परम्परागत चिकित्सा प्रणाली एलोपैथी अर्थराइटिस के इलाज में प्राय: असफल रहती है। इसमें मुक्ति के लिए किसी को वह दाँत उखड़वाने की सलाह देती है तो किसी को टांसिल के आपरेशन का। कभी—कभी वह आपरेशन का। कभी—कभी वह अपेंडिक्स कटवाने की राय को कभी सीधे समझ ही नहीं पाते और यत्र—तत्र कारण ढूंढने की चेष्टा किया करते है। अंधेरे में तीर मारने जैसी की गयी चिकित्सा से भले ही अल्पकालिक लाभ मिल जाये, पर देखा गया है कि कुछ दिनों के बाद कष्ट उग्रतर रूप में पुन: प्रकट हो जाता है। रूमेटायड अर्थराइटिस आम तौर से जोड़ो में जीर्ण सूजन या दर्द का रोग माना जाता है। यह एक ऐसा रोग है जो आदमी को हिलने—डुलने तथा चलने—फिरने से लाचार कर देता है। आज के जमाने में आदमी को पंगु बनाने वाला कोई भी अन्य रोग इसके मुकाबले न ठहरेगा। कुछ स्थितियों में इस रोग के लक्षण प्रकट होने से पहले व्यक्ति किन्हीं अन्य तीव्र अथवा जीर्ण कष्ट से ग्रस्त हो जाता है। पर अधिकांश स्थितियों से इसके पूर्व किसी बीमारी का कोई लक्षण प्रकट नहीं होता। कष्ट का ज्ञान व्यक्ति को तभी होता है जब व्यक्ति अंगुलियों की गांठों में सूजन और निकटवर्ती त्वचा लाल दिखने लगती हैं। धीरे—धीरे अन्य गांठों में यह कष्ट अथवा हाथ—पांव फैलने लगता है। गम्भीर अवस्था में हाथ के जोड़, टखने, घुटने तथा कुहनियां इससे ग्रस्त हो जाते है। पर, यह कष्ट कुछ जोड़ों तक सीमित रह सकता है। पुरुष तथा नारी दोनों ही इस कष्ट से ग्रस्त होते देखे गये है। पर नारियों को यह कष्ट अधिक होते देखा गया है। क्षयकारी परिवर्तन इस बीमारी में धीरे—धीरे जोड़ों के स्वास्थय कर ऊतकों का क्षय होने लगता है। जोड़ों के हिलने—डुलने में सहायक तैलीय पदार्थ (लुब्रिकेन्ट्स) तथा जोड़ों करे आश्रय देने वाले अस्थिबंधों का भी क्षय होने लगता है। ये परिवर्तन ही व्यक्ति को पंगु करने का कारण जोड़े से सम्बद्ध मांसपेशियों का अपक्षय होने लगता है। इस रोग के लक्षणों में प्राय: परिवर्तन होते देखा गया है। रोगी को कभी हल्का बुखार हो जाता है। ऐसे समय में जोड़ों की सूजन तथा त्वचा की ललाई बढ़ जाती है। कभी–कभी रूग्ण स्थान की त्वचा बेहतर संवेदनशील हो जाती है। जोड़ से संबंधित मांसपेशियों की मात्रा और टोन कम होने के कारण सूजन जितनी होती है, इससे अधिक दिखने लगती है अर्थराइटिस का रोगी प्राय: रक्ताल्पता और आम शक्तिहीनता से भी ग्रस्त हो जाता है। प्राकृतिक चिकित्सा की मान्यता है कि लक्षण कहीं भी प्रकट हो, कष्ट को पूर्णत: स्थानिक नहीं मानना चाहिये। रूमेटायड अर्थराइटिस में अन्य किसी भी जीर्ण रोग के समान ही पूरा शरीर रूग्ण होता है। अत: प्रयास यह होना चाहिए कि पूरे शरीर को निर्विकार किया जाये। प्राकृतिक चिकित्सा की मान्यता है कि शरीर में विजातीय द्रव्यों का संग्रह ही रोग के लिए कारण रूप होता है और जब तक इस विजातीय द्रव्य से शरीर मुक्त नहीं हो सकता है। दवाओं में तो रोग— मुक्त नहीं हो सकता है। दवाओं में तो रोगमुक्त करने की नैसर्गिक प्रवृति होती ही नहीं है। ये संचित विष में मात्र अभिवर्धन का काम करती है। सही रूप में शरीर को विजातीय द्रव्यों से मुक्त करने का एक ही उपाय है— शरीर के मल—ाqनष्कासक अंगों को सक्रिय करना।
शरीर मल— मुक्त करने के साधन है— मल, मूत्र, त्वचा, और श्वसन। पेट साफ करने का सरलतम उपाय है एनिमा या। एक लीटर हल्के गरम पानी का एनिमा ले लेने से पेट साफ हो जायेगा। पर, इसके पूर्व यदि पेडू पर गीली मिट्टी की एक इंच पट्टी एक छोर से दूसरे छोर तक आधे घंटे के लिए रख ली जाये तो सफाई का कार्य बढ़िया होगा। इस कार्यक्रम को यदि पूरे चिकित्सा काल तक जारी रखा जाये तो अच्छा है। पेशाब साफ हो, इसके लिए रोगी को नित्य ९—१० गिलास पानी अवश्य पीना चाहिये। सभी जानते हैं कि पानी से अच्छा घोलक कोई नहीं है। पानी में शरीर का विषाक्त तत्व घुलेगा और मूत्र—मार्ग से बाहर निकल जायेगा। त्वचा को सक्रिय करने का उपाय रूखड़ी तौलिया से एक— एक अंग का पांच —पांच मिनट तक रगड़ना है। इसे घर्षण क्रिया कहते है। इस ठंडे पानी में गीली किया गया तौलिये से भी किया जा सकता है। इस क्रिया को स्पंज कहेंगे। इसमें सावधानी बरतने की एक मात्र बात यह है कि एक अंग को स्पंज करने के बाद सूखी तौलिया से उस अंग को सुखाने के बाद उस पर कम्बल डाल देना चाहिये। ज्वर की अवस्था में स्पंज लाभकर है। श्वसन के लिए आवश्यक है कि रोगी को साफ हवा में अधिक से अधिक रखा जाये। उपचार का दूसरा पहलू ऊपर बताये उपायों से शरीर का संचित मल निकलेगा, पर उसके साथ ही यह प्रयास करना चाहिये कि शरीर में विजातीय द्रव्य का संचय न होने पाये। मानव—रक्त क्षारिय होता और उसमें अम्लता बढ़ने से व्यक्ति रूग्ण होता है। शरीर की क्षारीयता बढ़े अथवा सही रूप में बनी रहे, इसके लिए आवश्यक है कि व्यक्ति का आहार क्षारीय हो। क्षारीय आहार हैं— सभी फल तथा सब्जियां, चोकर—समेत आटे की रोटी तथा कन—सहित चावल और अम्लीय आहार है— मैदा, चीनी पालिश किया हुआ चावल, मिर्च —मसाले तथा तली—भुनी चीजें। रूमेटायड अर्थराइटिस के रोगी को मात्र क्षारीय आहार लेना चाहिये। चिकित्सा यदि रोगी का कष्ट उग्र हो तो उसे ३—४ दिन फल या फलों का रस देने के बाद २—३ दिनों का उपवास करा दें। फलाहार या उपवास—काल में व्यक्ति को पानी काफी मात्रा में पीना चाहिये तथा उसके पेडू पर मिट्टी की पट्टी बांधना लाभकर सिद्ध होगा। चिकित्सा यह रोगी का कष्ट उग्र हो तो उसे ३—४ दिन फल या फलों का रस देने के बाद २—३ दिनों का उपवास करा दें। फलाहार या उपवास—काल में व्यक्ति को पानी काभी मात्रा में पीना चाहिये तथा उसके पेडू पर मिट्टी की पट्टी बांधना लाभकर सिद्ध होगा। इसके लिए एक चौड़ी सूती पट्टी लेनी चाहिये, जितने स्थान को उस आच्छादित करना है। पट्टी इतनी लम्बी होगी कि रूग्ण भाग पर दो बार लिपटाया जाये। उसे ठण्डे पानी मे गीली करके निचोड़ लें और दर्द वाले भाग पर लपेट दें। एक से अधिक जोड़ों में कष्ट हो तो अच्छा यह है कि उसे सारे बदन की गीली पट्टी ४५ मिनट की दी जाये। सारे बदन की गीली पट्टी लेने के लिए तीन—चार मोटे—मोटे कम्बलों पर ठण्डे पानी में भिगोकर निचोड़ी हुई पतली सूती चादर बिछानी चाहिये। फिर एक —एक कर सारे कम्बल इसलिए उढ़ाये जाते है। जितनी देर व्यक्ति गीली पट्टी लेता रहे, उसके सिर पर थोड़ी—थोड़ी देर बाद ठंडा पानी डालते रहना चाहिये।