सर्वप्रकार से जीवदया की सिद्धि के लिए गाढ़े वस्त्र से सदा जल के गालने को जिनेश्वरदेव ने सज्जनों को पुण्य का कारण कहा है। जैसा कि कहा है—छत्तीस अंगुल प्रमाण लम्बे और चौबीस अंगुल चौड़े वस्त्र को दुगना करके उससे जल को छानना चाहिए । श्रीमज्जैन मत में दक्ष, जीवदया में तत्पर ज्ञानियों को जल के गालने में कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए। जो पुरुष यहाँ वस्त्र गालित जल को पीते हैं, वे ज्ञानी भव्य हैं। अन्यथा प्रवृत्ति करने वाले पशुओं के समान हैं और पाप का उपार्जन करने से हीन हृदय वाले हैं। अच्छे प्रकार से गला गया जल भी एक मुहुर्त के पश्चात् सम्मूच्र्छन जीवों को उत्पन्न करता है; प्रासुक किया हुआ जल दो प्रहरों के पश्चात् और खूब उष्ण किया हुआ जल आठ सुगन्धित सार वाली वस्तुओं से तथा कषायले हरड़, आँवला आदि द्रव्यों से जल प्रासुक किया जाता है। मनुस्मृति में कहा है— दृष्टि से पवित्र होकर कदम रखे, वस्त्र से पवित्र (छाना हुआ) जल पिए, सत्य से पवित्र वचन बोले और मन से पवित्र आचरण करे। जिस जलाशय से जल लाया गया है, उसे सुप्रयत्न से गालकर उस जीव संयुक्त जल को ज्ञानीजन सावधानी के साथ वहीं पर छोड़ते हैं
ब्रह्मनेमिदत्त: धर्मोपदेशपीयूषवर्षश्रावकाचार— ४। ८७—९३।
आचार्य शिवकोटि ने आचार्य समन्तभद्र प्रतिपादित आठ मूलगुणों का उल्लेख कर कहा है कि पञ्च उदुम्बरों के साथ तीन मकार का त्याग तो बालकों और मूर्खों में देखा जाता है। इसका अभिप्राय है कि यथार्थ मूलगुण तो पंच अणुव्रतों के साथ मद्य, मांस और मधु के त्याग रूप ही है श्रावकाचार संग्रह, भाग ४, प्रस्तावना पृ.१९।