डॉ. सुभाष चन्द्र जैन कर्म सिद्धान्त की चर्चा में कर्म शब्द का उपयोग दो विभिन्न प्रसंग में किया जाता है। प्राणी कर्म करते हैं और कर्म बांधते भी हैं। ‘करने’ वाले और ‘बंधने’ वाले कर्मों के अर्थ में अंतर हैं। दोनों तरह के कर्म, यानी ‘करने’ वाले और ‘बंधने’ वाले कर्म, फल देते हैं। दोनों तरह के कर्मों के फल को कर्मफल कहा जाता है। मिसाल के तौर पर, एक व्यक्ति चोरी करने के अपराध में दो वर्ष का कारागार का दंड पाता है। यह सामान्य मान्यता है कि कारगार का दंड उस व्यक्ति के कर्म फल है। परन्तु यह फल कौन से कर्म का फल है। यदि यह माना जाए कि यह फल चोरी ‘करने’ वाले कर्म का फल है, तो प्रश्न उठता है कि क्या इस प्रकार के फल कर्म सिद्धान्त द्वारा नियंत्रित होते हैं? यदि नहीं, तो ‘करने वाले कर्म के किसी प्रकार के फल कर्म सिद्धान्त द्वारा नियंत्रित होते हैं? यदि यह माना जाए कि यह फल पूर्वकृत ‘बंधे’ कर्म का फल है, तो प्रश्न उठता है कि पूर्वकृत ‘बंधे’ कर्म किस प्रकार के फल प्रदान करते हैं। चर्चा की सुविधा के लिए इस लेख में ‘करने’ वाले कर्म और ‘बंधने’ वाले कर्म के लिए भिन्न शब्द उपयोग किये गये हैं। ‘करने’ वाले कर्म को क्रिया शब्द से, ‘बंधने’ वाले कर्म को कर्म शब्द से, ‘करने वाले कर्म के फल को क्रियाफल शब्द से और ‘बंधने’ वाले कर्म के फल को कर्मफल शब्द से संबोधित किया गया है। हम हर क्षण, सोते-जागते, उठते-बैठते, चलते-फिरते, क्रिया करते रहते हैं जिसके कारण हम अपने कार्मण शरीर से नवीन कर्म बांधते रहते हैं और पूर्व कर्म काटते रहते हैं। क्रिया करना, नवीन कर्मों का बंध होना और पूर्व कर्मों का फलना, ये तीनों प्रक्रिया सदैव साथ-साथ होती रहती है।
उदाहरणार्थ, तुम इस समय इस लेख को पढ़ने की क्रिया कर रहे हो और इस क्रिया के कारण नवीन कर्म बांध रहे हो और पूर्व कर्म भोग रहे हो। क्रिया के बिना नवीन कर्मों का बंध और पूर्व कर्मों का फलना संभव नहीं है। सदैव साथ-साथ होने वाली तीनों प्रक्रियों के कारण जीव की आत्मा, भौतिक शरीर और कार्मण शरीर की पर्यायों में परिवर्तन होता रहता है। क्रिया करने के लिए साधना/निमित्त आवश्यक है। बिना साधन के क्रिया संभव नहीं है। उदाहरणार्थ, तुम्हारी इस लेख को पढ़ने की क्रिया कामूल साधन यह लेख है, जिसके बिना तुम इस लेख को पढ़ने की क्रिया नहीं कर सकते। इस लेख को तैयार करने लिए द्रव्य और उनकी पर्याय (भाव) और इस लेख पढ़ने का यह क्षेत्र और काल यानी, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, ये सब गौण साधन हैं। इन मूल और गौण साधनों के बिना शेष पढ़ने की क्रिया संभव नहीं है। भिन्न-भिन्न क्रियाओं के लिए भिन्न-भिन्न मूल और गौण साधन आवश्यक हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के साथ-साथ भोजन करने की क्रिया का मूल साधन भोजन की सामग्री है; सुखी होने की क्रिया का मूल साधन धन-दौलत है; और दु:खी होने की क्रिया का मूल साधन प्राकृतिक विपदा है, इत्यादि। प्राणी की क्रिया के दो घटक हैं। एक घटक है मन, वचन और काय की भौतिक क्रिया जिसे योग कहते हैं। दूसरा घटक है कषायादि द्वारा परिचालित आत्मिक क्रिया जिसमें भावना, अभिप्राय, इच्छा, इत्यादि निहित है और जिसे मोह कहते हैं। क्रिया योग एवं मोह द्वारा परिचालित एक प्रक्रिया है।
जीव का शरीर असंख्यात कोशिकाओं से बना है जो सदैव गतिशील रहती है। लोक का संपूर्ण रिक्त स्थान कार्मण स्कंध से ठसाठस भरा है और कार्मण स्कंध कोशिकाओं से अधिक सूक्ष्म होने के कारण आसानी से कोशिकाओं में प्रवेश और उनमें से निकासी करते रहते हैं। सदैव गतिशील कोशिकाएँ प्रवेश करने वाले कार्मण स्कंधों से टकराती रहती हैं और उनसे सम्पर्क करती रहती हैं। कोशिकाओं के सम्पर्क में आये कार्मण स्कंध आत्मा के संयोग में आते रहते हैं। कोशिकाओं के सम्पर्क में आये कार्मण स्कंधों की मात्रा कोशिकाओं के स्पंदन की प्रबलता पर निर्भर करते है। कोशिकाओं का स्पंदन प्राणी के मन, वचन और काय की भौतिक क्रियाएं, यानी योग नियमन करता है। जब जीव अधिक उत्तेजित होता है, तब उसे योग की गति तीव्र हो जाती है और उसके साथ-साथ कोशिकाओं का स्पंदन भी प्रबल हो जाता है, जिसके कारण कार्मण स्कंध अधिक मात्रा में कोशिकाओं के सम्पर्क ओर आत्मा के संयोग में आते हैं। इसके विपरीत जब जीव ध्यान (मैडीटेशन) करता है, तब उसके योग की गति मंद हो जाती है और उसके साथ-साथ कोशिकाओं का स्पंदन भी मंद हो जाता है, जिसके कारण कार्मण स्कंध थोड़ी मात्रा में कोशिकाओं के सम्पर्क में और आत्मा के संयोग में आते हैं। कार्मण स्ंकध आत्मा के संयोग में आने पर कर्म में परिवर्तित हो जाते हैं। योग की तीव्रता कार्मण स्कंधों की मात्रा और कर्म की प्रकृतियों को नियंत्रित करती है। कर्मों के फल देने का समय, यानी स्थिति और फलते समय की अभिव्यक्ति की प्रबलता, यानी अनुभाग, को क्रिया का दूसरा घटक मोह नियंत्रित करता है। कर्मों की स्थिति मोह की प्रबलता बढ़ने के साथ बढ़ती है। इसी प्रकार कर्मों का अनुभाग भी मोह की प्रबलता बढ़ने के साथ बढ़ता है।
संक्षेप के योग में कार्मण स्कंध आत्मा के संयोग में आते हैं और कर्मों की विभिन्न प्रकृतियों में परिवर्तित हो जाते हैं। कर्म मोह द्वारा निर्धारित समय तक निष्क्रिय रहते हैं। उसके बाद कर्म सक्रिय होकर मोह द्वारा निर्धारित अनुभाग के अनुसार कर्मफल प्रदान करने के पश्चात आत्मा से पृथक हो जाते हैं। कर्मफल आत्मा और भौतिक शरीर के गुणों को प्रभावित करते हैं। जो बदले में प्राणी की नवीन क्रिया को प्रभावित करते हैं। नवीन क्रिया द्वारा नए कर्म आत्मा सं बंध करते हैं और यह चक्र चलता रहता है। नए संलग्न कर्म पुरातन संलग्न कर्मों को संशोधित करते हैं। किस प्रकार के क्रियाफल और कर्मफल सिद्धांत द्वारा नियंतित्र होते है? कर्म सिद्धांत की उपर्युक्त संक्षेप जानकारी से इस प्रश्न का उत्तर पाना कठिन है। इस प्रश्न का सीधा और सरल उत्तर वर्तमान ग्रंथों में भी उपलब्ध नहीं है। साधारण मनुष्य को इस प्रश्न का या तो अधूरा, और या गलत उत्तर मालूम है। इस प्रश्न का सही उत्तर कर्म सिद्धांत का लक्षण समझ्ने पर उपलब्ध किया जा सकता है।
कर्म सिद्धान्त का लक्षण
कर्म सिद्धांत की सार्थकता के लिए यह आवश्यक है कि यह सिद्धांत सर्वत्र और सदैव वैध हो। कर्म सिद्धान्त अर्थहीन हो जाएगा यदि यह सिद्धांत कुछ स्थान पर लागू होता हो और शेष स्थान पर नहीं। मिसाल के तौर पर, यदि यह माना जाए कि कर्म सिद्धांत केवल भारत देश में लागू होता है और शेष देशों में नहीं, तो मनुष्य भारत देश में अच्छी क्रिया करके और अन्य देशों में बुरी क्रिया करके कर्म सिद्धांत को निरर्थक बना देगा। इसी प्रकार कर्म सिद्धान्त अर्थहीन हो जायेगा यदि यह सिद्धान्त सदैव लागू न होता हो। मिसाल के तौर पर, यदि यह माना जाए कि कर्म सिद्धान्त केवल शनिवार, रविवार, सोमवार और मंगलवार को लागू होता है और शेष दिन यानी बुधवार, बृहस्पतिवार और शुक्रवार को नहीं , तो मनुष्य शनिवार, रविवार, सोमवार और मंगलवार को अच्छी क्रिया करके और बुधवार बृहस्तपतिवार और शुक्रवार को बुरी क्रिया करके कर्म सिद्धांत को निरर्थक बना देगा। सर्वत्र और सदैव लागू होने वाले सिद्धांत को यूनिवर्सन (सार्विक) सिद्धांत कहते हैं, इसलिए कर्म सिद्धांत एक यूनिवर्सल सिद्धांत है। Jain, Subhash C., Rebirth of the Karma Doctrin, Hindi Granth Karyalay, Mumbai, 2010 यदि कर्म सिद्धांत यूनिवर्सल है, तो कर्म सिद्धांत द्वारा नियंत्रित क्रिया के फल भी यूनिवर्सल होने चाहिए। अर्थात्, कर्म सिद्धांत द्वारा नियंत्रित क्रिया के फल केवल क्रिया पर निर्भर होना चाहिए, क्रिया के समय और स्थान पर नहीं चाहे विवक्षित क्रिया भारत, या अमेरिका, या लोक में कहीं पर भी किया जाए, उस विवक्षित क्रिया के कर्म सिद्धांत द्वारा नियंत्रित फल अभिन्न होते हैं। उसी प्रकार चाहे विवक्षित क्रिया फल की गई थी, या आज की गई है, या भविष्य में की जाएगी, उसी विवक्षित क्रिया के कर्म सिद्धांत द्वारा नियंत्रित फल भी अभिन्न होते हैं। दूसरे शब्दों में कर्म सिद्धांत द्वारा नियंत्रित क्रिया के फल यूनिवर्सल होते है।
क्रियाफल
हम यहाँ दो प्रकार के फल पर विचार करेंगे; एक प्रकार के फल जो यूनिवर्सल हैं उनको अदृष्ट फल से संबोधित किया गया है। और दूसर प्रकार के फल जो यूनिवर्सल नहीं है उनका दृष्ट फल से संबोधित किया गया है।केवल अदृष्ट फल ही, जो यूनिवर्सल हैं, कर्म सिद्धान्त द्वारा नियंत्रित होते हैं। क्योंकि कर्म सिद्धान्त एक यूनिवर्सल सिद्धांत हैं, प्रत्येक क्रिया के यूनिवर्सल फल यानी अदृष्ट फल, अवश्य होते हैं। परन्तु प्रत्येक क्रिया को दृष्ट फल का होना आवश्यक नहीं है। दृष्ट और अदृष्ट फल को उदाहरणों द्वारा समक्ष जा सकता है। एक व्यक्ति एक कारखाने में नौकरी करता है और नौकरी के बदले में वेतन पाता है। वह उस वेतन से भोग-सामग्री अर्जित करता है। नौकरी करना एक प्रकार की क्रिया है और वेतन पाना इस क्रिया का फल है। दूसरा व्यक्ति चोरी करता है और चोरी के बदले कारागार की जा पाता है। चोरी करना भी एक प्रकार की क्रिया है और कारागार की सजा इस क्रिया का फल है। वेतन-रूप या कारावास – रूप फल यूनिवर्सल फल नहीं है। नौकरी करने का वेतन और चोरी करने का कारागार का दण्ड फल भिन्न-२ देशों में भिन्न-२ है और वे भूतकाल में आज से भिन्न थे और भविष्य में भी भिन्न होंगे। इस प्रकार के फल यूनिवर्सल नहीं है; ये दृष्ट फल हैं जो मनुष्यकृत नियमों द्वारा नियंत्रित होते हैं, कर्म सिद्धांत द्वारा नहीं। कर्म सिद्धांत का प्रयोजन केवल यूनिवर्सल अदृष्ट फल से है जो प्रत्येक क्रिया के अवश्य होते हैं। नौकरी और चोरी करने की क्रिया के अदृष्ट फल भी हैं। प्राणियों को अदृष्ट फल ‘बंधने’ वाले कर्मों के रूप में उपलब्ध होते है। प्राणी इन कर्मों का फल भविष्य में भोगते हैं। कर्मों का उपादान कारण कार्मण स्कंध हैं और निमित्त कारण अदृष्ट फल हैं। कार्मण स्कंध यूनिवर्सल होते हैं; ये भी स्थान और समय पर निर्भर नहीं होते।
कर्मों के दोनों कारण (उपादान और निमित्त), यानी कार्मण स्कंध और अदृष्ट फल, यूनिवर्सल हैं, इसलिए कर्म भी यूनिवर्सल होते हैं, अर्थात कर्म केवल क्रिया पर निर्भर होते हैं, क्रिया के स्थान और समय पर नहीं। क्रिया योग-एवं-मोह द्वारा परिचालित प्रक्रिया है। योग की तीव्रता कर्मों के प्रदेश और प्रकृतियाँ नियंत्रित करती है। मोह की तीव्रता कर्मों की स्थिति और अनुभाग नियंत्रित करती है। इसलिए कर्म केवल क्रिया, यानी योग-एवं मोह, पर निर्भर होते हैं, क्रिया के स्थान और समय पर नहीं। हम एक और क्रिया का उदाहरण देंगे जिसका कोई दृष्ट फल नहीं है, केवल अदृष्ट फल है। माना लो किसी ने अपने एक शत्रु की हत्या करने का निर्णय लिया। वह हत्या की योजना बनाने में कई दिवस व्यतीत करता हैं जिस दिन वह शत्रु की हत्या करने वाला था, उसे पता चला कि शत्रु देश छोड़कर कहीं चला गया है और वह उसकी हत्या नहीं कर पाया। क्या उसे हत्या योजना बनाने की क्रिया का फल मिलना चाहिए? हत्या की योजना बनाना एक प्रकार की क्रिया है और इस क्रिया का भौतिक प्रमाण नहीं है। इसलिए इस क्रिया के फल का मनुष्यकृत नियमों से कोई प्रयोजन नहीं है। इस प्रकार की क्रिया के कोई दृष्ट फल नहीं है; इसके केवल अदृष्ट फल हैं जो कर्मों के रूप में आत्मा में बंध जाते हैं। हम यह मानकर दूसरों के बारे में बुरा-भला सोचते रहते हैं कि इन क्रियाओं को कोई फल नहीं है। परन्तु ऐसा सोचना गलत है; हर क्रिया के अदृष्ट फल अवश्य होते हैं जिन्हें हम भविष्य में भोगते हैं। हमें हर क्रिया को सोच-समझकर करना चाहिए।
कर्मफल
कर्मफल का स्वरूप जानने के लिए हमें यह जानना होगा कि प्राणी कर्मों का फल कैसे भोगता है। प्राणी दो द्रव्यों से बना है – आत्मा और जीवित मैटर। यहाँ पर आत्मा के संयोग में आने वाले मैटर को जीवित मैटर कहा है। प्राणी के भौतिक और कार्मण शरीर का मैटर जीवित मैटर है क्योंकि भौतिक और कार्मण शरीर का आत्मा से संयोग है। जब मैं यह कहता हूँ कि मैं अपने कर्मों का फल भोग रहा हूँ, इस कथन का अर्थ है कि मेरी आत्मा और मेरा भौतिक शरीर मेरे कर्मों के फल भोग रहे हैं। अब प्रश्न उठता है कि आत्मा और भौतिक शरीर कर्मों के फल कैसे भोगते हैं? आत्मा और जीवित मैटर के कुछ गुण हैं जिनकी पर्याय/अवस्था सदैव परिवर्तित होती रहती है। कर्मों के फल भोगने पर आत्मा और जीवित मैटर के गुणों की पूर्व पर्याय का व्यय और उत्तर पर्याय का उत्पाद होता रहता है। इसलिए मैं अपने कर्मों के फल अपनी आत्मा और अपने जीवित मैटर के गुणों की पर्याय में परिवर्तन करके भोगता हूँ। कर्मों के फलने के कारण आत्मा और जीवित मैटर के गुणों की पर्याय में परिवर्तन होता रहता है। कर्म का फलना केवल आत्मा और जीवित मैटर के गुणों की पर्याय में परिवर्तन करता है और इसके अतिरक्ति कुछ नहीं करता। इस तथ्य पर ध्यान दें के कर्म यूनिवर्सल होते हैं और आत्मा और मैटर के गुण भी यूनिवर्सल होते हैं। आत्मा और मैटर के गुण स्थान और समय के साथ नहीं बदलते। कर्म की चार घातिया प्रकृतियाँ दर्शनावरणीय, ज्ञानावरणीय, वीर्यावरणीय (अंतराय)और मोहनीय आत्मा के चार गुणों, यानी दर्शन, ज्ञान, वीर्य और सुख, की पर्याय में परिवर्तन करती है। कर्म की चार अघातीय प्रकृतियाँ नाम, वेदनीय, गोत्र और आयु जीवित मैटर के चार प्राण से संबन्धित योग्यताओं यानी इन्द्रियों (स्पर्श, रस, गंध, चक्षु और घ्राण), मन, वचन और काय की भौतिक क्रिया, श्वासोच्छवास और आयु की पर्याय में परिवर्तन करती है।गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) कार्मण शरीर की पर्याय में परिवर्तन का विवरण आगे दिया गया है। आत्मा के ज्ञान गुण के उदाहरण द्वारा कर्मफल का स्वरूप स्पष्ट किया जा सकता है। कल्पना करो कि तुमने एक अध्यापक की वार्ता सुनकर कंप्यूटर के बारे में ज्ञान अर्जित किया। यह सत्य है कि तुम्हारे द्वारा अध्यापक की वार्ता सुनने की क्रिया ज्ञान से परिवर्तन का कारण है, परन्तु यह पूर्ण सत्य नहीं है अपूर्ण सत्य हैं।
तुम्हारे ज्ञानावरणीय कर्म का फल तुम्हारी आत्मा के ज्ञान गुण की पर्याय में परिवर्तन करता है, और तुम्हारे द्वारा अध्यापक की वार्ता सुनने की क्रिया तुम्हारे ज्ञानावरणीय कर्म का फल नहीं है। तुम्हारी आत्मा की वर्तमान पर्याय ज्ञान से युक्त है। ज्ञान आत्मा का एक गुण है और यह ज्ञान आत्मा की पर्याय के साथ बदलता रहता है। वार्ता सुनने से पहले जो ज्ञान तुम्हारे पास था, तुम उसके बिना कंप्यूटर के बारे में ज्ञान अर्जित नहीं कर सकते थे और वह ज्ञान भी तुम्हारे ज्ञान में बदलाव का कारण है। इस उदाहरण में तुम्हारी आत्मा की दो पर्यायें सम्मिलित हैं; वार्ता सुनने से पहले की पर्याय, यानी पूर्व पर्याय और वार्ता सुनने के बाद पर्याय, यानी उत्तर पर्याय। आत्मा की इन दो पर्यायों में कार्य-कारण संबन्ध है। तुम्हारी पूर्व पर्याय तुम्हारी उत्तर पर्याय का एक कारण है। तुम्हारी उत्तर पर्याय तुम्हारी पूर्व पर्याय का एक कार्य है। तुम्हारी आत्मा की पर्याय में परिवर्तन के कार्य का कारण तुम्हारी पूर्व पर्याय है। तुम्हारी आत्मा की पूर्व पर्याय तुम्हारी आत्मा के ज्ञान में बदलाव का उपादान कारण है, क्योंकि तुम्हारी आत्मा की पूर्व पर्याय वार्ता सुनने के बाद तुम्हारी आत्मा की उत्तर पर्याय में बदल जाती है। तुम्हारी आत्मा के ज्ञान में बदलाव का निमित्त कारण तुम्हारे ज्ञानावरणीय कर्म का फलना है। इस उदाहरण में, उपादान कारण (तुम्हारी वार्ता सुनने से पहले की आत्मा की पर्याय) और निमित्त कारण (तुम्हारे ज्ञानावरणीय कर्म का फलना), दोनों का कारण वैयत्तिक हैं; वे केवल तुम्हें प्रभावित करते हैं, और किसी और को नहीं।
कर्म का फलना
एक प्रश्न उठता है तुम्हारे ज्ञान के बदलाव में अध्यापक की वार्ता सुनने की क्रिया का क्या योगदान है? इस प्रश्न का उत्तर ज्ञानावरणीय कर्म की पर्याय में परिवर्तन के उपादान और निमित्त कारण पहचानने पर मिल सकता है। हर द्रव्य की पर्याय के समान कर्मों की पूर्व पर्याय का हर क्षण व्यय और उत्तर पर्याय का हर क्षण उत्पाद होता रहता है। कर्मों के फल देने से पहले की पर्याय फल देने के बाद की पर्याय से भिन्न होती है। तुम्हारे द्वारा ज्ञानावरणीय कर्म की पर्याय में परिवर्तन का उपादान कारण तुम्हारा ज्ञानावरणीय कर्म है और निमित्त कारण तुम्हारे द्वारा अध्यापक की वार्ता सुनने की क्रिया है। तुम्हारे द्वारा अध्यापक की वार्ता सुनने की क्रिया तुम्हारे ज्ञानावणीय कर्म के फलन के द्वारा तुम्हारी आत्मा के ज्ञान को परोक्ष रूप में प्रभावित करती है। कर्म का फलना न केवल कर्म पर निर्भर करता है, बल्कि कर्म के फलन के निमित्त कारण पर भी। कर्म के फलन के निमित्त कारण के बदलने के साथ कर्मफल भी बदलता है, जैसा कि निम्नलिखित उदाहरण के साथ समझाया गया है। मान लो कि तुम कंप्यूटर की कक्षा में वार्ता सुनने की क्रिया के बजाय एक अध्यात्मिक पुस्तक पढ़ने की क्रिया करते हो। पुस्तक पढ़ने की क्रिया से तुम्हारे ज्ञान में बदलाव आता है, परन्तु तुम्हारे ज्ञान में बदलाव कंप्यूटर की कक्षा में वार्ता सुनने की क्रिया से भिन्न है। कक्षा में जाने या पुस्तक पढ़ने से पहले की दोनों परिस्थितियों में तुम्हारी आत्मा की पूर्व-पर्याय और ज्ञानावरणीय कर्म की पूर्व-पर्याय समान है, फिर भी तुम अपने ज्ञान में भिन्न बदलाब अनुभव करते हो। जब तुम कम्प्यूटर की कक्षा में वार्ता के बजाये पुस्तक पढ़ते हो तुम्हारे ज्ञानावरणीय कर्म का पूर्व का फल भिन्न है। निमित्त कारण एक परिस्थिति में कंप्यूटर पर वार्ता सुनने की क्रिया है और दूसरी परिस्थिति में अध्यात्मिक पुस्तक पढ़ने की क्रिया। तुम्हारी आत्मा की उत्तर पर्याय दो परिस्थितियों में एक दूसरे से भिन्न है। इस भिन्नता का कारण निमित्त कारण में भिन्नता है। प्रत्येक क्रिया के साथ न केवल आत्मा और भौतिक शरीर की पर्याय में परिवर्तन होता है, कार्मण शरीर की पर्याय में भी परिवर्तन होता है। प्रत्येक क्रिया के साथ कार्मण शरीर से हर क्षण उदय में आए पूर्व कर्म अलग होते रहते हैं और नवीन कर्म जुड़ते रहते हैं। जीव क्रिया और कार्मण शरीर की पूर्व-पर्याय द्वारा कार्मण शरीर की उत्तर-पर्याय निधारित होती है। कार्मण शरीर की उत्तर-पर्याय का उपादान कारण कार्मण शरीर की पूर्व-पर्याय है और निमित्त कारण जीव की क्रिया है।
क्रिया का साधन
इस तथ्य पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि यद्यपि कर्म यूनिवर्सल होते हैं, कर्मफल नहीं। कर्मफल कर्म के अतिरिक्त क्रिया की प्रकृति पर भी निर्भर करते हैं और क्रिया के मूल और गौण साधन द्वारा निर्धारित होती है। यह सत्य है कि हमारी वर्तमान क्रिया हमारे पूर्वकृत कर्म नियंत्रित करते हैं, परन्तु यह पूर्ण सत्य नहीं है, अपूर्ण सत्य है। प्रश्न उठता है कि क्या क्रिया की प्रकृति भी पूर्वकृत कर्म नियंत्रित करते हैं? तुम इस लेख का पढ़ने की क्रिया कर रहे हो। तुम्हारे इस लेख पढ़ने की क्रिया की प्रकृति इस क्रिया के मूल साधन पर, यानी इस लेख पर, और गौण साधनों (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव) पर निर्भर करती है। क्या तुम्हारे द्वारा इस लेख का इस जगह और इस समय पढ़ना भी तुम्हारे पूर्वकृत कर्म द्वारा नियंत्रित था? क्या तुम्हारे पूर्वकृत कर्म में यह जानकारी संचित थी कि तुम्हारी क्रिया के ये ही साधन बनेंगे, यानी तुम इस लेख को इस जगह और इस समय पढोगे? यदि इस प्रश्न का उत्तर हाँ माना जाए, तो यह भी मानना पड़ेगा कि तुम्हारे इस समय मनुष्य गति में होने की जानकारी तुम्हारे पूर्वकृत कर्म में संचित थी। परन्तु यह जानकारी कि तुम इस भव में मनुष्य होंगे तुम्हारी पिछले भव की आयु के दो-तिहाई भाग बीतने के बाद ही कार्मण शरीर में संचित होती है, इस से पहले नहीं। इसलिए इससे पहले के पूर्वकृत कर्मों को आत्मा के साथ बंधते समय यह जानकारी नहीं थी कि तुम्हारी क्रिया के ये ही साधन बनेंगे। इसलिए यह मानना कि क्रिया के साधन की जानकारी पूर्वकृत कर्म संचित रहती है तर्कसंगत नहीं है। तुम अपने पुरुषार्थ द्वारा कर्म फलन के साधन को चुनने में सक्षम हो। कुछ व्यक्तियों की यह मान्यता है कि प्रत्येक द्रव्य की पर्याय सुनिश्चित है, इसलिए साधन को पुरुषार्थ द्वारा चुना नहीं जाता, साधन (निमित्त) स्वयमेव उपस्थित हो जाते हैं। इस मान्यता के अनुसार पुरुषार्थ की मनुष्य जीवन की दैनिक क्रियाओं में कोई भूमिका नहीं है।
अतिरिक्त प्रश्न
यह संभव है कि कुछ व्यक्ति इस निष्कर्ष से कि दृष्ट फल कर्म सिद्धांत द्वारा नियंत्रित कर्मों के फल नहीं है पूरी तरह से संतुष्ट नहीं हों क्योंकि यह निष्कर्ष इस मान्यता पर आधारित है कि कर्मफल केवल आत्मा और जीवित मैटर के गुणों की पर्याय में परिवर्तन करते हैं। उन व्यक्तियों का मानना है कि धन-दौलत, सुख-दु:ख के साधन, भौतिक सामग्री और उच्च-नीच कुल कर्म सिद्धांत द्वारा नियंत्रित कर्मों के फल हैं। उनका ऐसा मानने से अनेका अनुत्तरित प्रश्न उत्पन्न हो जाते हैं। उनमें से कुछ प्रश्न निम्नलिखित हैं।जैन, ब्र. कल्पना, सागर, गोम्मटसार कर्मकाण्ड (प्रथम अध्याय विवेचिका), शात्याशा प्रकाशन, जयपुर, २००४ १. कर्म तो हर समय उदय में आते रहते हैं पर भौतिक सामग्री और उच्च-नीच कुल तो बहुत समय तक विद्यमान रहते हैं। भौतिक सामग्री और उच्च-नीच कुल कौन से कर्म के उदय का कारण मानी जाए ? २. यदि भौतिक सामग्री एक ही व्यक्ति को कभी अनुकुल और कभी प्रतिकूल प्रतीत होती है, तो वह भौतिक सामग्री किस कर्म के उदय का कारण मानी जाए ? ३. यदि मनुष्य का अच्छा आचरण उसके अच्छे कर्मों का फल माना जाए, तो सब अच्छे आचरण वाले मनुष्य धन-दौलत से सम्पन्न होने चाहिए। परन्तु ऐसा नहीं है, क्यों ? इस तरह के और अनेक प्रश्न हैं जिनका तर्क-संगत उत्तर केवल इस तथ्य के आधार पर दिया जा सकता है कि दृष्ट फल कर्म सिद्धांत द्वारा नियंत्रित कर्मों के फल नहीं है।
निष्कर्ष
कर्म सिद्धान्त एक प्राकृतिक यूनिवर्सल सिद्धांत है जिसका कोई भी प्राणी उल्लंघन नहीं कर सकता। क्रिया के यूनिवर्सल अदृष्ट फल कर्म सिद्धांत द्वारा नियंत्रित होते हैं। क्रिया के दृष्ट फल, जैसे यूनिवर्सल नहीं है, कर्म सिद्धांत द्वारा नियंत्रित नहीं होते। कर्मफल केवल आत्मा और जीवित मैटर के गुणों की पर्याय में परिवर्तन करते हैं। कर्मफल न केवल कर्म पर निर्भर करता है, बल्कि कर्म के फलन के निमित्त कारण, यानी क्रिया पर भी। क्रिया की प्रकृति क्रिया के मूल और गौण साधन द्वारा निर्धारित होती है। मनुष्य अपने पुरुषार्थ द्वारा क्रिया के साधन चुनने में सक्षम हैं।