कांपिल्यनगर के राजा सिंहध्वज की पट्टरानी वप्रादेवी थीं। उनके हरिषेण नाम का पुत्र था। उन राजा की दूसरी रानी महालक्ष्मी थी, यह अत्यंत गर्विष्ठ थी। किसी समय आष्टान्हिक पर्व में महामहोत्सव करके महारानी वप्रा ने जिनेन्द्र भगवान का रथोत्सव कराने का निश्चय किया। तभी रानी महालक्ष्मी ने जैनरथ के विरुद्ध होकर उसे रोक दिया और ब्रह्मरथ निकलाना चाहा। तब वप्रा महारानी ने शोक से संतप्त हो अन्न-जल का त्याग कर दिया और दु:ख से व्याकुल हो रोने लगी। पुत्र हरिषेण ने माता के दु:ख को देखकर स्थिति जानकर चिंतन किया- मैं पिता के विरोध में भी नहीं बोल सकता हूँ और न माता का दु:ख देख सकता हूँ। वह उद्विग्नमना घर से निकलकर वन में पहुँचा। वहाँ भटकते हुए अंगिरस ऋषि के शिष्य शतमन्यु के आश्रय में पहुँचा। इसी के पूर्व की एक घटना थी- चंपानगरी के राजा जनमेजय को एक कालकल्प राजा ने बहुत बड़ी सेना लेकर घेर लिया।
जब तक राजा में युद्ध हो, बीच में ही माता नागवती अपनी पुत्री को लेकर लंबी सुरंग के मार्ग से निकलकर वन में शतमन्यु के आश्रम में पहुँच गई थी। वहाँ आश्रम में उस पुत्री ने हरिषेण को देखा तो वह उसके प्रति आसक्त हो गई। माता नागवती ने कहा-पुत्रि! एक महामुनि ने कहा था कि तू चक्रवर्ती की स्त्रीरत्न होगी। तपस्वियों ने भी जब कन्या का हरिषेण के प्रति अनुराग जाना, उसी समय अपकीर्ति के डर से हरिषेण को आश्रम से निकाल दिया, वह शोकाकुल हुआ। इधर माता के दु:ख से तो व्याकुल था ही, कन्यारत्न के लिए और भी चिंतित हो गया। इधर भटकते हुए हरिषेण सिंधुनद नगर में पहुँचता है। वहाँ नगर की स्त्रियाँ उसके रूप को एकटक देख रही थीं। तभी एक अंजनगिरि नाम का हाथी वहाँ उन्मत्त हो उधर आ गया। महावत जोर-जोर से चिल्ला रहा था-भागो! भागो! उस समय बहुत ही स्त्रियाँ व बालक हरिषेण के निकट आ गये और कहने लगे-बचाओ! बचाओ! हरिषेण कुछ ही क्षणों में उस हाथी को वश में करके उस पर चढ़ गया। महल की छत से यह सब देखकर राजा सिंधु ने हरिषेण को बुलाकर सम्मानित करके अपनी सौ पुत्रियों के साथ उसका विवाह कर दिया। इधर दूसरी एक घटना होती है कि एक विद्याधर की कन्या वेगवती रात्रि में सोते हुए हरिषेण को उठाकर ले गई अर्थात् हरिषेण का अपहरण कर लिया और पुन: उसने बताया कि- हे भद्र! मैं सूर्योदय के राजा शक्रधनु की पुत्री जयचन्द्रा की सखी हूँ। वह कन्या आपके चित्रपट को देखकर आपमें आसक्त है, अत: मैंने आपका अपहरण किया है।
वहाँ सूर्योदय नगर में पहॅुँचकर हरिषेण ने देखा कि राजा शक्रधनु सामने आते हैं। परस्पर में कुशलक्षेम, वार्ता के अनंतर अपनी कन्या का विवाह करने की तैयारी करते हैं। इधर विद्याधर गंगाधर और महीधर कुपित होकर युद्ध के लिए सामने आ गए। इसलिए कि हम विद्याधरों को छोड़कर इस कन्या का विवाह एक भूमिगोचरी के साथ कैसे संभव है ? उसी क्षण हरिषेण श्वसुर शक्रधनु राजा से रथ आदि लेकर युद्धक्षेत्र में आ गए और अपनी कुशलता से विद्याधरों को पराजित कर दिया। उसी समय उस हरिषेण के पुण्योदय से चक्ररत्न प्रगट हो गया और ये दशवें चक्रवर्ती के रूप में प्रसिद्ध हो गए। इनके और भी रत्न प्रगट हो गए थे। निर्विघ्न विवाह सम्पन्न होने के बाद चक्रवर्ती हरिषेण विशाल लंबी-चौड़ी सेना-बारह योजन तक फैली हुई सेना को लेकर शत्रुओं को वश में करते हुए तापसी के आश्रम में पहुँचे। उन तापसियों ने हरिषेण को चक्रवर्ती देखकर सामने पहुँच फल आदि अघ्र्य से सम्मानित किया। तभी शतमन्यु के पुत्र जनमेजय और माता नागवती ने अपनी कन्या मदनावती का हरिषेण के साथ विवाह सम्पन्न कर दिया। अनंतर चक्रवर्ती हरिषेण बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजाओं के साथ अपने कांपिल्यनगर में आए, माता वप्रादेवी के चरणों में नमस्कार किया पुन: माता का आशीर्वाद प्राप्तकर सूर्य के समान तेजस्वी ऐसे बड़े-बड़े रथों में भगवन्तों की प्रतिमा विराजमान करके कांपिल्यनगर में ‘रथोत्सव कराकर अतिशायी धर्म की प्रभावना करके माता के मनोरथों को सफल किया। पृथ्वी, पर्वत, नदियों के समागम स्थान, नगर तथा गाँव-गाँव में चक्रवर्ती हरिषेण ने नाना रंग के ऊँचे-ऊँचे जिनमंदिर बनवाए थे।
बहुत काल तक चक्रवर्ती ने छहखण्ड का शासन करके अंत में राज्यभार छोड़कर जैनेश्वरी दीक्षा लेकर तपश्चरण करके तीन लोक का शिखर प्राप्त कर लिया है-सभी कर्मों का नाशकर मोक्ष प्राप्त किया है। ऐसे हरिषेण चक्रवर्ती सिद्धालय में अनंतानंत काल तक रहेंगे, उन्हें मेरा कोटि-कोटि नमस्कार होवे। किसी समय राजा दशानन-रावण अपने दादा सुमाली के साथ विमान में बैठकर आकाशमार्ग से जा रहा था। अकस्मात् नीचे देखकर सुमाली से पूछता है- हे पूज्य! इधर इस पर्वत के शिखर पर सरोवर तो नहीं हैं, पर कमलों का समूह लहलहा रहा है, सो इस महा आश्चर्य को आप देखें। हे स्वामिन्! यहाँ पृथ्वीतल पर पड़े ये रंगबिरंगे बड़े-बड़े मेघ निश्चल होकर कैसे खड़े हैं ? तब सुमाली ने ‘नम: सिद्धेभ्य:’ उच्चारण करके कहा- हे वत्स! न तो ये कमल हैं और न ये मेघ ही हैं, किन्तु सफेद पताकाएँ जिन पर छाया कर रही हैं तथा जिनमें हजारों प्रकार के तोरण बने हुए हैं, ऐसे-ऐसे ये जिनमंदिर पर्वत के शिखरों पर सुशोभित हो रहे हैं। ये सब मंदिर महापुरुष हरिषेण चक्रवर्ती के द्वारा बनवाए हुए हैं। हे वत्स! तुम इन्हें नमस्कार करो और क्षणभर में अपने मन को पवित्र करो। ऐसा सुंदर कथन पद्मपुराण में आया हुआ है। उसी गंथ से यह हरिषेण चक्रवर्ती का जीवन परिचय लिखा गया है। ये हरिषेण चक्रवर्ती श्री मुनिसुव्रत भगवान के तीर्थकाल में हुए हैं।