भगवान धर्मनाथ के तीर्थ में सुदर्शन बलभद्र एवं पुरुषसिंह नारायण हुए हैं। उनका संक्षिप्त इतिहास कहा जाता है- इसी भरतक्षेत्र के राजगृह नगर में सुमित्र नामक राजा थे, वे बहुत ही अभिमानी थे। किसी समय मल्लयुद्ध में कुशल एक राजसिंह नाम के राजा उस सुमित्र राजा के गर्व को नष्ट करने के लिए राजगृह नगर में आये और उन्होंने युद्धभूमि में राजा सुमित्र को पराजित कर दिया। मानभंग से वे सुमित्र महाराजा बहुत ही दु:खी हुए कालांतर में श्रीकृष्णाचार्य मुनि के वचनों से शांत होकर उन्होंने दैगंबरी दीक्षा ले ली। यद्यपि इन मुनिराज ने सिंहनिष्क्रीडित आदि अनेक प्रकार के तपश्चरणों के अनुष्ठान किए थे, फिर भी मन में पराजय का संक्लेश बना रहता था अत: उन्होंने निदान कर लिया कि- ‘मुझे इन तपश्चरणों का फल ऐसा मिले कि मैं बड़े से बड़े शत्रुओं को पराजित करने में बलवान हो जाऊँ।’ अंत में संन्यास विधि से मरणकर माहेन्द्र स्वर्ग में सात सागर की आयु प्राप्त कर देव हो गये। इसी जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में वीतशोकापुरी के राजा नरवृषभ सुखपूर्वक राज्य सुखों का अनुभव कर रहे थे। ये राजा किसी समय विरक्तमना होकर ‘दमवर’ महामुनि के समीप दीक्षा लेकर कठोर तप के प्रभाव से अंत में मरण कर सहस्रार नाम के बारहवें स्वर्ग में देव हो गये, वहाँ इनकी आयु अठारह सागर की थी। आयु के अंत में वहाँ से चयकर जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में खड्गपुर नगर के इक्ष्वाकुवंशीय राजा सिंहसेन की विजयारानी से ‘सुदर्शन’ नाम के पुत्र हुए हैं। इन्हीं राजा सिंहसेन की दूसरी अंबिका रानी से राजा सुमित्र के जीव देवपर्याय से च्युुत होकर ‘पुरुषसिंह’ नाम के नारायण हुए हैं। ये दोनों भाई पैंतालीस धनुष (४५²४·१८०) एक सौ अस्सी हाथ के शरीर के धारक थे। इनकी आयु दश लाख वर्ष की थी। ये दोनों परस्पर में अतिशय प्रेम से राज्य सुखों का अनुभव कर रहे थे। इसी भरतक्षेत्र के हस्तिनापुर नगर में राजा मधुक्रीड़ राज्य करते थे। जो सुमित्र राजा को मल्लयुद्ध में जीतने वाले ‘राजसिंह’ राजा थे, वे ही क्रम से ये ‘मधुक्रीड़’ नाम से प्रतिनारायण अर्धचक्री राजा हुए हैं। ये मधुक्रीड़-राजा सुदर्शन व पुरुषसिंह के पराक्रम को नहीं सहन कर पाते थे इसीलिए इन्होंने एक दिन अपने दण्डगर्भ नाम के प्रधानमंत्री को इन दोनोें के पास खड्गपुर नगर में कर-टैक्स लेने के लिए भेज दिया। महाराजा सुदर्शन व पुरुषसिंह आये हुए प्रधानमंत्री के शब्दों से क्षुभित और कुपित होकर कठोर शब्द कहने लगे। प्रधानमंत्री ने जाकर मधुक्रीड़ राजा को सूचना दी। इतना सुनते ही व्रुद्ध हुए प्रतिनारायण मधुक्रीड़ ने शीघ्र ही विशाल सेना लेकर युद्ध के लिए प्रस्थान कर दिया। दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ। अंत में मधुक्रीड़ ने अपना चक्र पुरुषसिंह के ऊपर चला दिया। नियोग के अनुसार पुरुषसिंह के पुण्य के प्रभाव से वह चक्र उनकी प्रदक्षिणा देकर उन्हीं के पास स्थित हो गया। तभी पुरुषसिंह ने उसी के चक्ररत्न से उसी का वध कर दिया और तत्क्षण ही ये दोनों इस भूतल पर पाँचवें बलभद्र व नारायण प्रसिद्ध हो गये। वास्तव में ऐसे ‘वैर के निदान को धिक्कार हो’ कि जिससे अपने ही चक्ररत्न से अपना घात हो जाता है। इधर दोनों भाई तीन खण्ड के स्वामी बनकर बहुत काल तक राज्यलक्ष्मी का उपभोग करते रहे हैं। अंत में नारायण के वियोग से दु:खी हो बलभद्र सुदर्शन ने ‘भगवान धर्मनाथ तीर्थंकर’ के चरण सान्निध्य में पहुँचकर मोह और शोक को छोड़कर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। घोरातिघोर तपश्चरण करके अपने घातिया कर्मों का नाशकर केवली हुए हैं पुन: सभी कर्मों से रहित निर्वाणधाम को प्राप्त किया है, ऐसे वे सिद्धालय में विराजमान ‘सुदर्शनबलभद्र’ सिद्ध भगवान हम सबको भी शाश्वत धाम को प्राप्त करावें, यही उनके चरणों में विनम्र प्रार्थना है।