मध्यलोक के बीचोंबीच में जम्बूद्वीप नाम का पहला द्वीप है। यह एक लाख योजन विस्तृत थाली के समान गोल आकार वाला है। इसमें पूर्व-पश्चिम लम्बे छह कुलाचल हैं, जिनके नाम हैं-
हिमवान, महाहिमवान, निषध, नील, रुक्मि और शिखरी। इन पर्वतों से विभाजित सात क्षेत्र हो जाते हैं। भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक्, हैरण्यवत और ऐरावत ये उनके नाम हैं। सर्वप्रथम भरतक्षेत्र का विस्तार जम्बूद्वीप के १९० वाँ भाग अर्थात् ५२६ ६/१९ योजन है।
आगे के पर्वत और क्षेत्र विदेह पर्यन्त इससे दूने-दूने प्रमाण वाले होते गये हैं, पुनः विदेह के बाद नील पर्वत से लेकर आधे-आधे प्रमाण वाले होते गए हैं। इन हिमवान् आदि पर्वतों पर क्रम से पद्म, महापद्म, तिगिञ्छ, केसरी, महापुण्डरीक और पुण्डरीक ऐसे छह सरोवर हैं। पद्म सरोवर के पूर्व-पश्चिम से गंगा-सिन्धु नदी निकलती है जो कि भरतक्षेत्र में बहती है। इसी पद्म सरोवर के उत्तर तोरण द्वार से रोहितास्या नदी निकलकर हैमवत क्षेत्र में चली जाती है तथा महापद्म सरोवर के दक्षिण तोरण द्वार से रोहित नदी निकलकर हैमवत क्षेत्र में चली जाती है। इस प्रकार मध्य के सरोवरों से दो-दो नदियाँ एवं अन्तिम शिखरी सरोवर से प्रथम सरोवर के समान तीन नदियाँ निकली हैं। ऐसी ये गंगा-सिन्धु, रोहित-रोहितास्या, हरित-हरिकान्ता, सीता-सीतोदा, नारी-नरकान्ता, सुवर्णकूला-रूप्यकूला और रक्ता-रक्तोदा नाम की चौदह महानदियां हैं जो कि भरत आदि सात क्षेत्रों में क्रम से दो-दो बहती हैं।
इन पद्म आदि सरोवरों में बहुत ही सुन्दर सुवर्णमयी कमल खिल रहे हैं जो कि वनस्पतिकायिक न होकर पृथ्वीकायिक रत्नों से निर्मित अकृत्रिम हैं। इन कमलों की कर्णिकाओं पर दिव्य भवन बने हुए हैं जिन पर क्रम से श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये देवियाँ निवास करती हैं।
प्रथम पद्म सरोवर हजार योजन लम्बा, पाँच सौ योजन चौड़ा और दश योजन गहरा है। इसके मध्य भाग में जो कमल है वह एक योजन विस्तृत है। इसके एक हजार ग्यारह पत्ते हैं। इसकी नाल बयालीस कोश ऊँची और एक कोश मोटी है, यह वैडूर्यमणि से निर्मित है। इसका मृणाल तीन कोश मोटा रूप्यमय श्वेत वर्ण का है। इस कमल की नाल चालीस कोश तो जल के अन्दर है और दो कोश जल के ऊपर है। कमल की कर्णिका दो कोश ऊँची और एक कोश चौड़ी है। इस कर्णिका के ऊपर श्रीदेवी का भवन बना हुआ है। यह भवन एक कोश लम्बा, आधा कोश चौड़ा और पौन कोश ऊँचा है। उसमें श्रीदेवी निवास करती हैं, इसकी आयु एक पल्य प्रमाण है।
इसी पद्म सरोवर में मुख्य कमल से आधे प्रमाण वाले ऐसे एक लाख चालीस हजार एक सौ पन्द्रह और भी कमल हैं जिन्हें परिवार कमल कहते हैं। इन कमलों के भवनों में श्रीदेवी के परिवार देव निवास करते हैं।
श्रीदेवी की अपेक्षा ह्री देवी के मुख्य कमल का विस्तार दूना है, कमलों की संख्या भी दूनी हो गई है।
ह्री देवी की अपेक्षा धृति देवी की संख्या दूनी है व आगे कीर्ति देवी की धृति देवी के बराबर, बुद्धि देवी की ह्री देवी के बराबर व लक्ष्मी देवी की श्रीदेवी के बराबर है।
इन सरोवरों में जितने कमल हैं उतने ही जिनमन्दिर हैं, प्रत्येक में एक सौ आठ-एक सौ आठ जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं। ये देवियाँ भक्तिभाव से सतत ही जिनप्रतिमाओं की पूजा-अर्चा किया करती हैं।
जम्बूद्वीप के बीच में विदेहक्षेत्र है उसके ठीक मध्य में सुमेरुपर्वत स्थित है। यह एक लाख योजन ऊँचा है। इसकी नींव पृथ्वी में एक हजार योजन है और इसकी चूलिका चालीस योजन की है अतः यह इस चित्रा भूमि से निन्यानवे हजार चालीस योजन ऊँचा है। पृथ्वी तल तक इसकी चौड़ाई दस हजार योजन प्रमाण है। सुमेरु के चारों तरफ पृथ्वी तल पर ही भद्रसाल वन है जो कि पूर्व-पश्चिम में २२००० योजन विस्तृत है और दक्षिण-उत्तर में २५० योजन प्रमाण है। इस वन में पाँच सौ योजन ऊपर जाकर नन्दनवन है जो कि अन्दर में पाँच सौ योजन तक कटनीरूप है। इस वन में साढ़े बासठ हजार योजन ऊपर जाकर सौमनस वन है जो ५०० योजन की कटनीरूप है इससे आगे छत्तीस हजार योजन ऊपर पाण्डुक वन है जो कि चार सौ चौरानवे योजन प्रमाण कटनीरूप है। इस पर्वत की चूलिका प्रारम्भ में बारह योजन है और घटते हुए अग्रभाग में चार योजन मात्र रह गई है।
इस पर्वत के विस्तार में मूल से एक प्रदेश से ग्यारह प्रदेशों पर एक प्रदेश की हानि हुई है। इसी प्रकार ग्यारह अंगुल जाने पर एक अंगुल, ग्यारह हाथ जाने पर एक हाथ और ग्यारह योजन जाने पर एक योजन की हानि हुई है अतः घटते-घटते यह पर्वत अग्रभाग में चार योजन मात्र विस्तृत रह गया है।
यह पर्वत नींव में १००० योजन तक वज्रमय है। पृथ्वीतल से लेकर ६१००० योजन तक नाना प्रकार का उत्तम पंचवर्णी रत्नमयी है। आगे ३८००० योजन तक सुवर्णमय है और चूलिका वैडूर्यमणिमय है। इस सुमेरु के भद्रसाल, नंदन, सौमनस और पाण्डुक इन चारों ही वनों में आम्र, अशोक, सप्तच्छद और चंपक आदि नाना प्रकार के वृक्ष सतत फल और पूâलों से शोभायमान रहते हैं। इन वनों में कितने ही कूट, देवभवन, स्वच्छ जल से भरी हुई बावड़ी आदि हैं। इन चारों ही वनों में पूर्व-दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशाओं में एक-एक जिनमन्दिर हैं जो कि अकृत्रिम हैं, अनादिनिधन हैं और सुवर्ण, रत्न आदि उत्तम धातु के बने हुए हैं। प्रत्येक जिनमन्दिर में एक सौ आठ-एक सौ आठ जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं। ऐसे इस सुमेरु पर्वत में सोलह जिनमन्दिर हैं। चारण ऋद्धिधारी मुनि, देव-देवियाँ और विद्याधर हमेशा वहाँ जिनप्रतिमाओं की वंदना के लिए आते रहते हैं और इस नंदन आदि वनों में विचरण करते हुए कहीं भी शिलापट्ट पर स्थित होकर अपनी आत्मा का ध्यान किया करते हैं।
पाण्डुक वन की विदिशाओं में चार शिलाएं हैं। ईशान दिशा में पाण्डुक शिला, आग्नेय में पाण्डुकम्बला, नैऋत्य में रक्ता शिला और वायव्य में रक्तकम्बला नाम वाली शिला है। ये शिलाएं अर्ध चन्द्राकार हैं, सौ योजन लम्बी, पचास योजन चौड़ी और आठ योजन मोटी हैं। इन शिलाओं के ऊपर बीच में तीर्थंकर के जन्माभिषेक के लिए सिंहासन है और उसके आजू-बाजू सौधर्म, ईशान इन्द्र के लिए भद्रासन हैं जिन पर खड़े होकर ये दोनों जिन बालक का जन्माभिषेक करते हैं। ये आसन गोल हैं।
पाण्डुकशिला पर हमारे इस भरतक्षेत्र के जन्मे हुए तीर्थंकरों का जन्माभिषेकोत्सव मनाया जाता है। पाण्डुकम्बला शिला पर पश्चिम विदेह के तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होता है। इन पाण्डुक आदि शिलाओं की देवगण सतत जल, चन्दन, अक्षत आदि से पूजा किया करते हैं। इन पर छत्र, चमर, झारी, ठोना, दर्पण, कलश ध्वजा और ताड़ का पंखा ये आठ मंगल द्रव्य सदा स्थित रहते हैं।
एक लाख योजन विस्तृत गोलाकार (थाली सदृश) इस जम्बूद्वीप में हिमवान, महाहिमवान, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी इन छह कुलाचलों से विभाजित सात क्षेत्र हैं, जिनके नाम भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत हैं। भरतक्षेत्र का दक्षिण-उत्तर विस्तार ५२६-६/१९ योजन है। आगे पर्वत और क्षेत्र के विस्तार विदेहक्षेत्र के दूने-दूने हैं, पुनः आधे-आधे हैं।
इनमें से भरतक्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र के आर्यखण्ड में षट्काल परिवर्तन से भोगभूमि और कर्मभूमि की व्यवस्था चलती रहती है जो अशाश्वत कहलाती है। हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र में जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था है। हरि और रम्यक क्षेत्र में मध्यम भोगभूमि की व्यवस्था है। विदेहक्षेत्र में दक्षिण-उत्तर में देवकुरु-उत्तरकुरु नाम से क्षेत्र हैं जहाँ पर उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था है। ये छहों भोगभूमियाँ शाश्वत हैं। विदेहक्षेत्र में पूर्व-पश्चिम में १६ वक्षार पर्वत और १२ विभंगा नदियों के निमित्त से ३२ क्षेत्र हो जाते हैं। जिनके नाम कच्छा, सुकच्छा आदि हैं। इन बत्तीसों विदेहक्षेत्रों में कर्मभूमि की व्यवस्था सदा काल एक जैसी रहती है अतः इसे शाश्वत कर्मभूमि कहते हैं।
विदेहक्षेत्र का विस्तार (दक्षिण-उत्तर) ३३६८४-४/१९ योजन है और उसकी लम्बाई (पूर्व-पश्चिम) १,००,००० योजन है। इस विदेह के ठीक मध्य में सुदर्शन मेरु पर्वत है जो एक लाख चालीस योजन ऊँचा है। पृथ्वी पर इसकी चौड़ाई १० हजार है और घटते-घटते ऊपर जाकर ४ योजन मात्र रह गई है। इस सुमेरु की चारों विदिशाओं में एक -एक गजदन्त पर्वत हैं जो कि एक तरफ से सुमेरू का स्पर्श कर रहे हैं और दूसरी तरफ से निषध-नील पर्वत को छूते हुए हैं। इन पर्वतों के निमित्तों से भी विदेह की चारों दिशायें पृथक-पृथक विभक्त हो गई हैं। सुमेरु से उत्तर की ओर उत्तरकुरु में ईशान कोण में जम्बूवृक्ष है और सुमेरू से दक्षिण की ओर देवकुरु है जिसमें आग्नेय कोण में शाल्मलीवृक्ष है। इन दोनों कुरुओं में दश प्रकार के कल्पवृक्ष होने से वहाँ पर सदा ही उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था रहती है।
सुमेरु के पूर्व-पश्चिम में विदेहक्षेत्र में सीता-सीतोदा नदियाँ बहती हैं। इससे पूर्व-पश्चिम विदेह में भी दक्षिण-उत्तर भाग हो जाते हैं। सुमेरु के पूर्व में और सीता नदी के उत्तर में सर्वप्रथम भद्रशाल वन की वेदिका है, पुनः क्षेत्र है, पुनः वक्षार पर्वत है जो कि ५०० योजन विस्तृत है, १५५९३-२/१९ योजन लम्बा तथा नील पर्वत के पास ४०० योजन एवं सीता नदी के पास ५०० योजन ऊंचा है। यह पर्वत सुवर्णमय है। इस पर चार कूट हैं। जिनमें से नदी के पास के कूट पर जिनमंदिर एवं शेष तीन कूटों पर देव-देवियों के आवास हैं। इस पर्वत के बाद क्षेत्र, पुनः विभंगानदी, पुनः क्षेत्र, पुनः वक्षार पर्वत ऐसे क्रम से चार वक्षार पर्वत और तीन विभंगा नदियों के अन्तराल से तथा एक तरफ भद्रसाल की वेदी और दूसरी तरफ देवारण्य वन की वेदी के निमित्त से इस एक तरफ के विदेह में आठ क्षेत्र हो गये हैं। ऐसे ही सीता नदी के दक्षिण तरफ ८ क्षेत्र हैं तथा पश्चिम विदेह में सीतोदा नदी के दक्षिण-उत्तर में ८-८ क्षेत्र ऐसे बत्तीस क्षेत्र हैं।
बत्तीस विदेह क्षेत्रों के नाम-
कच्छा, सुकच्छा, महाकच्छा, कच्छकावती, आवर्ता, लांगलावर्ता, पुष्कला, पुष्कलावती, वत्सा, सुवत्सा, महावत्सा, वत्सकावती, रम्या, सुरम्या, रमणीया, रम्यकावती, पद्मा, सुपद्मा, महापद्मा, पद्मकावती, शंखा, नलिनी, कुमुद, सरित, वप्रा, सुवप्रा, महावप्रा, वप्रकावती, गन्धा, सुगन्धा, गन्धिला और गन्धमालिनी।
कच्छा विदेह का वर्णन-
यह कच्छा विदेहक्षेत्र पूर्व-पश्चिम में २२१२-७/८ योजन विस्तृत है और दक्षिण-उत्तर में १६५९२-२/ १९ योजन लम्बा है। इस क्षेत्र के बीचोंबीच में ५० योजन चौड़ा, २२१२-७/८ योजन लम्बा और २५ योजन ऊंचा विजयार्ध पर्वत है। इस विजयार्ध में भी भरतक्षेत्र के विजयार्ध के समान दोनों पाश्र्व भागों में दो-दो विद्याधर श्रेणियाँ हैं। इस दोनों तरफ की श्रेणियों पर विद्याधर मनुष्यों की ५५-५५ नगरियाँ हैं। इस विजयार्ध पर्वत पर ९ कूट हैं, इनमें से एक कूट पर जिनमंदिर और शेष ८ कूटों पर देवों के भवन हैं। नील पर्वत की तलहटी में गंगा-सिन्धु नदियों के निकलने के लिए दो कुण्ड बने हैं। इन कुण्डों में से दो नदियां निकलकर सीधी बहती हुई विजयार्ध पर्वत की तिमिस्र गुफा और खण्डप्रपात गुफा में प्रवेश कर बाहर निकलकर क्षेत्र में बहती हुई आगे आकर सीता नदी में प्रवेश कर जाती हैं। इस कच्छा देश में विजयार्ध और गंगा-सिन्धु के निमित्त से छह खण्ड हो जाते हैं। इनमें से नदी के पास के मध्य में आर्यखण्ड है और शेष पांचों म्लेच्छ खण्ड हैं। आर्यखण्ड के बीचोंबीच में क्षेमा नाम की नगरी है, जो कि मुख्य राजधानी है। यह एक कच्छा विदेह देश का वर्णन है। इसी प्रकार से महाकच्छा आदि इकतीस विदेह देशों की व्यवस्था है, ऐसा समझना।
विदेहक्षेत्र की व्यवस्था-प्रत्येक विदेह में ९६ करोड़ ग्राम, २६ हजार नगर, १६ हजार खेट, २४ हजार कर्वट, ४ हजार मडंब, ४९८ हजार पत्तन, ९९ हजार द्रोण, १४ हजार संवाह और २८ हजार दुर्गाटवी हैं।
जो चारों ओर से कांटों की बाढ़ से वेष्टित हो, उसे ग्राम कहते हैं। चार दरवाजों युक्त कोट से वेष्टित को नगर कहते हैं। नदी, पर्वत इन दोनों से वेष्टित कर्वट है। ५०० ग्रामों से संयुक्त मडंब है। जहाँ रत्नादि वस्तुओं की निष्पत्ति होती है, वे पत्तन हैं। नदी से वेष्टित को द्रोण, समुद्र की बेला से वेष्टित संवाह और पर्वत के ऊपर बने हुए को दुर्गाटवी कहते हैं।
प्रत्येक विदेह देश में प्रधान राजधानी और महानदी के बीच स्थित आर्यखण्ड में एक-एक उपसमुद्र है और उस समुद्र में एक-एक टापू हैं, जिस पर ५६ अन्तरद्वीप, २६ हजार रत्नाकर और रत्नों के क्रय-विक्रय के स्थानभूत ऐसे ७०० कुक्षिवास होते हैं।
सीता-सीतोदा नदियों के समीप जल में पूर्वादि दिशाओं में मागध, वरतनु और प्रभास नामक व्यंतर देवों के तीन द्वीप हैं।
विदेहक्षेत्र में वर्षा ऋतु-विदेहक्षेत्र में वर्षाकाल में सात प्रकार के काले मेघ सात-सात दिन तक अर्थात् ४९ दिनों तक और द्रोण नाम वाले बारह प्रकार के श्वेत मेघ सात-सात दिन तक (१२²७·८४) इस प्रकार ८४ दिनों तक बरसते हैं। वर्षा ऋतु में कुल ४९±८४·१३३ दिन मर्यादापूर्वक वर्षा होती है।
विदेह देश में क्या-क्या नहीं है ?
विदेहक्षेत्र में सर्वत्र कभी दुर्भिक्ष नहीं पड़ता है। सात प्रकार की ‘ईति’ नहीं है। १. अतिवृष्टि २.अनावृष्टि ३.मूषक प्रकोप ४. शलभ प्रकोप (टिड्डी) ५. शुक प्रकोप ६. स्वचक्र प्रकोप और ७. परचक्र प्रकोप-ये सात ईतियाँ वहां नहीं हैं तथा गाय या मनुष्य आदि जिसमें अधिक मरने लगें उसे मारि रोग कहते हैं वह भी वहां नहीं है। वहां कुलिंगी साधु और कुमत भी नहीं है अर्थात् वहां पर दुर्भिक्ष, ईति, मारि रोग, कुदेव, कुलिंगी और कुमतों का अभाव है।
यहां विदेह में हमेशा चतुर्थकाल सदृश की वर्तना रहती है अर्थात् सतत ही उत्कृष्ट ५०० धनुष की अवगाहना वाले मनुष्य होते हैं और वहां मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु एक कोटि पूर्व वर्ष की है। असि, मसि, कृषि आदि के द्वारा आजीविका करते हैं। वहां पर हमेशा गृहस्थ धर्म और मुनिधर्म चलता रहता है तथा हमेशा ही तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण और प्रतिनारायण होते रहते हैं। इस जम्बूद्वीप के ३२ विदेहों में यदि अधिक से अधिक तीर्थंकर आदि होते हैं तो ३२ होते हैं और कम से कम ४ अवश्य होते हैं। वहां चार तीर्थंकर आज भी विद्यमान हैं जिनके नाम हैं-सीमंधर, युगमंधर, बाहु और सुबाहु। ये विहरमाण तीर्थंकर कहलाते हैं। ऐसे ही पांचों मेरु संबंधी ३२%५·१६० विदेह होते हैं उनमें तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि भी अधिक रूप से १६० और कम से कम २० माने गए हैं।
जम्बूद्वीप में षट्काल परिवर्तन आदि व्यवस्था
हिमवान् आदि छह पर्वतों पर क्रम से पद्म, महापद्म, तिगिञ्छ, केसरी, महापुण्डरीक और पुण्डरीक ऐसे छः सरोवर हैं। इनमें पद्म तथा पुण्डरीक सरोवर से तीन एवं शेष चार सरोवरों से दो-दो नदियां निकलती हैं। जिनके नाम हैं-गंगा-सिंधु, रोहित-रोहितास्या, हरित-हरिकान्ता, सीता-सीतोदा, नारी-नरकान्ता, स्वर्णकूला-रूप्यकूला और रक्ता-रक्तोदा। ये चौदह नदियाँ दो-दो मिलकर भरत आदि सात क्षेत्रों में बहती हैं।
इस क्षेत्र का विस्तार ५२६-६/१९ योजन है। इसके बीच में पूर्व-पश्चिम लम्बा, ५० योजन चौड़ा और २५ योजन ऊँचा एक विजयार्ध पर्वत है इसमें दक्षिण उत्तर बाजू में विद्याधरों की नगरियाँ हैं। इस पर्वत में दो गुफायें हैं, जिनके नाम हैं-तिमिस्र गुफा, खण्डप्रपात गुफा। हिमवान पर्वत के पद्म सरोवर के पूर्व तोरण द्वार से गंगा नदी एवं पश्चिम तोरण द्वार से सिन्धु नदी निकलकर ५००-५०० योजन तक पूर्व-पश्चिम दिशा में पर्वत पर ही बहकर पुनः दक्षिण की ओर मुड़कर पर्वत के किनारे आ जाती है। वहाँ पर गोमुख आकार वाली नालिका से नीचे गिरती है। हिमवान पर्वत की तलहटी में नदी गिरने के स्थान पर गंगा-सिन्धु कुण्ड बने हुए हैं। जिनमें बने कूटों पर गंगा-सिन्धु देवी के भवन हैं। भवन की छत पर पूâले हुए कमलासन पर अकृत्रिम जिनप्रतिमा विराजमान हैं। उन प्रतिमा के मस्तक पर जटाजूट का आकार बना हुआ है। ऊपर से गिरती हुई गंगा-सिन्धु नदियाँ ठीक भगवान की प्रतिमा के मस्तक पर अभिषेक करते हुए के समान पड़ती हैं, पुनः कुण्ड से बाहर निकलकर क्षेत्र में कुटिलाकार से बहती हुई पूर्व-पश्चिम की तरफ लवण समुद्र में प्रवेश कर जाती हैं।
इसलिए इस भरतक्षेत्र के विजयार्ध पर्वत और गंगा-सिन्धु नदी के निमित्त से छह खण्ड हो जाते हैं। इनमें से जो दक्षिण की तरफ का खण्ड है वह आर्यखण्ड है, शेष पाँच म्लेच्छ खण्ड हैं। उत्तर की तरफ के तीन म्लेच्छ खण्डों में से बीच वाले म्लेच्छ खण्ड में एक वृषभाचल पर्वत है। चक्रवर्ती जब इन छह खण्डों को जीत लेता है तब अपनी विजय प्रशस्ति इसी पर्वत पर लिखता है।
भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड के मध्य में अयोध्या नगरी है। इस अयोध्या के दक्षिण में ११९ योजन की दूरी पर लवण समुद्र की वेदी है और उत्तर की तरफ इतनी ही दूरी पर विजयार्ध पर्वत की वेदिका है। अयोध्या से पूर्व में १००० योजन की दूरी पर गंगा नदी की तप्वेदी है अर्थात् आर्यखण्ड की दक्षिण दिशा में लवण समुद्र, उत्तर दिशा में विजयार्ध है। अयोध्या से पूर्व में ४०,००,००० (चालीस लाख) मील दूर पर गंगा नदी तथा पश्चिम में इतनी ही दूर पर सिन्धु नदी है। आज का उपलब्ध सारा विश्व इस आर्यखण्ड में है। हम और आप सभी इस आर्यखण्ड के ही भारतवर्ष में रहते हैं, इस भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड से विदेहक्षेत्र की दूरी २० करोड़ मील से अधिक ही है। भरतक्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र के आर्यखण्ड में सदा ही अरहट घटी यंत्र के समान छह कालों का परिवर्तन होता रहता है।