आराधना में आगे बढ़ने, उपासना में उज्ज्वल लाने, भक्ति में भव्यता का रंग प्रकट करने के लिए परमात्मा की मूर्ति एक सफल एवं पुष्ट आलंबन है। चक्षु व मन से एकाग्र होकर परमात्मा की मूर्ति को देखकर जो दिव्य भाव भक्ति का पवित्र स्त्रोत भक्त आत्मा में प्रवाहित होता है उसका अद्भुत आनंद वही भक्तात्मा कर सकता है उसे शब्दों में संजोना बड़ा मुश्किल है। मूर्ति के पर्यायवाची के नाम प्रतिकृति, प्रतिमा, बिम्ब, अर्चा आदि है जिसके माध्यम से ही हम यह रोद्र और दु:खपूर्ण भव सागर सहज पार करने की क्षमता प्राप्त कर सकते हैं। जिनमूर्ति भव सागर से पार करने,तैरने से प्रवहण नौका समान है साक्षात् प्रभू के वियोग में प्रभू के समान ही कार्य करने की अप्रतिम क्षमता जिनमूर्ति में समाविष्ट है। मूर्ति से निराकर वस्तु हमारी बुद्धि से समझने के लिए साकार बनती है। अलक्ष्य और परोक्ष वस्तु लक्ष्य एवं प्रत्यक्ष बन जाती है। परिकर रहित प्रतिमा सिद्धावस्था की और परिकर सहित प्रतिमा अरिहंतावस्था की प्रतीक है। जब उपासक भक्त योग मुद्रा में शांत रस निमग्न प्रभू प्रतिमा के सम्मुख बन प्रभू में तन्मय तद रूप बनकर प्रभू दर्शन पूजन अनुभव करता है यह वास्तव में प्रभू प्रतिमा का प्रवृष्टि प्रभाव एवं उपकार है और उसकी श्रेष्ठ सफलता है। मूर्ति सिर्फ पाषाणमयी नहीं है, उसे पत्थर कहना अयोग्य एवं अनुचित है जब हम हमारे श्रेद्धेय प्रिय भक्त की फोटो को भी कितना अधिक बहुमान करते है तो यह तो देवाधिदेव की प्रतिमा है, हमारे अनादि अनंत काल के रागन्द्वेषादि कल्मष एवं पापमल को धोने वाली परम पवित्र मूर्ति है उसके सामने तो अत्यन्त आदर और बहुमान का भाव होना चाहिए। महान आचार्य प्रवर द्वारा अंजनशाला के परम पवित्र मंत्रों से, प्रतिष्ठाविधि के आम्नाय से, लक्षण एवं विधि—विधान की प्रक्रिया से प्रतिमा में, प्राण का आरोपण किया जाता है तब परिश्रम पूर्वक न सिर्फ मूर्ति बनाता है अपितु विधिपूर्वक निर्माण में अपनी भावात्मकता को भी संयोजित करता है। मूर्ति और पाषाण में क्या भेद हैं ? कुछ नहीं इस प्रकार के कथन घृणास्पद भी है। सदृश वस्तु में भी विशेष से असदृश की कल्पना भी दुनियां में की जाती है। दुनियां में जब विशेष धर्म के आरोपण से उन वस्तुओं में विशिष्टता की परिकल्पना की जाती है तब सामान्य धर्म गौण बन जाता है। इस सत्य की अवगणना करने में किसी में सामथ्र्य नहीं है, जैसे लग्नविधि के परिसंस्कार से थोड़े ही क्षणों में स्त्री में पत्नीत्व का आरोपण हो जाता है । त्रिरंगी कपड़ा जब भारत ध्वज बन जाता है तब उस की अदब भारत का प्रधानमंत्री भी पूरी तरह से रखता है, कागज जब रूपया बन जाता है तब उसकी कीमत कितनी बढ़ जाती है इसी तरह विशेष धर्म में प्रतिमा में देवत्व एवं परमात्मत्व का विन्यास होने से उसका मूल्य अनंतगुणा हो जाता है। तब प्रतिमा श्रद्धालु जन के लिए एक विशिष्ट आस्था का महान केन्द्र भी बन जाती है। यह हमेशा याद रखना चाहिए कि जड़ की यदि उपेक्षा की गई तो दुनिया का कोई व्यवहार नहीं चलेगा प्रभू का नाम मंत्र भी जड़ है क्योंकि वह अक्षर या शब्द है, फिर भी उसे स्मरण करने वाला चेतन होने से उसकी स्पष्ट असर का अनुभव सबको है। शास्त्र ग्रन्थों, पुस्तकों में, तार—आदि के न्यूपेपर में, जाहिरातों में और वस्तुओं के लेवल में नाम और अक्षर के बिना और क्या है लेकिन उन्हें पढ़ने से हमें कई प्रकार का ज्ञान, संवेदन, मन में तरंगे एवं लहरें पैदा होती हैं। विज्ञान के नित नये अविष्कार में जड़ की शक्ति समझना कठिन नहीं है। रेडियो, टेलिविजन, फोन, मोबाईल, कैल्कूलेटर, कम्प्यूटर, कार, ये सब जड़ होते हुए भी कितने कार्यशील रहते हैं। तो फिर अनेक शुभ भावना एवं विधि के परिस्कार से युक्त प्रभू प्रतिमा में इतनी प्रभावकता एवं चमत्कृति आये इसका कोई आश्चर्य नहीं है। कितने कहते हैं कि मूर्ति तो स्थापना है, लेकिन स्थापना में भी चमत्कार है यह निक्षेप एवं नय भी है। प्राचीनकाल में सती स्त्री जब उसका पति विदेश में जाता है तो पति के पादुक या फोटो—चित्र पर ही अपने दिन पसार करती थी। भरत ने भी बड़े भैया श्री राम के विरह में राज्य सिंहासन पर पादुका स्थापित की थी उसके माध्यम से उन के द्वारा ही राज्य चलता है ऐसा घोषित किया था। मूर्ति में मनोवैज्ञानिक असर भी बहुत गहरा है जो व्यक्ति के मन को भीतर छू लेता है। स्थूल से सूक्ष्म की ओर, प्रत्यक्ष से परोक्ष एवं संकीर्णता को चले से निकलकर विशाल अन्तर व्योम की ओर ले जाने में उसमें सक्षम निहिंत है पापी को पाप के गहरे अन्धेरे में से शक्ति निकालकर प्रभूमूर्ति पुण्य के प्रकाश की ओर ले जाने की भी उसमें अद्भूत शक्ति है। मूर्ति एक आकार है और आकार—चित्र का सर्वत्र असर होता है। बच्चों को पहले एवं आज भी प्राथमिक ज्ञान देने के लिए सचित्र पुस्तकों का उपयोग किया जाता है। साइन्स, भूगोल, हिस्ट्री, जैसे विषयों को छात्रों को सीखने के लिए प्रचूर मात्रा में चित्र, आकार एवं नक्शे आदि का प्रयोग किया जाता है। जैन धर्म के तत्वों को, पदार्थों को समझाने के लिए भी सचित्र पुस्तकों का प्रयोग होने लगा है। कहा जाता है कि एक चित्र हजार शब्द का कार्य करता है। अर्थात चित्र का असर ज्यादा होता है। विज्ञापन में भी चित्र का ही महत्व है। चित्र का असर ज्यादा समय तक हमारे मन के भीतर गहरे रूप में अवस्थित रहता है। इसलिए तो कामुकता एवं वासना को भडकाने वाले चित्रों एवं दृश्यों का देखना ब्रह्मचर्य और जीवन शुद्धि के लिए नितान्त वर्जित है। खराबी और भ्रष्टता के सामने सुन्दरता का अधिक फैलाव हो सके इसीलिए हम हमारी संस्कृति के धरोहर समान मंदिरों का महत्व बढ़ाये। हममें सद्बुद्धि, संस्कारिता, एवं दीर्घदृष्टिता है तो हम मंदिरों का विरोध नहीं बल्कि पूर्ण समर्थन करेंगे। विरोध मंदिरों का नहीं, अपितु जगह—जगह पर फैल रहे हजारों लाखों थियेटरों, टी.वी.,वीडियों, स्टार टी.वी. एम टीवी आदि सैकड़ों चैनलों जो हमारी भारतीय संस्कृति की अस्मिता को खत्म करने की सुरंगें है उनका ही बहिस्कार और विरोध करें। अपनी मुख्य बात यह है कि नाम, आकृति, चित्र एवं मूर्ति में क्रमश: भावोद्दीपन की शक्ति सबसे अधिक निहित है। जिनेश्वर भगवन्तों को साक्षात कल्पवृक्ष की उपमा दी गई है, जिनके पावन दर्शन से दुरित पापों का ध्वंस होता है, वंदन से वांछित इष्ट की प्राप्ति होती है । एवं पूजन से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। भक्त सिर्फ दर्शन ही नहीं, वन्दन, पूजन, ध्यान, स्वप्न आदि में उल्लासित एवं लीन बन आत्म संतृप्ति को पाता है। ज्ञान महर्षि पुरूष कहते है कि जो मूर्ति को जिन सम मानकर भक्ति से दर्शन, वंदन पूजन करता है उसके पाप का पंक साफ हो जाता है, विनय, विवेक , औदार्य, सेवा संयम आदि सदगुण पुष्प की सौरभ उसके जीवन बाग में खिलती है और भयानक भव समृद्धि को तीरने का अद्भुत सामथ्र्य उसे सहजता में ही प्राप्त हो जाता है। आध्यात्मयोगी श्री देवचन्द्र जी म. कहते हैं कि — प्रभु के आलम्बन से अति दुष्कर संसार समुद्र मानों एक छोटा सा खड्डा जैसे बन जाता है। कुछ बहुश्रुत ज्ञानी आलम्बन को नकारात्मक भाव से व्यवहार करते है लेकिन यह वास्तव में अनुभव एवं शास्त्र सापेक्ष भाव की कमी है। शास्त्रों में यही क्रम बताया है कि शुभ आलंबन से ही निरालंबन की ओर जाने की क्षमता प्राप्त होती है यह क्रम का उल्लंघन नहीं हो सकता इसलिए दर्शन, पूजा, आदि का शुभ आलंबन निरन्तर सेवनीय है। यदि कोई जिन पूजा में हिंसा को स्वीकार कर उसे त्याज्य मानता है तो फिर उस व्यक्ति को सर्वत्र बाधा ही बाधा आयेगी । फिर वह न तो प्रवचन श्रवणादि के लिए उपाश्रय जा सकता है या न कोई धर्म कार्य का सकता है, क्योंकि उसमें भी अंग प्रत्यंग हिलाने में स्वरूप हिंसा जरूर होती है। भवन निर्माण, साधार्मिक भक्ति आदि में सर्वत्र बाधा आयेगी। इसलिए मानना चाहिए कि द्रव्य पूजा में जो हिंसा है वह सिर्फ स्वरूप हिंसा है बल्कि हेतु हिंसा या अनुबन्ध हिंसा नहीं है। और जिन पूजा में जो शुभभावों का अति उल्लास भाव पैदा होता है प्रभु के प्रति कृतज्ञता—बहुमान आदि गुण प्रकट होते है उससे ही कई पापों का विलिनीकरण हो जाता है। और भी अनेकानेक तर्क एवं समाधान पूजा के पक्ष में है जिन्हें अच्छी तरह समझकर कभी पूजा आदि सुन्दर आलम्बन त्याग करने की घृष्टता न करें। आइये हम सब भावात्मक बनकर प्रभूप्रतिमा से प्रवाहित होता शांतसुधारस का अनुभव कर तृप्त बने।