इबोला वायरस एक विषाणु है। यह वर्तमान में एक गंभीर बीमारी का रूप धारण कर चुका है। इस बीमारी में शरीर में नसों से खून बाहर आना शुरू हो जाता है जिससे अंदरूनी ब्लीडिंग प्रारंभ हो जाती है। यह एक अत्यंत घातक रोग है। इसमें नब्बे प्रतिशत रोगियों की मृत्यु हो जाती है। इस रोग की पहचान सर्वप्रथम सन् १९७६ में इबोला नदी के पास स्थित गांव में की गई थी। इसी कारण इसका नाम इबोला पड़ा। डेमोव्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो नामक अफ़्रीकी देश की एक नन के खून के नमूने में पहली बार इबोला वायरस के लक्षण मिले थे। यह रोग पसीने और लार से फैलता है। संक्रमित खून और मल के सीधे संपर्क खून और मल के सीधे संपर्क में आने से भी यह फैलता है। इसके अतिरिक्त यौन संबंध और इबोला से संक्रमित शव को ठीक तरह से व्यवस्थित न करने से भी यह रोग हो सकता है। यह संक्रामक रोग है। इसके लक्षण हैं उल्टी—दस्त , बुखार, सिरदर्द, ब्लीडिंग, आंखें लाल होना और गले में कफ । अक्सर इसके लक्षण प्रकट होने मे तीन सप्ताह तक का समय लग जाता है। एक बार इबोला की जकड़ में आने के बाद कोई व्यक्ति दो दिन से लेकर इक्कीस दिन तक ही जीवित रह पाता है। मनुष्यों में इसका संक्रमण संक्रमित जानवरों जैसे चिंपैजी, चमगादड़ और हिरण आदि के सीधे संपर्क में आने से होता है। एक दूसरे के बीच इसका संक्रमण संक्रमित रक्त, द्रव या अंगों के मापंत होता है। यहां तक कि इबोला के शिकार व्यक्ति का अंतिम संस्कार भी खतरे से खाली नहीं होता। शव को छूने से भी इसका संक्रमण हो सकता है । बिना सावधानी के इलाज करने वाले चिकित्सकों को भी इससे संक्रमित होने का भारी खतरा रहता है। संक्रमण के चरम तक पहुंचने से दो दिन से लेकर तीन सप्ताह तक का वक्त लग सकता है और इसकी पहचान और भी मुश्किल है। इससे संक्रमित व्यक्ति के ठीक हो जाने से सात सप्ताह तक संक्रमण का खतरा बना रहता है। इसका कोई मुकम्मल इलाज डॉक्टरों के पास नहीं है।
डॉक्टर सिर्फ इसके लक्षणों के आधार पर इलाज करने की कोशिश करते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक उष्ण कटिबंधीय बरसाती जंगलों वाले मध्य और पश्चिम अफ़्रीका के दूरदराज गांवों में यह बीमारी फैली। पूर्वी अफ़्रीका की ओर कांगों, युगांडा और सूडान में भी इसका प्रसार हो रहा है। बीते करीब चार दशक में इबोला से जो मौतें हुई , उन पर दुनिया का इतना ध्यान नहीं गया जितना अब मुख्य रूप से तीन देशों सिएरा लियोन, लाइबेरिया और गिनी में कुछ ही दिनों में लगभग साढ़े नौ सौ मौतों पर गया है। सिएरा लियोन और लाइबेरिया जैसे पश्चिम अफ़्रीकी देशों की मुश्किल यह है कि वहां के बेहद लंचर स्वास्थ्य ढांचे के कारण प्रति एक हजार व्यक्तियों पर डॉक्टरों की उपलब्धता ०.०१४ यानी बेहद सीमित ही है। दुनिया के लिए इबोला से जुड़ी अहम समस्या यह भी है कि इसके एक ग्लोबल बिमारी में बदल जाने का गंभीर खतरा है। गत ८ अगस्त को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अंमर्राष्ट्रीय स्तर पर जन स्वास्थ्य इमरजेंसी की घोषणा की थी। इसके तुरंत बाद भारत में स्वास्थ्य मंत्रालय ने इसके लिए निगरानी बढ़ा दी। साथ ही चौबीस घंटे की एक हेल्पलाइन सेवा भी शुरू कर दी गई । स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन ने जोर देकर कहा है कि भारत में इबोला वायरस का कोई मामला सामने नहीं आया है लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि यह वायरस कभी भी हमारे देश में प्रवेश कर सकता है। वैसे संक्रामक बीमारियों के वैश्विक प्रसार का अहम कारण यह है कि आज की तारिख में यदि कोई संक्रमण एक देश में फूटता है तो हवाई यातायात के कारण उसे दुनिया की किसी भी हद में पहुंचने के लिए आठ से पच्चीस घंटे ही चाहिए। ऐसे में यदि किसी संक्रमण से ग्रसित व्यक्ति को हवाई अड्डे पर ही नहीं रोक लिया जाए तो वह पूरे देश को संक्रमित करने की ताकत रखता है। इस तथ्य की पुष्टि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी की है। उसने अपनी एक रिपोर्ट में साफ कहा है कि बीमारियों का संक्रमण भी लोगों के साथ एक जगह से दूसरी जगह तक पहुंचता रहता है और एक हवाई यात्रा भर से कोई पूरा देश उसकी चपेट में आ सकता है। इस वायरस से १७०० से ज्यादा लोग संक्रमित हो चुके हैं और अब तो यह नाइजीरिया में भी दस्तक दे चुका है।
हालात की भयावहता को देखते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य आपात स्थिति के लिए वैश्विक स्तर पर प्रयास किए जाने पर बल दिया है। इस रोग में रोगी की त्वचा गलने लगती है। यहां तक कि हाथ—पैर से लेकर पूरा शरीर गल जाता है। ऐसे रोगों से दूर रहकर ही इस रोग से बचा जा सकता है। अभी इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है। इसके लिए कोई दवा नहीं बनाई जा सकी है। इसका कोई एंटी—वायरस भी नहीं है संक्रामक बीमारियों के इलाज में एक परेशानी यह भी है। इनके वायरस उत्परिवर्तन यानी म्यूटेशन का रूख अपना रहे हैं। उत्परिवर्तन होने से वायरस अपना स्वरूप बना लेते हैं जिससे उनके प्रतिरोगी के लिए बनी दवाइयां और टीके वैक्सीन कारगर नहीं रह पाते हैं । ऐसी भीष्ण बीमारियों का सामना करने वाले कारगर टीके भी अक्सर मुकम्मल तौर पर विकसित नहीं हो पाए हैं।