भारतवर्ष में प्राचीन काल से ही दो प्रमुख संस्कृतियाँ अजस्र धारा में प्रवाहित हो रही हैं जिनमें से एक सा नाम—वैदिक संस्कृति तो दूसरी का नाम श्रमण संस्कृति है। श्रमण संस्कृति तो जैन श्रमण, आर्हत् , निग्र्रंथ, व्रात्य, दिगम्बर, अहिंसा, स्याद्वाद, अनेकान्त और वीतराग—विज्ञान आदि अनेक नामों से जाना जाता है। भारतीय संस्कृति एक धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कृति है। यहाँ पर तिल में तेल की तरह धार्मिकता और आध्यात्मिकता संस्कृति में व्याप्त है। कहा भी जाता है कि यहाँ पर कज्र्र—कज्र्र में शज्र्र का वास है। प्रसिद्ध जैनाचार्यों ने अध्यात्म के सम्बन्ध में गूढ़ एवं गम्भीर चिन्तन कर अनेक आध्यात्मिक ग्रंथों की रचना की तथा उनका चिन्तन अन्य भारतीय दर्शनों के अध्यात्म चिन्तकों से पर्याप्त भिन्न और मौलिक है। इस संसार में जीव के दु:खों का मूल कारण है—अज्ञान अर्थात् आत्मभ्रान्ति। जिससे निवृत्ति का एकमात्र साधन है—सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यग्चारित्राणि। वस्तु के स्वरूप सहित अर्थ तत्वों/पदार्थों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। जीव और अजीव तत्त्वों के स्वरूप का निश्चिय तत्त्वार्थ है और तत्त्वार्थ का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है ! तथा सभी भारतीय दर्शनों एवं शास्त्रों में मुक्त कण्ठ से एक स्वर में सम्यग्ज्ञान् अर्थात् आत्मज्ञान की प्रबल प्रेरणा दी गयी है। शास्त्रों में स्पष्ट कहा भी गया है कि—‘सुखदु:खप्रदो नान्य: पुरुषस्यात्मविभ्रम:’ इसी प्रकार और भी अनेक कथन सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय में यत्र—तत्र बहुश: उपलब्ध होते हैं जिनसे जीवन में आत्मज्ञान की महती उपयोगिता स्पष्ट होती है। जैन दर्शन का सामान्य अभिमत यह है कि संसार की समस्त वस्तुओं में उत्पाद्य—ध्रौव्य सतत् वर्तमान है। अर्थात् जो उत्पन्न हुआ है वह नष्ट भी होगा और उसकी स्थिति भी रहेगी। उत्पादव्ययध्रौव्य युक्तं सत् सत्द्रव्यलक्षण। प्रत्येक वस्तु में नित्य और अनित्य दोनों की सत्ता भी सदैव ही रहती है। इस जगत का निर्माता कोई ईश्वर नहीं है। प्राकृतिक तत्वों के निश्चित नियमों के अनुसार सृष्टि का निर्माण स्वाभाविक रूप से होता रहता है और स्वाभाविक रूप से ही वस्तु के पर्यायों का परिवर्तन होता रहता है। अत: प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक है और संसार की समस्त वस्तुएँ सदसदात्मक हैं। यह संसार शाश्वत और नित्य है क्योंकि पदार्थों का अर्थात् वायु, जल, अग्नि, आकाश और पृथ्वी का मूलत: विनाश नहीं होता अपितु उनका रूप परिर्वितत होता रहता है। जैनधर्म दर्शन अपने सांसारिक और आध्यात्मिक जीवन में मनुष्य को ही उसके कर्म के लिये उत्तरदायी मानता है—और व्यावहारिक रूप से यही सत्य भी प्रतीत होता है। उसके समस्त सुख–दु:खद्ध मानापमान इत्यादि उसके यही कर्म उसके पुनर्जन्म का कारण बनते हैं। मोक्ष प्राप्ति के लिये आवश्यक है कि मनुष्य ‘‘त्रिरत्न’’ के अनुशीलन और अभ्यास के द्वारा अपने पूर्वजन्म के कर्मफल का नाश करे तथा इस जन्म में किसी प्रकार भी कर्मफल संग्रहित न करे। ये त्रिरत्न हैं : सम्यक् श्रद्धा अर्थात् सत् में विश्वास, सम्यक् ज्ञान अर्थात् सद्रूप का शंकाविहीन और वास्तविक ज्ञान तथा सम्यक् आचरण अर्थात् बाह्य जगत के विषयों के प्रति सम सुख—दु:ख भाव से उदासीनता। सम्यक्दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग:। जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान भी पाँच प्रकार के होते हैं—मति अर्थात् इन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान, इन्द्रियों द्वारा पदार्थों का जो ज्ञान होता है उसे मतिज्ञान कहते हैं। श्रुति अर्थात् श्रवण के द्वारा प्राप्त ज्ञान, मतिज्ञान से ज्ञात पदार्थों का जो विशेष रूप से ज्ञान होता है। श्रुत ज्ञान कहलाता है। अवधि जो दिव्य ज्ञान भी कहलाता है। द्रव्य क्षेत्र काल भाव की मर्यादा से इन्द्रियादिक की सहायता के बिना जो ज्ञान आत्मा से रूपी पदार्थों को स्पष्ट जानता है वह अवधि ज्ञान है ! मन पर्याय अर्थात् ऐसा ज्ञान जिसके द्वारा अन्य व्यक्तियों के मन—मस्तिष्क की बात जानी जा सकती है और केवल ज्ञान अथवा पूर्ण ज्ञान। सब द्रव्यों और सब पर्यायों को एक साथ स्पष्ट जानने वाले ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं। किसी भी वस्तु के अनन्त गुण होते हैं। यही स्याद्वाद अथवा अनेकान्तवाद या सप्तभंगी का सिद्धांत है। स्याद्वाद अर्थात् सापेक्षतावाद अर्थात् किसी अपेक्षा से। यह किसी वस्तु के गुण को समझने समझाने और अभिव्यक्त करने का सापेक्षिक सिद्धान्त है और किसी अपेक्षा से कोई भी वस्तु सत् भी हो सकती है और असत् भी और इसी विचार से वस्तु अनन्तगुणात्मक होती है। केवल मुक्त अथवा कैवल्य ज्ञान प्राप्त साधक ही वस्तुओं के इन अनन्तगुणों का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। साधारण मनुष्यों का ज्ञान आंशिक और सापेक्ष होता है। यह आंशिक ज्ञान ही नय कहलाता है। ये नय सत्य के आंशिक रूप होते हैं। इस प्रकार आंशिक और सापेक्ष ज्ञान से सापेक्ष सत्य की प्राप्ति सम्भव है, निरपेक्ष सत्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। सापेक्ष सत्य की प्राप्ति के कारण ही किसी वस्तु के सम्बन्ध में साधारण व्यक्ति का निर्णय पूर्ण रूपेण सत्य नहीं हो सकता। आज जो समाज में इतना मत—वैषम्य दिखाई देता है उसका सबसे बड़ा कारण यही है कि व्यक्ति बिना किसी र्तािकक अभिव्यक्ति के केवल अपने विचारों को सत्य मानता है और दूसरे के विचारों की उपेक्षा करता है। जबकि र्तािकक दृष्टिकोण यही है कि किसी एक व्यक्ति का विचार पूर्ण रूप से सत्य नहीं हो सकता। यदि ऐसा होता तो भगवान महावीर भगवतीय सूत्र में आत्मा की सत्ता के विषय में स्वयं तीन भंगों का उल्लेख न करत—स्यादस्ति, स्यान्नास्ति और स्यादवक्तव्यम्—अर्थात् है भी, नहीं भी है और अनिर्वचनीय है। भिन्न—भिन्न दृष्टिकोणों से देखे जाने के कारण प्रत्येक ज्ञान भी भिन्न—भिन्न हो जाता है और प्रत्येक दृष्टिकोण अपने दृष्टिकोण से सही मूल्यांकन करता है। इसे ही जैन धर्म में स्याद्वाद या अनेकान्तवाद कहते हैं। भारत के अन्य दर्शनों की ही भाँति जैन दर्शन का भी अन्तिम लक्ष्य निर्वाण प्राप्ति ही है। निर्वाण अर्थात् जीव के भौतिक अंश का नाश। कर्मफलों का निरोध करके ही निर्वाण सम्भव है और इन भौतिक तत्त्वों के दमन के लिये तपस्या व्रत आदि के द्वारा शरीर को कष्ट दिया जाना आवश्यक है। पञ्चमहाव्रतों का अनुशीलन भी आवश्यक है। जिनमें सर्वप्रथम अहिंसा—‘जान बूझ कर या अनजाने में भी कायिक, वाचिक और मानसिक हिंसा नहीं करनी चाहिये। असत्य भाषण से बचना चाहिये। किसी अन्य की वस्तु की इच्छा नहीं करनी चाहिये। ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये। आज की विषम सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियों में इन पाँच महाव्रतों के पालन की नितान्त आवश्यकता है। कायिक—वाचिक—मानसिक हिंसा से मुक्त हो जाने पर क्रोध की भावना स्वत: ही समाप्त हो जाएगी और समाज में शान्ति व्याप्त होगी। असत्य नहीं बोलेंगे तो कुतर्क और विश्वासहीनता की स्थिति भी नहीं उत्पन्न होगी। किसी अन्य की वस्तु की इच्छा न करने से मन में लालच लोभ नहीं आएगा और अपरिग्रह का पालन करने से तमाम चिन्ताएँ नष्ट हो जाएँगी। जब हम वस्तुओं का संग्रह करते हैं तभी उनकी सुरक्षा के उपाय सोचने पड़ते हैं और यह संग्रह तथा उसे बनाए रखने का विचार अनेक र्दुिवचारों को जन्म देता है। वास्तविक ब्रह्मचर्य भी यही है कि मन से हर प्रकार के लोभ मोह से मुक्ति प्राप्त हो जाए। इन सभी व्रतों का पालन आवश्यक होता है। समाज और देश के लिये कितना श्रेयस्कर हो यदि न केवल पर्व के दिनों में बल्कि दिन प्रतिदिन के आचरण में हर व्यक्ति इन व्रतों का पालन करे क्योंकि हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, दोषारोपण, चुगली, असंयम आदि जो पाप बताए गए हैं वही आज देश और समाज को खोखला किये दे रहे हैं। उपरोक्त पाँच महाव्रतों के दिन प्रतिदिन के अनुशीलन से इन समस्त पापों से मुक्ति प्राप्त हो सकती है और तब किसी प्रकार के अपराध के लिये स्थान ही नहीं रहेगा। जीव — जैन दर्शन आत्मा—परमात्मा, पुण्य—पाप, स्वर्ग—नरक आदि की सत्ता की तरह आत्मा की सत्ता को भी स्पष्टतया स्वीकार करता है। जैन दर्शन आत्मा की सत्ता में न केवल विश्वास करता है, अपितु विविध युक्तियों से उसके अस्तित्व की सिद्धि भी करता है। आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि के लिए जैनाचार्यों ने अपने ग्रंथों में अनेकानेक युक्तियाँ प्रस्तुत की हैं। आचार्य समन्तभद्र (द्वितीय शताब्दी) ने तो ‘जीवसिद्धि’ नामक एक स्वतन्त्र ग्रंथ ही लिखा है जिसमें अनेक युक्तियों से जीव के अस्तित्व को सिद्ध किया गया है। जीव के अस्तित्व की सिद्धि में जैनाचार्यों द्वारा प्रस्तुत इस प्रकार है—
१.जिस प्रकार यन्त्र प्रतिमा की चेष्टाएँ अपने प्रयोक्ता के अस्तित्व का ज्ञान कराती है उसी प्रकार प्राण— अपान आदि भी आत्मा के अस्तित्त्व का ज्ञान कराते हैं।
२.मैं सुखी, मैं दु:खी इत्यादि प्रकार से जो ‘अहं—प्रत्यय’ होता है उससे भी आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि होती है।
३.‘आत्मा’ शब्द है तो आत्मा अर्थ भी अवश्य होना चाहिए। जिनका अस्तित्व नहीं होता उनके वाचक शब्द भी नहीं होते।
४. गुण (सुख, दु:ख, ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि) गुणी के बिना नहीं रह सकते। वह गुणी आत्मा ही है। इसके अतिरिक्त ‘स्याद्वादमूड्टरी’ आदि ग्रंथों में एक अकाट्य तर्क यह भी दिया गया है कि ‘आत्मा है’ ऐसा जो हमको ज्ञान होता है वह क्या है ? संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय अथवा सम्यक् ? कोई एक तो अवश्य होगा। यदि संशय है तो भी आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि होती है क्योंकि अवस्तु का संशय नहीं होता। यदि विपर्यय है तो भी आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि होती है, क्योंकि अवस्तु का संशय नहीं होता। यदि विपर्यय है तो भी आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि होती है क्योंकि सर्वत्र अप्रसिद्ध पदार्थ का विपर्यय नहीं होता। अनध्यवसाय हो नहीं सकता, क्योंकि अनादिकाल से प्रत्येक व्यक्ति आत्मा का स्पष्ट अनुभव करता है तथा यदि सम्यक् है तब तो आत्मा के अस्तित्व का साधक ही है। जैनग्रंथों में विशेषतया आचार्य वीरसेन (धवला) और आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती (गोम्मटसार) में जीव के अनेक पर्यायवाची या समानार्थक शब्दों का उल्लेख किया गया है और साथ ही उनका अर्थ भी स्पष्ट किया गया है। संक्षेप में जीव के (संसारी जीव के) कुछ पर्यायवाची इस प्रकार है—ज्ञ—ज्ञानी—ज्ञाता—कत्र्ता—भोक्ता—वक्ता—प्राणी—विष्णु—स्वयंभू—शरीरी—देही—मानव—जन्तु—मायावी—योगी—क्षेत्रज्ञ—अन्तरात्मा। जैनग्रंथों में यद्यपि जीव के उपर्युक्त अनेक पर्यायवाची शब्द गिनाये गये हैं, परन्तु प्रयोग जीव और आत्मा इन दो शब्दों का ही सर्वाधिक हुआ है, अत: इन दो शब्दों को विशेष रूप से समझना आवश्यक है। ‘जीव’ शब्द की व्युत्पत्ति और अभिप्राय इस प्रकार बताया गया है कि जो जीता है, जीता था और भविष्य में भी जीएगा वही जीव है। यथा—दशसु प्राणेषु यथोपात्तप्राणपर्यायेन त्रिषु कालेषु जीवनानुभवनात् जीवति, अजीवीत् जिविष्यति इति वा जीव:। जीव यह है, जिसमें उपयोग (बोधव्यापार) का उदय हो। चैतन्यानुविधायिपरिणाम: उपयोग: बोधव्यापार चैतन्य शक्ति का कार्य है और वह जीव में स्वाभाविक है। जीव की संख्या अनंत है और उसका परिमाण देहव्यापी है।
उपयोगो लक्षणं जीव
जैनाचार्यों ने अन्य दर्शनों में प्रतिपादित जीव—विषयक मिथ्या मान्यताओं का भी निराकरण किया है। इसके अतिरिक्त अन्यत्र भी यथाप्रसंग जीवविषयक अनेकानेक धारणाओं को मिथ्या, असमीचीन या युक्तिरिुद्ध कहा है और उनका सशक्त निराकरण प्रस्तुत किया है। यहाँ हम अधिक विस्तार में न जाकर अतिसंक्षेप में अस्ति—नास्ति विधि से जीव—विषयक जैन—अवधारणा को जानने का प्रयत्न करते हैं। जीव का अस्तित्व है। वह स्वतन्त्र परिपूर्ण सत्ता है। जीवों की संख्या अनन्त है, जीव उपयोगमय है। चेतना उसका स्वभाव है। स्वभाव से अर्मूितक है, अजर—अमर है। देहमय नहीं है, संकोच—विस्तार स्वभावी है, स्वदेह—परिमाण है। अपने भावों का कत्र्ता—भोक्ता है। जैन दर्शन के अनुसार इस लोक में अनन्त जीव रहते हैं और यद्यपि स्वभाव की दृष्टि से वे सभी समान है, परन्तु पर्यायदृष्टि से वे अनन्त जीव विविध प्रकार के हैं, जीव संसारी मुक्त स्थावर (एकेन्द्रिय) त्रस (१) द्वीन्द्रिय (कृमि आदि) (२) त्रीन्द्रिय (चींटी आदि) (३) चतुरिन्द्रिय (भ्रमर आदि) (४) पञ्चेन्द्रिय (मनुष्य, देव नारकी, तिर्यंच) (१) पृथ्वीकायिक (२) जलकायिक (३) अग्निकायिक (४) वायुकायिक (५) वनस्पतिकायिक इत्यादि। अजीव जिसमें बोधव्यापार की उत्पादिका चैतन्यशक्ति नहीं होती वह ‘‘अजीव’’ कहा जाता है। उसके दो भेद हैं—अस्तिकाय एवं अनिस्तकाया ‘‘अस्तिकाय’’ रूप अजीव के चार भेद हैं—धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय, अकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाया अस्तिकाय का अर्थ है—प्रदेशसमूह तथा अवयवसमूह। प्रथम (प्रदेशसमूह) में धर्म, अधर्म और आकाश का तथा दूसरे (अवयवसमूह) में पुद्गलों का समावेश होता है। पदार्थों की गति के निमित्तभूत द्रव्य को ‘‘धर्म’’ उनकी स्थिति के निमित्तभूत द्रव्य को ‘‘अधर्म’’ उन्हें स्थान देने के निमित्तभूत द्रव्य को ‘‘आकाश’’ तथा जीव के जीवन मरण के निमित्तभूत द्रव्य को ‘‘पुद्गल’’ कहा जाता है। ‘‘अनस्तिकाय’’ का एक ही भेद है और वह है काल। आस्रव जीव को कर्मबंधन में डालने वाले जीव व्यापार को ‘‘आस्रव:’’ कहा जाता है। वह मन, वाक् और काय से जनित होने के कारण त्रिविध होता है। कायवाक्मन: कर्मयोग: स आश्रव: अर्थात् शरीर, मन और वचन से जो कर्म करते हैं उन्हें योग कहते हैं और योग ही आश्रव है। शुभ योग पुण्य का आश्रव है और अशुभ योग पाप का आश्रव है। ‘‘कायवाङ् मन: कर्म योग: स आस्रव’’ बंध आत्मप्रदेशों के साथ कर्मपुद्गलों के संबंध का नाम है—‘‘बंध’’ सकषायत्त्वाज्जीव: कर्मणो: योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्ध:। अर्थात् जब जीव कषाय सहित होता है तब कर्मों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है वही बन्ध है। वह मिथादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन पाँच हेतुओं से उत्पन्न होता है। मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमाद—कषाययोगा: बन्धहेतव:। संवर मन, वचन और शरीर की कुत्सित प्रवृत्तियों के निरोध का नाम है। आस्रव निरोध: संवर:। निर्जरा तप, संयम आदि के सेवन से चिरसंचित शुभ, अशुभ कर्मों के आंशिक विनाश को ‘‘निर्जरा’’ कहा जाता है। मोक्ष—कर्मबंधनों के अत्यंतिक विनाश का नाम ही मोक्ष है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्रय के सेवन से उसकी प्राप्ति होती है।
अर्थात् मोहनीय कर्म के क्षय होने के अनन्तर तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म के क्षय होने से केवल ज्ञान उत्पन्न होता है तथा बन्ध के कारणों के अभाव होने से तथा निर्जरा समस्त कर्मों का अत्यन्त अभाव हो जाना ही मोक्ष है। इस प्रकार जैन दर्शन इस संसार को किसी भगवान द्वारा बनाया हुआ स्वीकार नहीं करता है, अपितु शाश्वत मानता है। जन्म—मरण आदि जो भी होता है, उसे नियंत्रित करने वाली कोई सार्वभौमिक सत्ता नहीं है। जीव जैसे कर्म करता है, उनके परिणाम स्वरूप अच्छे या बुरे फलों को भुगतने के लिए वह मनुष्य—नरक देव एवं तिर्यंच (जानवर) योनियों में जन्म—मरण करता रहता है। जीव और कर्मों का यह सम्बन्ध अनादि काल से नीर—क्षीरवत् जुड़ा हुआ है। जब जीव इन कर्मों से अपनी आत्मा को सम्पूर्ण रूप से कर्मों से मुक्त कर देता है तो वह स्वयं भगवान बन जाता है, लेकिन इसके लिए उसे सम्यक् पुरुषार्थ करना पड़ता है यह जैन धर्म की मौलिक मान्यता है। णमोकार मन्त्र इस जैन दर्शन का सार है।