ऑयुवेद में उल्लेख है कि अग्नि आहार को पचाती है और उपवास दोषों को पचाता अर्थात् नष्ट करता है। उपवास का काम है पूरे शरीर और मन की ओवरहॉर्लिंग कर देना या उसकी अंदर से अच्छी तरह मरम्मत कर देना इसलिए हमारे पूर्वज सिखा गए हैं कि अनाहार सर्वात्तम औषधि है। फास्टिंग, रोजा, उपवास या व्रत करने से बिना किसी बड़े जोखिम व खर्च के अनेकों रोग—विकार दूर हो सकते है, बस तरीका सही होना चाहिए।
क्या है उपवास
यदि हम शरीर के प्राकृतिक चक्र पर गौर करें तो पता चलता है हर ४० से ४८ दिनों में शरीर एक खास चक्र से गुजरता है। इस खास अवधि को मंडल कहा जाता है। आहार विशेषज्ञ कहते हैं कि प्रत्येक ११ से १४ दिन में एक दिन ऐसा भी आता है, जब हमारा कुछ भी खाने का मन नहीं करेगा उस दिन हमें नियमित आहार ही खाना चाहिए। हर चक्र में तीन दिन ऐसे होते हैं जिनमें शरीर को भोजन की आवश्यकता नहीं होती । अगर हम अपने शरीर को लेकर सजग हो जाएंगे तो खुद भी इस बात का अहसास हो जाएगा कि इन दिनों में शरीर को भोजन की जरूरत नहीं होती। इनमें से किसी भी एक दिन हम बिना भोजन के आराम से रह सकते हैं । यानि उस दिन उपवास किया जा सकता है भारतीय पंचांग के हिसाब से देखें तो हर १४ दिनों में एक बार एकादशी आती है। इसका मतलब हुआ कि हर १४ दिनों में हम एक दिन बिना खाएं रह सकते हैं । दिलचस्प है कि ऐसी प्रवृति जानवरों में होती है और वे भी कई बार कुछ न खाकर उपवास करते हैं।
क्यों करना चाहिए
आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘चरक संहिता’ से लेकर देश दुनियां में हुई रिसर्च ने भी उपवास के अनेकों लाभ बताएं गए हैं। पेट को किसी टीन—कनस्तर की तरह ठूंस—ठूंंस कर भरने की प्रवृति को कम करने का एक यह माध्यम है। हमारी लापरवाही और गलत आदतों से शरीर में जहरीले पदार्थ इकट्ठे होते रहते हैं। यही रोगों का कारण बनाते हैं। उपवास द्वारा मन तथा शरीर का शोधन हो जाता है, सभी विषैले, विजातीय तत्व बाहर निकल जाते हैं और शरीर निरोगी बन जाता है। हम अपनी ऊर्जा का पूरा लाभ भी तभी उठा सकते हैं, जब इसमें अवांछित तथा हानिकारक पदार्थ नहीं रहेंगे। यह काम उपवास द्वारा बखूबी हो सकता है।
उपवास की ऊर्जा
हमारे शरीर में आठ प्रमुख अन्त:स्रावी ग्रंथियां पाई जाती है।यह हैं पीयूश, विनियल, थायोराइड, पेरा—थायोराइड , थायमर्स, एंड्रिनल, पैक्रियाज और प्रजनना ये ग्रंथियां निरन्तर रस स्राव करती रहती है। इन ग्रंथियों से होने वाले रस स्राव जब तक संतुलित रहता है और मनुष्य स्वस्थ बना रहता है और अंत इन स्रावों में असन्तुलन होने लगता है, रोग प्रकट होने लगते हैं। हमारी वृतिओं और कामनाओं का उद्गम इनके द्वारा ही होता है। हमारा रहन—सहन, चिन्तन—मनन, खान—पान तथा आचार विचार अन्तस्रावी ग्रंथियों पर बहुत प्रभाव डालते हैं। व्रत—उपवास द्वारा इन ग्रंथियों को नियंत्रण में रखा जा सकता है। उपवास में भोजन विचार और मन पर हमारा नियंत्रण होने लगता है और शरीर भी स्वस्थ रहता है।
उपवास की अवधि
ग्रंथों के अनुसार उपवास शारीरिक स्थिति एवं रोग के अनुसार २—३ दिन से लेकर निरन्तर दो मास तक किया जा सकता है। एक सप्ताह से अधिक का उपवास लम्बे उपवास की श्रेणी में आता है। लम्बे उपवास तोड़ने में सावधानी बरतनी चाहिए। नींबू के पानी या सन्तरे—मौसमी आदि के रस से तोड़ना चाहिए। फिर एक दिन तक मौसम के फल लेने चाहिए। जितने दिन तक उपवास किया हो, उसके चौथाई समय तक फल लेने चाहिए , उसके बाद ही अन्न खाना चाहिए। उपवास के तुरंत बाद वर्जित भोजन लेना प्रारंभ न करें क्योांqक ऐसा करने पर उपवास का लाभ जाता रहेगा।
उपवास में रखें ये सावधानियां
हमेशा ध्यान रखे की उपवास जोश की नहीं होश में रहकर किया जाने वाली एक उपचार क्रिया है।उपवास उतना ही रखना चाहिए जितना शरीर सह सके । यदि कोई व्यक्ति बीमार हो या बीमारी से उठा हो तो उसे बिना किसी डर या बहकावे में आकर शारीरिक क्षमता का ध्यान रखकर ही, उपवास करने का फैसला करना चाहिए। उपवास रखने पर यदि तबियत खराब होने लगे तो तुरन्त डॉक्टर या वैद्य की सलाह लेनी चाहिए। कभी किसी खास वजह से किए जा रहे उपवास को लेकर दुराग्रह या हठधर्मित न करें। उपवास मन तथा शरीर की शुद्धता के लिए ही रखा जाता है ऐसे में इनके बहाने अपने ही प्रति इतने कठोर नहीं हो कि शरीर उसे सहन ही न कर पाए। एक दो दिन का उपवास तो ठीक है किन्तु अधिक दिनों का उपवास चिकित्सक या किसी जानकार की ही देख रेख में करें।