राजगृहस्य उद्याने पंचशतशिष्यैर्वेष्टित: सुधर्माचार्यवर्य: समायात:। जंबूकुमार: तत्र गत्वा नमस्कृत्य स्तुत्यादिना पूजयित्वा पूर्वजन्म वृत्तं च श्रुत्वा निग्र्रन्थदीक्षां याचितवान्। आचार्यवर्यैरुत्तं यत् त्वं गृहे गत्वा पित्रोराज्ञां गृहीत्वा क्षांत्वा क्षमयित्वा चागच्छ, तदा दीक्षां दास्यामि। इत्थं गुरूवाक्यमनुसृत्यानिच्छयैव कुमारो गृहं गत्वा पित्रोर्निवेदितं वृत्तं। मोहमाहात्म्येन पितृभयां येन केन प्रकारेण तत्क्षणं एव चतसृभि: कन्याभि: साकं विवाह: कारित:, रात्रौ चैकस्मिन् भवने चतसृभि: नवौढापत्नीभि: सह निवसन्नपि कुमारोऽलिप्त: सन् वैराग्यवर्धककथानकोपकथानवै: समयं नीतवान्।
अस्मिन् प्रसंगे सचिंतिता माता जिनमती पुन: पुन: जंबूकुमारस्य भवनस्य पाश्र्वे भ्रमन्ती आसीत्, यत् कुमार: पत्नीषु मुग्धो जातो न वा तदानीमेव विद्युच्चरनामा चौर: चोरयितुं तद्भवने आगत्य कुमारस्य वैराग्यं ज्ञात्वा जिनमत्या आग्रहेण बहुप्रकारेण प्रयत्नं कृतवान्। किन्तु कुमारस्तु सर्वानपि उपेक्ष्य प्रभाते एव गुरो: सकाशे गत्वा दीक्षितो जात:, तदा विद्युच्चरचौरोऽपि पंचशततस्करै: सह दिगम्बरो बभूव, पितार्हदासोपि दीक्षां गृहीतवान् माता जिनमत्यपि चतसृभिर्वधूभि: सह सुप्रभार्यिकाया पाश्र्वे आर्यिका: संजाता:। सुधर्माचार्यस्य मुक्तौ गते सति जंबूस्वामी अनुबद्ध केवली बभूव अस्य सिद्धिंगते सति कश्चित् केवली न बभूव।
धन्योऽयं जंबूस्वामी प्राक्तनभवेऽसिधाराव्रतं अनुपाल्यास्मिन् भवे नवोढाभार्यासु अनासक्त:, सन् पूर्णब्रह्मचर्यव्रतमनुपाल्य मुक्तिलक्ष्यामासक्तो बभूव, नमस्तस्मै पुन: पुन: भूयात्।
राजगृही नगरी के उपवन में अपने पाँच सौ शिष्यों से सहित श्री सुधर्माचार्य वर्य पधारे। जंबूकुमार वहाँ पहुुँचे उन्हें नमस्कार कर स्तुति आदि के द्वारा उनकी रक्षा करके और उनसे पूर्व जन्म के वृत्तांत को सुनकर जैनेश्वरी दीक्षा की याचना की। आचार्यश्री ने कहा कि तुम घर में जाकर माता-पिता की आज्ञा लेकर क्षमा करके और क्षमा कराके आवो तब मैं दीक्षा दूँगा। (क्यों यह सनातन परम्परा है) इस प्रकार गुरु के वचन के अनुरूप बिना इच्छा के ही कुमार ने घर जाकर माता-पिता से दीक्षा की बात कह दी। मोह के माहात्म्य से माता-पिता ने जिस तिस किसी प्रकार से उसी दिन ही जिन से सगाई हुई थी उन चारों कन्याओं के साथ ब्याह करा दिया और उसी रात्री में एक कमरे में चारों ही नव विवाहित पत्नियों के साथ बैठे हुए थे। कुमार उन स्त्रियों से अलिप्त रहते हुए वैराग्य की बढ़ाने वाली कथाओं से रात्रि बिताने लगे।
इसी बीच अत्यन्त चिंतित हुई माता जिनमती बार-बार जंबूकुमार के कमरे के पास घूम रही थी, कि कुमार इन स्त्रियों में आसक्त होता है या नहीं ? उसी समय विद्युच्चर नाम का चोर चोरी करने के लिए उस भवन में आया था। इस घटना को जानकर माता जिनमती के आग्रह से वह चोर बहुत प्रकार के उपायों से जंबूकुमार को घर में रहने के लिए समझाने लगा। किन्तु कुमार ने सभी उपेक्षा करके प्रात:काल ही गुरु के पास पहुँचकर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली, उस समय विद्युच्चर चोर भी अपने पाँच सौ साथियों के साथ दीक्षित हो गया, पिता अर्हदास ने भी दीक्षा ले ली। माता जिनमती ने भी अपनी चारों बहुओं के साथ सुप्रभा आर्यिका के समीप आर्यिका दीक्षा ले ली। जिस दिन सुधर्माचार्य गुरु मुक्ति को प्राप्त हुए हैं, उसी दिन जंबूस्वामी को केवलज्ञान प्रगट हो गया, इसीलिए जम्बूद्वीप अनुबद्ध केवली कहलाये हैं। जंबूस्वामी के मोक्ष जाने पर उस दिन कोई केवली नहीं हुए हैं।
धन्य है ये जंबूस्वामी जिन्होंने पूर्वभव में असिधारा व्रत का अनुष्ठान करके इस भव में तत्काल विवाही हुई नवीन पत्नियों में सर्वथा अनासक्त होते हुए अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करके मुक्ति लक्ष्मी में आसक्त हो गये, उन्हें मेरा बारम्बार नमस्कार होवे।