संतोष और महत्वाकांक्षा दोनों अलग-अलग पहलू हैं।संतोष में सुख, शांति और मन की स्थिरता है, तो महत्वाकांक्षा में मन की उंची उड़ान है। कुछ कर गुजरने की तीव्र अभिलाषा है, निर्धारित लक्ष्य पर पहुंचने का ध्येय है। दोनों पहलू जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में आवश्यक भी है। संतोष, गंभीर और शांत सागर के समान है तो महत्वाकांक्षा सागर में उठती हुई लहरें, जो नित्य आगे बढ़ती रहती हैं कि एक न एक दिन हमें किनारा अवश्य मिलेगा। संतोष मन का चैन है, मन का संयम है तो महात्वाकांक्षा मन का आविष्कार है। संतोष अध्यात्म है तो महत्वाकांक्षा विज्ञान है। अब हम दोनों पहलुओं पर अलग-अलग ढंग से विचार करेंगे।
संतोषरूपी अमृत से तृप्त और शांत चित वाले मनुष्यों को जिस सुख-शांति और आनंद का अनुभव होता है, वह धन के लोभ में इधर-उधर भटकने वालों को नहीं होता है। सुख-शांति का मूल आधार संतोष है। संतोष वृत्ति नहीं रखने से मनुष्य को जितना मिल जाए उतना ही कम पड़ता है। असंतोष मानव में लोभ की तीव्र भावना पैदा करता है। हां आवश्यकता जितना साधन तो अवश्य रखना पड़ता है, परन्तु उसकी सीमा अवश्य होनी चाहिए। इच्छाओं का तो कोई अंत ही नहीं है। द्रौपदी के चीर की तरह अनहद होती है। दु:शासन के हाथ थक गये, परन्तु द्रौपदी की साड़ी का अंत नहीं आया। आगम में कहा गया है- इच्छाहु आगास समा अणंतिया। इच्छा आकाश की तरह अनंत है। आकाश में असंख्य पक्षी उड़ते हैं, परन्तु उड़-उड़ कर वापस आते हैं, कोई उसका अंत नहीं पा सका। इसी प्रकार मनरूपी पक्षी भी रोज इच्छाओं रूपी आकाश में उड़ा करते हैं। उड़ते-उड़ते अंत में उसके पंख थक जाते हैं, परन्तु उसका अंत कहीं ढूंढ नहीं सकता है। संतोष धारण करने में ही उत्तम सुख की प्राप्ति होती है। यह तो रही संतोष की बात, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि मनुष्य हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाए। हर मनुष्य को महत्वाकांक्षी तो अवश्य बनना चाहिए कि किस प्रकार मैं जीवन में नित्य आगे बढ़ता रहूं और इस अमूल्य मानव जीवन को सफल बनाऊं। महत्वाकांक्षा व्यक्ति को अपने लक्ष्य की ओर सतत बढ़ने की ओर प्रेरणा देती है। जिंदा लाश की तरह जीवन को घसीटता है। पशुवत् जीवन जीता है। हम इतिहास के पृष्ठों को खोलकर देखें तो पता चलेगा कि संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं सब महत्वाकांक्षी थे। जैसे गांधी जी ने भारत को अहिंसा से आजादी दिलाने की मन में ठान ली तो आजादी लेके ही रहें। भगवान बुद्ध और भगवान महावीर ने बोधित्व और केवलज्ञान पाने की ठान ली तो प्राप्त करके ही रहे। जिस प्रकार संतोष व्यक्ति के मन में सुख देता है, उसी प्रकार महत्वाकांक्षी व्यक्ति के मन में भी आनंद का सागर हिलोरे लेता है। तेनसिंह जब पहली बार एवरेस्ट की चोटी पर पहुंचा तो उसकी खुशी का पार नहीं था। राइट ब्रदर्स ने जब विमान का आविस्एकार किया तो उन सबके पीछे उनकी अटूट आस्था और निरन्तर प्रयत्नशील महत्वाकांक्षा ने ही उन्हें अपने लक्ष्य तक पहुंचाया। महत्वाकांक्षी व्यक्ति सोचता है कि आनंद भौतिक वस्तुओं में नहीं है बल्कि अपने उद्देश्य की प्राप्ति में है। इच्छा और महत्वाकांक्षा में भी बहुत अंतर है। इच्छा वस्तुओं को पाने की ओर लालायित रहती है, जबकि महत्वाकांक्षा हमें कुछ बनने की ओर प्रेरित करती है। एक अंग्रेज कवि ने कितना सुन्दर लिखा है कि The Less you have, the More you are, कभी-कभी प्रश्न उठता है कि – महत्वाकांक्षा भी कहां तक रखनी चाहिए। भीतर से उत्तर मिलता है कि जितनी हमारी योग्यता, सामर्थता और शक्ति हो, वहीं तक छलांग लगाना चाहिए। उससे अधिक छलांग तो कभी-कभी गिरने का भी भय रहता है। जैसे चिड़िया अगर अपनी उड़ान चील की तरह भरने को जायेगी तो कहीं न कहीं टकरा कर चकनाचूर हो जायेगी। मनुष्य में दौड़ने की जितनी शारीरिक शक्ति है, उससे अधिक दौड़ लगायेगा तो अंत में बेहोश होकर गिर जायेगा। अलग-अलग व्यक्तियों में अलग-अलग तरह की क्षमता होती है इसलिए अपनी क्षमता का ही सदुपयोग करना चाहिए। महत्वाकांक्षा हमें दुनिया को होड़ में आगे बढ़ी है। प्रतियोगिता में भाग लेना सिखाती है कि हम भी सफल प्रतियोगी बनें, लेकिन अपने प्रतिद्वन्दी को नीचे गिराकर, उसका पतन करके हमें आगे नहीं बढ़ना है उसको साथ लेकर, उसका भला चाहते हुए और राग-द्वेष के विजेता बनकर तथा इश्र्या-मत्सर को छोड़कर आगे बढ़ना चाहिए। दूसरों को सुख पहुंचा कर और सबके लिए कल्याण की कामना करते हुए तथा लोकहित की भावना भाते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ना चाहिए। महत्वाकांक्षी व्यक्ति अप्रमादी तथा सतत प्रयत्नशील होना चाहिए। छोटे बालकों को भी अच्छी और उन्नत शिक्षा की ओर महत्वाकांक्षी बनने की ओर प्रेरित करना चाहिए। भ्रष्ट और पतन की राह से सदैव बचाना चाहिए। महत्वाकांक्षी व्यक्ति का लक्ष्य स्वयं हिताय और लोकहितय दोनों तरफ होना चाहिए। स्वार्थी नीति नहीं होनी चाहिए। प्रभु मेरा भी भला हो और सारे विश्व का भला हो, ऐसी भावना कूट-कूट कर भरनी चाहिए।