हमारी शरीर के प्रति कैसी दृष्टि होनी चाहिए— इस विषय में बहुत कम लोग चिन्तन करते हैं। प्राय: साधक देह के मोह में फंस जाया करते हैं। शरीर पर इतना मोह क्यों है ? प्रश्न है कि जीव से शरीर पूर्ण होता है या जीव के बिना ? कुछ लोगों की ऐसी मान्यता है कि गर्भ में पहले शरीर बनता है और फिर उसमें जीव आता है। परन्तु वह बात सही नहीं है। गर्भ में जीव के आये बिना शरीर का निर्माण ही प्रारम्भ नहीं होता है। जीव के रहने पर ही शरीर पूर्ण होता है। शरीर से जीव के निकल जाने पर शरीर मृत माना जाता है। संसारी जीव सशरीरी ही होता है। जीव ही शरीर का निर्माण करता है और स्वयं ही उसमें फंसा रहता है। जब तक शरीर है, तब तक दुख है, पीड़ा है, खाने—पीने की चिन्ता है। शरीर है, तो बुढ़ापा है, आशक्ति है, मरण है। शरीर में दर्द हुआ तो दवा लो, गन्दा हुआ तो स्नान करो। ठण्ड लगी तो गर्म कपड़े पहनो, गर्मी लगी तो ठण्डी वस्तुओं का भोग करो। ऐसा लगता है, जीव शरीर की कैद में पड़ गया है । शरीर है, तो संसार है। शरीर नहीं तो संसार नहीं। ज्ञानियों की दृष्टि में जीव को अशरीरी बनना है। असंसारी तो सिद्ध भगवान हैं। वे ही अशरीरी जीव हैं—पूर्ण जीव हैं— परमात्मा स्वरूप हैं। लघु कथा सारंगी की— एक जाने—माने संगीतज्ञ थे। वे संगीत में बड़े निपुण थे। दूर—दूर तक उनकी ख्याति फैली हुई थी। संगीत को उन्होंने आजीविका के रूप में नहीं, बल्कि आनन्दप्रद कला के रूप में अपनाया था। उनके दो पुत्र थे। दोनों ही योग्य थे। परन्तु दोनों की रूचि भिन्न थी। बड़े की संगीत में रूचि थी। उसने पिता से इस कला में दक्षता अर्जित की थी। वह भी प्रसिद्ध संगीतज्ञों की पंक्ति में आ गया था। किन्तु छोटे भाई की संगीत में कुछ भी रूचि नहीं थी। पिता ने दोनों पुत्रों के लिये आजीविका के साधन जमा दिये। दोनों के विवाह भी करा दिये और एक दिन इस भव से विदा हो गये। कुछ दिन दोनों भाई साथ रहे। भाई—भाई सदा साथ रहें—यह बड़ा कठिन है। एक न एक दिन वे प्राय: अलग होते ही हैं। उनके लिये भी यह प्रसंग आ ही गया। बँटवारा हो गया—शान्ति व प्रेम से । परन्तु एक वस्तु पर आकर बात अटक गई। वह थी पिताजी की सारंगी। बड़ा भाई बोला— ‘भाई! तुम सारंगी रखकर क्या करोगे ? तुम्हें संगीत का न तो ज्ञान है और न उससे लगाव है !’ छोटा भाई जिद से बोला— ‘वाह! संगीत का ज्ञान नहीं है तो क्या हुआ? यह पिताजी की निशानी तो है। आप क्या करोगे ?— मात्र इसे बजाओगे। मैं तो इसकी पूजा करूँगा— पूज्जयन की वस्तु जो है !’ बड़ा भाई कुछ नहीं बोला! मन समझाकर रह गया। सारंगी छोटे भाई के पास रही। उसने बढ़िया से बढ़िया कपड़ा खरीदा। उसकी खोल सिलवाई। उस पर गोटे—किनारी लगवायी। सलमे—सितारों से कारीगिरी करवायी। और उस सारंगी पर वह चमचमाती हुई खोल चढ़ायी और यथा—समय उसकी पूजा करता रहा। लम्बा समय बीत गया। सारंगी का उपयोग हुआ ही नहीं। एक दिन छोटे भाई के घर कोई हर्ष का प्रसंग आया। उसने बड़े भाई को सपरिवार भोजन के लिये आमंत्रण दिया। अन्य परिजन भी आये ही थे। भोजन के कुछ समय बाद परिजनों का आग्रह हुआ, बड़े भाई से संगीत सुनने का। बड़े भाई ने कहा ‘साज के बिना संगीत कैसा ? साज —बाज सभी तो घर पर हैं।’’ छोटे भाई ने कहा— भैया! भूल गये हैं आप। पिताजी की प्रख्यात सारंगी यहीं तो है। आज आप उसे ही बजायेंगे। ?’ यह बात सुनकर बड़ा भाई राजी हो गया। वह गोटे—किनारी से सजी —सजाई सारंगी आयी। सारंगी को झाड़—पोंछ कर तार आदि व्यवस्थित किये गये। फिर बड़े भाई ने संगीत के जो सुर निकले, उन्हें सुनकर सभी झूम उठे— देशकाल का भान ही भूल गये। तब छोटे भाई को लगा कि यह सारंगी पूजे जाने के लिये नहीं, अपितु बजाने के लिये है। यह भाई साहब के पास रहे यही ठीक रहेगा। उसने भाई को प्रणाम कर कहा— ‘भैया! मेरी गलती को माफ करिये। मैंने यों ही जीद की थी। मेरी मूर्खता थी। सारंगी को पूजने में पितृ—भक्ति नहीं है— यह मैं अब समझ गया हूँ । इसे अब आप अपने पास ही रखिये और इसका सही उपयोग करिये।’ शरीर के प्रति साधक की दृष्टि समझने के लिये सारंगी की बात कही गयी है। शरीर सारंगी के समान है। जो शरीर से साधना के स्वर निकालना नहीं जानता है, वह छोटे भाई के समान है। शरीर को सारंगी के समान बढ़िया—से —बढ़िया कपड़ों से सजाने से,आभूषण पहनाने से क्रीम, स्नों, पावडर लगाने से क्या साधना के स्वर निकल पाएँगे ? सारंगी की सम्हाल तो बड़े भाई ने भी की होगी। भले ही उसकी पूजा न की होगी। इसी प्रकार साधक की दृष्टि समझिये। जीव इस मानव शरीर के माध्यम से अशरीरी —सिद्धस्वरूप बनने की साधना के स्वर निकाल सकता है। इसलिए उसकी दृष्टि में शरीर की साज—सज्जा का अत्याधिक महत्व नहीं है। उससे साधना के स्वर बराबर निकले, उतनी ही वह उस देह की सार—सम्हाल करता है। यह बात उसके लक्ष्य में सदैव रहती है कि बनना तो मुझे अशरीरी ही है। इसलिये इस देह में उलझना नहीं है, आसक्त नहीं होना है, साधना में लगे रहना है—यही कला है, युक्ति है।