‘जअहिं जिणवर सोम अकलंक, सुरसण्णुअ विगअभअ ।
राअ-रोस-मअ-मोहवज्जिअ, मअणणासण भवरहिअ ।।
विसअ सअल तइंदेव णिवज्जिअ ।।२०,५।।
अर्थ– हे जिनवर ! आप निर्भर, सोम्य, अकलंक हैं, देवों से वन्दित हैं। आप राग, रोष, मद, मोह से रहित तथा काम के प्रभाव एवं भव से रहित हैं। हे देव ! आप में सम्पूर्ण विषय विलीन हो गये हैं।
जिणणामेॅ मअगल मुअइ दप्पु, केसरि वस होइ ण डसइ सप्पु ।
जिणणामेॅ ण डहइ धअधअंत,हुअवह जालासअ पज्जलंत ।।२०,६।।
अर्थ– जिनदेव के नाम-स्मरण से मदोन्मत्त हाथी का मान-मद विगलित हो जाता है, सिंह वश में हो जाता है, साँप डँसता नहीं है, सैकड़ों लपटों से भरी हुई धधकती हुई अग्नि भी नहीं जलाती है।
जिणणामेॅ जलणिहि देइ थाहु, आरण्णे वण्णुण वधइ बाहु ।
जिणणामेॅ भवसअ संखलाइं, टुट्टति होंति खण मोक्कलाइं ।।२०,७।।
अर्थ– जिनेन्द्र भगवान का नाम लेने से समुद्र आश्रयस्थान दे देता है, जंगल में बाघ वन्य जीवों का वध नहीं करता है और जिनवर के नाम-स्मरण से सैकड़ों भवों की शृंखलाएँ भी क्षण भर में टूट जाती हैं और भव्य जीव मुक्त हो जाते हैं।
जिणणामेॅ पीडइ गहु ण कोवि, दुम्मइ पिसाउ ओसरइ सोवि ।
जिणणामेॅ दुग्गअ खहि जंति, अणुदिण वरपुण्णइं उब्भवंति ।।२०,८।।
अर्थ– जिनवर के नाम-स्मरण से कोई भी ग्रह पीड़ा नहीं देता है, कोई दुर्बुद्धि पिशाच भी आ गया हो, तो वह हट जाता है। यह जिन-नाम-स्मरण का फल है कि दुर्गतियाँ विनष्ट हो जातीं हैं और प्रतिदिन श्रेष्ठ पुण्य उत्पन्न होते हैं।
जिणणामेॅ छिंदेवि मोहजाल, उप्पज्जइ देवल्ल सामिसालु । जिणणामेॅ कम्मइं णिद्दलेवि, मोक्खमग्गे पइसिअ सुह लहेवि ।।२०,७।।
अर्थ– परमात्मा के स्मरण से मोह-जाल को छेद कर देवों का स्वामी इन्द्र हो जाता है। जिनवर के नाम-स्मरण से मोक्षमार्ग में प्रविष्ट हो कर्मों का विनाश कर अक्षय, अनन्त सुख को प्राप्त करता है। प्राकृत विद्या जुलाई-सितम्बर १९९५ अंक २