अथ कदाचित् राजप्रासादस्य पाश्र्वे कस्यचित् श्रेष्ठिनो गृहे चारणद्र्धिविभूषित: श्रुतकेवली सागरचन्द्र मुनिराज आहारार्थं समायात:, श्रेष्ठी शुद्धभावेन नवकोटि विशुद्ध्या प्रासुकाहारं मुनिये अदात्। ऋद्धिधारिणो मुनेर्दानमाहात्म्यात् श्रेष्ठिन: प्रांगणे गगनात् रत्नवृष्ट्यादिपंचाश्चर्यं बभूव। तदानीं जयजयकाररवै: कोलाहले जाते सति राजप्रसादे स्थित: चक्रीपुत्र: शिवकुमार: कौतुकपूर्वकं बहि: अपश्यत्।
अहो! कस्मिंश्चिद् भवे अस्य मुनेर्दर्शनं कृतमेव मया, इति मनसि जाते सति तत्क्षणमेव तस्य जातिस्मरोऽभवत्। पूर्वभवस्याग्रजोऽयमिति निश्चित्य तत्समीपे आगत्य स्नेहातिरेकान्मूर्छितो जात:। एतत् श्रुत्वा स्वयं चक्रवर्ती तत्रागत्य पुत्रमोहात् मुग्ध: सन् अत्यर्थं विललाप। पितु: शोकं निरीक्ष्य निर्विण्णोऽपि कुमार: कथमपि गृहे निवासं स्वीचकार। अयं शुद्धसम्यग्दृष्टी दृढ़वर्मा मित्रेणभिक्षयानीतकृतकारितादि दोष रहित प्रासुकं भोजनं कदाचिदेव गृण्हातिस्म।
उक्तं च-कुमारस्तदिनान्नूनं सर्वसंगपराङ्मुख:।
ब्रह्मचार्येकवस्त्रोऽपि मुनिवत्तिष्ठते गृहे।।
बहुधानशनादितप: कुर्वन् सन् महाविरक्तमना:
पंचशतस्त्रीषु मध्ये निवसन्नपि असिधाराव्रतं पालितवान्।
इत्थं चतु:षष्ठिसहस्राणि वर्षाणि व्यतीत्य आयुरन्ते दिगम्बरो
मुनिर्भूत्वा समाधिना मृत्वा ब्रह्मोत्तरस्वर्गे दशसागरायुर्धारी विद्युन्मालीनामा इंद्रो बभूव।
अथ किसी समय राजभवन के निकट किसी से के घर में चारणऋद्धिधारी श्रुतकेवली ऐसे सागरचन्द्र नाम के मुनिराज आहार के लिए पधारे। सेठ जी ने शुद्ध भावपूर्वक नवकोटी विशुद्ध प्रासुक आहार मुनिराज को दिया। ऋद्धिधारी मुनिराज को दान देने के माहात्म्य से सेठ के आंगन में आकाश से रत्नों की वृष्टि आदि पंच आश्चर्य होने लगे। उस समय जयजयकार शब्दों के द्वारा कोलाहल के फैल जाने पर राजभवन में स्थित शिवकुमार ने कौतुकपूर्वक बाहर देखा। अहो! मैंने किसी भव में इन मुनिराज का दर्शन किया है, ऐसा सोचते ही उसे तत्क्षण जाति स्मरण हो गया। पूर्व भव के ये बड़े भाई हैं, ऐसा निश्चित करके वह मुनिराज के पास आया और स्नेह के अतिरेक से मूच्र्छित हो गया। इस वृत्तांत को सुनकर चक्रवर्ती स्वयं वहाँ आकर पुत्र के मोह से व्याकुल होते हुए अत्यधिक
विलाप करने लगे पिता के इस प्रकार के शोक को देखकर अत्यर्थ विरक्त भी कुमार ने जैसे-तैसे घर में रहना स्वीकार कर लिया और उसी दिन से ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए यह शुद्ध सम्यग्दृष्टि अपने मित्र दृढ़वर्मा के द्वारा भिक्षा से लाए गए कृतकारित आदि दोषों से रहित शुद्ध भोजन को कभी-कभी गृहण करता था। कहा भी है-
उसी दिन से कुमार ने निश्चित ही सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करके एक वस्त्रधारी, ब्रह्मचारी होता हुआ मुनि के समान घर में रहता था। बहुत प्रकार के पक्ष-मास उपवास आदि रूप से अनशन आदि तपों को करते हुए महाविरक्तमना कुमार ने पाँच सौ स्त्रियों के बीच में रहते हुए असि भाराव्रत का पालन किया था। इस प्रकार से चौंसठ हजार वर्ष तक असिधाराव्रत का पालन करते हुए आयु के अंत में दिगम्बर मुनि होकर समाधिपूर्वक मरण करके ब्रह्मोत्तर नामक छटे स्वर्ग में दश सागर की आयु को प्राप्त करने वाला विद्युन्माली नाम का महान इन्द्र हो गया।