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पुरूषार्थ
पर पदार्थो के सम्बन्ध में रसिक होनेवाना प्राणी नि:श्रेयस् व अभ्यूदय सुख को प्राप्त नहीं कर पाता, कारण पर का आश्रय लेने से अपने पुरूषार्थ के माध्यम से स्वगुणों का विकास नहीं कर पाता ऐसा आत्मघाती अज्ञानी पर के सहारे की प्रतीक्षा में ही काल व्यतीत करता है। अत: मनुष्य के लिए स्वावलम्बन ही परमार्थ का साथी है।
हिंसा
परोपघात से जिसकी स्मृति कठोर हो गई है अर्थात् जो परोपघात का विचार करता रहता है पर किसी दूसरे जीव को मारता नहीं, फिर भी व हिंसकपने को प्राप्त होता है।
प्रमोद
कषाय के भार से भारी होने से आलस्य का होना प्रमाद है।
उपाय
दुख और संक्लेश रूपी परिणामों से आत्मरक्षा करने बचने का सरल उपाय मार्ग है उन्हें भूल जाना।
शोभा
जिस प्रकार पुत्र के बिना घर की शोभा नहीं, उसी प्रकार संयम बिना मनुष्य पर्याय की शोभा नहीं।
निष्कपट
वाक्यशुद्धि शब्दिक ज्ञान से नहीं अपितु निश्छल उद्गारों से होती है।
महानपुरूष
महान पुरूष ही ज्ञान, पूजा, प्रतिष्ठा आदि के मद का त्याग कर सकते हैं।
प्रतिशोध
प्रतिशोध की भावना रखनेवालों कसे विवेकीजन धर्मात्मा ज्ञानी नहीं कहते।
कपट
जो जीवनोत्साह अपनी गं्रथि को विदीर्ण कर अपने पाप भार को क्षीण करने में लगे हैं वे धन्य हैं।
उपकार
सज्जनों का जीवों का उपकार करने का प्रयास स्वार्थसिद्धि के लिए नहीं होता।
कथन
पूर्वापर विरोध रहित निर्बाधि कथन और विसंवादरहित प्रवचन में प्रकृष्टता है।
यथार्थ
रत्नत्रय से युक्त जीवों के लिए अपने धन का त्याग करना का योग्य उपकरण आदि प्रदान करना दान है।
प्रभाव
प्रत्येक प्राणी पर अपनी पूर्व पर्याय के संस्कारों का प्रभाव अवश्य रहता है, इसी कारण मानवों में भिन्न-भिन्न विचारधारा, रुचि और आचरण होते हैं।
भेद-ज्ञान
भो आत्मन् ! जिस प्रकार कोई व्यक्ति हम पर शस्त्रों का प्रहार कर हमें घायल कर दे तो वे शस्त्र दोषी नहीं कहलाते अपितु शस्त्र चलानेवाना दोषी होता है, इसी प्रकार विचार करो कि दु:ख देने में निमित्त बननेवाला प्राणी शस्त्र के समान निर्दोष है। वास्तव में दोषी तो पूर्व संचित कर्मों का संचय करनेवाला व्यक्ति ही है जैसा विचार कर उस प्राणी के प्रति द्वेषभाव नहीं करना।
इच्छा
जो सुख इच्छाओं के अभाव में है वह उनकी पूर्ति में नहीं।
भावना
भो आत्मन् ! जैसी हमारी भावना करणी या कार्य होता है उसके अनुसार ही अच्छे या बुरे कर्मों का बन्ध होता है।
फल
भो आत्मन् ! यह निश्चय समझो कि अनुचित यानी माया, ठगी, कपट, आदि अधम कार्यों का फल भी अच्छा नहीं मिलता। अनुचित कार्यों को करते हुए जो सफलता मिली है वह पूव्र भव में किए हुए सुकार्यों का ही फल है।
अभाव
शुद्ध रजवीर्य से जिनका निर्माण हुआ है तथा खान-पान की शुद्धि और चारित्र-पालन में समर्थ ऐसे औदारिक शरीर का सहयोग आत्मशुद्धि की सफलता में परमावश्यक है। इसे अभाव में आत्मा कर्मनाश की अपनी शक्ति का विकास नहीं कर पाता।
व्यामोह
किसी प्रकार की आशा-आकांक्षा रूपी दीनता का न होना ही सुख का साधन है। उद्वेग रहित शान्तचित्त वाला प्राणी ही संताष रूपी अमृत पीकर सुख-शांति से जीवनयापन कर सकता है कीर्ति व धन-वैभव के व्यामोहों में भटकरने वाला नहीं।
सुख
अपने व दूसरों के लिए दु;ख की कारण रूप परिणिति का अभाव ही सुख रूप हैं।
पाप
भो आत्मन् ! लौकिक सुख का कारण धन-वैभव, सुन्दर स्वस्थ शरीर, प्रिय बन्धुजन व ज्ञज्ञन की प्रकर्षता आदि नहीं उसमें कारण हमारा पुण्य है। पूर्वसंचित पुण्य के उदय से सभी अनुकूल साधन मिलते हैं और पापोदय होने पर वे ही साधन विपरीत लगने लगते हैं। अन्य किसी प्राणी में ऐसी सामध्र्य नहीं जो हमें सुख-दुख दे सके। वे तो हमारे पाप के उदयकाल में निमित्त मात्र बनते हैं।
अज्ञानी
लोक व्यवहार से शून्य, शास्त्री ज्ञानी भी अज्ञानी के समान हैं।
समत्व
भो आत्मन् ! अपनत्व या ममत्व का न होना ही वास्तविक सुख का कारण है।
विनय
गुरुओं के अनुभवरूपी ज्ञान की छटा श्रद्धालु विनयी शिष्यों में प्रवेश पा सकती है।
सान्निध्य
जिस प्रकार मलयगिरी के सान्निध्य से बांस चन्दन नहीं बन सकता। उसी प्रकार नम्रता विहीन प्राणी विद्वान नहीं हो सकता।
संक्लेश
इच्छाओं की बाहुल्यता ही अधिक दु:ख संक्लेश का कारण है।
भावना
जब हमारी भावनायें दूसरे को शारीरिक, मानसिक या आर्थिक कष्ट पहुंचाने की होती है, उसी समय अशुभ कर्मों का आस्त्रव और बंध होता ही है।
विवेक
भारत देश में चारित्र सर्पोपरि प्रतिष्ठित है। व्रतशीन संयम की रक्षा करते हुए सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक मर्यादाओं का पालन करना यहां का आदर्श हैं। पाश्चात्य संस्कृति केवल भौतिक विकास तक सीमित है। ऊपरी-ऊपरी स्वच्छता की बात करती है। जबकि भारतीय संस्कृति स्वच्छता और शुद्धता पर समान रूप से बल देती है। जीव विज्ञान की दृष्टि से स्त्री और पुरुष की रचना में पर्याप्त अन्तर है। इसी तरह शारीरिक क्रियाओं में भी अन्तर मिलता है। स्त्रियां प्रतिमास रजस्वला (एम.सी.) होती हैं उसके शरीर से दूषित खून निश्चित प्रक्रिया से निष्कासित होता है। इस समय वे शारीरिक दृष्टि से पूर्व स्वस्थ नहीं होती और इसलिए उन्हें उस समय विशेष सावधानी की अपेक्षा होती हैं। आयुर्वेद शास्त्र कहता है कि महिलाओं को रजस्वला की अशुद्धि का पालन आवश्य करना चाहिए। परन्तु आज इस नियम में भी विपरीतता देखी जा रही है तथाकथित पढ़े लिखे सभ्य परिवारों में महिलाएं इस शुद्धि का पालन नहीं करती और आह्य-स्वच्छता के नाम पर अपवित्रता और और असद् आचारों को प्रश्रय दे रही हैं।
शील-संयम रूप चारित्र की रक्षा और लौकिक शुद्धि के निर्वाह का लक्ष्य आज पूरा नहीं हो रहा है परिणाम स्वरूप हमारी सन्तानों के अन्तरंग से संस्कृति का साधक धार्मिक और सामाजिक मर्यादाओं का विवेक ही नष्ट हो गया है और वे विषय-वासनाओं के प्रवाह में पड़कर अपना और समाज का भी अहितकरते हैं। शील और संयम के नष्ट हो जाने पर जीवन में बचता ही क्या है तब पारिवारिक और सामाजिक विघ्ज्ञटन होता है। नाना प्रकार की समस्याएं खड़ी होती है। अत: इस दिशा में सोच-विचार कर कदम बढ़ाना चाहिए अन्यथा भविष्य सर्वथा अन्धकारमय है।
तेरा-मेरा
हे पुण्य भोगी श्रीमान् ! धीमान् ! चारित्रवानों ! कषाय के आवेश में निकली हुई सम्प्रदाय शाखाओं तेरहपंथ, बीसपंथ, गुमानपंथ, शुद्ध तेरहपंथ, शुद्धाम्नाय, अध्यात्मवाद और सुधारवाद की हठग्राहिता को छोड़कर सिद्धान्त के वचनों की शरण ग्रहण करो, इसी से कल्याण होगा।
इस पंचमकाल में अढ़ाई हजार वर्षों से जो हमारे यहां देवशास्त्र की पूजा, भक्तिदान, सम्यक् आचरण तथा समाजिक मर्यादा पालन की जो प्रवृत्तियां चली आ रही हैं उनका उल्लंघन करना अथवा उनके उल्लंघन करने का प्रचार करना भविष्य के लिए तो अहितकर है ही, पर वर्तमान में भी हमारे पतन के साधनों का ही संग्रह करेगा।