आठ दिशाओं, पांच तत्वों व पृथ्वी के चुम्बकीय प्रभाव तथा ब्रह्माण्ड में उपस्थित धनात्मक व ऋणात्मक ऊर्जा पर आधारित, उनके प्राचीन ग्रंथों में उल्लेखित वास्तुशास्त्र व फेगशुई के निम्नलिखित नियम मनुष्य के आम जीवन में सुख-शांति व समृद्धि देने में अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं –
१. भवन के पूजा स्थल में भगवान की मूर्तियां ऊँचाई में ग्यारह अंगुल से बड़ी न रखें। किसी भी मूर्ति को दीवार से सटाकर नहीं रखना चाहिए और न ही कोई मूर्ति स्थिर करनी चाहिए। मंदिर हर समय खुला रहना चाहिए। भवन की ईशान दिशा में पूजा का स्थान बनाना चाहिए। पूजा-अर्चना हमेशा पूर्व, उत्तर या ईशान दिशा में मुंह करके करनी चाहिए। पूजा घर में छतरी गणेश की छोटी प्रतिमा कई प्रकार की आपदाओं से रक्षा करती है।
२. भवन में कोई भी जीना (सीढ़ियाँ) यदि टूट जाती हैं तो उसे तुरन्त ठीक करवायें। इससे आपके जीवन में ‘ठोकर’ लगने की सम्भावना समाप्त हो जाएगी।
३. भवन की छत पर कूड़ा-कचरा और मुख्यत: लोहे का कबाड़ कभी नहीं रखना चाहिए। लोहे का कबाड़ शनि का वास माना गया है। यह अनेक समस्याओं का जनक है।
४. भवन में शयनकक्ष में कभी भी इमामदस्ता, सिलबट्टा, मूसल आदि नहीं रखने चाहिए, ये आपसी लड़ाई-झगड़ा व कलह के सूचक हैं।
५. ड्राइंग रूम के पूर्व या उत्तर की दीवार पर उछलते हुए हिरण की पेटिंग व मीन-युग्म का चित्र समृद्धिदायक व शांति का परिचायक है।
६. भवन में उत्तर या पूर्व की ओर सफेद आक का पौधा भी लक्ष्मीवद्र्धक माना गया है। यदि पौधा न मिले तो उसकी जड़ भी पूजा घर में रखना शुभदायक है।
७. फेगसुई में भवन चाहे किसी भी दिशा में हो, पेड़-पौधों को लगाना उत्तम माना गया है। उत्तर, पूर्व या ईशान में छोटे व दक्षिण, पश्चिम तथा नैऋत्य दिशा में बड़े पेड़ लगाये जाने चाहिए। पेड़-पौधे जीवन में ऊर्जा भरते हैं। सर्चणिदवाकार पेड़ भवन में न लगाए।
८. भारत में राजा-महाराज के जमाने से दर्पण को बहुत महत्व दिया गया है। जैन धर्म के अष्टमंगल में भी दर्पण एक मंगल है। अत: भवन में यथास्थिति दर्पण लगाकर अधिक से अधिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है। यदि भवन अंग्रेजी के ‘टी’ के आकार पर हो तो इसके बूरे प्रभाव को परावर्तित कर दर्पण द्वारा लाभ लिया जा सकता है।
९. भवन में अपने मंदिर पर (चाहे कमरा हो या छोटा लकड़ी का) कभी भी ध्वजादंड नहीं लगाना चाहिए।