जिन—ग्रंथों एवं पूजन—पुस्तकों में वर्तनी की होने वाली अशुद्धियाँ
हिन्दी की पत्र पत्रिकाओं, समाचार पत्रों , पुस्तकों आदि में मुद्रित लेख/ आलेखों में वर्तनी की कई अशुद्धियाँ पाई जाती हैं, जो कि हिन्दी भाषियों की भाषा की शुद्धता के प्रति लापरवाही को दर्शाती है। जैन धर्म के ग्रंथों का और पत्र पत्रिकाओं का मुद्रण भी इसका अपवाद नहीं है। ऐसा तब है जबकि एक मात्र / बिन्दु के त्रुटिपूर्ण होने पर अर्थ का अनर्थ हो जाता है। जैन धर्म में तो एक प्रसिद्ध आख्यान है कि गुजरात में स्थित आचार्य श्रीधरसेन को अपनी आयु अल्प प्रतीत हुई तो उन्होंने दक्षिण भारत के आचार्यों के पास उत्कृष्ट अध्यात्मज्ञानी, भाषाविद् दो मुनिराजों को उनके पास भेजने का अनुरोध भिजवाया, जिससे कि वे अपना ज्ञान उनकों अंतरित कर सके और श्रुत की परंपरा चलती रहे। आचार्य महाराज ने पुष्पदंत और भूतबली नाम के दो मुनिराजों को पृथक पृथक मंत्र साधना हेतु दिये। मुनिराजों ने मंत्र साधना की, जिसके फलस्वरूप दोनों को एक एक देवी सिद्ध हुई , लेकिन एक देवी एक दंत से अधिक तो दूसरे एक दंत से न्यून विकृत थी। मुनिराजों ने विचारा कि साधना तो ठीक हुई , परंतु फल प्राप्ति में कमी संभवत: मंत्र की मात्रा आदि में हीनाधिकता के कारण से है। उन्होंने मंत्र में यथोचित सुधार किया और फिर साधना की। अब सुंदर अंग प्रत्यंगों वाली देवियाँ प्रकट होकर मुनिराजों से मंत्र सिद्धि का प्रयोजन पूछने लगीं। मुनिराजों ने बताया कि गुरू आज्ञा से मंत्र साधना की गई है, उन्हें कोई कामना नहीं है, वे जा सकती हैं। कहने का तात्पर्य है कि उन मंत्रों में वर्तनी/ मात्रा की अशुद्धियाँ थीं जो उन दोनों मुनिराजों ने सुधार कर सिद्धि करके अपनी परीक्षा उत्तीर्ण की और आचार्य महाराज को अपने श्रुत—ज्ञान और भाषा—ज्ञान के प्रति संतुष्ट किया, फलत: उन्होंने अपना ज्ञानकोष उन मुनिराजों को प्रदान किया, जिसके फलस्वरूप आज हमें षट्खण्डागम, जयधवला, महाधवल सरीखे महान् अनूठे ग्रंथराज उपलब्ध हैं। इस कथा का सार और प्रयोजन यह है कि जब मामूली—सी वर्तनी की त्रुटि मुनिराजों को सटीक सिद्धि में बाधक हो सकती है, तो हम लोगों द्वारा लापरवाही के द्वारा पूजन की पुस्तकों और ग्रंथों में की गई त्रुटियाँ / अशुद्धियाँ हमको कैसे जिन ग्रंथों के सटीक अर्थों को समझने की ओर अग्रसर कर सकती हैं और पुण्यलाभ दिला सकती है ? देखने में आया है कि पूजा की पुस्तकों में शोध पठन (प्रुफ रीडिंग) की त्रुटियों की बहुलता होती है और पूजा पढ़ने वाले भी उच्चारण गलत करते हैं । मुद्रित होने वाले ग्रंथों में भी शोध पठन की गंभीरता न होने से, मुद्रक अथवा मुद्रण हेतु दानदाता द्वारा शोध पठन हेतु विद्वान् पर होने वाले व्यय को अनुपयोगी समझकर बचत करने की भावना से अशुद्धियों की उपेक्षा की जाती है। ऐसे में पूजक को व मुद्रण में धन लगाकर पुण्य अर्जण करने की भावना वाले को कितना पुण्यलाभ होता हो, कहा नहीं जा सकता, परंतु अशुद्ध/ त्रुटिपूर्ण मुद्रण कराने से दोष अवश्य लगता है। अशुद्ध/ त्रुटिपूर्ण पुस्तके / ग्रंथ बार बार छपने से अशुद्धियों की परंपरा स्थापित हो जाती है, जिसे फिर सुधारना संभव नहीं हो पाता। भाषा संबंधी यही बात हिन्दुधर्म के उपासकों पर भी लागू होती है, समस्त भारतीय हिन्दी साहित्य पर भी लागू होती है। हिन्दी भाषियों को अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा के इस युग में हिन्दी / संस्कृत का अल्पज्ञान होने से एवं विद्यालयों में इन भाषाओं के अध्यापन के प्रति उपेक्षाभाव होने से आज की पीढ़ी को हिन्दी के प्रति अरूचि उत्पन्न करा दी गई है। आज की पीढ़ी यह समझ ही नहीं पाती कि लिखित भाषा में कोई त्रुटि भी है और न उनका भाषा के सही उच्चारण की ओर ध्यान आकर्षित किया जाता है। फिर पूजन पढ़ने के साथ भावभासन का तो प्रश्न ही नहीं उठता और पूजा से अपेक्षित लाभ/पुण्य प्राप्त नहीं हो पाता है। मेरा तो अनुमान है कि हिन्दी के अध्यापक वर्ग भी हिन्दी के प्रति गंभीर नहीं होते हैं। निचली कक्षाओं में सही उच्चारण भी नहीं सिखाए जाते हैं। इसके विपरीत अंग्रेजी की जरा सी अशुद्धि व गलत उच्चारण पर अध्यापक बच्चे को पूर्णरूपेण नालायक समझने लगते हैं। यह स्थिति सोचने को बाध्य करती है कि हिन्दी की पढ़ाई की ओर भी गंभीरता से रूचिवृद्धिपूर्वक ध्यान दिया जावे और हिन्दी अध्यापक, बच्चों के माता—पिता बच्चों में भरी गई हिन्दी के प्रति हीनता की भावना और उपेक्षा भाव को समाप्त करने का उद्यम करें। धर्मग्रंथों और पूजा स्तुति पाठों के प्रति रूचि वृद्धि हेतु माता—पिता को चाहिए कि वे अपने आत्मजों (पुत्र पुत्रियों बहुओं) के साथ सांध्य भोजन के पश्चात् तय किये आधा घण्टे के समय में बैठकर प्रतिदिन स्तोत्र पाठ,स्तुति पाठ का सही उच्चारण करें, अर्थ समझें और संभव हो तो घर में भी सामूहिक स्वाध्याय करने की परंपरा डालें। जिससे परस्पर में चर्चा से समझ में वृद्धि भी होगी और समस्त परिजनों को एक साथ बैठने का अवसर भी प्राप्त होगा। हिन्दी भाषी क्षेत्रों में विशेषकर अपेक्षा तो यह है कि प्रत्येक विद्यार्थी को हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी और एक अन्य भारतीय भाषा अवश्य सिखाई जावे, जिससे राष्ट्रीय एकता की भावना में भी वृद्धि होगी। इसके अतिरिक्त अन्य प्रदेशों में स्थानीय भाषा के साथ उक्त भाषाएँ विदेशी भी सीखें तो आज के युग के अनुरूप होगा। यहाँ यह जानना भी उपयुक्त होगा कि विज्ञान, मानव विज्ञान, गणित, राजनीति शास्त्र, अर्थशास्त्र, प्रबंधन, प्रशासन और प्रौद्योगिकी अभियांत्रिकी तथा चिकित्सा आदि के विषय भी हिन्दी भाषा में पढ़ाना संभव है। यदि हिन्दी में अध्यापन होगा तो किसी विषय की पुस्तकों की कमी भी नहीं रहेगी, क्योंकि बाजार में पूर्ति तो मांग के अनुसार होती है। हिन्दी की अशुद्धियों के प्रति इतना लिखने का कारण वर्तनी की अशुद्धियाँ जो पढ़ने देखने में आई हैं, उनके कुछ उदाहरण यहाँ दे रहा हूँ, जिससे मुझे विश्वास है कि मेरे कथन को मजबूती मिलेगी। चिन्ह— चिह्न,चिह्न चिह्न । अन्ह—अह्न, अह्न (दिन)। पूर्वान्ह — पूर्वाह्न, पूर्वाह्न, पूर्वाह्न। अपरान्ह—अपराह्न, अपराह्न, अपराह्न । आव्हान— आह्वान,आह्वान, आह्वान।स्त्रोत—स्तोत्र (स्तुति), स्रोत (उद्गम)। सहस्त्र— सहस्र (हजार)। शृ्रद्धा—श्रद्धा। शृ्रंगार—शृ्रंगार। दुरावस्था—दुरवस्था। महत्व—महत्त्व। खन्डन, खण्डन,खंडन। वन्हि—वह्नि, वह्नि, वहिन। हृदय, ह्दय— हृदय। आस्त्रव /आश्रव—आस्रव। अंजुलि— अंजलि। अनाधिकृत—अनधिकृत। आधीन—अधीन। अंर्तध्यान—अंतर्धान (गायब) । उपरोक्त—उपर्युक्त। धोका—धोखा। सानिध्य—सान्निध्य। बरात—बारात। गन्गा—गंगा। शृ्रंखला—श्रंखला/ शृंखला। श्राप—शाप। तत्व —तत्त्व। चन्चल—चंचल, चञ्चल। उज्वल—उज्ज्वल। सन्मुख—सम्मुख। स्त्राव—स्राव। गिरी—गिरि (पहाड़ी)। सन्मान—सम्मान। अनाधिकार—अनधिकार।इस प्रकार की अशुद्धियाँ न हों, इसके लिए शोध पाठकों, सामान्य पाठकों को हिन्दी—हिन्दी शब्दकोश देखने की आदत डालना होगी और पाँचवी, छठी कक्षाओं से ही बच्चों को भी ऐसा ही अभ्यास कराना होगा। इसके लिये ये शब्दकोश खरीदकर हर घर में रखने भी होंगे, जैसे कि प्रत्येक घर में अंग्रेजी के शब्दकोश होते ही हैं, और छोटे बड़ों सभी को उन्हें देखने का सहज अभ्यास है। अब तो मोबाइल फोन उपकरण में भी हिन्दी के उत्कृष्ट कुंजी पटल और टंकन की सुविधा उपलब्ध हो गई है। यदि लोग मोबाइल का प्रचलन हिन्दी में करने लगें तो भी हिन्दी की शुद्धि और प्रचलन में वृद्धि होगी। विश्वास है कि ऐसा करने से प्रारंभ से ही बच्चों में धर्म की समझ, तदनुसार आचरण, संस्कृति की रक्षा और राष्ट्रभाषा की संरक्षा और समृद्धि के संस्कार तथा हीनभावना अनुत्पन्न होगी/ क्षीण होगी। धर्म के प्रति रूचि के साथ—साथ राष्ट्रीयता की भावना में भी वृद्धि होगी। यदि शिक्षित होकर युवा विदेश भी जाते हैं तो ये संस्कार उनको सदैव सदाचरण की ओर उन्मुख और प्रेरित करते रहेंगे।