क्र. २ समयसार गाथा ६७ में ताड़पत्रीय प्रति में ‘जे जीवा’ पाठ है, जबकि अद्याविध प्रकाशित चौदह समाचार की प्रतियों में ‘जे चेव’ पाठ प्राप्त होता है।
सत्य क्या है ? – यह जानने के लिए मूल गाथा एवं अन्वयार्थ के साथ अन्य प्रमाणों का अवलोकन अपेक्षित है– मूलगाथा–
पज्जत्तापज्जत्ता से सुहुमा बादरा य जे जीवा । देहस्स जीवसण्णा सुत्ते ववहारदो उत्ता ।।६७।।
अन्वयार्थ–(पज्जत्तापज्जत्ता जे सुहुमा बादरा य जे जीवा) पर्याप्ताप्र्याप्ता ये जीवा: कथिता: सूक्ष्मबादराश्चैव ये कथिता: (देहस्स जीवसण्णा सुत्ते ववहारदो उत्ता) पर्याप्तापर्याप्तदेहं दृष्ट्वा देहस्य सा जीवसंज्ञा व्यवहारात् परमागमे कथिता, इति नास्ति दोष: । (आचार्य जयसेनकृत तात्पर्यवृत्ति टीका के आधार पर)
हिन्दी अर्थ– जो पर्याप्त और अपर्याप्त जीव कहे गये हैं तथा जो सूक्ष्म और बादर जीव कहे गये हें, (वह वस्तुत: जीव के भेद नहीं हैं, अपितु संसारावस्था संयोग एवं कर्मोदयनिमित्तवशात्) व्यवहार से देह (शरीर) को जीव-संज्ञा शास्त्रों में दी गयी है। (क्योंकि वस्तुत: पर्याप्त या अपर्याप्त, सूक्ष्म या बादर शरीर होते हैं, जीव नहीं; जीव तो देह के उपचार से पर्याप्त आदि संज्ञाओं से कहा जता है।)
समीक्षा
(१)गाथा में रेखांकित ‘जे जीवा’ पाठ की जगह ‘जे चेव’ पाठ रखने में पर्याप्त आदि पद किसके विशेषण रूप में हैं– यह तथ्य स्पष्ट नहीं होता; जबकि ‘जे जीवा’ में यह बात सुस्पष्ट हो जाती है, कि गाथासूत्र में पर्याप्त आदि पद जीव के विशेषणरूप में आगत हैं। अत: ‘जे जीवा’ पाठ में जो अर्थसंगति है, वह ‘जे चेव’ पाठ में नहीं है।
(२) टीकाकार आचार्य जयसेन ने भी इसका अर्थ ‘ये जीवा:’ ही दिया है, जो मूल में ‘जे जीवा’ पाठ होने की पुष्टि करता है। यद्यपि प्रकाशित जयसेन की टीका में प्राकृतपाठ ‘जे चेव’ ही है, किन्तु यह ऊपर गाथा की आवृत्ति प्रतीत होती है। संभवत: प्राचीन ताड़पत्रीय (जयसेन की टीका वाली) प्रति में ‘जे जीवा’ ही पाठ होगा, क्योंकि जयसेन को भी यही पाठ इष्ट था, और इसी के अनुसार उन्होंने टीका की है।
(३)‘जे जीवा’ पाठ रखने पर मात्रालाघव नहीं होकर नियमानुसार छन्द की पूर्ति होती है, जबकि ‘जे चेव’ पाठ रखने पर एक मात्रा कम पड़ती है। देखें – ऽ ऽ ऽऽ ऽ ऽ ऽ ।।ऽ ऽ।ऽ । ऽ ऽ। पज्जत्तापज्जत्ता, जे सुहुमा बादरा य जे चेव । (१२ १७ २९ मात्रायें) ऽ ऽ ऽऽ ऽ ऽ ऽ ।।ऽ ऽ।ऽ । ऽ ऽऽ पज्जत्तापज्जत्ता, जे सुहुमा बादरा य जे जीवा । (१२ १८ ३० मात्रायें) गाथा के लक्षणानुसार इसके प्रथम चरण में बारह तथा द्वितीय चरण में अट्ठारह मात्रायें होती हैंं अत: ‘जे चेव’ पाठ में एक मात्रा कम होने से सत्रह मात्रायें रह जाती हैं, जबकि ‘जे जीवा’ पाठ में ‘वा’ के गुरू होने से अट्ठारह मात्रायें पूरी हो जाती हैं। अत: छन्द:शास्त्रीय दृष्टि से भी ‘जे चेव’ पाठ अशुद्ध है। तथापि किसी एक प्रति में ‘जे चेव’ पाठ प्रकाशित हो जाने से शेष परवर्ती प्रकाशकों/सम्पादकों ने तदनुसार ही प्रकाशित कर दिया। वस्तुत: इसका मूलकारण आज के सम्पादकों की मूलपाठ न देखने की प्रवृत्ति रही है। एक अन्य कारण यह भी रहा कि संस्कृत छाया के अनुसार अर्थ किया जाता रहा। मूल प्राकृतपाठ के आधार पर यदि अर्थ किया जाता, तो ऐसी त्रुटि को चौदह विद्वान् सम्पादक/प्रकाशक नहीं पकड़ पाते– ऐसा संभव नहीं था। चौदह समयसारों में उपलब्ध प्रस्तुत पाठ का विवरण निम्नानुसार है – उपलब्ध पाठ समयसार की प्रति (१) जे चेव, पं० मोतीलाल, फलटण (२) जे चेव, कन्नड बेंगलूर, (३) जे चेव, भारतीय ज्ञानपीठ, (४) जे चेव, कारजा, मराठी, (५) जे चेव, १९५१ सहारनपुर, (६) जे चेव, जयपुर भारिल्ल, (७) जे चेव, पं० परमेष्ठीदास, (८) जे चेव, पं० रतनलाल, (९) जे चेव, भावनगर, (१०) जे चेव, अहिंसा मंदिर (११) जे चेव, पं० पन्नालाल वर्णी ग्रंथ, (१२) जे चेव, पं० पन्नालाल फललटणप्रति, (१३) जे चेव, पं० पन्नालाल श्रुतप्रभावक, (१४) जे चेव,
क्षु० मनोहरलाल वर्णी, डॉ. सुदीप जैन प्राकृत विद्या अप्रैल-जून १९९५ अंक १