आत्मा क्या हैं ? कब से है? किसने उसे बनाया है ? कैसी है ? आदि प्रश्न जिसमें उत्पन्न होते हैं उसी का नाम आत्मा है। अ् धातु सातत्य गमन अर्थ में हैं वैसे जितने भी धातु गमनार्थक हैं उनके जाना, आना, जानना और प्राप्त करना ऐसे चार अर्थ हुआ करते हैं। अत: इस अत् धातु का अर्थ सत्त जानना हो जाता है। इसी से अततीति आत्मा शब्द बना है जिसका अर्थ हो जाता है कि आत्मा हमेशा ज्ञान स्वभावी है। इसे ही जीव कहते हैं। जो अभ्यंतर रूप चेतन्य प्राणों से और बाह्य रूप इन्द्रिय बल आयु तथा श्वासोच्छवास इन द्रव्य प्राणों से तीनों कालों में जीता है और जीवेगा वह जीव है।
ऐसा यह आत्मतत्त्व शाश्वत है अर्थात् अनादिकाल से है और अनंत काल तक रहेगा । इसको बनाने वाला कोई ईश्वर विशेष नहीं हैं क्योंकि जो ईश्वर-भगवान् हैं उन्हें इन प्रंबंधों कसे क्या करना है वे तो कृतकृत्य पूर्णसुखी हैं।
इस जीव का लक्षण है उपयोग । चैतन्यानुविधायी आत्मा का परिणाम उपयोग कहलाता है इसके भी दो भेद हैं ज्ञान और दर्शन। ज्ञान का कार्य है जानना और दर्शन का कार्य है देखना अर्थात् यह आत्मा इन दो गुणों ज्ञाता और दृष्ठा है। वैसे आत्मा में अनंतगुण है। उनमें से अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतवीर्य और अनंतसुख ये चार गुण प्रमुख हैें।
यहाँ प्रश्न यह हो जाता है। कि जब अनंत चतुष्टय आत्मा के गुण हैं तो हम और आप में क्यों नहीं है, हम लोग किन्चित् सुख के लिये क्यों तरस रहे हैं इतनी बात को तो समझना है।
अनादिकाल से आत्मा के साथ कर्मों का संबंध चला आ रहा हैं। ज्ञानावरण,दर्शनावरण,वेदनीय,मोहनीय, आयु, नाम, गौत्र और अंतराय एैसे ये कर्म मुख्यतया आठ हैं तथा इनके उत्तर भेद एक सौ अठतालीस है अथवा प्रत्येक कर्म के असंख्यात लोक प्रमाण भी भेद हो जाते हैं। इनमें से ज्ञानावरण कर्म जीव के ज्ञान गुण को आवृत करता है ठकता है पूर्ण प्रगट नहीं होने देता है, जैसे जैसे हम लोगों के इस कर्म का क्षयोपशम होता है वैसा वैसा ही ज्ञान तरतमरूप से पाया जाता है ऐसे ही दर्शनावरण कर्म दर्शन गुण को ढकता है। वेदनीय कर्म जीव को सुख-दु:ख का वेदन अनुभव कराता है। मोहनीय कर्म जीव को मोहित कर देता है अपने पराये का भान नहीं होने देता है। आयु कर्म जीव को एक किसी भी पर्याय में रोक देता है। नाम कर्म से ही नाना प्रकार के शरीर आकार आदि बनते हैं और नरक आदि गतियों में भी जाना पड़ता है। गौत्र कर्म इस जीव को उच्च या नीच संस्कार वाले कुलरों में पैदा करता है तथा अंतराकर्म जीव के दान लाभ शक्ति आदि में विघ्न उत्पन्न कर देता है। ऐसे इन कर्मों के निमित्त से जीव संसार में प्रमण कर रहा है और दु:खी हो रहा है।
इन जीव और कर्म का संयोग संबंध है जैसे कि दूध और पानी में संयोग संबंध होता है। अर्थात् संंबंध के मुख्य दो भेद है। तादाम्य और संयोग। उसका उसी का इत्यादि इनमें तादात्म्य संबंध है इनको आत्मा में कभी पृथक्-पृथक् नहीं कर सकते है। उष्ण गुण के बिना अग्नि का अस्तित्व ही नहीं रहेगा और न ज्ञान गुण के बिना आत्मा ही कुछ रहेगी । अत: दूध और पानी के समान जीव और कर्मों का संबंध है। इसे संयोग संबंध कहते हैं। यद्यपि यह अनादि है फिर भी इसकका अंत किया जा सकता है। जैसे बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज की परंपरा अनादि है फिर भी बीज को जला देने के बाद उसकी परंपरा की समाप्ति हो जाती है वैसे ही जीव से कर्म को एक बार पृथक् कर देने के बाद इनकी परंपरा समाप्त हो जाने से जीव शुद्ध रह जाता है। वह परमात्मा, भगवान् ईश्वर महावीर आदि कहा जाता है।
जैनधर्म का हृदय इतना विशाल है कि यह प्रत्येक प्राणी को परमात्मा बनने का उपाय बतलाया है। और तो क्या यह एकेंद्रिय जैसे शुद्ध प्रणियों में परमात्मा बनने के लिये के शक्तिरूप चिंतामणि स्वरूप आत्मा का अस्तित्व मानता है। अब रही बात यह कि एवेंâद्रिय जीवों में यद्यपि हमारे जैसी आत्मा विद्ययमान है फिर भी वे कर्म के भार से इतने दबे हुये हैं कि हित विचाररूप और इन्द्रियों के अभाव में कुछ कर नहीं सकते हैं, केवल कर्मों का सुख दु:ख भोगना उसका अनुभव करना ही उसके पास है। इस जीव राशि में से जो पंचेंद्रिय मन सहित हम लोग हैं उन्हीं में तत्व को समझकर पुरुषार्थ करने की योग्यता है।
आत्मा के तीन भेद है- बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। जो जीव नित्य प्रति अपने स्रूप से पराड़मुख विषयों में आनन्द मानने वाले हैं शरीर के सुख में सुखी और दु:ख में दु:खी होते हुये शरीर को ही आत्मा मान रहे हैं। शरीर से भिन्न आत्मा नाम की कोई चीज है जो अहं- मैं इस शब्द से जानी जाती है जो कि चिन्मयचिंतामणि स्वरूप है उसका जिन्हें बोध नहीं है। और जो सच्चे धर्म से, जिनेन्द्रभगवान् से व उनकी वाणी से द्वेष करते हैं अथवा उपेक्षा करते हैं। वे वहिरासत्मा जीव सदा ही शरीर के सुख साधन में लगे रहते हैं।
इनसे विपरीत अनंतरात्मा जीव जिनेन्द्रभगवान को सच्ची आत्मा मानकर उनपर श्रद्धा रखते हुये उनकी वाणी को सरस्वती माता कहते हैं। निग्र्रंथ वीतरागी गुरुओं को अपना गुरु मानते हैं। कपोल कल्पित परंपराओं से दूर रहते हैं। सम्यग्दर्शन से पवित्र हो जाते हैं। वे हमेशा शरीर संसार के दुखों को जन्म-मरण का मूल कारण मानकर उससे निर्गम होने का पुरुषार्थ करते है। उनकी दृष्टि अंतर्मुखी हो जाती है। वे सदैव देहरूपी देवालय में विराजमान भगवान् आत्मा को चिंतामणि सर्दश मानकर उसको प्राप्त करने का पुरुषार्थ करते हैं उस पुरुषार्थ का नाम ही सम्यग्दर्शन , सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र है। अंतरात्मा जीव सम्यग्दृष्टी होते हुये सम्यग्ज्ञानी होते हैं और सम्यक्चरित्र को अपनी शक्ति के अनुसार अणुव्रत या महाव्रत रूप ग्रहण करके उनका अनुष्ठान करते हुयेक क्रम से परमात्मा बन जाते हैं।
परमात्मा पूर्ण सुखी हैं चार घातिया कर्मों से रहित अनंतचतुष्टय से सहित जन्म जरामरण आदि अठारह दोषों से रहित अर्हंत भगवान अथवा आठों कर्मों से रहित लोकशिखर पर विराजमान सिद्ध भगवान परमात्मा हैं।
वस्तु के स्वरूप को ठीक से समझने के लिये जैन सिद्धांत में प्रमाण और नय माने गये हैं। प्रत्येक वस्तु अनुंतधर्मात्मक है। अस्ति नास्ति, नित्य, अनित्य एक अनेक आदि अनेकों धर्म कहलाते हैं। ऐसी अनंतधर्मा वस्तु के प्रत्येक्ष या पराोक्ष रूप से अथवा सर्वरूप सें या क्षयोपशम अस्पष्ट ज्ञान से जानने वाला ज्ञान प्रमाण कहलाता है। यह ज्ञान आत्मा का गुण है आत्मा में ही पाया जाता हैं ऐसे ही प्रमाण के द्वारा जानी हुई वस्तु के एक एक अंशको अर्थात् धर्म को जानने वाला नम कहलाता है यह वस्तु के एक धर्म को ग्रहण करते हुये दूसरे धर्मों का निषेध न करके उन्हें गोण कह देता है तब सापेक्ष होने से सिम्यकक्षय होता हैं और जब एक धर्म को ग्रहण कर अन्य धर्मों का सर्वथा निषेध कर देता है तब मिथ्यानय दुर्नय या कुनय कहलाता है। जैसे द्रव्यार्थिकनय कहता है वस्तु नित्य है पर्यायार्थिक नय कहतस है। कि अनित्य ये दोनों नय परस्पर सापेक्ष होने से सम्यक् हैं और परस्पर निरपेक्ष होने से मिथ्या हैं।
इसी प्रकार से निश्चय नय और व्यवहार ऐसे भी दो नय हैं जिसमें निश्चय नय वस्तु के अभेद को उपाधि रहित, स्वभाविक अवस्था अथवा शक्तिरूप को कहने वाला है और व्यवहार नय भेद को उपाधिसहित अवस्था को अथवा व्यक्त अवस्था को कहने वाला है।
निश्चयनय से प्रत्येक जीवात्मा अनादिकाल से शुद्ध है सिद्धों के सदृश है, चैतन्य स्वरूप है, अनंत ज्ञानादि से सहित है अनंतगुणों का पुंज है, अविनाशी है और परमानंदमय है। व्यवहार नय से यही आत्मा अनादिकाल से कर्मों से वद्ध है अशुद्ध है संसारी है दु:खी है नरनारक आदि पयेचिं से सहित हो रहा है। तथा जब रत्नत्रय रूप पुरुषार्थ कर्मों का नाश कर देता है तब सिद्ध बन जाता है। यह निश्चय नय शक्ति को बतला देता है। तब व्यवहार नय उसको प्रगट करने का प्रयत्न करता है।
जो सब तरह से आत्मा को बंधा हुआ, संसारी, अशुद्ध ही समझेगा तो उसको मुक्त और शुद्ध होने कर प्रयल वैâसे करेगा। अत: निश्चयनय से आत्मा को शुद्ध समझना चाहिये ।
यह आत्मा चिंतामणिरत्र है जो कुछ भी आप चिंतवन करेंगे सो अपको मिल जायेगा। आप चाहें दुव्यसन पाप रूपी विचारों से क्रियाओं से नरक निगोदवास को प्राप्त कर लें, चाहें तो धर्म के चिंतन से शुभक्रियाओं से स्वर्ग को प्राप्त कर ले और चाहें तो आत्मा को शुद्ध समझकर तथा उसी शुद्धात्मा का ध्यान करके कर्म कलंक से रहित अकलंक शुद्ध भगवान बन जावें। हाँ इतना अवश्य है कि शुद्ध आत्मा का ध्यान वीतरागी मुनि ही कर सकते हैं, परिग्रहों से घिरे हुये मनुष्य उसकी भावना करते हैं। अत: शुद्धात्मा के ध्यान के लिये व्यवहार नय के आश्रय से व्यवहार चारित्र को ग्रहण करना आवश्यक है। यह चिंतामणि स्वरूप आत्मा प्रत्येक व्यक्ति के घट में विराजमान है उसका फायदा उठाना चाहिये।
पूज्यपादस्वामी ने कहा भी है कि-
इतश्चिंतामणि र्दिव्य इत: पिण्याकखंडकं।
ध्यानेन चेदुभे लभ्ये क्वद्रियंतां विवेकिन।।
इधर चिंतामणि रूप दिव्यरत्न है और दूसरी तरफ खली का टुकड़ा है। विक्ष्यदि ध्यान से दोनों ही मिलते हैं तो विवेकी जन किसमें आदर करेंगे अर्थात् पंचेंद्रियों के विषय सुख खली के टुकडे के सदृश हैें तथा धर्म चिंतामणि रत्न है और उस धर्म से परिणत हुई आत्मा भी स्वयं चिंतामणि रत्न है।
जायें सुरतख देय सुख चिंतित चिंतारैन ।
विनजायें विन चिंतये धर्मसकल सुख दैन।
यह धर्म रूपी चिंतामणिरत्न निचिंतवन के ही संपूर्ण सुखों को देने वाला है। अत: आत्मा को धर्ममय बना लेना चाहिये।