पुलाक, वकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक ये पाँच भेद निग्र्रन्थ मुनियों के होते हैं।
पुलाक – जो उत्तरगुणों की भावना से रहित हैं, कहीं पर और कदाचित् व्रतों में परिपूर्णता को प्राप्त नहीं होते हैं, वे पुलाक मुनि कहलाते हैं। ये मुनि भावसंयमी ही हैं, द्रव्यलिंगी नहीं हैं।
वकुश – जो निग्र्रंथ होते हैं, व्रतों को अखंडरूप से पालन करते हैं, शरीर और उपकरणों की शोभा बढ़ाने में लगे रहते हैं, परिवार अर्थात् शिष्यों से घिरे रहते हैं और विविध प्रकार के मोह से युक्त होते हैं, वे वकुश कहलाते हैं।
कुशील – कुशील के दो भेद हैं-प्रतिसेवना कुशील और कषाय कुशील। जो परिग्रह से घिरे हुए हैं, जो मूल और उत्तर गुणों में परिपूर्ण हैं लेकिन कभी-कभी उत्तरगुणों की विराधना करते हैं, वे प्रतिसेवना कुशील हैं। जिन्होंने अन्य कषायों के उदय को जीत लिया है, जो केवल संज्वलन कषाय के आधीन हैं, वे कषाय कुशील हैं।
निर्ग्रन्थ – जिस प्रकार जल में की गई लकड़ी की रेखा अप्रगट रहती है उसी प्रकार जिनके कर्मों का उदय अप्रगट हो और जो अन्तर्मुहूर्त के बाद होने वाले केवलज्ञान, केवलदर्शन को प्राप्त करते हैं, वे निर्ग्रन्थ कहलाते हैं।
स्नातक – जिन्होंने घातिया कर्मों का नाश कर दिया है, ऐसे दोनों प्रकार के केवली स्नातक कहलाते हैं। ये पाँचों ही निग्र्रंथ कहलाते हैं। इनमें चारित्र परिणामों की न्यूनाधिकता होने के कारण भेद होने पर भी नैगम, संग्रह आदि नयों की अपेक्षा सभी निग्र्रंथ हैं अर्थात् भावलिंगी मुनि हैं। संयमियों की संख्या-प्रमत्तसंयत गुणस्थान वाले मुनि ५३९८२०६, अप्रमत्त मुनि २९६९९१०३, उपशम श्रेणी वाले चारों गुणस्थानवर्ती ११९६, क्षपक श्रेणी वाले चारों गुणस्थानवर्ती २३९३, सयोगीजिन ८९८५०२, अयोगीजिन ५९८ ऐसे सभी संयमियों की संख्या मिलकर बराबर ८९९९९९९७ है अर्थात् छठे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक सभी संयमियों का प्रमाण तीन कम नव करोड़ है। उनको मैं हाथ जोड़कर शिर नमाकर नमस्कार करता