अंगों के आकार में समानता वाले अवयव अंगों के उपचार में सहायक— अनादिकाल से चिकित्सक और वैज्ञानिक मानव जाति को रोग मुक्त रखने हेतु प्रयत्नशील है। परन्तु आज भी रोग एवं रोगियों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है । जो हमें सोचने के लिये बाध्य कर रही है कि स्वास्थ्य के संबंध में कहीं मूल में भूल हो रही है। कहीं हम शरीर की क्षमताओं से अनभिज्ञ तो नहीं हैं ? चिकित्सा के क्षेत्र में विज्ञान के लम्बे चौड़े दावों के बावजूद आज तक मानव शरीर के बालों , नखूनों , पसीने की बूंदों जैसे तुच्छ अवयवों तथा शरीर की कोशिकाओं अथवा रक्त के एक बूंद जैसे अति आवश्यक अवयवों का निर्माण नहीं कर सका, जो प्रत्येक मानव का शरीर स्वयं करता है। अत: स्वस्थ रहने की कामना वालों को अपने आपसे इस प्रश्न के समाधान हेतु सम्यक चिंतन, स्वाध्याय और समीक्षा करनी चाहिए। शरीर के विभिन्न अंग उपांगों की स्थिति एवं आकार के रहस्य को समझने का प्रयास करना चाहिए। शरीर में कहां—कहां समानता अथवा एकरूपता है और क्यों ? क्या उपचार में शरीर के वे भाग आपस में सहयोग कर सकते हैं? शरीर में मिलते—जुलते अंग उपांगों के आधार पर चिकित्सा करने का सिद्धांत बहुत ही सरल एवं सीधा होता है। अनादिकाल से आपस में मिलते जुलते आकारों के बीच संबंधों को स्थापित कर चिकित्सा के क्षेत्र में उनका सहयोग लिया जाता रहा है। इसी कारण बहुत से आहार विशेषज्ञों की ऐसी मान्यता है कि बादाम का आकार आंख जैसा, काजू का आकार गुर्दे जैसा, अखरोठ का आकार मस्तिष्क के समान , सेव का आकार हृदय जैसा, अंगूर के गुच्छे का आकार फैफडों जैसा, पपीते का पेट जैसा होने से ये पदार्थ खाने से संबंधित अंगों की प्रक्रियाएं प्रभावित होती है। इसी प्रकार जब प्रकृति के दो अवयवों के आकारों में समानता अथवा एकरूपता होती है तो उससे संबंधित अंगों के उपचार में वे सहायक सिद्ध हो सकते हैं। माँ के गर्भ में गर्भस्थ बालक की जो स्थिति होती है वैसा ही आकार हमारे कान का होता है तथा उसी आकार को आधार मानकर चिकित्सा के लिये अंगों की स्थिति जानी जाती है। कान के नीचे का भाग मस्तिष्क से संबंधित होता है। इसी कारण जब कोई बालक पहले गलती करता था, अध्यापक उसका कान पकड़ते थे जिससे उसके मस्तिष्क में झनझनाहट होने लगती और उसकी सुसुप्त स्मरण शक्ति जागृत होने लग जाती, ताकि बालक को अपनी गलती का अहसास हो जाता और प्रश्न का उत्तर प्राप्त हो जाता। कान के एक्युप्रेशर / एक्युपंचर विशेषज्ञ कानों में इन प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर दबाव देकर अथवा सुईयों से छेदन कर विभिन्न रोगों का सफल प्रभावशाली उपचार करते हैं।
सुजोक एक कोरियन शब्द है, ‘सु’ का मतलब पैर। डॉ. जे.वु. पार्क ने हथेली और पगथली की शरीर में एक समानता का रहस्य जाना। हथेली और पगथली का आकार मिलता जुलता है एवं उसकी एकरूपता के आधार पर हथेली एवं पगथली से संबंधित अंगों के प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर दबाव देकर सभी प्रकार के रोगों का उपचार प्रभावशाली ढंग से शीघ्र एवं सफलतापूर्वक किया जा सकता है। यह पद्धति पूर्ण अहिंसक, दुष्प्रभावों से रहित , सस्ती, स्वावलम्बी तथा सभी के लिये, सभी समय तथा सभी स्थानों पर उपलब्ध होती है। बाल, वृद्ध, शिक्षित, अशिक्षित इसको आसानी से सीख सकता है एवं अपना उपचार स्वयं आसानी से कर सकता है। इस पद्धति द्वारा न केवल शारीरिक अपितु मानसिक स्तर तक सभी प्रकार के रोगों का प्रभावशाली एवं स्थायी उपचार किया जा सकता है। शारीरिक स्तर पर उपचार दबाव, मसाज, बीज द्वारा वास्तविक अथवा सूक्ष्मतम स्तर पर प्रतिबिम्ब केन्द्रों से विजातीय तत्वों को हटाकर तथा मानसिक स्तर पर बियोल मेरेडियन तथा वायु, ताप, गर्मी, आद्रता, शुष्कता एवं ठण्डक आदि छ: ऊर्जाओं को संतुलित करके किया जाता है। पद्धति अपने आप में परिपूर्ण है तथा कभी—कभी तो असाध्य एवं पुरानी बीमारियों में २-३ उपचार में ही काफी राहत दिलाती है। इसी कारण अनेक विकसित राष्ट्रों में यह पद्धति बहुत अधिक विख्यात हो गई है तथा अनेक शल्य चिकित्सा के विकल्प के रूप में पिछले चंद वर्षों में विश्व भर में फैल रही है।
हाथ एवं पैर में नाखून के नीचे के भाग का आकार दांत से मिलता जुलता होता है। अंत: दांतों के दर्द में उनकी जड़ों में २-३ मिनट का दबाव (कुछ समय के अंतराल में बार—बार) देने से अथवा रबड़ बैंड लगाने से तुरंत राहत मिलती है। हस्त रेखा विशेषज्ञ हथेली में रेखाओं अथवा अन्य आकार देखकर मनुष्य के भूत, वर्तमान एवं भविष्य की घटनाओं को बताने में सक्षम होते हैं। मुद्रा वैज्ञानिक हाथों की अंगुलियों और अंगूठे को आपस में अलग—अलग ढंग से स्पर्श कर पंच महाभूत तत्वों को संतुलित कर विभिन्न रोगों का उपचार करते हैं । नाखूनों की बनावट एवं उनके रंगों के आधार पर मनुष्य के स्वभाव के बारे में जाना जा सकता है। हथेली की अंगुलियों में तरह—तरह के रत्न एवं विशिष्ट पत्थर अंगूठियों में पहनने से उन रत्नों की तरंगों का प्रभाव सभी स्तर पर पड़ने लगता है जिससे न केवल रोगों में राहत अपितु ग्रह नक्षत्रों की प्रतिकूल स्थिति को भी बदला जा सकता है। एक्युप्रेशर की रिफ्लेक्सोलोजी चिकित्सा प्रणाली के अनुसार हथेली एवं पगथली में शरीर के सभी अंगों के प्रतिबिम्ब केन्द्र होते हैं। रोग की अवस्था में उन केन्द्रों पर विजातीय तत्व जमा होने लगते हैं। जिनकों दबाव द्वारा हटाने से सभी प्रकार के रोगों में राहत मिलती है परन्तु डॉ. जे.वु. पार्क की खोज शारीरिक अंगों की हथेली एवं पगथली में समानता के आधार पर होने से अधिक वैज्ञानिक,तर्क संगत एवं उपचार हेतु सरल है। मनुष्य के शरीर को मुख्यत: छ: भागों में विभाजित किया जा सकता है। जिसका पहला हिस्सा सिर से गले तक का भाग, दूसरा हिससा बीच का पूरा शरीर, तीसरा और चौथा भाग दोनों हाथ तथा पाँचवा और छठा भाग दोनों पैर होते हैं। सिर, हाथ एवं पांव से लंबाई में छोटा होता है लेकिन ज्यादा मजबूत और मोटा होता है। हथेली का अंगूठा चारों अंगुलियों की प्रत्येक कार्य में मदद करता है तथा उनको नियंत्रित करता है। सुजोक एक्यूप्रेशर के अनुसार हाथ अथवा पैर के अंगूठे का आकार सिर से गले तक के भाग के समान , बीच की दोनों अंगुलियों दोनों पैर तथा बगल की दोनों अंगुलियों के बनावट की दोनों हाथों की बनावट से तुलना की गई है। मध्य की पूरी हथेली धड़ अथवा बाकी सारे शरीर का प्रतिनिधित्व करती है। हाथ का अंगूठा और अंगुलियां पैरों के अंगूठे एवं अंगुलियों से आकार में बड़ी होने से यह समानता स्पष्ट देखी जा सकती है। हाथ का अंगूठा दो भागों में विभाजित है। सिर और गर्दन। बाकी अंगुलियां तीन—तीन भागों में विभक्त होती है जो हाथ और पैर की अभिव्यक्ति करती है । हाथ के तीन भाग—पहला अंगुलियों से कलाई तक, दूसरा कलाई से कुहनी तक एवं तीसरा कुहनी से कंधे तक के भाग का प्रतिनिधित्व करता है। इस प्रकार पैर के तीन भाग पहला अंगुलियों से टखने तक, दूसरा टखने से घुटने तक तथा तीसरा घुटनों से नितम्ब तक का प्रतिनिधित्व करता है। अंगूठे के पास वाली तर्जनी में उसी तरफ वाले हाथ के मध्यमा में उसी तरफ वाले पैर, अनामिका में दूसरे पैर तथा सबसे छोटी अंगुली में दूसरे हाथ में प्रतिबिम्ब केन्द्र होता है। बीच की हथेली एवं पगथली को दो भागों में विभाजित किया गया है उभरा हुआ भाग डायाप्रम रेखा के ऊपर के हिस्से से तथा बाकी भाग डायाप्रम रेखा के नीचे वाले अंगों से संबंधित होता है। इस प्रकार मनुष्य के पूरे शरीर के प्रत्येक भाग को हथेली अथवा पगथली में समानता के आधार पर प्रतिबिम्बित किया गया है। शरीर के जिस भाग में असंतुलन अथवा रोग होता है तब उससे संबंधित भाग में विजातीय तत्व जमा होने लगते है । अत: उस स्थान पर दबाव देने से दर्द की अनुभूति होने लगती है। जितना ज्यादा दर्द होता है रोग उतना ही उग्र एवं पुराना होता है। इन विजातीय तत्वों को एक्यूप्रेशर द्वारा वहां से हटाने से संबंधित अंग में प्राण ऊर्जा का प्रवाह संतुलित हो जाता है जिससे रोगी रोग मुक्त होने लगता है। उपचार से पूर्व पूर्ण हथेली एवं पगथली के सूक्ष्मतम भाग पर दबाव देकर निदान हेतु निरीक्षण करना चाहिए। जिन—जिन प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर दबाव देने से दर्द आता है , उन सभी प्रतिबिम्ब बिन्दुओं पर उपचार करना चाहिए। भले ही उनका प्रत्यक्ष रोग ग्रस्त अंग से संबंध न भी हो, जो रोग के लक्षण बाह्य प्रकट होने लगते हैं तो रोगों के परिवार के मुख्य होते हैं तथा दर्द आने वाले संबंधित प्रतिबिम्ब केन्द्र उस रोग से अप्रत्यक्ष रूप से संबंधित होते हैं। इस प्रकार इस पद्धति द्वारा पूरे शरीर को एक इकाई मानकर एक साथ पूरे शरीर में प्रत्यक्ष—अप्रत्क्ष रोगों का उपचार होने से चिकित्सा अत्यधिक प्रभावशाली होती है। सुजोक क्यों प्रभावशाली ?— सुजोक सहज, सरल, सस्ती, स्थायी, दुष्प्रभावों से रहित, शरीर की प्रतिकारात्मक क्षमता को बढ़ाने वाली होती है, जो व्यक्ति का स्वविवेक जागृत कर, स्वयं की क्षमताओं के सदुपयोग की प्रेरणा देती है। वे हिंसा पर नहीं अहिंसा पर, विषमता पर नहीं समता पर, साधनों पर नहीं साधना पर, दूसरों पर नहीं स्वयं पर आधारित होती है, जो शरीर के साथ—साथ मन एवं आत्मा के विकारों को दूर करने में सक्षम होती हैं। यह प्रकृति के सनातन सिद्धांतों पर आधारित होने के कारण अधिक प्रभावशाली, वैज्ञानिक, मौलिक एवं निर्दोष होती है।