भारत में आज गणेश देवाधिदेव के रूप में प्रतिष्ठित हैं। किसी भी वैदिक या वैदिकेतर हिन्दू देवी-देवता का पूजन- अनुष्ठान आदि धार्मिक कार्य हो या फिर गृहप्रवेश, भूमिपूजन, विवाह आदि लौकिक संस्कार हो; सर्वप्रथम विघ्नहत्र्ता मंगलमूर्ति के रूप में गणेश जी का पूजन अवश्य किया जाता है। घर, कार्यालय, औद्योगिक-संस्थान, व्यापारिक प्रतिष्ठान आदि सभी के प्रवेशस्थल पर शीर्षस्थान में गणेश की स्थापना अवश्य होती है। इसी प्रकार किसी भी मांगलिक कार्य का निमन्त्रण-पत्र या सूचना हो, उसकी माध्यम भाषा हिन्दी-संस्कृत-अग्रेजी या फिर अन्य कोइ्र भी क्षेत्रीय भाषा हो, किन्तु उस पर गणेश जी का अंकन अवश्य होता है। भारतीयेतर सभ्यताओं के प्रतीक ईसाई एवं मुस्लिम सम्प्रदायों को छोड़कर प्राय: शेष सम्पूर्ण भारतीय समाजों में आज गणेश सर्वमान्य एवं समादृत हो चुके हैं। ऐसे बहुशंसित देवाधिदेव ‘गणेश’ को आज जितना अधिक पूजा जाता है, उनके मूलस्वरूप के बारे में जनसाधारण नितान्त अपरिचित है। जो कुछ जानकारी उसे दी जा रही है, वह न केवल आधी-अधूरी ही है; अपितु दिग्भ्रमित कराने वाली भी है। अत: देवाधिदेव गणेश के बारे में तथ्यमूलक वास्तविक सूचनायें प्रस्तुत करना इस आलेख का उद्देश्य है। ‘गणेश’– इस पद में दो शब्दों की सन्धि हुई है– ‘गण’ और ‘ईश’। गणनार्थक ‘गण’ धातु से निष्पन्न ‘गण’ शब्द ‘दल’ या ‘समूह’ का वाचक है। संस्कृतज्ञों ने इसका ‘नमेरु’ अर्थात् ‘रुद्राक्ष’ या ‘सुरपुन्नाग’ वृक्ष के पुष्पों की ‘माला’ या ‘मुकुट’‘गणा नमेरुप्रसवातंस–कालिदासकृत ‘कुमारसम्भव’, १/५५, ३/४३ एवं ‘रधुवंश’, ४/७४। तथा ‘नमेरु’ का अर्थ रुद्राक्ष या सुरपुन्नाग है– आप्टेकृत संस्कृत–हिन्दी कोश, पृ. ५११ अर्थ भी किया है। इन पुष्पों की प्रकृति मधुर, शीतल, सुगन्धित, कफ में आने वाले रक्त के दोष को दूर करने वाली एवं पित्तनाशक मानी गयी है।द्र. शब्दकल्पद्रुम, तृतीय भाग, पृ. १७१ अन्यत्र ‘गण’ शब्द का अर्थ ‘शिव जी’ के सेवकों का समूहसंस्कृत शब्दार्थ-कौस्तुभ, पृ. ३८८ भी किया है और उनके अधिपति (ईश) को ‘गणेश’ संज्ञा प्रदान की है। इनकी उत्पत्ति वे महादेव शिवजी की पत्नी ‘पार्वती’ के शरीर के मैल से उत्पन्न पुत्र के रूप में कथासूत्रों के द्वारा प्रतिपादित करते हैं।‘ब्रहमवैवर्तपुराण’ में (द्र. शब्दकल्पद्रुम, भाग २, पृ. २९८-२९९)। ‘हारावली’ के कत्र्ता ‘गणेश’ का परिचय देते हुए लिखते हैं – ‘‘गणानां प्रथमसमूहानां यद्वा गणानां जीवजातानां ईश: ईश्वर:, गणेश:।’’‘हारावली’, ८ एवं ‘महाभारत’ ३/३९/७८ अर्थात् गणों के अर्थात् प्रथमसमूह (शिवजी के गणों) के अथवा गणों के अर्थात् समस्त जीवधारियों के जो ईश्वर हैं, वे गणेश हैं।‘अमरकोष’, १/१/४० कोशकारों ने गणेशजी के पर्यायवाची निम्नानुसार गिनाये हैं – १. विनायक, २. विघ्नराज, ३. द्वैमातुर, ४. गणाधिप, ५. एकदन्त, ६. हेरम्ब, ७. लम्बोदर, ८. गजानन, ९. विघ्नेश, १०. पर्शुपाणि, ११. गजास्य, १२. आखुग:हेमचन्द्र, २/१२१ एवं १३. शूर्पकर्ण:‘ब्रहमवैवर्तपुराण’ में। इत्यादि।हिन्दूपुराणों में इनके बाह्यरूप का वर्णन निम्नानुसार प्राप्त होता है –
अर्थ–गणेशजी का वर्ण चम्पकपुष्प के समान श्वेत एवं करोड़ों चन्द्रमाओं की प्रभा के समान भास्वर था। उनका दर्शन सुखकारी था एवं सभी लोगों की आँखों की किरणों (रोशनी) को बढ़ाने वाला था। कामदेव को भी विमोहित कर देने वाले अत्यन्त सुन्दर शरीर के धारक गणेशजी का अतुलनीयरूप शरतकालीन चन्द्रमा की शोभा को भी फीका करता था। उनके लोचनयुगल अतिसुन्दर थे एवं सुन्दर कमलों को भी तिरस्कृत करने वाले थे। इसी प्रकार उनके अधरोष्ठ भी पके हुए बिम्बाफल को महत्त्वहीन बना रहे थें उनका शिरोभाग एवं कपोलभाग (मुखमण्डल) भी अत्यन्त मनोहारी था। वे सुन्दर नायिका के धारक थे, जोकि गरुड़ की चोंच से भी सुन्दर थी। कहा जाता है कि शनिदेव ने कोपवश इनका मस्तक काट डाला, तब शिवजी कहीं कुपित न हो जायें– इस भय से विष्णु जी ने गजशिशु का मस्तक काटकर उसकी जगह स्थापित कर दिया। और इस प्रकार गणेशजी का गजानन रूप निर्मित हुआ। वैदिक आस्थावाले विज्ञजन एवंश्रद्धालु जनसामान्य सभी गणेश जी के इसी रूप को अपने देवाधिदेव के रूप में पूजते हैं। किन्तु गणेशजी के उद्भव की यह पौराणिक कथा ही प्राचीनतम हिन्दूशास्त्रीय उल्लेख है, शेष समस्त प्राचीन वैदिक साहित्य में गणेशजी का कहीं भी कोई उल्लेख नहीं मिलता है। वास्तविक तथ्या तो यह है कि गणेशजी वैदिक देवता हैं ही नहीं, वे श्रमणों के आराध्यदेव हैं और उनके प्रचलितरूप का श्रमण-संस्कृति से साम्य तथ्यों के आलोक में विचारणीय है।
१. श्रमण–संस्कृति के अनुसार इस युग में आद्यप्रवर्तक प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव हुए हैं, जिनका चिह्न वृषभ (बैल) था; इन्हें ‘आदिनाथ’ भी कहा जाता है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमय रत्नत्रयरूपी ‘त्रिशुल’ इनके उपदेशों का प्रतीक था, तथा अष्टापद-कैलाशपर्वत से मोक्ष को प्राप्त करने के कारण इन्हें ‘कैलाशपति’ भी कहा जाता है।‘हरिवंशपुराण’ १२/८० इनकी ये सब विशेषतायें हिन्दुओं के देव ‘शिव’ या ‘शंकर जी’ से बहुत मिलती हैं। विद्वान् तो यहाँ तक कहते हैं कि ‘‘जैनो’ के ‘ऋषभ’ एवं हिन्दुओं के ‘शिव’ एक ही व्यक्ति थे, भिन्न नहीं।’’‘विश्वधर्म की रूपरेखा’ पृ. ३५-३७ इन्हीं ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र चक्रवर्ती भरत के पुत्रों में श्रेष्ठ ‘वृषभसेन’ तप:पूर्वक तीर्थंकर ऋषभदेव की धर्मसभा में प्रधानश्रोता ‘गणधर’ के अधिपति या प्रमुख बने थे।श्रीमान् वृषभसेनाख्य: प्रजापारमितो वशी/स संबुध्य गुरोर्पाश्र्वे दीक्षित्वाऽभद् गणाधिप: ।।- ‘महापुराण’ २४/१७२ अत: उन्हें ‘गणपति’ या ‘गणेश’ की संज्ञा प्राप्त हुई। अब तुलनात्मक दृष्टि से विचार करें, तो पाते हैं कि हिन्दुग्रन्थों में जो ‘गणेश’ को ‘शिवपुत्र’ कहा गया,महाभारत १/१/७३वह उन्हीं के पुराण नहीं स्वीकारते हैं, क्योंकि उनके अनुसार गणेशजी पार्वती जी के शरीर के मैल से उत्पनन हुए थे, शिवजी से उनका कोई सम्बन्ध नहीं था। जबकि जैनों के ‘शिव’ वृषभदेव तीर्थंकर के औरसपुत्र भरत के पुत्र होने से श्रमण संस्कृति के गणेश का ‘शिव’ से सीधा सम्बन्ध सिद्ध होता है।
तथा ‘ब्रहमाण्डपुराण’ में आदि तीर्थंकर ऋषभदेव को ‘समस्त क्षत्रियों का पूर्वज’ बताया गया है –‘‘ऋषभं पार्थिवश्रेष्ठं, सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम् ।’’ब्रहमाण्ड पुराण, पूर्व २/१४ तथा – ‘‘क्षात्रो धर्मो ह्यादिदेवात् प्रवृत्त:, पश्चादन्ये शेषभूताश्च धर्मा: । महाभारत’, शांतिपर्व १२/६४/२०इन्हीं क्षत्रियों के पूर्वज ऋषभदेव की परम्परा में शेष महावीरान्त तेईस तीर्थंकर हुए तथा इन्हीं की परम्परा में सम्पूर्ण भारतीय अध्यात्म-शास्त्रीय एवं योगशास्त्रीय ज्ञान की उपलब्धि मानी गयी है। शांकर-भाष्य‘‘एवं क्षत्रिय-परम्परा-प्राप्तमिमम्’’ – ‘शांकरभाष्य’ ।एवं भगवद् गीता‘ग्रीता’ ४/२में इस तथ्य को स्वीकार किया गया है। उपर्युक्त वर्णन से भी गणेशजी ‘जैनों के शिव’ तीर्थंकर ऋषभदेव से सम्बद्ध ही सिद्ध होते हैं। यहाँ यह ध्यातव्य है कि वैदिक-परम्परा के ऋषियों एवं मनीषियों ने ही ये समस्त तथ्य प्ररूपित किये हैं।
३. महाभारत में ही गणेश को ‘दिगम्बर’ बताया गया है –‘‘गणकत्र्ता गणपतिर्दिग्वासा: काम एव च।’’‘महाभारत’ १३/१७/४१ध्यातव्य है कि हिन्दुओं में गणेश को रक्ताम्बर (लालवस्त्रधारी) माना गया है,‘‘रक्तोत्पलकरा ध्येया रक्तामाल्याम्बरारूणा:।- राघवभट्टकृत ‘शारदातिलक’ टीका।तथा जैनों के साधु निग्र्रन्थ दिगम्बर ही होते हैंं प्रथम गणधर वृषभसेन भी मूलत: ऐसे ही नग्न दिगम्बर साधु थे। अत: गणेश के दिगम्बर (दिग्वासा:) रूप की स्वीकृति से महाभारतकार के ये वचन वस्तुत: दिगम्बर वृषभसेन गणधर, जिन्हें ‘गणेश’ भी कहा गया, के प्रति कहे गये सुनिश्चित होते हैं। हिन्दु-ग्रन्थों में अन्यत्र भी गणेश को दो भुजाओं वाले, सुन्दर मुखाकृतिवाले ‘दिगम्बर’ कहा गया है–‘‘श्यामवर्ण तथा शक्तिं धारयन्तं दिगम्बरम् ।…….. दिगम्बरां सुवदनां भुजद्वय-समन्विताम् ।।……’’उत्तरकामिकागमे पञ्चचत्वारिंशत्तम पटल; ‘कल्याण’ मासिक, सं. हनुमानप्रसाद पोद्दार।जबकि हिन्दुओं की प्रचलित मान्यतानुसार गणेश के हाथी का मुख एवं चार हाथ होते हैं।
४. गणेशजी का एक अन्य नाम ‘विनायक’ भी कहा जाता है। ‘मेदिनीकोश’ में विनायक को ‘जिन-गुरु’ (गणधर या तीर्थंकर) कहा गया है –‘‘विनायकस्तु हेरम्बे ताक्ष्र्यों विघ्ने जिने गुरौ।’’‘मेदिनीकोश’ क. २१३ जिन– जितेन्द्रिय तीर्थंकर को या मुनिवर को कहा जाता है। इस कथन के अनुसार भी ‘गणेश’ जिनदेव या जिनगुरू ही सिद्ध होते हैं; हिन्दु देवता नहीं। जैनग्रन्थों में भी केवली, जिन, सिद्ध और साधु को ‘गणदेव’ संज्ञा दी गयी है–‘‘प्राग्दिग्विदिगंतरि केवली-जिन-सिद्ध-साधु-गणदेवा।’’आचार्य पूज्यपाद देवनंदि, ‘दशभक्त्यादिसंग्रह’ पृ. २५७
५. तीन सौ ईसापूर्व में रचित ‘कातन्त्र व्याकरण’ में वृषभसेन गणधर से लेकर गौतमपर्यन्त चौबीसों तीर्थंकरों के समस्त गणधरों को ‘गणेश कहा गया है –‘‘नमो वृषभसेनादि-गौतमान्त्य-गणशिने।’’कातन्त्र-व्याकरण, ३धवलाकार आचार्य वीरसेन स्वामी भी ‘उसहसेणादि गणहर’‘धवला’ पुस्तक ४, पृ. ३२३ कहकर इसी तथ्य को संकेतित करते हैंं जैनदर्शन में साधुगणों का अधिपति यतिपति ही ‘गणपति गणेश’कहा जाता है। ऋग्वेद का यह मंत्र भी यही द्योतित करता है –‘‘गणानां त्वा गणपति हवामहे……’’‘ऋग्वेद’ २/२३/१
६. कवि अर्हद्दासकृत पुरुदेवचम्पू काव्य में भी गणधर वृषभसेन को ‘गणेश’ कहा गया है–
अर्थ– तदनन्तर पिता प्रजापति वृषभदेव के शोक से उत्पन्न चिन्ता को दूर कर भरत चक्रवर्ती ने विनम्रभाव से (प्रथमगणधर वृषभसेन) ‘गणेश’ को नमस्कार कर अपनी भोग-तृष्णा की गर्हा (निंदा) करते हुये वैभव के साथ अपनी अयोध्या नगरी में प्रवेश किया।
७. सप्तभंगीतरंगिणी के टीकाकार आचार्य ठाकुरप्रसाद शर्मा गणेश को ‘निर्दोष वीतराग एवं विघ्नहत्र्ता मानते हैं –
८. आधुनिक मनीषियों ने भी गणेशजी को वैदिकेतर देवता माना है। डॉ० सम्पूर्णनन्द लिखते हैं कि– ‘‘गणेश आर्येतर देवता हैं।’’‘हिन्दू देवी-देवता’ पुस्तक में। राष्ट्रकवि रामधारीसिंह ‘दिनकर’ लिखते हैं कि ‘‘आर्य लोग गणेश का अस्तित्व नहीं जानते थे।’’‘संस्कृति के चार अध्याय’ पृ. ७५ स्पष्टत: ये श्रमण देवता थे। क्योंकि प्राचीन काल में भारत में दो ही वर्ग थे– १. ब्राह्मण (आर्य/वैदिक) और २. श्रमण (जैन)। प्रसिद्ध विद्वान् डॉ. पी.आर. देशमुख जैनधर्म की मौलिकता स्वीकार करते हुए लिखते हैं– ‘‘जैनधर्म ने वेदों से कुछ भी स्वीकार या ग्रहण नहीं किया है।’’‘इण्डस् सिविलाइजेशन: ऋग्वेद एण्ड हिंदू कल्चर’, पृ. ३६१३० डॉ. मारुतिनन्दन तिवारी लिखते हैं कि ‘जैन गणेश की लाक्षणिक विशेषतायें स्पष्टत: हिन्दू गणेश के प्रभाव का संकेत देती हैं।‘जैनप्रतिमा-विज्ञान’ पृ. ४४ अर्थात् दोनों में साम्य बहुत है। तथा जब वैदिक साहित्य व आर्य सभ्यता ‘गणेश’ से नितान्त अपरिचित है, तो इस स्थिति में गणेश ‘जैन देवता’ के रूप में ही प्राचीनरूप में सिद्ध होते हैं।
९. जैन स्तुति-साहित्य में भी जिनेन्द्रदेव की ‘गणेश’ के रूप में व्यापक स्तुति प्राप्त होती है। यथा –
गणानां मुनीनामधीशत्वतस्ते, गणेशाख्यया ये भवन्तं स्तुवन्ति ।
सदा विघ्नसंदोह-शांतिर्जनानां, करे संलुठत्यायत श्रेयसानाम् ।।
संस्कृत पञ्चपरमेष्ठि-पूजन या विनायकयन्त्र-पूजन की जयमाला के पद्य १-२
अर्थ–विघ्नों के नाश की विधि में देवगण एवं मनुष्यों के स्वामी जिनेन्द्रदेव को ही श्रेष्ट इष्ट मानते हैं। अनादिअनंत-युगवर्ती इस कार्य में विघ्नसमूह के निवारणार्थ में भी उनका स्मरण करता हूँ। आप गणों के एवं मुनियों के अधीशपने को धारण करते हैं, अत; जो आपकी ‘गणेश’ नाम से स्तुति करते हैं, उन सभी लोगों के विघ्नसमूह की आप सदा शांति करें तथा श्रेयसों की प्राप्ति करायें। चूँकि गणेश के नामान्तर ‘विनायक’ शब्द का अर्थ ही ‘बाधाओं को हटाने वाला’आप्टेकृत ‘संस्कृत-हिन्दीकोश’ पृ. ९३९ बताया गया है, अत: समस्त विघ्न-शान्त्यर्थ जिस यन्त्र की जिनमन्दिर में प्रतिष्ठा की जाती है, उसका नाम भी ‘विनायक यन्त्र’ कहा गया है।
१०. उपर्युक्त पंचपरमेष्ठी पूजन की जयमाला में गणेश को ‘पंचपरमेष्ठी’ (अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु) का वाचक शब्द बताया गया है। यह तथ्य एक अन्य प्रमाण से भी पुष्ट होता है। जैनदर्शन में ‘ओंकार को पंचपरमेष्ठी का वाचक’ माना गया है –
‘अरिहंता-असरीरा-आयरिया-उवज्झया तहा मुणिणो ।‘समणसुत्त’ १२ पढमक्खर-णिप्पण्णो ओंकारो पंच-परमेट्ठी ।।
तथा हिन्दू संस्कृति में भी ‘गणेश’ को ओंकार का प्रतीक माना गया है।ओंकाररूपी भगवानुक्तस्तु गणनायक: । यथा कर्मसु सर्वेषु पूज्यतेऽसौ विनायक: ।। -‘गणेशपुराण’ वे कहते हैं कि ‘ओं’कार में ‘अ’ कार शरीर है, ‘ओ ’ की मात्रा-चिह्न सूंड का द्योतक है, ‘हाथी ’ का चिह्न एकदन्तहिन्दु मान्यता के अनुसार गणेशजी के दो गजदन्तों में से एक को परशुराम ने काट दिया था, अत: एक दाँत शेष रहने से उनका नाम ‘एकदन्त’ पड़ गया। का सूचक है, अनुस्वार- चिह्न ‘ – ’ मोदक है’ तथा प्लुत-चिह्न ‘३’ मूषक (चूहा) है।’’रघुनन्दन शर्मा, ‘वैदिक-सम्पत्ति’, पृ. ४५२ इसप्रकार ओंकार गणेशाकार है तथा ओंकार पंचपरमेष्ठीरूप होने से गणेश का पंचपरमेष्ठी रूपत्व न्यायप्राप्त है। गणेश को भी भौतिक एवं आध्यात्मिक सम्पन्नता का हेतु माना गया है तथा ओंकार का भी यही स्वरूप माना गया है–
‘‘कामदं मोक्षदं चैव ओंकाराय नमो नम: ।’’
चूंकि वृषभसेनादि गोतमान्त गणधर, जिन्हें ‘गणेश’ भी कहा गया; मूलत: ‘मुनि’ थे, उपदेशक होने से ‘उपाध्याय’ भी कहे गये, गणप्रमुख होने से ‘आचार्यत्व’ भी प्रसक्त हो गया।तदुपरान्त वे ‘अर्हन्त’ एवं ‘सिद्ध’ पद को भी क्रमश: प्राप्त हुए हैं। अत: ‘गणधर’ या ‘गणेश’ को ‘पंचपरमेष्ठीरूप’ मानना भी जैन परम्परा में तर्क एवं आगम-सम्मत है। इसमें शाब्दिक विरोध भले ही प्रतीत हो, किन्तु आम्नायगत विरोध कदापि नहीं है।
११. हिन्दू-संस्कृति में गणेश की परिकल्पना श्रमण७संस्कृति से उधार ली गयी है। क्योंकि ब्राह्मण-संस्कृति मूलत: अहिंसक एवं शाकाहारी नहीं थी, जबकि श्रमण-संस्कृति की मूलभित्ति ही अहिंसक शाकाहारी भोजन एवं सदाचरण है। अन्य कोई भी हिन्दू देवता पूर्ण अहिंसक वृत्ति, नहीं हैं, जबकि गणेश जी का सर्वांगीणस्वरूप ही अहिंसा व शाकाहार का सन्देश देता है। मोदक (लड्डू) शाकाहार है; ‘गजमुख’ माना गया, तो हाथी भी शुद्ध शाकाहारी प्राणी है; सेवक या वाहन मूषक (चूहा) भी शाकाहारी जन्तु है तथा गणेशजी की अभयमुद्रा प्राणिमात्र को अभयदान देती हुई अहिंसक-सन्देश का प्रसार करती है। संक्षेपत: प्रस्तुत इस वर्णन से यह बात स्पष्ट है कि गणेश, जो हिन्दू देवता माने जाते हैं, मूलत: श्रमण-संस्कृति के आराध्यदेव हैं। हिन्दू विद्वानों ने इनके व्यक्तित्व एवं महिमा से प्रभावित होकर इनका हिन्दू-संस्कृति के अनुरूप रूपान्तरण कर दिया है। यद्यपि उपर्युक्त कथन कतिपय तथ्यपरक विचार-बिन्दु मात्र हैं, तथापि यदि गम्भीतापूर्वक सूक्ष्म अध्ययन एवं गहन शोध की जाये; तो सिद्ध हो जायेगा कि ‘गणेशजी’ श्रमण-जैनसंस्कृति के पूज्य पुरुष हैं, हिन्दू देवता नहीं।
डॉ० सुदीप जैन प्राकृत विद्या अप्रैल-जून १९९५ अंक १