(आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी के जीवन पर आधारित -एक रोमांचक नाटिका)
स्तुति—वीरकुमार जैन, डालीगंज (लखनऊ)
मैं समय हूँ। जो कुछ भी इस भारत की वसुधा पर घटित हुआ वह सब मैंने मात्र देखा नहीं बल्कि गहराई से अनुभव करते हुए हर एक क्षण को जिया है। सर्वप्रथम पहला काल आया, फिर दूसरा, फिर तीसरा और फिर चौथा काल, उस काल में तो अनेक तीर्थंकर भगवन्त मुक्तिरमा के स्वामी बन गए, कितनी महान आत्माओं ने अपने जीवन का कल्याण कर लिया और अब आया पंचम काल, जब चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज जैसे महामुनि ने कठोर तपश्चरण करते हुए अनेक उपसर्ग सहे और स्वर्ग में इन्द्रादिक पदवी पाई, यह सब मैंने देखा और फिर मैंने देखा कि इस पंचम काल में बीसवीं सदी की छोटी सी सुकुमारी कन्या ने किस प्रकार ब्राह्मी-चन्दनबाला के पथ को अपनाते हुए समाज के इतने संघर्षों को झेलकर क्वांरी कन्याओं के लिए त्याग का मार्ग प्रशस्त कर दिया, उन माता मोहिनी को भी देखा जिन्होंने मैना सहित अपनी तेरह सन्तानों को जन्म देकर धर्म के संस्कारों से उन्हें ऐसा सिंचित किया कि उनके सभी पुत्र-पुत्रियों ने उस त्यागमार्ग को अंगीकार करने का स्तुत्य प्रयास किया परन्तु कर्मों की प्रबलता या विधि का विधान कि उनमें से तीन पुत्रियों और एक पुत्र ने उस वैराग्य मार्ग को ग्रहण किया, स्वयं माता मोहिनी ने पति की सुन्दर समाधि बनवाने के बाद दीक्षा धारण कर पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के सानिध्य में सन् १९८५ में अपनी सुन्दर समाधि बनाई तथा उनके शेष पुत्र-पुत्रियों ने गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए, दान-पूजादि षट्आवश्यक का पालन करते हुए गृहस्थी का कुशल संचालन किया और आगे की पीढ़ी में धर्म के संस्कार डाले, यह सब मैंने देखा है। उसे बताने में, उस परिवार के एक-एक व्यक्ति का जीवन बताने में मैं स्वयं को भी अक्षम पा रहा हूँ, पर क्या करूं, मैं समय जो हूँ, मुझे तो सब कुछ देखना है, फिलहाल तो मैं आपको उसी मैना अर्थात् जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी, गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के चुम्बकीय व्यक्तित्त्व से अपने जीवन को पारस सम बनाने वाली एक कन्या के जीवन के कुछ अनुकरणीय क्षणों से परिचित करवाने ले चलता हूं। यह घटना है आज से ५५ वर्ष पूर्व की, मैं समय, आपको ले चलता हूं उस धर्मपरायण संस्कारित परिवार के मध्य, जहां माता मोहिनी की एक-एक करके ग्यारह सन्तानें जन्म ले चुकी हैं जिनमें से दो कन्याएँ वैराग्य पथ पर कदम बढ़ाकर आर्यिका पदवी को सुशोभित करते हुए जिनधर्म की महान प्रभावना करने के साथ-साथ अपने माता-पिता, परिवार, समाज व देश का नाम रोशन कर रही हैं और अब उस कन्या का जन्म होने वाला है जिसने अमावस्या में जन्म लेकर र्पूिणमा के शुभ्र चन्द्र की अमृतमयी किरणों से ज्ञानामृत प्राप्त कर न सिर्फ अपने जीवन को आलोकित किया अपितु अनेक भव्यात्माओं को मोक्षमार्ग का पथिक बना दिया। १८ मई सन् १९५८, ज्येष्ठ कृष्णा अमावस्या, आज माता मोहिनी ने पुनः एक कन्यारत्न को जन्म दिया है परन्तु यह क्या कन्या के जन्म पर पटाखे क्यों छुड़ाए जा रहे हैं, क्या उस परिवार में कन्या के जन्म से इतनी खुशी होती है ? भई मैं तो जाकर जरूर देखूंगा क्योंकि मैं तो समय हूूँ—(चला जाता है)
—प्रथम दृश्य—
(बाराबंकी जिले के ग्राम टिकैतनगर में जिनमंदिर के नजदीक स्थित लाला श्री छोटेलाल जी का निवास स्थान, बाहर कुछ लोग खुशी मनाते हुए पटाखे छुड़ा रहे हैं। वहाँ की प्रान्तीय परम्परा है कि जब पुत्र की प्राप्ति हो तब ऐसा किया जाता है। आवाज सुनकर आस-पास के लोग आपस में वार्ता करते हैं)
एक श्रावक—अरे भाई कस्तूरचंद! क्या हुआ ? यह आवाज कैसी ?
कस्तूरचन्द—अरे भाई ! लगता है किसी के घर पुत्र का जन्म हुआ है। (तभी एक श्रावक मदनलाल उधर से आते हैं)
मदनलाल—भइया! पुत्र-नहीं पुत्री का जन्म हुआ है।
दोनों—(आश्चर्य से) पुत्री का ? फिर यह आवाज ?
मदनलाल—हाँ हाँ भाई, पुत्री का, अरे लाला छोटेलाल जी अपनी पुत्रियों को रतन मानते हैं, तुमने देखा नहीं उनके परिवार को…………. (तभी उधर से छोटेलाल जी निकलते हैं) तीनों—अरे लालाजी! जयजिनेन्द्र !
छोटेलाल—जय जिनेन्द्र, भाई जयजिनेन्द्र! कस्तूरचंदजी—बधाई हो लाला, सुना है लड़की हुई है। (व्यंग्य से) क्यों भई! आठवीं कन्या, दो लाख का हुण्डा फिर से आ गया। (हंसने लगते हैं)
लालाजी—(थोड़ा नाराज होकर) देखो भाई! मेरी बेटियों को कुछ भी मत कहना, मेरी बेटियां अपनी किस्मत अपने साथ लाई हैं फिर भला वे मेरा क्या ले जाएंगी, जो ले जाना है अपने भाग्य का ले जाएंगी, देखो! आज के बाद मेरी बेटियों को कुछ भी कहने की जरूरत नहीं है।
कस्तूरचंद जी—अरे, अरे! तुम तो नाराज हो गए मैं तो मजाक कर रहा था।
छोटेलाल जी—देखो! मुझे इस तरह के मजाक कतई पसन्द नहीं हैं मेरी सब पुत्रियाँ कन्यारत्न हैं कन्यारत्न।
सभी—हां भाई, ठीक कहते हो। (लालाजी चले जाते हैं, सभी आपस में वार्ता करते हैं)
मदनलाल—देखो! मैं कह रहा था ना कि ये अपनी एक-एक पुत्री को कन्यारत्न समझते हैं।
श्रावक—हां भाई! अब देखो, इनकी दो-दो बेटियों ने आर्यिका दीक्षा लेकर हमारे गांव का नाम रोशन कर दिया है।
कस्तूरचंद जी—कहते तो तुम ठीक हो! बिटिया मैना ने तो ऐसा महान काम किया है कि यह ही नहीं, हम सब धन्य हो गए।
मदनलाल—हाँ, लालाजी और इनकी धर्मपत्नी में धर्म के संस्कार भी बहुत हैं कितना भी टाइम क्यों न हो जाए, बिना देवदर्शन किए पानी भी नहीं पीते हैं।
श्रावक—सच बेटी हो तो मैना जैसी। अच्छा, चलते हैं, नहीं तो देर हो जाएगी। (सभी चले जाते हैं। उधर लालाजी श्रावक के षट् आवश्यक कत्र्तव्यों का पालन करते हुए अपनी सन्तानों का उचित पालन-पोषण कर रहे हैं। माता मोहिनी रानी मदालसा की भाँति अपने बच्चों में धर्म के संस्कारों को प्रत्यारोपित कर रही हैं। सभी बालक-बालिकाएं चन्द्रमा की कलाओं की भाँति वृद्धि को प्राप्त हो रहे हैं। कुछ पुत्र-पुत्रियों का विवाह भी सम्पन्न हो चुका है, नाती-पोते से संयुक्त इस परिवार में बालिका माधुरी भी सभी का स्नेह प्राप्त करते हुए शनै: शनै: बाल्यावस्था से कुमारावस्था में आ जाती है और अपनी प्यारी-प्यारी बातों से सभी के मन को प्रसन्न करती रहती है)। एक बार की बात है, बालिका माधुरी अपनी सखियों के साथ खेल रही है, तभी एक श्रावक कौतुकवश बच्चों का खेल देखने के लिए वहीं रुक जाते हैं और माधुरी की तीक्ष्ण बुद्धि का ही मानो परीक्षण करते हुए उससे पूछते हैं—
—द्वितीय दृश्य—
श्रावक—अरे बिटिया! जरा सुनो तो। (इशारे से बुलाते हैं)
माधुरी—जी ताऊजी! आपने मुझसे कुछ कहा क्या ?
श्रावक—हाँ बेटी (प्यार से सिर पर हाथ फेरकर) क्या नाम है तुम्हारा ? तुम तो खेल में बहुत होशियार हो, तुम्हारे पिताजी का क्या नाम है ?
माधुरी—जी ! मेरा नाम माधुरी है, मैं श्री छोटेलाल जी की बेटी हूँ और मैं तो खेलने बहुत कम आती हूं, आज इन लोगों ने जिद की, तो आ गई।
श्रावक—ऐसा क्यों भाई! माधुरी—ऐसा इसलिए, क्योंकि माँ कहती हैं कि खेल में कुछ भी नहीं रखा, मुझे दर्शनकथा, शीलकथा पढ़कर सुनाया करो।
श्रावक—(आश्चर्य से) अच्छा! अब यह बताओ तुम्हारा इतना प्यार नाम किसने रखा है, क्या पिताजी ने ?
माधुरी—नहीं ताऊजी! माँ कहती हैं कि मेरा नाम मेरी बड़ी बहन मैना जीजी ने रखा है जो ज्ञानमती माताजी के रूप में हैं।
श्रावक—सच बेटा, धन्य हो तुम, जो ज्ञानमती माताजी जैसी प्रकाण्ड विद्वान और चारित्रनिष्ठ माताजी की बहन बनने का सौभाग्य तुम्हें प्राप्त हुआ है। अच्छा, यह बताओ! क्या तुमने माताजी के दर्शन किए हैं?
माधुरी—जी नहीं! बस सुना है कि मेरे जन्म से पहले ही मेरी दो बहनें माताजी बन गई हैं पर पिताजी कहते हैं कि उनके पास नहीं जाना, नहीं तो वह तुम्हारे बाल नोंच देंगी।
श्रावक—(जोर से हंसकर) अच्छा! ऐसा कहते हैं तुम्हारे पिताजी! अरे! वे माताजी तो पूरे संसार में पूज्य हैं। अच्छा बेटी! तुम्हारी उम्र कितनी है ?
माधुरी—जी आठ साल।
श्रावक—अच्छा बेटी! जाओ, खेलो। (सभी बच्चों से) चलो भई, सब अपना-अपना खेल प्रारम्भ करो। (कहकर चले जाते हैं किन्तु माधुरी के मन में माताजी के दर्शन की इच्छा जागृत हो जाती है, वह सोचती है कैसी होंगी मेरी बहन, क्या करती होंगी, कैसे खाती होंगी, खैर! बाल मन, भाई-बहनों और माता-पिता के स्नेह में सब भूलकर अपने दैनिक कार्यों में लग जाती है। छोटी सी माधुरी में बचपन से ही विलक्षणता दृष्टिगत होने लगती है, कहते हैं कि पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं। माधुरी सदैव अपनी मां से चिपकी रहती थी, मां से अत्यधिक स्नेह के कारण वह उनके साथ ही दोनों टाइम मंदिर जाती-आती थी, वह ही क्या! कई बार सारे बच्चे मां के साथ मंदिर भाग जाते थे जिससे मोही पिता को खाली घर बहुत खराब लगता और वह कभी-कभी नाराज भी हो जाते थे लेकिन पिता का नाराजगी में निकला वह आशीर्वाद रूप शब्द माधुरी के जीवन में वरदान बन गया)।
—तृतीय दृश्य—
शाम का समय है, मोहिनी देवी मंदिर जा रही हैं, सारे के सारे बच्चे उनके साथ चल देते हैं तब पिताजी नाराज हो जाते हैं—
मोहिनी—(बच्चों से) अच्छा बच्चों ! सब यहीं पिताजी के पास रुको, मैं थोड़ी देर में मन्दिर होकर आती हूूं।
सभी बच्चे—(एक स्वर में) नहीं, हम भी मन्दिर चलेंगे।
पोता जम्बू—दादी, हम भी मंदिल जाएंगे।
मोहिनी—(हंसकर) अच्छा,बाबा! चलो सब चलो, पर वहां शोर मत करना।
बच्चे—ठीक है मां। (सभी चलने के लिए उद्यत होते हैं तभी)
छोटेलाल जी—(मजाक उड़ाते हुए) वाह, वाह! क्या बात है। शाम हुई नहीं कि धर्मपत्नी जी चल दीं मन्दिर और साथ में पूरी टोली लटक ली। इन्जन चला नहीं कि डिब्बे लग लिए पीछे। (डांटकर) चलो, बैठो सब यहां, मां को मन्दिर जाने दो, तुम लोग वहां जाकर केवल शोर करोगे।
बच्चे—(डरकर) ठीक है पिताजी, जैसा आप कहें।
माधुरी—(मचलते हुए) मैं नहीं रुकूगी, मैं मां के साथ ही मन्दिर जाउगी, वहां शोर भी नहीं करूंगी, दर्शन करके वापस आ जाऊंगी।
छोटेलाल—(हंसकर) अच्छा, ठीक है जाओ। (माधुरी मां के साथ मन्दिर जाकर भगवान के दर्शन करती है, माँ दर्शन, आरती व शास्त्र स्वाध्याय कर वापस आती हैं तभी साथ ही साथ वापस आती है। मां के प्रति उसका इतना लगाव देख पिताजी कहते हैं)
छोटेलाल जी—मैना की मां ! यह माधुरी बिटिया हमेशा तुम्हारे साथ चिपकी रहती है, ऐसा लगता है कि यह सारी जिन्दगी तुम्हारी सेवा करेगी। (पुनः माधुरी से) सुनो बिटिया! बेटी पराया धन होती है, मां से इतना मोह करना अच्छा नहीं है, आखिर तुम्हें भी तो एक न एक दिन अपनी ससुराल जाना पड़ेगा, फिर तुमको भी कष्ट होगा और तुम्हारी मां को भी, समझीं।
माधुरी—(मन ही मन सोचते हुए भगवान से प्रार्थना करती है) हे भगवान! मेरा कभी भी अपनी मां से दूर होने का मन नहीं करता, लगता है कि सारी जिन्दगी उनकी सेवा करती रहूं। काश! पिताजी के ये शब्द मेरे जीवन में फलीभूत हो जावें और मैं सच में अंत तक उनकी सेवा करती रहूं। (बन्धुओं! पिताजी के मधुर शब्द आज भी कु. माधुरी के कानों में गूंजते रहते हैं, हों भी क्यों न, पिताजी का वह आशीर्वाद ही था कि माधुरी जी ने अन्त समय तक अपनी मां की सेवा कर उनकी सुन्दर समाधि बनवाने में अपना पूर्ण योगदान दिया। समय कब पंख लगाकर उड़ जाता है पता ही नहीं चलता, माधुरी अब पूरे ग्यारह वर्ष की हो चुकी थी। सन् १९६९, आश्विन माह था, उस समय माधुरी के बड़े भाई प्रकाशचंद जी अपनी धर्मपत्नी श्रीमती ज्ञाना देवी के साथ माताजी के दर्शनार्थ जयपुर जा रहे थे। उस समय माधुरी की बचपन से दबी इच्छा जागृत हो उठी और उन्होंने वहां जाने की जिद कर दी, अब बालहठ के आगे तो अच्छे-अच्छे परास्त हो जाते हैं, पिताजी के लाख भय दिखाने और लालच देने पर भी वह नहीं रुकी और यही वह पुण्यमयी क्षण था जब प्रथम दर्शन से ही उनके मन में वैराग्य का अंकुर प्रस्फुटित हो गया)
-चतुर्थ दृश्य-
छोटेलाल जी अपनी धर्मपत्नी एवं पुत्र प्रकाशचंद से वार्ता कर रहे हैं, पास में बहू एवं पुत्री माधुरी बैठी हैं—
छोटेलाल जी—बेटा प्रकाश! तुम्हारी पूरी तैयारी हो गई ?
प्रकाशचंद —जी पिताजी! छोटेलाल जी—अच्छा ! आहारदान के लिए सामान रख लिया ना।
प्रकाशचंद—जी, सब चीज रख ली, बस अब जाने का समय आने वाला है,रात की गाड़ी है। (तभी माधुरी पिताजी के गले में हाथ डालकर प्यार से कहती है)
माधुरी—पिताजी! हम भी माताजी के दर्शन करने जाएंगे।
छोटेलाल जी—(स्नेह से) अरे मेरी दुलारी बिटिया! कहां जाओगी वहां ? मैं तुमको अच्छे-अच्छे कपड़े और खिलौने लाकर दूंगा, त्रिशला बिटिया के साथ खेलना, भला वहां जाकर क्या करोगी ?
माधुरी—(हठ करके) नहीं, मुझे माताजी के दर्शन करने जाना है, मैं कुछ नहीं जानती, मैंने तो अभी तक उन्हें देखा भी नहीं है। फिर यह वीरकुमार तो मेरे बिना रह भी नहीं पाता है।
छोटेलाल जी—(गम्भीर होकर) बिटिया ! ज्ञानमती माताजी बड़ी खराब हैं, सबके बाल नोच देती हैं, तेरे भी नोच देंगी, मत जाना वहां।
माधुरी—कहीं कोई बच्चों के बाल नोचता है ? वह तो मेरी बड़ी बहन हैं, मुझे तो जाना है, मैं भइया के साथ वापस आ जाऊंगी।
छोटेलाल जी—(भरे कंठ से) अच्छा ठीक है जाओ, जल्दी आना, मेरा तुम सबके बिना घर में मन नहीं लगता। (माधुरी आखिरकार पिताजी को मना लेती हैं और भैय्या-भाभी के साथ संघ के दर्शनार्थ जयपुर पहुंच जाती हैं, माताजी के प्रथम दर्शन कर एक बार तो उनकी मुद्रा देख वह अचरज में पड़ जाती हैं लेकिन संस्कारों का प्रभाव कि उस खेलने की उम्र में ब्रह्मचर्य व्रत लेने को उद्यत हो जाती हैं)
-पांचवां दृश्य-
आचार्य श्री धर्मसागर महाराज का संघ है, पूज्य माताजी वहीं विराजमान हैं, सभी पहुंचकर श्रीफल चढ़ाकर उनके दर्शन करते हैं।
सभी लोग—(क्रम-क्रम से दर्शन करते हुए) नमोऽस्तु महाराज जी! नमोऽस्तु महाराज जी! वन्दामि माताजी, वन्दामि माताजी।
माधुरी—(मन ही मन मुस्कुराते हुए) (मन में) अच्छा! तो यही माताजी हैं,कैसा वेष है, सिर पर एक बाल नहीं हैं, क्या यही मैना जीजी हैं ? (दर्शन कर वापस कमरे की ओर जाते हुए खिलखिला हंसकर भाई से कहती हैं)—भइया! क्या यही मुंडे सिर वाली माताजी हमारी बड़ी बहन हैं, इनके पास तो कुछ भी नहीं है, बस एक साड़ी है, पीछी-कमण्डलु, चटाई बस (हंसती है) भाभी! सच बताऊँ, मुझे तो वहीं बहुत हंसी आ रही थी पर किसी तरह मैंने स्वयं को रोके रखा।
प्रकाशचंद जी—(समझाते हुए) अरे बिटिया! जैन साधु को हंसा नहीं जाता, तुम तो बहुत अच्छी बच्ची हो, ये बहुत महान पदवी की धारक आर्यिका माताजी हैं। चलो मैं तुम्हें दिखाता हूँ कि इनमें से हमारी बड़ी बहन ज्ञानमती माताजी कौन हैं। चलो, पहले कुछ खा पी लो, फिर हम माताजी के पास चलेंगे।
माधुरी—ठीक है भइया! (सभी भोजन करके वापस आते हैं, भाई प्रकाशचंद्र जी बहन माधुरी को माताजी के पास उनके दर्शन करवाने ले जाते हैं।)
प्रकाशचंद जी—(नमस्कार करते हुए) वन्दामि माताजी! आपका रत्नत्रय कुशल तो है ?
माताजी—सद्धर्मवृद्धिरस्तु! कहो प्रकाश, कैसे हो ? तुम तो यहां से जाने के बाद अब विवाह के इतने दिनों पश्चात् आए हो ?
प्रकाशचंद जी—(गहरी श्वांस लेकर) हां माताजी! शायद विधि को यही मंजूर था तभी तो आपके पास रहने की इच्छा मन में ही रह गई।
माताजी—अच्छा, बताओ कौन-कौन आया है ?
प्रकाशचंद जी—माताजी ! यह मेरी पत्नी ज्ञानादेवी हैं, यह पुत्र वीरकुमार है, यह छोटी बेटी माला है, यह कैलाश भाई साहब की बड़ी बेटी मंजू है और यह छोटी बहन माधुरी है। यह पहली बार जिद करके आपके दर्शन करने आई है, बहुत ही होशियार लड़की है।
माताजी—अच्छा माधुरी! तुम्हें यहां आकर कैसा लगा ?
माधुरी—बहुत अच्छा लगा माताजी। माताजी—अभी तो तुम्हारी पढ़ाई चल रही होगी, कुछ धार्मिक अध्ययन भी किया है ?
माधुरी—जी माताजी, स्कूल जाती हूँ और र्धािमक पढ़ाई में अभी छहढ़ाला की परीक्षा दी है।
माताजी—बहुत अच्छी बात है। अब जाओ सब आराम करो। सभी—ठीक है माताजी, वन्दामि! (सभी चले जाते हैं। अपने कमरे में आकर आराम करते हैं पुनः अगले दिन संघस्थ साधुओं को आहारदान एवं उनकी वैय्यावृत्ति आदि करते हैं। एक-दो दिन बीतने के बाद माताजी एक दिन माधुरी को बुलाकर उसे कुछ पढ़ाती हैं और–
माधुरी—(माताजी को नमस्कार कर) वन्दामि माताजी!
माताजी—सद्धर्मवृद्धिरस्तु! कहो माधुरी, ठीक तो हो।
माधुरी—जी माताजी! माताजी—अच्छा यह बताओ! संस्कृत पढ़ना आता है।
माधुरी—अवश्य माताजी! मैं पढ़ सकती हूँ।
माताजी—(एक पुस्तक देकर) अच्छा, जरा यह पढ़कर सुनाओ।
माताजी—(प्रसन्न होकर) अरे वाह! तुम्हारा उच्चारण तो बहुत ही शुद्ध है। अच्छा, अगर मैं तुम्हें कुछ पढ़ाऊं तो पढ़ोगी?
माधुरी—जरूर माताजी, जरूर पढूंगी। (उस समय माताजी ने कन्या माधुरी को गोम्मटसार जीवकाण्ड के दो श्लोक पढ़ाकर दूसरे दिन सुनने को कहा और मात्र ११ वर्ष की अल्पायु में एक-एक कर गोम्मटसार जीवकाण्ड की ३५ गाथाएं पढ़ाई जिसे उन्होंने शुद्धतापूर्वक कंठाग्र कर सुना दिया, माताजी को उनकी विलक्षण प्रतिभा देख उन्हें धर्ममार्ग में लगाने की इच्छा जागृत हो उठी और उन्होंने उसे थोड़ा सा सम्बोधन प्रदान किया)
माताजी—माधुरी! तुम्हारी बुद्धि बहुत ही तीक्ष्ण है, तुम जैसी होनहार कन्याएं अगर धर्म के मार्ग पर चलें तो न जाने कितने जीवों का कल्याण कर सकती हैं। यह संसार तो असार है, इसमें हमने न जाने कितनी बार जन्म-मरण किया है लेकिन अगर इस दुख से छूटना है तो यह मार्ग ही सबसे उत्तम है, समझीं।
माधुरी—माताजी! मुझे भी यहां बहुत अच्छा लगता है, मैं भैय्या से पूछकर कुछ दिन आपके पास रह जाती हूं। मैं अभी आई, वन्दामि माताजी! (यह कहकर माधुरी भैय्या के पास पहुंच जाती है, वहां भाई-भाभी जाने की तैयारी कर रहे हैं, माधुरी को देखकर भैय्या कहते हैं)—
प्रकाशचंदजी—माधुरी! अब हमें वापस जाना है, तुम्हारा कोई सामान और रखने वाला तो नहीं है ?
माधुरी—भैय्या! अगर मैं भी यहीं माताजी के पास रह जाऊं तो!
प्रकाशचंदजी—(आश्चर्य से) क्या! अरे यह कोई हंसी खेल थोड़े ही है, तुम जैसे बच्चे क्या जानें त्याग का मतलब। और फिर देखा था पिताजी कैसे परेशान हो रहे थे, वैसे भी उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है इसलिए अब हमें घर जाना है।
माधुरी—ठीक है भैय्या! (तैयारी करके सभी माताजी के दर्शन करने पहुंचते हैं तब माधुरी अलग से माताजी से कहती है)
माधुरी—माताजी! क्या मैं आपके पास रह सकती हूं ? क्या मेरी उम्र यहां रहने की है ?
माताजी—हाँ, क्यों नहीं, भला त्याग की कोई उम्र होती है।
माधुरी—(आँखों में चमक आ जाती है) माताजी ! मुझे भी ब्रह्मचर्य व्रत दे दो, मैं शादी नहीं करुंगी।
माताजी—(हंसकर) अच्छा, ठीक है। तुम कुछ दिन और मेरे पास रहो फिर मैं तुम्हें व्रत दे दूंगी।
माधुरी—ठीक है माताजी ! मैं भैय्या के साथ महावीर जी में लड्डू चढ़ाकर वापस आ जाऊंगी।
माताजी—बहुत अच्छा! मैं मोतीचन्द को तुम्हारे साथ भेज देती हूं, तुम उनके साथ आ जाना।
माधुरी—जी, माताजी! (माताजी ने उस समय उन्हें वहां रहने के लिए खूब घूंटी पिलाई और माधुरी ने भी हां-हां कर दिया, फिर जब जाने का समय आया तो मोहवश भैय्या के साथ चली तो आर्इं लेकिन चुपचाप माताजी से दो वर्ष का ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया। सभी वापस घर आ गए, पिताजी माधुरी को वापस आया देख उसे सीने से लगा लेते हैं, माधुरी अपनी पढ़ाई में लग जाती हैं। कुशाग्र बुद्धि की धनी माधुरी केवल कुटुम्ब ही में नहीं अपितु पाठशाला में भी अपने शिक्षकों एवं सहपाठियों में लोकप्रिय थीं और प्रशंसा की पात्र थीं। उस विद्यालय काल से ही विलक्षण प्रतिभा की धनी कन्या माधुरी लेखन कार्य करने लगी थीं और उस लेखन प्रतिभा ने ऐसा चमत्कार दिखाया कि आज तक उनके द्वारा लगभग १७५ पुस्तकों का लेखन, टीका आदि हो चुके हैं और जन-जन में चेतना का संचार करते हुए जग को नूतन दिशा दिखा रहे हैं। पढ़ाई के बाद माधुरी सहेलियों के साथ घर आ जाती हैं। इस समय जैन मुहल्ले में बड़ी चहल-पहल है क्योंकि टिकैतनगर में मुनि श्री सुबलसागर महाराज का संघ आया हुआ है। सभी आहार-वैयावृत्ति आदि कर रहे हैं, पूरा माहौल धर्ममय है, माधुरी भी महाराजजी के दर्शनार्थ जाती हैं तब महाराजजी कहते हैं)
-छठा दृश्य-
मंदिरजी में महाराज जी विराजमान हैं। माधुरी पहुंचकर दर्शन करती हैं—
माधुरी—नमोऽस्तु महाराज जी! नमोऽस्तु।
महाराज—सद्धर्मवृद्धिरस्तु! माधुरी! तुम भाई के साथ ज्ञानमती माताजी के दर्शन करने गई थीं, शायद पहली बार दर्शन किए, कैसा अनुभव आया तुम्हें ?
माधुरी—जी महाराज जी, मुझे वहां बहुत अच्छा लगा, माताजी बहुत विद्वान हैं।
महाराज—सुना है कि उनके पास जो भी जाता है वह उसे वैराग्य की शिक्षा देती हैं, क्या तुम्हें नहीं दिया ?
माधुरी—जी महाराज जी, समझाया भी और अध्ययन भी करवाया।
महाराज—अध्ययन! क्या पढ़ा तुमने ?
माधुरी—मैंने उनसे गोम्मटसार की ३५ गाथाएँ पढ़ीं और सुना भी दीं।
महाराज—(आश्चर्य से) गोम्मटसार! अच्छा! वह तो बड़ा ऊँचा विषय है,
जरा मुझे भी सुनाओ! माधुरी—जी! पडमिय सिरसाणेिंम गुणरयण विभूषणं महावीरं ………. (इस प्रकार शुद्धतापूर्वक क्रम-कम से ३५ गाथाएँ सुना देती हैं। (महाराज जी कौतुकवश सुनते हैं और आश्चर्य से कहते हैं) कै—वाह बेटी वाह! क्या तीव्र क्षयोपशम है, इतनी छोटी उम्र में इतना शुद्ध और स्पष्ट उच्चारण, तुम बहुत ही नाम कमाओगी, माधुरी! वह माता धन्य हैं जिसने तुम जैसी सन्तानों को जन्म दिया, अब तुम रोज आकर मुझे यह गाथाएँ सुनाना। कै—जी महाराज जी, नमोऽस्तु! (महाराज उसे पिच्छी लगाते हैं और वह चली जाती हैं तथा प्रतिदिन आकर उन्हें गोम्मटसार की गाथाएँ भी सुनाती हैं। इस प्रकार धर्म में संलग्न रहते हुए विद्याध्ययन की श्रेणी में माधुरी ने हाईस्कूल की पढ़ाई प्रारम्भ कर दी। सन् १९७१ का वह समय, जब पिताजी के स्वर्गवास के बाद माता मोहिनी बड़े पुत्र कैलाशचंद, पुत्रवधू चंदारानी, पोते जम्बू, पोती मंजू के साथ दशलक्षण पर्व में माताजी के दर्शनार्थ अजमेर जा रहीं थीं, उस समय माँ को न छोड़ने वाली माधुरी भी उनके साथ चली गईं, किन्तु तब १३ वर्षीय माधुरी को शायद यह नहीं पता था कि अब मेरा भाग्य मेरे उन्नत भविष्य की प्रतीक्षा कर रहा है और यह द्वितीय दर्शन मेरे जीवन को ही बदल देगा। सभी अजमेर पहुंचकर साधुओं के दर्शन करके माताजी के दर्शन करते हैं—
-सातवां दृश्य-
माता मोहिनी देवी आदि सभी लोग वहां पहुंचकर प्रथमतः मुनियों को नमस्कार करते हैं पुनः माताजी के पास जाते हैं—
सभी लोग—(नमस्कार कर) नमोऽस्तु महाराज जी! वन्दामि माताजी! इच्छामि माताजी! महाराज जी—सद्धर्मवृद्धिरस्तु! कहिए, मोहिनी देवी, आप ठीक तो हैं ?
मोहिनी देवी—जी आचार्यश्री! आपका रत्नत्रय सकुशल तो है।
महाराज जी—हां, मैं ठीक हूँ। अच्छा, तुम लोग यात्रा से थके हुए होगे, जाओ पहले नहा धोकर पूजा-पाठ करो फिर भोजन करके आराम करो, हम मध्याह्न में सबसे चर्चा करेंगे।
सभी—जी महाराज जी! (सभी नमोऽस्तु कर चले जाते हैं। सभी प्रसन्नमना होकर पूजा आदि कर भोजन करते हैं पुनः मध्याह्न में गुरुदेव से चर्चा कर अगले दिन से आहार आदि में लग जाते हैं, ऐसे ही कुछ दिन बीत जाते हैं। एक दिन माधुरी माताजी के पास दर्शनार्थ जाती हैं तब माताजी एकान्त पाकर पूछती हैं—
माधुरी—(नमस्कार करके) वन्दामि माताजी!
माताजी—सद्धर्मवृद्धिरस्तु! कहो माधुरी, ठीक तो हो।
माधुरी—जी माताजी! आपका रत्नत्रय कुशल से तो है ?
माताजी—हां बेटा! अब तुम बताओ तुम्हारा क्या विचार है।
माधुरी—माताजी, यह तो निश्चित है कि मुझे विवाह नहीं करना है।
माताजी—तब तो तुम आराम से ब्रह्मचर्य व्रत ले सकती है, तुम मुझे सोचकर बताना।
माधुरी—माताजी! उसमें सोचने जैसा कुछ नहीं है, आप मुझे व्रत दे दीजिए।
माताजी—सुनो माधुरी! कल भाद्रपद शुक्ला दशमी है, इसे सुगंधदशमी कहते हैं, कल तुम छोटे धड़े की नशिया के मन्दिर में श्रीफल लेकर आना और व्रत ले लेना।
माधुरी—जो आज्ञा माताजी। (माधुरी अगले दिन माताजी की आज्ञानुसार श्रीफल लेकर पहुंच जाती हैं और माताजी कुछ मंत्र पढ़कर वह नारियल भगवान के समक्ष चढ़वा देती हैं। उस समय माधुरी ज्यादा तो नहीं समझ पार्इं किन्तु माताजी से यह प्रार्थना अवश्य की)—
माधुरी—माताजी! आप मुझे यही आशीर्वाद दीजिए कि भविष्य में मैं सब संघर्षों को झेलकर निवरी निर्विघ्नतया अपने व्रत का पालन करूं, ऐसी शक्ति मेरे अन्दर प्रगट हो।
माताजी—माधुरी! तुम बहुत ही भाग्यशाली हो, तुमने सुगन्धदशमी के दिन ब्रह्मचर्य व्रत लिया है जो निश्चित ही तुम्हारे जीवन में रत्नत्रय की सुगन्धि को भरेगा।
माधुरी—(प्रसन्न होकर) वन्दामि माताजी! (माधुरी प्रसन्नतापूर्वक अपनी मां और भाई-भाभी के पास पहुंच जाती हैं, इस बात का पता किसी को भी नहीं लग पाता है। कुछ समय बाद जब कैलाशचंद जी मां से वापस चलने के लिए पूछते हैं तब मां कुछ दिन और माताजी के पास रुकने की बात कहकर वहीं रुक जाती हैं, माधुरी भी जिद कर वहीं रुक जाती हैं। भाई कैलाशचंद जी अपने परिवार के साथ वापस चले जाते हैं। उधर माता मोहिनी के मन में वैराग्य तो था ही, उन्होंने माताजी से दीक्षा के लिए निवेदन कर दिया, यह सुनकर माताजी बहुत अधिक प्रसन्न हुई, माताजी ने आचार्यश्री धर्मसागर महाराज को भी यह बात बताई वह भी बहुत प्रसन्न हुए, शीघ्र ही दीक्षा की तिथि भी निकल आई, उधर जब घर में यह खबर पहुंची तो मानो सभी पर कुठाराघात ही हो गया। सभी पुत्र-पुत्रियां, भाई आदि भागे चले आए। उस समय का दृश्य अजमेर नगर में ऐतिहासिक था जब राग और विराग का द्वन्द चल रहा था, पुत्र-पुत्रियों का करुण क्रन्दन देखकर अजमेरवासी ही नहीं स्वयं महाराजजी भी भावविह्वल हो उठे थे, अंतत: जीत वैराग्य की हुई और माता मोहिनी की दीक्षा हो गई। दीक्षा से पूर्व माताजी ने उन्हें माधुरी के ब्रह्मचर्य व्रत के बारे में बता दिया, एक क्षण तो उसकी आयु देख माता मोहिनी भी स्तब्ध रह गई पुन: बोलीं कि जब मैं स्वयं मोक्षमार्ग पर कदम बढ़ा रही हूं तो किसी को क्यों रोकू, सबका भाग्य सबके साथ है। खैर, मोही परिवार जब मां से विदा लेकर जाने को उद्यत हुआ तो माधुरी भी मां के पास रहने का हठ करके जबरदस्ती वहीं रुक गर्इं। बालहठ और मां के प्रति स्नेह देख सभी उनको वहीं छोड़ देते हैं। अब इन्हें संघ में रहकर धर्म अध्ययन करने का सुयोग स्वतः ही प्राप्त हो गया। इस मध्य वह घर भी गर्इं लेकिन स्कूल की परीक्षा देकर पुनः संघ में आ गर्इं। सन् १९७२ में इन्होंने पूज्य माताजी के आशीर्वाद एवं अपने तीव्र ज्ञान के क्षयोपशम से शास्त्री के तीनों खण्डों की परीक्षाएं मात्र ३ माह में देकर प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होकर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया। एक बार भाई-भाभियों के अतीव आग्रह से इनका पुनः घर जाना हुआ तब भाइयों ने इनसे विवाह हेतु आग्रह करना प्रारम्भ किया—
-आठवां दृश्य-
टिकैतनगर, घर का दृश्य माधुरी भाई-भाभियों के बीच बैठी हैं आपस में चर्चा चल रही है—
कैलाशचंद जी—माधुरी बिटिया ! अब तुम बड़ी हो गई हो इसलिए हम तुम्हारा विवाह करना चाहते हैं।
प्रकाशचंद जी—हां बिटिया ! देखो, अब पिताजी तो रहे नहीं, मां ने भी सारा मोह छोड़कर दीक्षा ले ली, अब हम भाई मिलकर तुम्हारी धूमधाम से शादी करना चाहते हैं, ताकि दुनिया भी देखे कि माता-पिता के न होने पर भी भाइयों ने अपने कर्तव्य निर्वाह में कोई कसर नहीं छोड़ी।
सुभाषचंद—हां, अब तुम बार-बार संघ में जाना छोड़ो और अब शीघ्र ही तुम्हारी शादी करनी है।
माधुरी—(शांत स्वर में) भैय्या! मुझे तो शादी करनी ही नहीं है, मुझे तो मां की सेवा करने के लिए उन्हीं के पास रहना है।
कैलाशचंद—(स्नेह से) अरे पगली! कहीं कोई लड़की सारी उम्र मां की सेवा करती है, हर एक को पराए घर जाना ही पड़ता है।
माधुरी—देखो भाई साहब! मुझे तो ज्ञानमती माताजी के पथ पर चलकर अपनी आत्मा का कल्याण करना है, फिर मैंने तो माताजी से ब्रह्मचर्य व्रत ले रखा है और यह बात मां को भी मालूम है।
प्रकाशचंद—(अत्यन्त आश्चर्य से) हैं ! ब्रह्मचर्य व्रत, तुमने भी व्रत ले लिया।
सुभाषचंद—माधुरी ! दुनिया क्या कहेगी कि माता-पिता के न रहने पर भाई लोग उसकी शादी भी नहीं कर पाए।
माधुरी—अरे भैय्या ! दुनिया वालों का क्या, जब माताजी ने घर छोड़ा उस समय तो कोई क्वांरी कन्या त्यागमार्ग पर नहीं निकली थी, तब भी सबने क्या कुछ नहीं कहा होगा ? ऐसा करने वाले खुद अपने अशुभ कर्मों का बंध कर लेते हैं और सुमार्ग पर चलने वाले अपनी आत्मा का कल्याण कर लेते हैं।
सभी भाई—(रोते हुए सिर पर हाथ फेरकर) बिटिया ! ये कैसी दुविधा में डाल दिया हमें।
माधुरी—भैय्या! आप तो हमारे सच्चे भाई हो फिर कल्याण के मार्ग पर जाने से क्यों रोकते हो, आप देखना मैं कभी भी अपने नियम में कोई कमी नहीं आने दूंगी। (माधुरी के ऐसा कहने पर सभी बहुत दुखी हो जाते हैं, भाई-भाभी सभी अनेक प्रकार से उन्हें समझाने की कोशिश करते हैं पर माधुरी की वाव्पटुता के आगे वैराग्य की ही जीत होती है। सभी भरे मन से उन्हें वापस माताजी के पास भेजते हैं। माधुरी वापस माताजी के पास आकर धर्म अध्ययन करते हुए गुरुसेवा, वैय्यावृत्ति, आहार दानादि देकर अपना जीवन सफल कर रही हैं। इस प्रकार मुक्तिपथ का वह पथिक अपनी मंजिल की ओर बढ़ चलता है। धीरे-धीरे माताजी के पास रहते हुए उन्होंने अनेक विषयों में निष्णात होने के साथ-साथ विधि-विधान कराना भी सीख लिया था, तब तक भाई रवीन्द्र कुमार भी ब्रह्मचर्य व्रत लेकर संघ में आकर माताजी के पास रहने लगे थे। सन् १९८० में जन्मभूमि टिकैतनगर से कुछ गणमान्य महानुभाव पूज्य माताजी के पास विधान करवाने हेतु आशीर्वाद लेने आए और विधान में ब्र. माधुरी जी के सानिध्य हेतु प्रार्थना किया और माताजी की आज्ञा से उन्हें लेकर गए। पूरे विधान तक नगर में माधुरी की प्रशंसा होती रही, माधुरी ने वहां अपनी अमिट छाप छोड़ी, उस समय जैन-अजैन जनता में जो नाद गूंजा, वह विशाल दृश्य दर्शनीय था। भाई प्रद्मुम्नजी ने खुले दिल से सबका स्वागत कर रथयात्रा जुलूस निकाला, पूरे गांव का प्रीतिभोज किया और माधुरी को ग्राम की बालिका नहीं प्रत्युत् एक विधानाचार्य के रूप में बहुमान दिया। वास्तव में वह क्षण अविस्मरणीय थे। सन् १९८२ में पुनः इन्होंने टिकैतनगर में दूसरा विधान करवाया, अब तो पूरे अवध क्या स्थान-स्थान पर उनके द्वारा कराए गए विधानों की धूम मच गई। महमूदाबाद जो उनकी ननिहाल है, वहां भी लोगों ने इनसे विधान करवाकर इनका भावभीना स्वागत किया। इस प्रकार समय-समय उनके द्वारा अनेक विधान और शिविरों का आयोजन हुआ जिसकी सुखद स्मृति वहां-वहां के लोगों में चिरस्थाई बनकर रह गई। सन् १९८५ में ज्ञानज्योति भारत भ्रमण के समय भी वे अनेक स्थानों पर गर्इं और अपने ओजस्वी प्रवचन दिए जिसकी अनुगूंज उन सभी के दिलों में है। बहन माधुरी जी को विद्यालय शिक्षा से ही ‘‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’’ यह सूक्तिवाक्य बड़ा प्रिय था। इनके मन में मां के प्रति सदैव कुछ लिखने की भावना जागृत होती रहती थी। एक दिन साहस करके इन्होंने ५१ पद्यों में ‘‘माँ मोहिनी से रत्नमती जी’’ तक का सुन्दर चित्रांकन किया और उसे माताजी को दिखाया, उस समय पं. बाबूलाल जी जमादार वहीं बैठे थे)—
—नवमां दृश्य—
माधुरी—(माताजी को नमस्कार कर) वन्दामि माताजी!
माताजी—सद्धर्मवृद्धिरस्तु। कहो माधुरी, यह तुम्हारे हाथ में क्या है ?
माधुरी—माताजी ! मैंने रत्नमती माताजी के जीवन से सम्बन्धित कुछ श्लोक लिखने का प्रयास किया था वही दिखाने लाई थी।
माताजी—(कापी लेकर देखते हुए) बहुत सुन्दर! तुमने प्रथम बार भले ही इसे लिखा है लेकिन ५१ पद्यों में रत्नमती जी का पूरा जीवन ही वर्णित कर दिया है। निश्चित ही तुम्हारी लेखनी से बहुत बड़े-बड़े कार्य होंगे, सदैव इसी प्रकार धर्म की प्रभावना करो (प्रसन्न होकर आशीर्वाद देती हैं) (वहीं बैठे)
पं. बाबूलाल जी—माताजी ! क्या मैं भी इसे देख सकता हूं ?
पं. बाबूलाल जी—(पढ़कर) वाह, बहुत अच्छा लिखा है, माताजी इसको तो ‘‘मातृभक्ति’’ नाम से अवश्य छपवाना चाहिए ताकि लोग जान सके कि पुत्र-पुत्रियों को किस प्रकार अपने जन्मदाता माता-पिता का मूल्यांकन करना चाहिए।
माताजी—क्यों नहीं पंडित जी। (माताजी तथा पंडितजी आदि बहुत प्रसन्न होते हैं। कुछ समय बाद बहन माधुरी ने माताजी की सुन्दर पूजा भी बनाई और समय-समय पर समयोचित भजन भी लिखे जिनका संकलन कर संस्थान द्वारा ‘‘मातृभक्ति’’ नाम से ही एक पुस्तक का प्रकाशन किया गया। मां की भक्ति में अचिन्त्य शक्ति होती है जिसका फल उन्हें साक्षात् दृष्टिगत हुआ है। पूज्य माताजी के पास रहते हुए शास्त्री, विद्यावाचस्पति की तो परीक्षा देकर वह प्रकाण्ड विद्वान बनीं ही, क्रम से दो प्रतिमा और गृहत्याग रूप सप्तम प्रतिमा के व्रत लेकर लोगों के द्वारा पूज्य बन गर्इं। कहा जाता है कि समर्पण, निश्छल सेवा और विनय में वह शक्ति है जो व्यक्ति को एक दिन पूज्य परम पद प्रदान करने में सहकारी बन जाती है। पूज्य माताजी के द्वारा निर्देशित प्रत्येक कार्य में ब्र. मोतीचंद जी एवं ब्र. रवीन्द्र जी के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर इन्होंने हर कार्य में अपना अमूल्य योगदान दिया और सदैव उन्नति की आकांक्षी उन माधुरी बहन ने १८ वर्ष तक अर्जुन जैसा लक्ष्य बनाकर चन्द्रगुप्त जैसी निश्छल भक्ति करते हुए पूज्य माताजी के समक्ष एक दिन दीक्षा की याचना कर दी)—
-दशवां दृश्य-
आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी का दिवस है (१७ जुलाई सन् १९८९) माधुरी एक श्रीफल लेकर माताजी से प्रार्थना कर रही है–
ब्र. माधुरी—वन्दामि माताजी ! माताजी—समाधिरस्तु !
माधुरी—माताजी ! मुझे आपके पास रहते हुए १८ वर्ष व्यतीत हो रहे हैं, यह संसार असार है़ जीवन क्षणभंगुर है, अब मेरी तीव्र इच्छा है कि मैं आर्यिका दीक्षा की प्राप्ति कर इस मानव जन्म को सार्थक करूं, कृपया मुझे दीक्षा देकर कृतार्थ कीजिए।
माताजी—(प्रसन्न होकर) माधुरी! यह तुमने बहुत ही उत्तम विचार किया है, तुम सब प्रकार से दीक्षा के योग्य हो, मैं शीघ्र ही तुम्हारी दीक्षा का मुहूर्त निकलवाती हूं। (माताजी ब्र. रवीन्द्र जी को बुलाकर माधुरी के दीक्षा लेने की बात बताती हैं, उस समय एक बार तो भाई रवीन्द्र भी भावविह्वल हो जाते हैं क्योंकि सदैव दोनों साथ-साथ मिलकर जिनधर्म की प्रभावना के कार्यों को सम्पन्न करते थे और बहन माधुरी प्रारम्भ से ही बहुत कमजोर मानी जाती थीं फिर भी वह माताजी के सम्बोधन से शांत हुए और शीघ्र ही दीक्षा का मुहूर्त निकल गया, दीक्षा की खबर सर्वत्र पहुंचाई जाने लगी और जब घर में भाई-भाभियों को यह समाचार मिला तो उनसे अत्यधिक स्नेह के कारण सभी लोग भावविह्वल हो उठे, मात्र परिवारीजन ही नहीं टिकैतनगर की जैन-अजैन जनता के नेत्रों में मोहवश अश्रु आ गए। घर में चर्चा होने लगी, छोटे-छोटे बच्चे तो रोने भी लगे–
कैलाशचंद—(दुखी होकर) अरे भैय्या प्रकाश ! माधुरी दीक्षा ले रही है ? अचानक यह क्या हो गया ?
चंदा भाभी—(आश्चर्य से) क्या! माधुरी बिटिया दीक्षा ले रही हैं ?
प्रकाशचंद—(रोते हुए) हे भगवान! इतना कमजोर शरीर, कैसे लेगी दीक्षा, ऐसा लगता है अभी कल की ही बात हो कि मैंने उसे गोद में खिलाया है।
ज्ञाना भाभी—वह तो घर में सबसे कमजोर मानी जाती थीं फिर दीक्षा के बाद तो पैदल चलना, एक बार खाना, पाटे पर सोना, कैशलोच करना, कैसे करेंगी वह ? (रोने लगती हैं)
सुभाषचन्द—हे प्रभू ! यह विधि की कैसी विडम्बना है, एक-एक करके सभी हमसे नाता तोड़ रहे हैं, कम से कम इतना तो था कि धार्मिक आयोजन के कारण ही वह कभी-कभी यहां आ जातीं थीं।
सुषमा भाभी—भाई साहब, भाभी ! मेरे ख्याल से हमें शीघ्र ही हस्तिनापुर चलना चाहिए, हो सकता है हमारे मनाने से वह कुछ दिन और रुक जाएं (रोने लगती हैं, यह देख सभी बच्चे भी रोने लगते हैं)—
जम्बू—बाबू ! क्या हमारी बुआजी अब कभी घर नहीं आएंगी, क्या वह अब हमें दुलार नहीं करेंगी।
अंजू—बाबू! क्या वह भी दादी की तरह हमें छोड़ देंगी?
वीरकुमार—बाबू! एक यही बुआजी जब कभी घर आती थीं तो लगता था कि हमारी दादी, बड़ी बुआजी सब हमें मिल गईं, अब क्या होगा ? (रोने लगते हैं)
किरणमाला—अम्मा, अम्मा, जल्दी चलो, हमें हमारी बुआजी के पास जाना है।
सुगन्धबाला—हां अम्मा, ताऊ, ताई! सब जल्दी चलो, हमें हमारी बुआजी के पास ले चलो। (ऐसा कहते ही सभी रोने लगते हैं)
कैलाशचंद—(समझाते हुए) बच्चों! चुप हो जाओ, सभी लोग धीरज रखो, हम शीघ्र ही वहां चलेंगे। (सभी हस्तिनापुर जाने का विचार करते हैं। उधर बहन माधुरी की स्थान-स्थान पर बिनौरी, शोभायात्रा निकालकर उनका भावभीनी स्वागत किया जा रहा है। बड़ौत, सरधना, मेरठ, लखनऊ, दरियाबाद आदि अनेकानेक स्थानों पर होते हुए जब वह टिकैतनगर पहुंचती हैं तब वह रोमांचक हृदयस्पर्शी दृश्य अद्भुत था। जैन-अजैन सभी अपनी उस पुत्री को मानो शुभाशीष और विदाई देने हेतु ही उमड़ पड़े हैं। घर-घर में उनका स्वागत किया जा रहा है, हर एक यही सोच रहा है कि हम कहीं स्वागत करने से वंचित न रह जाए, दुख और हर्ष से मिश्रित माहौल में कोई रो रहा है तो कोई आशीर्वाद दे रहा है। पुनः स्वागत जुलूस निकलता है, अपार भीड़ के मध्य माधुरी जी सभा को सम्बोधित करती हैं)–
-ग्यारहवां दृश्य-
नगर का चौराहा, बग्घी पर बैठी माधुरी जी नगरवासियों को सम्बोधित करते हुए—
माधुरी—मेरे प्यारे नगर निवासियों! मेरे पूज्यजनों, भाइयों और बहनों ! भगवान जिनेन्द्र, अपनी गुरु गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की असीम अनुकम्पा एवं आप सभी के स्नेहिल आशीर्वाद, प्यार-दुलार के साथ मैं आज जिस त्यागमार्ग पर अपने कदम बढ़ा रही हूं उसका सौभाग्य महान पुण्यात्मा लोगों को मिलता है। मैं स्वयं को अत्यन्त सौभाग्यशाली समझती हूं। इस पथ पर बढ़ते हुए आप सभी मेरे प्रति अनुराग के कारण ही दुखी हो रहे हैं किन्तु मेरा आपसे अनुरोध है कि आप प्रसन्नतापूर्वक मुझे इस मार्ग पर जाने की आज्ञा प्रदान करें ताकि जहां ज्ञानमती माताजी जैसी महान साध्वी जन्मीं हैं’ उस टिकैतनगर की कीर्ति को और अधिक फैलाते हुए अपनी आत्मा का कल्याण कर सकू। (सभी ओर से जय-जयकारों की आवाजें आने लगती हैं, सभी प्रसन्नमना होकर नाचते-गाते उनकी शोभायात्रा निकालते हैं, हालांकि परिवार के लोग अब भी बहुत दुखी हैं। इसके बाद अनेक स्थानों पर भी बिनौरी निकाली जाती है।
पुनः बहन माधुरी जी वापस हस्तिनापुर पहुंच जाती हैं। आज श्रावण शुक्ला नवमी है, दीक्षा की तैयारियां जोरों पर हैं, उनके हाथों में मेंहंदी लगाई जा रही हैं, मंगल गीत गाए जा रहे हैं। परिवार के सभी लोग वहां पहुंच चुके हैं, सभी की आँखें नम हैं, स्वयं भाई रवीन्द्र जी की भी आंखें नम हैं लेकिन अन्तरंग से उन सभी ने माधुरी जी की यशवृद्धि की कामना ही की है। देखते-देखते दो दिन भी निकल गये। श्रावण शुक्ला ग्यारस, १३ अगस्त १९८९ पावन तीर्थ हस्तिनापुर, अपार जनसमूह एकत्रित हो रहा है, कहीं तिल भर भी पैर रखने को जगह नहीं है। मंच पर गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी विराजित हैं, जय-जयकारों की आवाज के साथ माधुरी जी सर्वप्रथम भगवान का पंचामृत अभिषेक करती हैं, माताजी को श्रीफल सर्मिपत करती हैं और अपने लम्बे-लम्बे बालों का केशलोच प्रारम्भ कर देती हैं। अब तो परिवारीजनों क्या, इनसे जुड़े हर एक जीव का मोह यूं उमड़ पड़ता है कि स्वयं को नहीं रोक पाते हैं और रोने लगते हैं। चूंकि उस समय रक्षाबन्धन पर्व नजदीक था अतः बहन माधुरी ने अपने चारों भाइयों-भतीजों की कलाई में अन्तिम बार राखी भी बांधी थी। माताजी बड़े ही मनोयोग से उनका केशलुंचन करती हैं, अंततः केशलोंच समाप्त हो जाता है, केशलोच के मध्य अनेक लोग अपने मार्मिक वक्तव्य देते हुए माधुरी जी का गुणगान करते नहीं थक रहे हैं। पुनः उन्हें सौभाग्यवती स्त्रियों द्वारा बनाए गए चौक पर बिठा दिया जाता है। माताजी दीक्षा के संस्कार प्रारम्भ करने से पूर्व सभी से पूछती हैं)–
-बारहवां दृश्य-
माताजी—धर्मानुरागी महानुभावों ! आज ब्र. कु. माधुरी जी की दीक्षा हो रही है, यह १८ वर्षों से मेरे पास रहकर मेरे द्वारा निर्देशित हर कार्य को गुरुआज्ञा मानकर पूरा करती आ रही हैं लेकिन आप लोगों से मैं पूछती हूं कि क्या यह दीक्षा के योग्य हैं ? मैं इन्हें दीक्षा देऊं क्या ? माताजी की बात सुनकर सभी रोते हुए भी हंस पड़ते हैं–
भाई कैलाशचंद—वाह भाई सुभाष! देखा, माताजी ने पहले तो हमारी बहन का केशलोच कर दिया अब पूछती हैं दीक्षा दूं क्या ?
सुभाषचंद—तो क्या हमारे कहने से वह मान जाएंगी और दीक्षा नहीं देंगी ?
प्रकाशचंद—(रोते हुए) अरे नहीं भैय्या! यह तो नियोग पूर्ति है अब तो माधुरी माताजी बन ही गईं, अब क्या ?
बहन मालती—हां भइया ! यह तो केवल नियोग है, दीक्षा तो होनी ही है।
बहन कुमुदनी—लेकिन कभी लगता नहीं था कि इतने कमजोर शरीर से ये दीक्षा ले पाएंगी। दीक्षा लेना बड़ी हिम्मत का काम है।
पास में बैठे देवेन्द्र जी—अरे आप लोग धन्य हो, जो ऐसी दिव्य विभूतियों के भाई—बहन कहलाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।
इन्दरचंद चौधरी—अरे देवेन्द्र! यह भले ही इनकी सगी बहन हैं लेकिन मेरे लिए भी बहन से कहीं बढ़कर हैं, मैं तो इसकी एक आवाज पर अपने शरीर का बूंद-बूंद खून न्योछावर कर दूं। तभी पुनः माताजी की आवाज आती हैं–
माताजी—सभी लोग शान्त हो जाइए और बताइए कि मैं इन्हें दीक्षा देऊं क्या, आप सभी की अनुमति है? (सभी उपस्थित जनता करतल ध्वनि के साथ जय-जयकार करती है माताजी उन पर दीक्षा के संस्कार कर उन्हें पिच्छी, कमण्डलु और शास्त्र प्रदान कर कहती हैं—
माताजी—मैं माधुरी को दीक्षा देकर उनका ‘‘चंदनामती’’ नाम घोषित करती हूं। आज से इन्हें साधु के २८ मूलगुणों का आगम के अनुसार पालन कर चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर महाराज की परम्परा का निर्वाह करते हुए ख्याति, लाभ, पूजा से दूर रखकर इस अक्षुण्ण परम्परा की वृद्धि करना है।
जनता द्वारा—(जय-जयकारों से आकाशमण्डल गूंज उठता है) (बस बन्धुओं ! इस प्रकार कु. माधुरी से चंदनामती माताजी की इस संक्षिप्त यात्रा में आप सबने देखा कि किस प्रकार संस्कार से प्राणी पूज्य पदवी की प्राप्ति कर लेता है। दीक्षा के पश्चात् उन्होंने इस निष्कलंक परम्परा को वृद्धिगंत करते हुए अपनी दिव्य सुगंधि से जगत को सुवासित कर दिया। वास्तव में उन्होंने ‘कुलं पवित्रं’, जननी कृतार्था, वसुन्धरा पुण्यवती बभूव’’ इस बात को सार्थक कर दिया। आर्यिका दीक्षा के पश्चात् पूज्य माताजी की छाया बनकर गुरुभक्ति करते हुए उन्होंने २४ चातुर्मास सम्पन्न किए हैं। इस मध्य हजारों किमी. की पदयात्रा में अनेक लोगों ने आपसे जैनागम का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया, नूतन दिशाबोध लिया, साथ ही अजैन बन्धुओं ने भी शाकाहार सदाचार व जीवन निर्माण की प्रेरणा प्राप्त की। आगम अनुकूल चर्या, चारित्रिक दृढ़ता और कत्र्तव्यनिष्ठता से गुरु की महानता का परिज्ञान कराने वाली पूज्य माताजी के हर एक स्वप्न को साकार रूप देने वाली पूज्य चंदनामती माताजी अलौकिक प्रतिभाओं से सम्पन्न हैं। उनके इन्हीं सब गुणों के दृष्टिगत सन् १९९७ में माताजी ने आपको प्रज्ञाश्रमणी की उपाधि और तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय ने सन् २०१२ में ‘पीएच. डी.’ की मानद उपाधि से अलंकृत किया है। सन्त काव्य की परम्परा में राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त, अपने हित-मित-प्रिय वचनामृत से जनकल्याण में निरत, साधना की उच्चतम सीढ़ियों पर सतत आरोहणरत, रत्नत्रय स्वरूपा माताजी का वरदहस्त सदैव हम सभी पर बना रहे और माताजी दीर्घायु एवं स्वस्थ रहकर सदैव हम सभी का मार्गदर्शन करती रहें यहीं मंगल कामना है।
जय बोलो प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी की जय