आजकल बहुत से व्यक्ति आपको यह कहते हुए मिल जाएंगे कि न जाने क्यों इन दिनों मन बहुत परेशान है। जैसे- काम में जी नहीं लगता, बात-बात में गुस्सा आता है। हर समय चिड़चिड़ाहट घेरे रहती है। मन में घाव-सा हो गया है। ऐसे लोग यदा-कदा ऊपरी तौर पर खुश भी नजर आते हैं और ठहाके भी लगा लेते हैं, पर उनके अन्तरमन में क्रोध का ज्वालामुखी दहकता रहता है। विख्यात मनोचिकित्सक मोरिस प्रेडमेन उपयुक्त लक्षणों का ब्यौरा देते हुए कहते हैं कि अगर ऐसा है तो परखिए, कहीं मन की, किसी निचली परत में कोई गांठ न पड़ गई हो भले ही यह बात सतही तौर पर समझ में न आए, परन्तु यह सारी परेशानियाँ होती उसी कारण से हैं। यही गांठ जब तक कसकती रहती है, तब तक रुलाती है, आक्रोश दिलाती है, परेशान करती रहती है। मन में कोई न कोई ऐसा विचार भी गांठ बन जाता है, जो विचार उस व्यक्ति के मन के अनुरूप सुलझता नहीं हैं। वह जो चाहता है, वैसा नहीं हो पाता और जब वह स्वयं भी नहीं कर पाता तब मन में गांठ पड़ जाती है।
मन की गहरी पर्तों के विश्लेषक ‘‘जेडी प्रेंक’’ ने इस विषय पर काफी ज्यादा शोध व अनुसंधान किए हैं। उन्हें अपने अनुसंधान के निष्कर्षों का ब्यौरा ‘‘हिडेन माइंड ए फॉरगॉटन चेप्टर ऑफ अवर लाइफ’’ नामक पुस्तक में प्रकाशित किया गया है। इस पुस्तक में प्रकाशित विवरण के अनुसार मन में ऐसी गांठ प्राय: किसी के कटु व्यवहार के कारण पड़ जाती है, जिसे हम भूल नहीं पाते। किसी के द्वारा की गई अवहेलना, उपेक्षा, तिरस्कार, अपमान के क्षण हमारे मन में गांठ बनकर पड़ जाते हैं। यह कसक कभी तो बदला लेने का ज्वालामुखी बनना चाहती है, तो कभी असहाय होने के अहसास की पीड़ा बनकर छटपटाती रहती है। जापानी चिकित्सा वैज्ञानिक के कुरोकावा के अनुसार मन की यह पीड़ा तन में उतरे बिना नहीं रहती, जिससे व्यक्ति का तन अनेक रोगों का घर बनता चला जाता है। ऐसे व्यक्ति को मन की धारा बदलने की आवश्यकता है। किसी का भी समय एक समान नहीं रहता। किसी की भी इच्छा सदा के लिए स्थाई नहीं बनती। मन का सुख किसी एक वस्तु से नहीं किसी भी वस्तु से प्राप्त हो सकता है। नादान बच्चा चाकू से खेलता है तो उसकी माँ तुरन्त चाकू लेकर उसे दूसरा खिलौना पकड़ा देती है और बच्चा उसी से खेलने लग जाता है। हमको भी चाहिये कि मन में ऐसी गांठ न पालें, बल्कि अपनी स्वस्थ सोच से मन को तरोजाता बनाए रखें।