवश्य पूर्ण होंगे। सुनो ! कल प्रात:काल ही आचार्य श्री अकलंकदेव इधर पधारेंगे, वे जैनधर्म के बहुत बड़े विद्वान हैं, वे ही संघश्री का घमण्ड चूर कर देंगे और जैनधर्म की प्रभावना करेंगे। तुम्हारा रथोत्सव निर्विघ्न पूर्ण होगा। (यह सुनकर रानी अतीव प्रसन्न हुई। प्रात: उसने जिनेन्द्रदेव की पूजा-अर्चना की और महल में आकर अपने विश्वासपात्र गुप्तचरों को चारों दिशाओं में भेज दिया। कुछ समय बाद प्रसेनजित् नामक राजकीय पुरुष आकर निवेदन करके बोले)—
—अगला दृश्य—
(महारानी राजिंसहासन पर अपने अन्त:पुर में बैठी हैं तभी प्रसेनजित् आते हैं)
प्रसेन्जित—महारानी की जय हो ! महारानी ! प्रसन्नता की बात है कि पूर्व दिशा की ओर बगीचे में अशोकवृक्ष के नीचे अपने बहुत से शिष्यों के साथ महात्मा श्री अकलंकदेव विराजमान हुए हैं। (इतना सुनकर प्रसन्नमना रानी अपनी सखियों को साथ लेकर अघ्र्य आदि के साथ वहाँ पहुँचती हैं और भक्तिपूर्वक उन्हें प्रणाम करती हैं, पुन: उनकी पूजन कर उनके चरणों के निकट बैठ जाती हैं। तब अकलंकदेव आशीर्वाद देकर पूछते हैं)
अकलंकदेव—देवी ! आप सकुशल तो हैं और राज्य में सब सकुशल तो है ?
रानी—(अविरल अश्रुधारा बहाते हुए मौन सी हो जाती है) तब अकलंकदेव पूछते हैं—
अकलंकदेव—हे कल्याणी ! राजा हिमशीतल की प्रजा को आज इतना सुख मिल रहा है फिर उनकी पट्टरानी होकर आपकी आँखों से ऐसी अविरल अश्रुधारा क्यों ! बोलो ! क्या बात है ? धैर्य धारण करो और बात बताओ।
रानी—(साहस करके) प्रभो ! राज्य में सब सकुशल है परन्तु इस समय जिनधर्म का घोर अपमान हो रहा है। इसका मुझे बहुत कष्ट है। हे गुरुवर ! बौद्ध के गुरू संघश्री ने मेरा रथोत्सव रुकवा दिया है और घोषणा कर दी है कि यदि कोई जैन विद्वान् उन्हें शास्त्रार्थ में पराजित कर देगा तभी जैनरथ निकलेगा अन्यथा नहीं। परम पूज्य जिनधर्म का ऐसा अपमान देख मैंने चतुराहार त्यागकर जिनधर्म की शरण ली है। इसी बीच पद्मावती देवी ने आकर मुझसे आपके आगमन का मंगल समाचार सुनाया। हे भगवन् ! अब जैनधर्म की रक्षा आपके हाथों में है। (इतना कहकर रानी फूट-फूटकर रोने लगती है। अकलंकदेव सारा वृतांत सुनकर गम्भीर स्वर में कहते हैं)—
अकलंकदेव—देवि ! अब चिन्ता मत करो। वह समय निकट ही है कि जब तुम बौद्ध गुरू की पराजय देखोगी। वह संघश्री मेरे सामने वैसे ही नहीं टिक पाएगा जैसे सिंह के सामने मतवाला हाथी भी नहीं टिक पाता। मैं देखता हूं उसके पाण्डित्य को। अरे ! वो तो क्या, अगर साक्षात् बुद्ध भी मुझसे शास्त्रार्थ करने आवें तो वह भी मेरे सामने कि नहीं सकते हैं। चला ! तुम संघश्री के शास्त्रार्थ की चुनौती स्वीकार करो।
रानी—(बहुत ही प्रसन्न होकर) प्रभो ! अब आप शहर के मंदिर में पधारें। (अकलंकदेव अपने शिष्यों के साथ शहर के मंदिर में ठहर जाते हैं। संघश्री के पास शास्त्रार्थ की चुनौती का पत्र पहुंचता है। उसकी लेखन शैली देखकर ही वह क्षुभित हो जाते हैं परन्तु आखिरकार शास्त्रार्थ के लिए तैयार हो ही जाते हैं।)
—अगला दृश्य—
(राजा हिमशीतल का दरबार खचाखच भरा है। एक ओर श्री अकलंकदेव विराजमान हैं दूसरी ओर बौद्ध धर्माचार्य संघश्री विराजमान हैं, उनकी-उनकी शिष्यमंडली उनके-उनके साथ है। सभी कौतुकवश बैठे हैं। राजा के संकेतानुसार शास्त्रार्थ प्रारम्भ होता है—
बौद्ध गुरू—क्या आत्मा का चिरकाल तक इस शरीर में रहना आप सिद्ध कर सकते हैं ?
अकलंकदेव—क्यों नहीं, यदि आत्मा का अस्तित्व इस शरीर में शरीर के रहने तक स्थायी नहीं है तो आपने आज से तीन दिन पूर्व जो शास्त्रार्थ की चुनौती दी थी वह कैसे याद रही और मेरे द्वारा चुनौती देने पर आप यहाँ कैसे आए हैं ? यदि आत्मा क्षणिक है तो मेरे प्रश्न-उत्तर के समय की आत्मा आपके शरीर में नहीं रही पुन: आप मेरे उत्तर को कैसे समझेंगे ?
संघश्री—वाह ! अकलंक महोदय ! आप इतना भी नहीं समझते हैं। अरे ! वस्तु व्यवस्था तो कुछ और है और व्यवहार तो कुछ और दिखता है। तीन दिन पूर्व के प्रकरण का स्मरण वासना है, संस्कार है। उस वासना से ही व्यवहार चलता है।
अकलंकदेव—संघश्री महोदय ! यह वासना सत्य है या असत्य। यदि असत्य है तो सारा लोकव्यवहार असत्य है, कल्पना रूप है और यदि सत्य है तो उसी का नाम आत्मा है जिसे आपने वासना कह दिया है। (संघश्री एक क्षण के लिए चुप हो जाते हैं तब अकलंकदेव प्रश्न करते हैं)
अकलंकदेव—बताओ ! तुम्हारा सुगत सर्वज्ञ है या नहीं ? यदि सर्वज्ञ है तो वासना से है या परमार्थ से। यदि वासना से है तो तीन लोक और तीन काल का ज्ञाता कल्पना मात्र से सिद्ध है और यदि परमार्थ से है तो तुम्हारे क्षण-क्षण नाश की व्यवस्था नहीं बनती है। (उनके प्रश्नोत्तर की शैली देख बौद्ध गुरु मन ही मन सोचते हैं)—
बौद्ध गुरु(मन में)—इस अकलंक से विजयी होना असम्भव है। (पुन: शाम होते-होते राजा से) राजन् ! यह धार्मिक विषय बहुत लम्बा है, इसका निष्कर्ष जल्दी होना कठिन है अत: यह लगातार चलना चाहिए, जब तक कि एक पक्ष निरुत्तर न हो जाए।
राजा—(अकलंकदेव से) महात्माजी ! संघश्री गुरु का ऐसा कथन आपको मान्य होना चाहिए।
अकलंकदेव—(निर्भीकता से) ठीक है ! मुझे मंजूर है।
राजा—अच्छा ! आज शास्त्रार्थ यहीं बन्द होता है कल पुन: इसी स्थान पर शास्त्रार्थ प्रारम्भ हो जाएगा। (सभा विर्सिजत हो जाती है। सभी अपने-अपने स्थान पर चले जाते हैं। अकलंकदेव की वाक्पटुता और बौद्धगुरू की पराजय समझ रानी संतोष की सांस लेती हैं और अकलंकदेव की आज्ञा से धर्म पर आए संकट को दूर हुआ समझ अन्न जल ग्रहण करती है। इधर बौद्ध गुरुओं के यहाँ खलबली मच जाती है। रात्रि में बौद्ध गुरू विद्वानों को बुलाने के लिए यत्र-तत्र शिष्यों को भेजते हैं और स्वयं चितित होकर अपने धर्म की अधिष्ठात्री देवी की आराधना करते हैं। उनकी प्रार्थना सुन तारादेवी प्रकट होती हैं)
—अगला दृश्य—
ध्यानमग्न बौद्ध गुरु के समक्ष तारादेवी प्रगट होकर—
तारादेवी—बोलो, क्या चाहते हो ? मेरे भक्तों ! आज तुम लोग इतने चितित और उदास कैसे हो ?
संघ श्री—हे भगवती ! अपने संघ पर बहुत बड़ा संकट आ पड़ा है, उसे दूर कर अब आपको बौद्ध धर्म की रक्षा करनी होगी। अकलंक बहुत बड़ा पंडित है उसे जीतना मेरे वश में नहीं अत: मैंने आपकी शरण ली है। आप स्वयं उससे शास्त्रार्थ करके बौद्धधर्म की रक्षा करिए अन्यथा यह धर्म रसातल में चला जाएगा।
तारादेवी—ठीक है, तुम चिता मत करो। मैं शास्त्रार्थ करूंगी परन्तु खुली सभा में नहीं। परदे के भीतर ही घड़े में रहकर मैं प्रश्नोत्तर पूछूंगी।
संघश्री—(प्रसन्न होकर) धन्य हो देवी ! धन्य हो ! आपकी जय हो, अच्छा अब आप जाएं, मेरी चिता दूर हो गई। (देवी चली जाती हैं। )
—अगला दृश्य—
प्रात:काल राजदरबार में सभा लगी है। पूर्ववत् सारी व्यवस्था है तब संघश्री उपस्थित होकर राजा से कहते हैं—
संघश्री—राजन् ! आप मैं बाहर सभा में बैठकर शास्त्रार्थ नहीं करूंगा अपितु परदे की ओट में बैठकर ही अपना पक्ष रखूंगा और प्रतिवाद भी करूंगा।
राजा—क्यों ! ऐसा क्यों !
संघश्री—महाराज ! हम किसी का मुख नहीं देखना चाहते हैं। आपके इस ‘क्यों’ का उत्तर हम शास्त्रार्थ समाप्त होने के बाद ही देंगे।
राजा—(उनके कपट को न जानकर) ठीक है, जैसी आपकी इच्छा। (राजा की आज्ञा से वैसी ही व्यवस्था हो जाती है। संघश्री परदे के अंदर शिष्यों के साथ बुद्ध भगवान की पूजा करते हैं, पुन: तारादेवी का आह्वान करके उन्हें घड़े में स्थापित कर देते हैं और स्वयं अंदर ही एक ओर बैठ जाते हैंं, इधर अकलंकदेव आते हैं तब उन्हें सारी बात पात लगती है, तब वे राजा से कहते हैं)—
अकलंकदेव—अरे राजन् ! ऐसा क्यों ! उन्हें सबके समक्ष बैठकर बोलने में संकोच क्यों ?
राजा—महात्मन् ! मेरे गुरु की ऐसी ही इच्छा है उसमें आपको एतराज नहीं होना चाहिए।
अकलंकदेव—ठीक है, कोई बात नहीं। अच्छा तो संघश्री महोदय ! पहला प्रश्न आप ही कीजिए। अकलंकदेव के ऐसा कहते ही प्रश्न प्रारम्भ होता है, अकलंकदेव उनका उत्तर देते जाते हैं। उनके सटीक उत्तर से सभा बहुत प्रसन्न होती है परन्तु घड़े की देवी अकलंकदेव के साथ पूर्ण शक्ति से छ: माह तक शास्त्रार्थ करती रही। दोनों में से किसी की भी विजय नहीं हो पाई। अब अकलंकदेव को चिन्ता हुई कि जो संघश्री पहले मेरे सामने एक दिन भी नहीं टिक सका वह छह माह से लगातार शास्त्रार्थ कर रहा है इसका क्या कारण है ? उन्हें चिन्तित अवस्था में एकान्त स्थान में बैठे देख चक्रेश्वरी माता ने प्रगट होकर कहा—
—अगला दृश्य—
चक्रेश्वरी माता—(प्रकट होकर) हे प्रभो ! आपसे शास्त्रार्थ करने की शक्ति मनुष्य मात्र में नहीं हैं। संघश्री ने तारादेवी का आह्वान कर उन्हें घड़े में स्थापित किया है, वही इतने दिनों से शास्त्रार्थ कर रही हैं, आज प्रात: शास्त्रार्थ के समय देवी जिस विषय का प्रतिपादन करे उसे पुन: दोहराने को कहना। वह दोहरा नहीं सकेगी और उसे नीचा देखना पड़ेगा। (प्रात: अकलंकदेव प्रसन्नमना जिनमंदिर में भगवान के दर्शन कर राज्यसभा में आए और उन्होंने राजा से कहा—
अकलंकदेव (राजा से)—राजन् ! मैंने इतने दिनों तक संघश्री के साथ शास्त्रार्थ किया यद्यपि मैं संघश्री को समय मात्र में हरा देता पर मैंने जिनशासन का प्रभाव दिखाने के लिए इतना समय लगाया। अब मैं इसका अंत करना चाहता हूँ। अब मैं इस वाद-विवाद को समाप्त करके ही आहार ग्रहण करूंगा। (पुन: अकलंकदेव परदे की ओर देखकर)—क्या जैनधर्म के विषय में कुछ और समझना बाकी है या मैं शास्त्रार्थ समाप्त करूं। परदे के पीछे से—बौद्ध सम्प्रदाय में चार आर्य सत्य माने गए हैं, जब इन्हीं से काम चल जाता है तब जैनों ने सात तत्त्व क्यों माने हैं ?
अकलंकदेव—आपने जो विषय कहा है, उसे पुन: दोहराइए। (इतना कहते ही देवी कुछ न बोल सकी। अकलंकदेव कुछ क्षण प्रतीक्षा करते रहे। पुन: उठकर परदे की तरफ गए और पर्दा फाड़कर अंदर घुस गए जहाँ घड़े में देवी का आह्वान किया गया था। उस घड़े को वे पैर की ठोकर से फोड़ डालते हैं। उस समय तारा देवी अपमानित होकर भाग खड़ी होती है। संघश्री आदि इस अपमान से बुरी तरह पराजित हो जाते हैं और अपना मुंह लटकाए खड़े रह जाते हैं। अकलंकदेव की इस विजय से और जैनधर्म की अतिशय प्रभावना से रानी और जनता बहुत आनन्दित हो जाती है तब अकलंकदेव कहते हैं—
अकलंकदेव—हे सज्जनों ! इस धर्मशून्य संघश्री को तो मैंने पहले ही दिन पराजित कर दिया था, इतने दिन तक तो मेरा शास्त्रार्थ तारादेवी के साथ चल रहा था। (पुन: राजा से)—हे राजन् ! जिस प्रकार आपके समान राजा इस संसार में दुर्लभ हैं वैसे ही विद्वान तो बहुत हैं परन्तु सभी विषयों में कुशल मेरे समान विद्वान कोई नहीं है। (पुन: सभासदों से) हे सभासदों ! राजा हिमशीतल की सभा में मैंने बौद्ध विद्वानों को पराजित किया सो यह मैंने न तो अभिमान के वश किया है और न ही द्वेषभाव से किन्तु नास्तिक, शून्यवादी बनकर नष्ट होते हुए उन लोगों पर मुझे बहुत करुणा आयी अत: मुझे ऐसा करना पड़ा।
राजा हिमशीतल—(बौद्धों से) अरे धूर्तों ! मुझे नहीं मालूम था कि तुम लोग इतने मायाचारी हो। जब तुममें शास्त्रार्थ की सामथ्र्य नहीं थी तब तुमने स्पष्ट क्यों नहीं कहा। बड़े आश्चर्य की बात है कि तुमने तारादेवी को घड़े में स्थापित कर विजय पाने की सोच रखी थी परन्तु सत्य ही है कि विजय तो सत्य की ही होती है।
पुन: अकलंकदेव से—धन्य है, धन्य है प्रभो ! आपको बहुत-बहुत धन्यवाद। आपकी जय हो प्रभो ! जो आपने हम अज्ञानी प्राणियों को मिथ्यात्वरूपी घोर अन्धकार से निकालकर अनेकान्तमयी प्रकाश दिया। अगर आप आज इस भूतल पर न होते तो हमें इस संसार समुद्र से निकालकर मोक्षमार्ग में कौन लगाता। हे प्रभो ! आप हम सभी को जैनधर्म की दीक्षा देकर सम्यक्त्व प्रदान कीजिए।
अकलंकदेव—हे भव्य जीवों ! सच्चे देव, शास्त्र, गुरू की शरण छोड़कर अन्य कोई शरण नहीं है और इन पर श्रद्धान करना ही सम्यग्दर्शन है। देखो ! नि:शकित आदि आठ अंगों को धारण करना चाहिए और शंका आदि पच्चीस दोषों का त्याग करना चाहिए। (सभी मस्तक झुकाकर जैनधर्म स्वीकार करते हैं, अनेक बौद्ध साधु व उनके अनुयायी भी कहते हैं— हे गुरुदेव ! हम लोग भी इस शून्यवाद को छोड़कर आपकी शरण में आए हैं अत: हमें भी सन्मार्ग में दीक्षित कीजिए। (अकलंकदेव उन सभी को जैन बना देते हैं, तब तरफ जैनधर्म की जय-जयकार होती है और धूमधाम से रानी का रथोत्सव कार्यक्रम सम्पन्न होता है।)