अन्तरबाहिरजप्पे, जो वट्टइ सो हवेइ बहिरप्पा।
जप्पेसु जो ण वट्टइ, सो उच्चइ अंतरंगप्पा।।
जो अंदर और बाहर के जल्प (विचन—विकल्प) में रहता है वह बहिरात्मा है। और जो किसी भी जल्प में नहीं रहता, वह अन्तरात्मा कहलाता है।
अक्खाणि बहिरप्पा, अंतरअप्पा हु अप्पसंकप्पो।
—मोक्खपाहुड : ५
इन्द्रियों में आसक्ति बहिरात्मा है और अंतरंग में आत्मानुभव रूप आत्मसंकल्प अन्तरात्मा है।
जे जिण—वयणे कुसला भेयं जाणंति जीवदेहाणं।
णिज्जय—दुट्ठट्ठमया अंतरअप्पा य ते तिविहा।।
—कार्तिकेयानुप्रेक्षा : १९४
अंतरात्मा त्रिविध है—जो जिन—वचनों में कुशल है, जीव और देह के भेद को जानता है और आठ दुष्ट मदों—अभिमानों को जीत चुका है, वह अंतरात्मा है, जो (जघन्य—मध्यम—उत्तम भेद से) तीन प्रकार का है।
शरीर आदि से स्वयं को भिन्न समझने वाला जो मनुष्य स्वप्न में भी विषयों का भोग नहीं करता अपितु निजात्मा का ही भोग करता है तथा शिव—सुख में रत रहता है, वह मध्यम—अंतरात्मा है।
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अकरणीय :
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कि तुमंधो सि किन्वा सि धत्तूरिओ।
अहव कि सन्निवाएण आऊरिओ।।
अमयसमधम्म जं विस व अवमन्नसे।
विसयविस विसम अमियं व बहु मन्नसे।।
—इन्द्रियपराजयशतक : ७४
हे मनुष्य ! क्या तू अंधा बन गया है ? या क्या तूने धतूरा—पान किया है ? अथवा क्या तू सन्निपात रोग से पागल बन गया है ? जिससे कि अमृत समान धर्म को तू विषवत् तिरस्कृत करता है और भवोभव में परिभ्रमण कराने वाले विषयरूपी विष को अमृत के समान पी रहा है।
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जो मुनि सब प्रकार के परिग्रह का त्याग करा नि:संग हो जाता है, अपने सुखद और दु:ख भावों का निग्रह करके निद्र्वन्द्व विचरता है, उसके आिंकचन्य धर्म होता है।
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जीव अकेला ही मरता है, अकेला ही जन्म लिया करता है। जन्म—मरण अकेले का ही होता है और वह अकेला ही कर्म—रज—रहित सिद्ध हुआ करता है।
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अखण्डता :
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भाजन भेद कहावत नाना, एक मृत्तिका रूप री।
तैसे खण्ड कल्पना रोपित, आप अखण्ड सरूप री।।
—आनन्दघन ग्रंथावली, पद : ६५
जिस प्रकार मिट्टी एक होकर भी पात्र—भेद से अनेक नामों से पुकारी जाती है, उसी प्रकार एक अखण्ड रूप परमतत्त्व (शुद्धात्मा) में विभिन्न कल्पनाओं के कारण, अनेक नामों की कल्पना कर ली जाती है, किन्तु वस्तुत: वह तो अखण्ड स्वरूप ही है।
अचौर्य/अस्तेय/अक्ष्त :
चित्तवदचित्तवद्वा, अल्पं वा यदि वा बहु (मूल्यत:)।
दन्तशोधनमात्रमपि, अवग्रहे अयाचित्वा (न गृह्णन्ति)।।
—समणसुत्त : ३७१
सचेतन अथवा अचेतन, अल्प अथवा बहुत, यहाँ तक कि दांत साफ करने की सींक तक भी साधु बिना दिए ग्रहण नहीं करते।
अंध कूप में गिर जाता है और बहरा साधु (सज्जन) का उपदेश नहीं सुनता, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं। आश्चर्य यही है कि यह जीव देखता और सुनता हुआ भी नरक कूप जा पड़ता है।
धर्म द्रव्य की तरह ही अधर्मद्रव्य है। परन्तु अन्तर यह है कि यह स्थिति रूप क्रिया से युक्त जीवों और पुद्गलों की स्थिति में पृथ्वी की तरह निमित्त बनता है।
ज्ञानमेकाग्रचित्तश्च, स्थित: च स्थापयति परम्।
श्रुतानि च अधीत्य, रत: श्रुतसमाधौ।।
—समणसुत्त : १७४
अध्ययन के द्वारा व्यक्ति को ज्ञान और चित्त की एकाग्रता प्राप्त होती है। वह स्वयं धर्म में स्थित होता है और दूसरों को भी स्थिर करता है तथा अनेक प्रकार के श्रुत का अध्ययन कर वह श्रुतसमाधि में रत हो जाता है।
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जिस तरह सूर्य से तप्त हुआ सूर्यकांत मणि अग्नि को प्रकट करता है, उसी तरह अपने तप से तपा हुआ जीव अनंत ज्ञान को प्रगट करता है।
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अनशन :
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मासे मासे तु यो बाल:, कुशाग्रेण तु भुङ्क्ते।
न स स्वाख्यातधर्मस्य, कलामर्घति षोडशीम्।।
—समणसुत्त : २७३
जो बाल (परमार्थशून्य अज्ञानी) महीने—महीने के तप करता है और (पारणे में) कुश के अग्रभाग जितना (नाममात्र का) भोजन करता है, वह सुआख्यात धर्म की सोलहवीं कला को भी नहीं पा सकता।
सो नाम अणसण तवो, जेव मणो मंगुलं न चिन्तेइ।
जेण न इंदियहाणी, जेण य जोगा न हायंति।।
—मरण—समाधि : १३४
वही अनशन तप श्रेष्ठ है जिससे कि मन अमंगल न सोचे, इन्द्रियों की हानि न हो और नित्य—प्रति की योग—धर्म क्रियाओं में विघ्न न आए।
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जो मनुष्य इन स्त्री—विषयक आसक्तियों का पार पा जाता है, उसके लिए शेष सारी आसक्तियाँ वैसे ही सुतर (सुख से पार पाने योग्य) हो जाती हैं, जैसे महासागर का पार पाने के लिए गंगा जैसी बड़ी नदी।
विषयों में लोभी और कषायों के वशीभूत पुरुष बिना वैर—विरोध के भी एक—दूसरे का अनिष्ट करते हैं।
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अनेकांतवाद :
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पितृ—पुत्र—नातृ—भव्यक—भातृणाम् एक पुरुषसम्बन्ध:।
न च स एकस्य पिता इति शेषकाणां पिता भवति।।
—समणसुत्त : ६७०
एक ही पुरुष में पिता, पुत्र, पौत्र, भानजे, भाई आदि अनेक सम्बन्ध होते हैं। एक ही समय में वह अपने पिता का पुत्र और अपने पुत्र का पिता होता है। अत:: एक ही पिता होने से वह सबका पिता नहीं होता। (यही स्थिति सब वस्तुओं की है।)
सविकल्प—निर्वकल्पम् इति पुरुषं यो भणेद् अविकल्पम्।
सविकल्पमेव वा निश्चयेन न स निश्चित: समये।।
—समणसुत्त : ६७१
निर्वकल्प तथा सविकल्प उभयरूप पुरुष को जो केवल निर्वकल्प अथवा सविकल्प (एक ही) कहता है, उसकी मति निश्चय ही शास्त्र में स्थिर नहीं है।
जिसके बिना विश्व का कोई भी व्यवहार सम्यक् रूप से घटित नहीं होता है, अतएव जो त्रिभुवन का एकमात्र गुरु (सत्यार्थ का उपदेशक) है, उस अनेकांतवाद को मेरा नमस्कार है।
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अन्यत्व :
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एको मे शाश्वत आत्मा, ज्ञानदर्शनसंयुत:।
शेषा मे बाह्या भावा:, सर्वे संयोगलक्षणा:।।
—समणसुत्त : ५१६
ज्ञान और दर्शन से संयुक्त मेरी एक आत्मा ही शाश्वत है। शेष सब अर्थात् देह तथा रागादि भाव तो संयोग लक्षण वाले हैं—उनके साथ मेरा संयोग संबंध मात्र है। वे मुझसे अन्य ही हैं।
खंडित होता हुआ चन्द्र र्पूिणमा तक अपमान को सहन करता रहता है। इससे विपरीत सूर्य अपने प्रताप के चले जाने पर अस्त होना (मरण) ही पसन्द करता है, किन्तु अपमान को नहीं सहता।
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अपरिग्रह :
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यो ममायितमिंत जहाति, स त्यजति ममायितम्।
स खलु: दृष्टपथ: मुनि:, यस्य नास्ति ममायितम्।।
—समणसुत्त : १४२
जो परिग्रह की बुद्धि का त्याग करता है, वही परिग्रह को त्याग सकता है। जिसके पास परिग्रह नहीं है, उसी मुनि ने पथ को देखा है।
जैसे हाथी को वश में रखने के लिए अंकुश होता है और नगर की रक्षा के लिए खाई होती है, वैसे ही इन्द्रिय—निवारण के लिए परिग्रह का त्याग (कहा गया) है। असंगत्व (परिग्रह—त्याग) से इन्द्रियां वश में होती है।
जो साधक सभी प्रकार के परिग्रह का त्याग कर नि:संग हो जाता है, अपने सुखद व दु:खद भावों का निग्रह करके निद्र्वंद्व विचरता है, उसे आिंकचन्य धर्म होता है, अर्थात् वह नितान्त अपरिग्रह—वृत्ति वाला होता है।
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अभय :
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जे ण कुणइ अवराहे, णो णिस्संको दु जणवए भमदि।
—समयसार : ३०२
जो किसी प्रकार का अपराध नहीं करता, वह निर्भय होकर जनपद में भ्रमण कर सकता है। इसी प्रकार निरपराध (निर्दोष) आत्मा (पाप नहीं करने वाला) भी सर्वत्र निर्भय होकर विचरता है।
जिसके हृदय में संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न करने वाली, शल्य रहित तथा मेरुवत् निष्कम्प और दृढ़ जिनभक्ति है, उसे संसार में किसी तरह का भय नहीं है।
अभयं पत्थिवा! तुब्भं , अभयदाया भवाहि य।
—समणसुत्त : १५९
हे र्पािथव ! तुझे अभय है। तू भी अभयदाता हो !
यत् क्रियते परिरक्षा, नित्यं मरणभयभीरुजीवानाम्।
तद् जानीहि अभयदानम् , शिखामणिं सर्वदानानाम्।।
—समणसुत्त : ३३५
सदैव मृत्यु से भयभीत जीवों की रक्षा करने को ही अभयदान जानो ! अभयदान सभी दानों में शिरोमणि है।
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अभव्य :
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श्रद्दधाति च प्रत्येति च, रोचयति च तथा पुनश्च स्पृशति।
धर्मं भोगनिमित्तं, न तु स कर्मक्षयनिमित्तम्।।
—समणसुत्त : १९७
अभव्य जीव यद्यपि धर्म में श्रद्धा रखता है, उसकी प्रतीति करता है, उसमें रुचि रखता है, उसका गालन भी करता है, किन्तु यह सब वह धर्म को भोग का निमित्त समझकर करता है, कर्मक्षय का कारण समझकर नहीं करता।
अभव्य जीव चाहे कितने ही शास्त्रों का अध्ययन कर ले, किन्तु फिर भी वह अपनी प्रकृति (स्वभाव) नहीं छोड़ता। साँप चाहे जितना भी गुड़—दूध पी ले, किन्तु अपना विषैला स्वभाव नहीं छोड़ता।
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अभियान :
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पुरिसा जे गुणरहिया कुलेण गव्वं वहंति ते मूढा।
वंसुप्पण्णं पि धणू गुणरहियं भणह किं कुणइ।।
—गाहारयण कोष: ९८
वे पुरुष मूर्ख हैं, जो गुणरहित होते हुए भी कुल का अभिमान करते हैं, उत्तम बांस से बना हुआ धनुष यदि गुण (रस्सी) रहित है जो कहो वह क्या कर सकता है ?
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जो शील के स्वामी हैं, जिनके सभी नवीन कर्मों का आस्रव अवरुद्ध हो गया है तथा जो पूर्वसंचित कर्मों से (बंध से) सर्वथा मुक्त हो चुके हैं, वे अयोगी केवली कहलाते हैं।
इस (चौदहवें) गुणस्थान को प्राप्त कर लेने के उपरांत उसी समय ऊध्र्वगमन स्वभाव वाला वह अयोगी केवली अशरीरी तथा उत्कृष्ट आठ गुणसहित होकर सदा के लिए लोक के अग्रभाग पर चला जाता है। (उसे सिद्ध कहते हैं।)
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सघन घाति कर्मों का आलोड़न करने वाले, तीनों लोकों में विद्यमान भव्य जीव रूपी कमलों को विकसित करने वाले सूर्य, अनन्तज्ञानी और अनुपम सुखमय अर्हंतों की जगत में जय हो।
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अलोक :
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जीवाश्चैव अजीवाश्च, एष लोको व्याख्यात:।
अजीवदेश आकाश: अलोक: स व्याख्यात:।।
—समणसुत्त : ६३६
यह लोक जीव और अजीवमय कहा गया है। जहाँ अजीव का एक देश (भाग) केवल आकाश पाया जाता है, उसे अलोक कहते हैं।
असत्य भाषण के पश्चात् मनुष्य यह सोचकर दु:खी होता है कि वह झूठ बोलकर भी सफल नहीं हो सका। असत्य भाषण से पूर्व इसलिए व्याकुल रहता है कि वह दूसरे को ठगने का संकल्प करता है। वह इसलिए भी दु:खी रहता है कि कहीं कोई उसके असत्य को जान न ले। इस प्रकार असत्य—व्यवहार का अंत दु:खदायी होता है। इसी तरह विषयों से अतृप्त होकर वह चोरी करता हुआ दु:खी और आश्रयहीन हो जाता है।
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अहिंसा सब आश्रमों का हृदय, सब शास्त्रों का रहस्य तथा सब व्रतों और गुणों का पिण्डभूत सार है।
रागादीममणुप्पा अिंहसगत्तं।
—सर्वार्थसिद्धि : ७-२२-३६३-१०
रागादिक का उत्पन्न न होना वस्तुत: अिंहसा है।
अत्ता चेव अहिंसा।
—भगवती आराधना : ८०३
(शुद्ध, निर्विकार) आत्मा ही अिंहसा है।
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अहिंसक :
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मरदु व जियदु व जीवो, अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा।
पयदस्स णत्थि बंधो, िंहसामेत्तेण समिदस्स।।
—प्रवचनसार : ३-१७ ८०३
बाहर से प्राणी मरे या जीये, अयतनाचारी—प्रमत्त को अंदर से हिंसा निश्चित है। परन्तु जो अिंहसा की साधना के लिए प्रयत्नशील है, समिति वाला है, उसको बाहर में प्राणी की िंहसा होने मात्र से कर्मबंध नहीं है, अर्थात् वह िंहसक नहीं है।
(चीजें) उठाने—रखने में, मल—मूत्रादि त्याग करने में, उठने—बैठने व चलने—फिरने में तथा शयन करने में जो दया—भाव से काम लेते हुए सदैव अप्रमत्त रहता है, वह अिंहसक ही हुआ करता है।
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आकाश :
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चेतनारहितममूत्र्तं अवगाहनलक्षणं च सर्वगतम्।
लोकालोकद्विभेदं, तद् नभोद्रव्यं जिनोद्दिष्टम्।।
—समणसुत्त : ६३५
जिनेन्द्र देव ने आकाश द्रव्य को अचेतन, अमूर्त, व्यापक और अवगाह लक्षण वाला कहा है। लोक और अलोक के भेद से आकाश दो प्रकार का है।
जो आचरणरहित है वह बहुत से शास्त्रों को भी पढ़ ले तो उसका वह शास्त्र ज्ञान क्या कर सकता है ? जैसे अंधे के हाथ में दीपक की कोई उपयोगिता नहीं होती, उसी प्रकार आचारहीन के ज्ञान की कोई विशेषता—उपयोगिता नहीं होती।
पाँच महाव्रतों से समुन्नत, तत्कालीन स्वसमय और परसमय रूप श्रुत के ज्ञाता तथा नाना गुण समूह से परिपूर्ण आचार्य मुझ पर प्रसन्न हों।
यथा दीपात् दीपशतं, प्रदीप्यते स च दीप्यते दीप:।
दीपसमा आचार्या:, दीप्यन्ते परं च दीपयन्ति।।
—समणसुत्त : १७६
जैसे एक दीप से सैकड़ों दीप जल उठते हैं और वह स्वयं भी दीप्त रहता है, वैसे ही आचार्य दीपक के समान होते हैं। वे स्वयं प्रकाशवान् रहते हैं और दूसरों को भी प्रकाशित करते हैं।
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आज्ञा :
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गुर्वाज्ञाकरणं हि सर्वगुणेभ्योऽतिरिच्यते।
—त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित : १-८
गुरु—आज्ञा का पालन करना सब गुणों से बढ़कर है।
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आत्मज्ञान :
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कह सो घिप्पई अप्पा ?
पण्णाए सो उ घिप्पए अप्पा।
—समयसार : २९६
यह आत्मा किस प्रकार जाना जा सकता है ?
आत्म प्रज्ञा अर्थात् भेद विज्ञान रूप बुद्धि से ही जाना जा सकता है।
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आत्मदर्शन :
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जो अप्पाणि वसेइ, सो लहु पावइ सिद्धि सुहु।
—योगसार : ६५
जो निज आत्मा में वास करता है, वह शीघ्र ही सिद्धि—सुख को प्राप्त करता है।
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आत्मद्रष्टा विचार करता है कि—‘‘मैं तो शुद्ध ज्ञान दर्शन स्वरूप, सदा काल अमूर्त, एक शुद्ध ज्ञान दर्शन स्वरूप, सदा काल अमूर्त, एक शुद्ध शाश्वत तत्त्व हूँ। परमाणु मात्र भी अन्य द्रव्य मेरा नहीं है।’’
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आत्म—प्रशंसा :
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अप्पसंसं परिहरह सदा मा होह जसविणासयरा।
अप्पाणं थोवंतो तणलहुदो होदि हु जाणम्मि।।
—भगवती आराधना : ३५९
आत्म—प्रशंसा का सदा के लिए त्याग कर देना चाहिए। कारण यह कि आत्म प्रशंसा यश को नष्ट करने वाली है। स्वयं अपनी प्रशंसा करने वाला संसार में तिनके की तरह तुच्छ हुआ करता है।
मा अप्पयं पसंसइ जइ वि जसं इच्छसे धवलं।
—कुवलयमाला
यदि निर्मल यश चाहते हो तो अपनी प्रशंसा मत करो।
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आत्मबोध :
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वदणियमाणि धरंता, सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता।
परमट्ठबाहिरा जे, णिव्वाणं ते ण विदंति।।
—समयसार : १५३
भले ही व्रत, नियम को धारण करे, तप और शील का आचरण करे, किन्तु जो परमार्थ रूप आत्मबोध से शून्य है, वह कभी निर्वाण प्राप्त नहीं कर सकता।
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आत्मशक्ति :
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तारा नक्षत्र ग्रह चंद्रनी, ज्योति दिनेष मोसार रे।
दर्शन—ज्ञान—चरण थकी, शक्ति निजताम धार रे।।
—आनंदघन ग्रंथावली १५३
जिस प्रकार सूर्य में तारों, नक्षत्रों, ग्रहों और चंद्रमा की ज्योति अन्तर्भूत हो जाती है, उसी तरह आत्मा में भी दर्शन—ज्ञान—चारित्र गुण की शक्ति अन्र्तिनहित है।
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आत्मा :
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अंतरतच्चं जीवो, बाहिरतच्चं हवंति सेसाणि।
— कार्तिकेयानुप्रेक्षा : २०५
जीव (आत्मा) अन्तस्तत्त्व है, बाकी सब द्रव्य बहिस्तत्त्व है।
सुण्णीकयम्मि चित्ते, णूणं अप्पा पयासेइ।
—आराधनासार : ७४
चित्त को (विषयों से) शून्य कर देने पर उसमें आत्मा का प्रकाश झलक उठता है।
कत्ता भोत्ता आदा, पोग्गलकम्मस्स होदि ववहारो।
—नियमसार : १८
आत्मा पुद्गल कर्मों का कत्र्ता और भोक्ता है, यह मात्र व्यवहार दृष्टि है।
जारसिया सिद्धप्पा, भवमल्लिय जीव तारिसा होंति।
—नियमसार : ४७
जैसी शुद्ध आत्मा सिद्धों (मुक्त आत्माओं) की है, मूल स्वरूप से वैसी ही शुद्ध आत्मा संसारस्थ प्राणियों की है।
आलंबणं च मे आदा।
—नियमसार : ९६
मेरा अपना ही आत्मा ही मेरा अपना एकमात्र आलम्बन है।
अप्पाणं विणु णाणं, णाणं विणु अप्पगो न संदेहो।
—नियमसार : १७१
यह निश्चित सिद्धांत है कि आत्मा के बिना ज्ञान नहीं और ज्ञान के बिना आत्मा नहीं।
आत्मा मन, वचन और काय रूप त्रिदंड से रहित, निद्र्वन्द्व—अकेला, निर्मम—ममत्वरहित, निष्कल—शरीररहित, निरालम्ब—परद्रव्यालम्बन से रहित, वीतराग, निर्दोष, मोहरहित तथा निर्भय है।
आत्मा खलु मम ज्ञानं, आत्मा मे दर्शनं चरित्रं च।
आत्मा प्रत्याख्यानं, आत्मा मे संयमो योग:।।
—समणसुत्त : २१८
आत्म ही मेरा ज्ञान है। आत्मा ही दर्शन और चारित्र है। आत्मा ही प्रत्याख्यान है और आत्मा ही संयम और योग है। अर्थात् ये सब आत्मरूप ही हैं।
वस्तुत: आत्मा में सभी नय घटित होते हैं। अत: यह आत्मा नय और प्रमाण से जाना जाता है। यह (आत्मा) सर्वांगी और स्वयं सब नयों का स्वामी है। इसका रूप एक नय द्वारा सिद्ध नहीं होता। अन्तत: आनन्दघन ने नयवाद से भी ऊपर उठकर आत्मा को अनुभवगम्य बताया है। उनका स्पष्ट कथन है कि यह आत्मा अनुभव ज्ञान से ही जाना जा सकता है।
जो खलु सुद्धो भावो सो अप्पणि तं च दंसणं णाणं।
—तत्त्वसार : ८
शुद्ध भाव (स्वभाव) जो है, वह आत्मा है और वह दर्शन—ज्ञान—सहित है।
नापि भवत्यप्रमत्तो, न प्रमत्तो ज्ञायकस्तु यो भाव:।
एवं भणंति शुद्धं, ज्ञातो य: स तु स चैव।।
—समणसुत्त : १८८
आत्मा ज्ञायक है। ज्ञायक न अप्रमत्त होता है, न प्रमत्त। प्रमत्त और अप्रमत्त जो न हो, वह शुद्ध होता है। आत्मा ज्ञायक के रूप में ही ज्ञात है और वह शुद्ध अर्थ में ज्ञायक ही है। उसमें ज्ञेयकृत अशुद्धि नहीं है।
नाहं देहो न मनो, न चैव वाणी न कारणं तेषाम्।
कत्र्ता न न कारयिता, अनुमन्ता नैव कर्तृणाम्।।
—समणसुत्त : १८९
मैं न देह हूँ, न मन हूँ, न वाणी हूँ और न ही उनका कारण हूँ। न मैं करने वाला हूँ, न कराने वाला हूँ और न ही करने वाले का अनुमोदन करने वाला हूँ।
को नाम भणेद् बुध:, ज्ञात्वा सर्वान् परकीयान् भावान्।
ममेदमिति च वचनं, जानन्नात्मकम् शुद्धम्।।
—समणसुत्त : १९०
आत्मा के शुद्ध रूप को तथा उसके परकीय भावों को जानने वाला ऐसा विद्वान कौन होगा जो कहे—‘यह मेरा है।’
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आत्मानुभव :
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आतम अनुभव पूâल की, नवली कोऊ रीति।
नाक न पकरै वासना, कान गहै न परतीति।।
—आनंदघन ग्रंथावली, पद :: २८
आत्मानुभव रूपी पुष्प की विलक्षणता ही कुछ निराली है। इसकी सुगंध को न नाक ग्रहण कर पाती है और न कान इसका संगीत सुन सकते हैं।
आतम अनुभौ रस कथा, प्याला अजब विचार।
अमली चाखत ही मरै, घूमै सब संसार।।
—आनंदघन ग्रंथावली, पद :: ५३
आत्मानुभव रूप रस का प्याला एक ऐसा विलक्षण रस का प्याला है, जिसका आस्वादन करते ही, व्यक्ति आत्मानुभव में लीन हो जाता है। जिसने इस रस का पान नहीं किया, वह इस संसार में ही भटकता रहता है।
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आर्जव :
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य: चिन्तयति न वक्र्म्, न करोति वव्रंâ न जल्पति वक्रम्।
न च गोपयति निजदोषम् , आर्जवधर्म: भवेत् तस्य।।
—समणसुत्त : ९१
जो कुटिल विचार नहीं करता, कुटिल कार्य नहीं करता, कुटिल वचन नहीं बोलता और अपने दोषों को नहीं छिपाता, उसके आर्जव—धर्म होता है।
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मन—वचन—काय द्वारा किए जाने वाले शुभाशुभ कर्म दो प्रकार के होते हैं—आभोगकृत और अनाभोगकृत। दूसरों द्वारा जाने गए कर्म आभोगकृत हैं और दूसरों के द्वारा न जाने गए कर्म अनाभोगकृत हैं। दोनों प्रकार के कर्मों की तथा उनमें लगे दोषों की आलोचना गुरु या आचार्य के समक्ष निराकुल चित्त से करनी चाहिए।
जैसे कांटा चुभने पर सारे शरीर में वेदना या पीड़ा होती है और कांटे के निकल जाने पर शरीर नि:शल्य अर्थात् सर्वांग सुखी हो जाता है, वैसे ही अपने दोषों को प्रकट न करने वाला मायावी दु:खी या व्याकुल रहता है और उनको गुरु के समक्ष प्रकट कर देने पर सुविशुद्ध होकर सुखी हो जाता है—मन में कोई शल्य नहीं रह जाता। अर्थात् श्रावक या साधु सभी को अपने समस्त दोषों की आलोचना माया—मद/छल—छद्म त्याग करनी चाहिए।
परभाव का त्याग करके निर्मल—स्वभावी आत्मा का ध्याता आत्मवशी होता है। उसके कर्म को ‘आवश्यक’ कहा जाता है।
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आवागमन :
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राग दोस मोह के पासे, आप वणाए हितधर।
जैसा दाव परे पासे का, सारि चलावे खिलकर।।
—आनंदघन ग्रंथावली, पद : ५६
आत्मा ने स्वयं प्रसन्न होकर संसार रूप चौपड़ को खेलने के लिए राग—द्वेष और मोह रूप पासे बना लिए हैं। जैसे पासा आता है, उसी के अनुसार आत्मा रूप कर्म खिलाड़ी द्वारा सार (गोट) चलाई जाती है। तात्पर्य यह कि चतुर्गति रूप चौपड़ में आत्मा को राग—द्वेष और मोह पासे के कारण ही विभिन्न शरीर धारण करना पड़ता है। आत्म राग—द्बेष—मोह की जैसी-जैसी प्रवृत्तियां करता है, तद्वत् उसे विभिन्न गतियों एवं उत्पत्ति—स्थानों में जाना पड़ता है।
==
हिंसा आदि आस्रव द्वारों से सदा कर्मों का आस्रव होता रहता है। जैसे कि समुद्र में जल के आने से सछिद्र नौका डूब जाती है।
मिच्छत्ताविरदी वि य, कसायजोगा य आसवा होंति।
—जयधवला : १-९-५४
मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग—ये आस्रव के हेतु हैं।
==
आहार-विवेक :
==
रसा: प्रकामं न निषेवितव्या:, प्रायो रसा दीप्तिकरा नराणाम्।
दीप्तं च कामा: समभिद्रवन्ति, द्रुमं यथा स्वादुफलमिव पक्षिण:।।
—समणसुत्त : २९३
रसों का अत्यधिक सेवन नहीं करना चाहिए। रस प्राय: उन्मादवर्धक होते हैं, पुष्टिवर्धक होते हैं। मदाविष्ट या विषयासक्त मनुष्य को काम वैसे ही सताता या उत्पीड़ित करता है जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष को पक्षी।
न बलायु:स्वादार्थं, न शरीरस्योपचयार्यं तेजोऽर्थम्।
ज्ञानार्थं समयार्थं, ध्यानार्थं चैव भुंजीत।।
—समणसुत्त : ४०६
मुनिजन न तो बल या आयु बढ़ाने के लिए आहार करते हैं, न स्वाद के लिए करते हैं और न शरीर के
उपचय या तेज के लिए करते हैं। वे ज्ञान, संयम और ध्यान की सिद्धि के लिए ही आहार करते हैं।
==
उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य (उत्पत्ति, विनाश और स्थिति) ये तीनों द्रव्य में नहीं होते, अपितु द्रव्य की नित्य परिवर्तनशील पर्यायों में होते हैं। परन्तु पर्यायों का समूह द्रव्य है, अत: सब द्रव्य ही हैं।
जिसका ओर—छोर पाना कठिन है, उस अज्ञान रूपी घोर अंधकार में भटकने वाले भव्य जीवों के लिए, ज्ञान का प्रकाश देने वाले उपाध्याय मुझे उत्तम मति प्रदान करें।
==
एकांत :
==
णाणं किरियारहियं, किरियामेत्तं च दोवि एगंता।
—सन्मतिप्रकरण : ३-६८
क्रियाशून्य ज्ञान और ज्ञानशून्य क्रिया, दोनों ही एकांत हैं। अर्थात् जैन दर्शन सम्मत नहीं है।
==
कर्तव्य :
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मा होह कोवणा भो खलेसु मित्त च मा कुणह।।
—कुवलयमाला : ८५
हे मानव ! जीवों को मत मारो, उन पर दया करो, सज्जनों को अपमानित मत करो, क्रोधी मत होओ और दुष्टों से मित्रता न करो।
जीव कर्मों का बंध करने में स्वतंत्र है पर उस कर्म का उदय होने पर भोगने में उसके अधीन हो जाता है। जैसे कोई पुरुष स्वेच्छा से वृक्ष पर तो चढ़ जाता है, किन्तु प्रमादवश नीचे गिरते समय परवश हो जाता है।
कहीं जीव कर्म के अधीन होते हैं तो कहीं कर्म जीव के अधीन होते हैं। वैसे कहीं (ऋण देते समय तो) धनी बलवान् होता है तो कहीं (ऋण लौटाते समय) कर्जदार बलवान होता है।
य इन्द्रियादिविजयी, भूत्वोपयोगमात्मवंâ ध्यायति।
कर्मभि: स न रज्यते, कस्मात् तं प्राणा अनुचरन्ति।।
—समणसुत्त : ६३
जो इन्द्रिय आदि पर विजय प्राप्त कर उपयोगमय (ज्ञानदर्शनमय) आत्मा का ध्यान करता है, वह कर्मों से नहीं बंधता। अत: पौद्गलिक प्राण उसका अनुसरण केसे कर सकते हैं ? (अर्थात् उसे नया जन्म धारण नहीं करना पड़ता।)
अशुभ कर्म बुरा (कुशील) और शुभ कार्य अच्छा (सुशील) है, यह साधारणजन मानते हैं किन्तु वस्तुत: जो कर्म प्राणी को संसार में परिभ्रमण कराता है, वह अच्छा वैâसे हो सकता है, अर्थात् शुभ या अशुभ, सभी कर्म अन्तत: हेय ही हैं।
कर्मत्वप्रायोग्या:, स्कन्धा जीवस्य परिणतिं प्राप्य।
गच्छन्ति कर्मभावं, न हि ते जीवेन परिणमिता:।।
—समणसुत्त : ६५५
कर्मरूप में परिणमित होने के योग्य पुद्गल जीव के रागादि (भावों) का निमित्त पाकर स्वयं ही कर्मभाव को प्राप्त हो जाते हैं। जीव स्वयं उन्हें (बलपूर्वक) कर्म के रूप में परिणमित नहीं करता।
जह कोई इयरपुरिसो, रंधेऊणं सयं च तं भुंजे।
तह जीवो वि सयं चिय, काउं कम्मं सयं भुंजे।।
—कुवलयमाला : १७९
जिस तरह कोई व्यक्ति रसोई बनाकर स्वयं उस रसोई को खाता है, वैसे ही जीव स्वय कर्म कर उसका उपभोग करते हैं।
कर्म के दो रूप होते हैं—पुण्य और पाप। पुण्य कर्म स्वच्छ भाव से र्अिजत होता है और पाप कर्म अस्वच्छ अथवा अशुभ भाव से बंधता है। शुभ भाव मंद कषाय वाले जीवों का हुआ करता है और अशुभ भाव तीव्र कषाय वाले जीवों को होता है।
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अज्ञानी साधक बाल तप के द्वारा लाखों—करोड़ों जन्मों में जितने कर्म खपाता है, उतने कर्म मन, वचन, काया को संयत रखने वाला ज्ञानी साधक एक श्वास मात्र में खपा देता है।
भवकोडी—संचियं कम्मं, तवसा निज्जरिज्जइ।
—उत्तराध्ययन : ३०-६
साधक करोड़ों भवों के संचित कर्मों को तपस्या के द्वारा क्षीण कर देता है।
अप्पाणं जो णिंदइ, गुणवंताणं करेइ बहुमाणं।
—कार्तिकेयानुप्रेक्षा : ११२
जो मनुष्य अपनी निंदा करता है और गुणवन्तों की प्रशंसा करता है, उसके कर्म—निर्जरा होती है।
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कर्मबंध :
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ण य वत्थुदो दु बंधो, अज्झवसाणेण बंधोत्थि।
—समयसार : २६५
कर्मबंध वस्तु से नहीं, राग और द्वेष के अध्यवसाय—संकल्प से होता है।
आत्मा को दूषित करने वाला भोगामिष (आसक्तिजनक भोग) में निमग्न, हित और श्रेयस में विपरीत बुद्धि वाला, अज्ञानी, मंद और मूढ़ जीव उसी तरह (कर्मों से) बंध जाता है, जैसे श्लेष्म (बलगम) में मक्खी।
बेड़ी सोने की हो चाहे लोहे की, पुरुष को दोनों की बेड़ियाँ बांधती हैं। इसी प्रकार जीव को शुभ—अशुभ कर्म बांधते हैं।
अर्थेन तत् न बध्नाति, यदनर्थेन स्तोकबहुभावात्।
अर्थे कालादिका:, नियामका: न त्वनर्थके।।
—समणसुत्त : २३२
प्रयोजनवश कार्य करने से अल्प कर्मबंध होता है और बिना प्रयोजन कार्य करने से अधिक कर्मबंध होता है क्योंकि सप्रयोजन कार्य में तो देशकाल आदि परिस्थितियों की सापेक्षता रहती है, लेकिन निष्प्रयोजन प्रवृत्ति तो सदा ही (अमर्यादित रूप से) की जा सकती है।
जीव अपने राग या द्वेष रूप जिस भाव से संयुक्त होकर इन्द्रियों के विषयों के रूप में आगत या ग्रहण किए गए पदार्थों को जानता—देखता है, उन्हीं से उपरक्त होता है, और उसी उपरागवश नवीन कर्मों का बंध करता है।
सभी जीवों के लिए संग्रह (बद्ध) करने के योग्य कर्म—पुद्गल छहों दिशाओं में सभी आकाश—प्रदेशों में विद्यमान हैं। वे सभी कर्म—पुद्गल आत्मा के सभी प्रदेशों के साथ बद्ध होते हैं।
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श्रद्धा को नगर, तप और संवर को अर्गला, क्षमा को (बुर्ज, खाई और शतघ्नीस्वरूप) त्रिगुप्ति (मन—वचन—काय) से सुरक्षित तथा अजेय सुदृढ़ प्राकार बनाकर तपरूप वाणी से युक्त धनुष से कर्म—कवच को भेदकर (आंतरिक) संग्राम का विजेता मुनि संसार से मुक्त होता है।
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कवि :
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परेषां दूषणाज्जातु न बिभेति कवीश्वरा:।
किमुलूकभयाद् धुन्वन् ध्वान्तं नोदेति भानुमान्।।
—आदिपुराण : १-७५
दूसरों के भय से कविजन (विद्वान) कभी डरते नहीं हैं। क्या उल्लुओं के भय से सूर्य अंधकार का नाश करना छोड़ देता है ?
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कषाय :
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ज्ञानेन च ध्यानेन च, तपोबलेन च बलान्निरुध्यन्ते।
इन्द्रियविषयकषाया, धृतास्तुरगा इव रज्जुभि:।।
—समणसुत्त : १३१
ज्ञान, ध्यान और तपोबल से इन्द्रिय—विषयों और कषायों को बलपूर्वक रोकना चाहिए, जैसे कि लगाम के द्वारा घोड़ों को बलपूर्वकर रोका जाता है।
ऋणस्तोदकम् व्रणस्तोकम्, अग्निस्तोवंâ कषास्तोवंâ च।
न हि भवद्भिर्विश्वसितव्यं, स्तोकमपि खलु तद् बहु भवति।
—समणसुत्त : १३४
ऋण को थोड़ा, घाव को छोटा, आग को तनिक और कषाय को अल्प मान, विश्वस्त होकर नहीं बैठ जाना चाहिए क्योंकि ये थोड़े भी बढ़कर बहुत हो जाते हैं।
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काम-भोग :
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कामासक्तस्य नास्ति चिकित्सितम्।
—नीतिवाक्यामृत : ३-१२
कामासक्त व्यक्ति का कोई इलाज नहीं है। अर्थात् काम रोग की कोई चिकित्सा नहीं है।
धर्मार्थाविरोधेन कामं सेवेत।
—नीतिवाक्यामृत : ३-२
धर्म और धन का नाश न करते हुए काम का सेवन करना उचित है।
नागो जहा पंकजलावसन्नो, दट्ठुं थलं नाभिसमेइ तीरं।
एवं जिआ कामगुणेसु गिद्धा, सुधम्ममग्गे न रया हवंति।।
—इन्द्रियपराजयशतक : ५९
जैसे कीचड़—युक्त जल में रहा हाथी तट की भूमि को देखते हुए भी तट पर नहीं आ सकता, वैसे ही काम—विषय में आसक्त बना मनुष्य समझते हुए भी धर्म मार्ग में लीन नहीं हो सकता।
पज्जलिओ विसयअग्गी, चरित्तसारं डहिज्ज कसिणंपि।
—इन्द्रियपराजयशतक : ८२
प्रज्जवलित कामाग्नि समस्त चारित्र रूपी धन को जला डालती है।
जैसे मूर्ख व्यक्ति राख के लिए चंदन और डोरे के लिए मोती को नष्ट करते हैं, वैसे ही मानवीय भोगों में मूढ़ मनुष्य जीवन की दिव्य उपलब्धियों को तुच्छ वस्तुओं के लिए नष्ट करते हैं।
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सुखपूर्वक प्राप्त किया हुआ ज्ञान दु:ख के आने पर नष्ट हो जाता है। अत: योगी को अपनी शक्ति के अनुसार दु:खों के द्वारा अर्थात् कायक्लेशपूर्वक आत्म-चिन्तन करना चाहिए।
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दैनिक प्रतिक्रमण के नियमानुसार यथोचित समयावधि (२७ श्वासोच्छ्वास) तक जिनप्रभु के गुणों का चिन्तन करते हुए शरीर की ममता को छोड़ देना कायोत्सर्ग है।
देहमति: जाड्यशुद्धि: सुखदु:ख—तितिक्षता अनुप्रेक्षा।
ध्यायति च शुभं ध्यानम् एकाग्र: कायोत्सर्गे।।
—समणसुत्त : ४८१
कायोत्सर्ग करने से शरीर की जड़ता समाप्त होती है (उसके कफ आदि दोष दूर होते हैं)। बुद्धि की जड़ता समाप्त होती है (जागरूकता बढ़ती है)। सुख—दु:ख समतापूर्वक सहने की शक्ति बढ़ती है। धर्म—भावनाओं को यथोचित अवसर मिलता है और शुभ ध्यान के लिए आवश्यक एकाग्रता मिलती है।
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जीवों और पुद्गलों में नित्य होने वाले अनेक प्रकार के परिवर्तन या पर्यायें मुख्यत: कालद्रव्य के आधार से होती हैं—उनके परिणमन में कालद्रव्य निमित्त होता है। (इसी को आगम में निश्चयकाल कहा गया है।)
समय आवलि उच्छवास: प्राणा: स्तोकाश्च आदिका भेदा:।
व्यवहारकालनामान: निर्दिष्टा वीतरागै:।
—समणसुत्त : ६३९
वीतराग देव ने बताया है कि व्यवहार—काल, समय, आवलि, उच्छ्वास, प्राण, स्तोक आदि रूपात्मक हैं।
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समस्त लोगों की आँखों को कडुवा लगने वाला, पुरुषार्थ रहित, प्रताप से भ्रष्ट अपने पुत्र धुएं को देखकर आग (लज्जा से) स्वयं जलकर राख बन गई है। (बड़े व्यक्ति भी अपने कुपुत्रों से लज्जित होते हैं।)
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कुल :
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पुरिसाण कुलीणाण वि न कुलं विणयस्स कारणं होइ।
चंदाऽमय—लच्छि सहोयरं पि मारेइ किं न विसं।।
—गाहारयणकोष : १००
कुलीन पुरुषों का कुल विनय (आचार) का कारण (प्रमाण) नहीं होता। विष चन्द्र, अमृत एवं लक्ष्मी का सहोदर होते हुए भी क्या प्राण नाश नहीं करता ?
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सुशिष्यों को उपदेश देने पर गुरु कृतार्थ होता है, किन्तु जिस तरह उल्लू के लिए सूर्य निरर्थक होता है, उसी तरह विपरीत अर्थात् कुशिष्यों को उपदेश देने पर वह निरर्थक हो जाता है।
नहि मुसगाणं संगो, होइ सुहो सह बिडालीहिं।
—इन्द्रियपराजयशतक : ५४
चूहों का बिल्ली के साथ संगत करना मृत्यु की गोद में सोना है।
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िंसह के नख से विदारित होने पर हाथी के कुम्भस्थल में मोती दिखाई पड़ते हैं अथवा कृपणों के मरने पर ही उनका भंडार (धन) प्रकट होता है।
सोसं न गओ रसायलं, जलहिं ! कि न पुâडियोसि ?
तउ संठिया वि सउणा, तण्हइया जस्स वोलीणा।।
—गाहारयण कोष : ४४
जिसके किनारे पर रहकर भी पक्षीगण प्यासे रह जाते हैं, ऐसे हे समुद्र ! तू सूख क्यों नहीं गया ? रसातल में क्यों नहीं गया ? अथवा फूट क्यों नहीं गया ? (धनवान के पास से यदि कोई याचक निराश लौट जाता है तो उस अयोग्य के पास रहा हुआ धन नष्ट क्यों नहीं होता।)
अं अत्थीहिं न पिज्जइ आसाइज्जइ न सउणसत्थेहिं।
तं सायरस्स सलिलं खवंत वडवानल ! नमो ते।।
—गाहारयण कोष : ४७
पक्षीरूप सार्थ जिस जल को न पीते हैं और न आस्वादन करते हैं, उस सागर के जल को खाने वाले हे बडवानल! तुझे नमस्कार है।
बरसंति न मेहा गज्जिऊण न दिंति हसिऊण।
न फलंति तरू जे फूल्लिऊण ते कह न लज्जंति।।
—गाहारयण कोष : ११४
गरज करके जो बादल नहीं बरसते, हँसकर जो अतिथि को दान नहीं देते, विकसित होकर भी जो वृक्ष फल नहीं देते, सचमुच ये सब ऐसा करते हुए लज्जित क्यों नहीं होते ?
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केवलज्ञान :
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तह य अलोयं सव्वं तं णाणं सव्व—पच्चक्खं।।
—कार्तिकेयानुप्रेक्षा : २५४
जो द्रव्य—पर्याय से युक्त संपूर्ण लोक को और संपूर्ण अलोक को (सब कुछ को) प्रकाशित एवं प्रत्यक्ष करता है, वह केवलज्ञान हुआ करता है।
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केवलज्ञान :
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मुत्तममुत्तं दव्वं चेयणमियरं सगं च सव्वं च।
पेच्छंतस्स दु णाणं पच्चक्खमणिंदिय होइ।।
—नियमसार : १६७
मूर्त—अमूर्त, जड़—चेतन द्रव्यों, स्वात्मा और सर्वस्व को देखने वाला ज्ञान इन्द्रियों द्वारा न होने वाला प्रत्यक्ष ज्ञान है। यही केवलज्ञान है।
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क्रोध :
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पासम्मि बहिणिमायं, सिसुं पि हणेइ कोहंधो।
—वसुनन्दि श्रावकाचार : ६७
क्रोध में अंधा हुआ मनुष्य पास में खड़ी माँ, बहिन और बच्चे को भी मारने लग जाता है।
कोवेण रक्खसो वा, णराण भीमो णरो हवदि।
—भगवती आराधना : १३६१
क्रुद्ध मनुष्य राक्षस की तरह भयंकर बन जाता है।
रोसेण रुद्दहिदओ, णारगसीलो णरो होदि।
—भगवती आराधना : १३६६
क्रोध से मनुष्य का हृदय रौद्र बन जाता है। वह मनुष्य होने पर भी नारक (नरक के जीव) जैसा आचरण करने लगता है।
दीवयसिहव्व महिला कज्जलमइलं घरं कुणइ।।
—गाहारयण कोष : ८१८
जैसे दीपक की शिखा उजले घर को काजल से काला बनाती है, स्नेह—तेल के होने पर तपती है, वैसे ही दीप शिखा की भाँति क्रोधी स्त्री भी घर के पवित्र वातावरण को भी दूषित करती है, स्नेह से परिपूर्ण व्यक्तियों को भी तपाती है।
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क्षणभंगुरता :
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जन्म मरणेन समं, सम्पद्यते यौवनं जरासहितम्।
लक्ष्मी: विनाशसहिता, इति सर्व भंगुरं जानीत।।
—समणसुत्त : ५०७
जन्म मरण के साथ जुड़ा है और यौवन वृद्धावस्था के साथ। लक्ष्मी चंचला है। इस प्रकार (संसार में) सब कुछ क्षणभंगुर है।
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क्षमा :
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यदि किन्चित् प्रमादेन, न सुष्ठु यस्माभि: सह र्विततं मया पूर्वम्।
तद् युष्मान् क्षमयाम्यहं, नि:शल्यो निष्कषायश्च।।
—समणसुत्त : ८७
अल्पतम प्रमादवश भी यदि मैंने आपके प्रति उचित व्यवहार नहीं किया हो तो मैं नि:शल्य और कषायरहित होकर आपसे क्षमा—याचना करता हूँ।
सम्पूर्ण मोह पूरी तरह नष्ट हो जाने से जिनका चित्त स्फटिकमणि के पात्र में रखे हुए स्वच्छ जल की तरह निर्मल हो जाता है, उन्हें वीतराग देव ने क्षीणकषाय निग्र्रन्थ कहा है।
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जिस प्रकार नगर का वर्णन करने से राज्य का वर्णन नहीं होता, उसी प्रकार शरीर के गुणों का वर्णन करने से शुद्धात्म स्वरूप केवलज्ञानी के गुणों का वर्णन नहीं हो सकता।
दव्वेण विणा न गुणा, गुणेहि दव्वं विणा न संभवदि।
—पंचास्तिकाय : १३
द्रव्य के बिना गुण नहीं होते हैं और गुण के बिना द्रव्य नहीं होते।
नवं वयो न दोषाय, न गुणाय दशान्तरम्।
नवोऽपीन्दुर्जनाह्लादी, दहत्यग्निर्जरन्नपि।।
—आदिपुराण : १८-१२०
यह मानना ठीक नहीं है कि नई उम्र (जवानी) दोष से युक्त एवं वृद्ध अवस्था गुणों से भरपूर होती है। क्या नव चन्द्र लोगों के मन को प्रसन्न नहीं करता और क्या पुरानी अग्नि जलाती नहीं ? भाव है, वस्तु में गुण देखना चाहिए, नया—पुरानापन नहीं।
वरतरुणि सिहिण परिसंठियस्स हारस्स होइ जो सोहा।
सिप्पीपुडम्मि न तहा ठाणेसु गुणा विसट्टंति।।
—गाहारयणकोष : २७
मुक्ताहार की जो शोभा श्रेष्ठ तरुणियों की शिखा पर होती है, वह सीप के संपुट में नहीं। वैसे ही गुण भी उपयुक्त स्थान पर ही शोभित होते हैं।
मणहरवण्णं वि हु कण्णियार कुसुमं न एइ भमराली।
रूवेण विंâ व कीरइ ? गुणेण छेया हरिज्जंति।।
—गाहारयणकोष : ७२१
कर्णिकार (कणेर) पुष्प का रंग सुन्दर है फिर भी भ्रमर की पंक्तियाँ उसकी ओर आर्किषत नहीं होती। रूप से क्या प्रयोजन ? बुद्धिमान तो गुणों से ही आर्किषत होते हैं।
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मोहनीय आदि कर्मों के उदय आदि (उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि) से होने वाले जिन परिणामों से युक्त जीव पहचाने जाते हैं, उनको सर्वदर्शी जिनेन्द्र देव ने ‘गुण’ या ‘गुणस्थान’ संज्ञा दी है अर्थात् सम्यक्त्व आदि की अपेक्षा जीवो की अवस्थाएँ श्रेणियाँ—भूमिकाएँ गुणस्थान कहलाती हैं। मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत सम्यकद्रस्ति, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्म साम्पराय, उपशान्त मोह, क्षीणमोह, सयोगकेवलीजिन, अयोगकेवली जिन—ये क्रमश: चौदह जीवसमास या गुणस्थान हैं। सिद्ध जीव गुणस्थानातीत होते हैं।
सम्यक्त्व—रत्नरूपी पर्वत के शिखर से गिरकर जो जीव मिथ्यात्वभाव के अभिमुख हो गया है—मिथ्यात्व की ओर मुड़ गया है, परन्तु (सम्यक्त्व के नष्ट हो जाने पर भी) जिसने अभी साक्षात् रूपेण मिथ्यात्वभाव में प्रवेश नहीं किया है, उस मध्यवर्ती अवस्था को सासादन नामक गुणस्थान कहते हैं।
दधिगुडमिव व्यामिश्रं, पृथक्भावं नैव कर्तुं शक्यम्।
एवं मिश्रकभाव:, सम्यक्मिथ्यात्वमिति ज्ञातव्यम्।।
—समणसुत्त : ५५१
दही और गुड़ के मेल के स्वाद की तरह सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का मिश्रित भाव या परिणाम, जिसे अलग नहीं किया जा सकता, सम्यक्—मिथ्यात्व या मिश्र गुणस्थान कहलाता है।
जो न तो इन्द्रिय विषयों से विरत है और न त्रस—स्थावर जीवों की हिंसा से विरत है, लेकिन केवल जिनेन्द्र—प्ररूपित तत्त्वार्थ का श्रद्धान करता है, वह व्यक्ति अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती कहलाता है।
जो त्रस जीवों की हिंसा से तो विरत हो गया है, परन्तु एकेन्द्रिय स्थावर जीवों (वनस्पति,जल, भूमि, अग्नि, वायु) की हिंसा से विरत नहीं हुआ है तथा वह एकमात्र जिन भगवान में ही श्रद्धा रखता है, वह श्रावक देशविरत गुणस्थानवर्ती कहलाता है।
व्यक्ताव्यक्तप्रमादे, यो वसति प्रमत्तसंयतो भवति।
सकलगुणशीलकलितो, महाव्रती चित्रलाचरण:।।
—समणसुत्त : ५५४
जिसने महाव्रत धारण कर लिए हैं, सकल शील—गुण से समन्वित हो गया है, फिर भी अभी जिसमें व्यक्त—अव्यक्त रूप में प्रमाद शेष है, वह प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती कहलाता है। इसका व्रताचरण किन्चित सदोष होता है।
नष्टशेषप्रमादो, व्रतगुणशीलावलिमण्डितो ज्ञानी।
अनुपशमक: अक्षपको, ध्यानविलीनो हि अप्रमत्त: स:।।
—समणसुत्त : ५५५
जिसका व्यक्त—अव्यक्त सम्पूर्ण प्रमाद नि:शेष हो गया है, जो ज्ञानी होने के साथ—साथ व्रत, गुण और शील की माला से सुशोभित है, फिर भी जो न तो मोहनीय कर्म का उपशमकरता है और न क्षय करता है—केवल आत्मध्यान में लीन रहता है, वह श्रमण अप्रमत्त संयत गुणस्थानवर्ती कहलाता है। (नोट: अप्रमत्तसंयम गुणस्थान से आगे दो श्रेणियां प्रारंभ होती हैं—उपशम और क्षपक। उपशम श्रेणी वाला तपस्वी मोहनीय कर्म का उपशम करते हुए ग्यारहवें गुणस्थान तक चढ़ने पर पुन: मोहनीय कर्म का उदय होने से नीचे गिर जाता है और दूसरा क्षपक श्रेणी वाला मोहनीय कर्म का समूल क्षय करते हुए आगे बढ़ता जाता है और मोक्ष प्राप्त करता है।)
एतस्मिन् गुणस्थाने, विसदृशसमयस्थितैजीवै:।
पूर्वमप्राप्ता यस्मात् , भवन्ति अपूर्वा हि परिणामा:।।
—समणसुत्त : ५५६
इस आठवें गुणस्थान में विसदृश (विभिन्न) समयों में स्थित जीव ऐसे-ऐसे अपूर्व परिणामों (भावों) को धारण करते हैं जो पहले कभी नहीं हो पाए थे। इसीलिए इसका नाम अपूर्वकरण गुणस्थान है।
तादृशपरिणामस्थितजीवा:, हि जिनैर्गलिततिमिरै:।
मोहस्यापूर्वकरणा:, क्षपणोपशमनोद्यता: भणिता:।।
—समणसुत्त : ५५७
अज्ञानांधकार को दूर करने वाले (ज्ञान सूर्य) जिनेन्द्र देव ने उन अपूर्व—परिणामी जीवों को मोहनीय कर्म का क्षय या उपशम करने में तत्पर कहा है। (मोहनीय कर्म का क्षय या उपशम तो नौवें और दसवें गुणस्थानों में होता है किन्तु उसकी तैयारी इस अष्टम् गुणस्थान में ही शुरू हो जाती है।)
वे जीव अनिवृत्तिकरण गुणस्थान वाले होते हैं, जिनके प्रतिसमय (निरन्तर) एक ही परिणाम होता है। (इनके भाव अष्टम् गुणस्थान वालों की तरह विसदृश नहीं होते)। ये जीव निर्मलतर ध्यान रूपी शिखाओं से कर्म—वन को भस्म कर देते हैं।
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जैसे खेत की रक्षा बाड़ और नगर की रक्षा खाई या प्राकार करते हैं, वैसे ही पाप—निरोधक गुप्तियाँ साधु के संयम की रक्षा करती हैं।
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गुरु :
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सं किं गुरु: पिता सुहृदा योऽभ्यसूययाऽर्भं बहुदोषम्,
बहुषु वा दोषं प्रकाशयति न शिक्षयति च।।
—नीतिवाक्यामृत : ११-५३
वे गुरु, पिता व मित्र निन्दनीय या शत्रु सदृश हैं, जो ईष्र्यावश अपने बहुदोषी शिष्य, पुत्र व मित्र के दोष दूसरों के समक्ष प्रकट करते हैं और उसे नैतिक शिक्षण नहीं देते।
न विना यानपात्रेण तरितुं शक्यतेऽर्णव:।
नर्ते गुरूपदेशाच्च सुतरोऽयं भवार्णव:।।
—आदिपुराण : ९-१७५
जैसे जहाज के बिना समुद्र को पार नहीं किया जा सकता, वैसे ही गुरु के मार्गदर्शन (गुरु की कृपा) के बिना संसार—सागर का पार पाना बहुत कठिन है।
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गुरु—विराधना :
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यस्य गुरौ न भक्ति:, न च बहुमान: न गौरवं न भयम्।
नापि लज्जा नापि स्नेह:, गुरुकुलवासेन किं तस्य ?
—समणसुत्त : २९
जिसमें गुरु के प्रति न भक्ति है, न बहुमान है, न गौरव है, न भय (अनुशासन) है, न लज्जा है तथा न स्नेह है, उसका गुरुकुलवास में रहने का क्या अर्थ है?
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चरित्त :
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चारित्तं समभावो
—पंचास्तिकाय : १०७
समभाव ही चारित्र है।
असुहादो विणिवित्ती, सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं।
—द्रवसंग्रह : ४५
अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति करना—इसे ही चारित्र समझना चाहिए।
थोवम्मि सिक्खिदे जिणइ, बहुसुदं जो चरित्तसंपुण्णो।
जो पुण चरित्तहीणो, िंक तस्स सुदेण बहुएण।।
—मूलाचार : १०-६
चारित्रसम्पन्न का अल्पतम ज्ञान भी अधिक है और चारित्रहीन का बहुत अधिक शास्त्रज्ञान भी निष्फल है।
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जिस पुरुष में जयश्री निवास करती है, उसका सब प्रकार आदर के साथ रक्षण करो क्योंकि चन्द्र के अस्त होने पर तारों से प्रकाश नहीं होता।
सुच्चिय सूरो सो चेव, पंडिओ तं पसंसिमो निच्चं।
इंदियचोरेहिं सया, न लुंटिअं जस्स चरणधणं।।
—इन्द्रियपराजयशतक : १
वही सच्चा शूरवीर है, वही सच्चा पंडित है और उसी की हम नित्य प्रशंसा करते हैं जिसका चारित्र रूपी धन इन्द्रियों रूपी चोरों ने लूटा नहीं है, सदा सुरक्षित है।
वश किया हुआ बलिष्ठ घोड़ा जिस प्रकार बहुत लाभदायक है, उसी प्रकार धैर्य रूपी लगाम द्वारा वश में की हुई स्वयं की इन्द्रियाँ तुझे बहुत ही लाभदायक होंगी। अत: इन्द्रियों को वश में कर, उनका निग्रह कर।
ज्ञान, ध्यान और तपोबल से इन्द्रिय—विषयों और कषायों को बलपूर्वक रोकना चाहिए, जैसे कि लगाम के द्वारा घोड़ों को बलपूर्वक रोका जाता है।
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जिन :
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केवलज्ञान—दिवाकर—किरण—कलाप—प्रणाशिताज्ञान:।
नवकेवललब्ध्युद्गम—प्रापित—परमात्मव्यपदेश:।
असहायज्ञानदर्शन—सहितोऽपि हि केवली हि योगेन।
युक्त इति सयोगिजिन:, अनादिनिधन आर्षे उक्त:।।
—समणसुत्त : ५६२-५६३
केवलज्ञान रूपी दिवाकर की किरणों के समूह से जिनका अज्ञान अंधकार सर्वथा नष्ट हो जाता है तथा नौ केवललब्धियों (सम्यक्त्व, अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंतवीर्य, दान, लाभ, भोग व उपभोग) के प्रकट होने से जिन्हें परमात्मा की संज्ञा प्राप्त हो जाती है, वे इन्द्रियादि की सहायता की अपेक्षा न रखने वाले ज्ञान—दर्शन से युक्त होने के कारण सयोगी केवली (तथा घाति कर्मों के विजेता होने के कारण) जिन कहलाते हैं। ऐसा अनादि निधन जिनागम में कहा गया है।
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पहले कभी उपलब्ध न होने वाली अमृत समान सुभाषिव—रूप जिनवाणी मुझे उपलब्ध हो गई है। उससे सुगति का मार्ग मैंने ग्रहण कर लिया है। अब मुझे मृत्यु का कोई भय नहीं।
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जिनशासन :
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मग्गो मग्गफलं ति य, दुविहं जिनसासणे समक्खादं।
—मूलाचार : २०२
जिनशासन (आगम) में सिर्फ दो ही बातें बताई गई हैं—मार्ग और मार्ग का फल।
व्यवहारनय की अपेक्षा समुद्घात अवस्था को छोड़कर संकोच—विस्तार की शक्ति के कारण जीव अपने छोटे या बड़े शरीर के बराबर परिमाण (आकार) का होता है। किन्तु निश्चयनय की अपेक्षा जीव असंख्यात प्रदेशी है।
जैसे पद्मरागमणि दूध में डाल देने पर अपनी प्रभा से दूध को प्रभासित करती है—दुग्ध पात्र के बाहर किसी के पदार्थ को प्रकाशित नहीं करती, वैसे ही जीव शरीर में रहकर अपने शरीर मात्र को प्रभासित करता है—अन्य किसी बाह्य द्रव्य को नहीं।
जीव का ‘अक्ष’ कहते हैं। यह शब्द ‘अशु व्याप्तौ’ धातु से बना है। जो ज्ञान रूप में समस्त पदार्थों में व्याप्त है, वह अक्ष अर्थात् जीव है। ‘अक्ष’ शब्द की व्युत्पत्ति भोजन के अर्थ में ‘अश्’ धातु से भी की जा सकती है। जो तीनों लोक की समस्त समृद्धि आदि को भोगता है, वह अक्ष अर्थात् जीव है। इस तरह दोनों व्युत्पत्तियों से (अर्थव्यापन व भोजनगुण से) जीव का अक्ष अर्थ सिद्ध होता है। उस अक्ष से होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है। इसके तीन भेद हैं—अवधि, मन:पर्यय और केवल।
जिस तरह दीपक विशाल और ऊँचे प्रासाद को भी प्रकाशित करता है तथा छोटे से पात्र में रहकर उतने ही भाग को प्रकाशित करता है, उसी तरह से जीव भी लाखों श्वासों को लेने वाले बड़े देह को सजीव करता है और कुन्थु जैसे छोटे शरीर को भी प्रकाशित करता है।
मात्र आगम की भक्ति के बल पर ही कोई सिद्धान्त का ज्ञाता नहीं हो सकता और हर कोई सिद्धान्त का ज्ञाता भी निश्चित रूप से प्ररूपणा करने के योग्य प्रवक्ता नहीं हो सकता।
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ज्ञान :
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सुत्तं अत्थनिमेणं, न सुत्तमेत्तेण अत्थपडिवत्ती।
अत्थगई पुण णयवाय गहणलीणा दुरभिगम्मा।।
—सन्मति तर्क् प्रकरण : ३-६४
सूत्र (शब्द पाठ) अर्थ का स्थान अवश्य है, परन्तु मात्र सूत्र से अर्थ की प्रतिपत्ति नहीं हो सकती। अर्थ का ज्ञान तो गहन नयवाद पर आधारित होने से बड़ी कठिनता से हो पाता है।
पौद्गलिक होने के कारण द्रव्येन्द्रियां और मन ‘अक्ष’ अर्थात् जीव से ‘पर’ भिन्न है। अत: उनसे होने वाला ज्ञान परोक्ष कहलाता है। जैसे अनुमान में धूम से अग्नि का ज्ञान होता है वैसे परोक्ष ज्ञान भी ‘पर’ के निमित्त से होता है।
जीव के मति और श्रुत—ज्ञान परनिमित्तक होने के कारण परोक्ष हैं। अथवा अनुमान की तरह पहले से उपलब्ध अर्थ के स्मरण द्वारा होने के कारण वे परनिमित्तक हैं। (परनिमित्तक · मन और इन्द्रियों की सहायता से होने वाला ज्ञान)।
एकान्तेन परोक्षं, लैंगिकमवध्यादिकम् च प्रत्यक्षम्।
इन्द्रियमनोभवं यत् , तत् संव्यवहारप्रत्यक्षम्।।
—समणसुत्त : ६८९
धूम आदि लिंग से होने वाला श्रुत ज्ञान तो एकान्त रूप से परोक्ष ही है। अवधि, मन:पर्यय और केवल, ये तीनों ज्ञान एकान्त रूप से प्रत्यक्ष ही हैं। किन्तु इन्द्रिय और मन से होने वाला मतिज्ञान लोकव्यवहार में प्रत्यक्ष माना जाता है। इसलिए वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहलाता है।
जण्णाणवसं किरिया, मोक्खणिमित्तं।
—बारस अणुवेक्खा : ५७
जो क्रिया ज्ञानपूर्वक होती है, वही मोक्ष का कारण होती है।
जिनशासन के अनुसार ज्ञान वही है, जो जीव को रागादि से दूर करे, श्रेय से उसका स्नेह बढ़ाए और मैत्री भाव को प्रभावित/वर्धमान करे।
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ज्ञानी :
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केवलसत्तिसहावो, सोहं इदि चिंतए णाणी।
—नियमसार : ९६
‘मैं केवल—शक्ति स्वरूप हूँ’—ज्ञानी ऐसा िंचतन करे।
जह कणयमग्गितवियं पि, कणयभावं ण तं परिच्चयइ।
तह कम्मोदयतविदो, ण जहदि णाणी दु णाणित्तं।।
—समयसार : १८४
जिस प्रकार स्वर्ण अग्नि से तप्त होने पर भी अपने स्वर्णत्व को नहीं छोड़ता, वैसे ही ज्ञानी भी कर्मोदय के कारण उत्तप्त होने पर भी अपने स्वरूप को नहीं छोड़ता।
लब्ध्या निधिमेकस्तस्य, फलमनुभवति सुजनत्वेन।
तथा ज्ञानी ज्ञाननिधिं, भुंक्ते त्यक्ता परितृप्तिम्।।
—समणसुत्त : २६१
जैसे कोई व्यक्ति निधि प्राप्त होने पर उसका उपभोग स्वजनों के बीच करता है, वैसे ही ज्ञानीजन प्राप्त ज्ञान—निधि का उपभोग पर—द्रव्यों से विलग होकर अपने में ही करता है।
अज्ञानी व्यक्ति तप के द्वारा करोड़ों जन्मों या वर्षों में जितने कर्मों का क्षय करता है, उतने कर्मों का नाश ज्ञानी व्यक्ति त्रिगुप्ति के द्वारा एक सांस में सहज कर डालता है।
जो अप्पाणं जाणदि, असुइ—सरीरादु तच्चदोभिन्नं।
जाणग रूव—सरूवं, सो सत्थं जाणदे सव्वं।।
—कार्तिकेयानुप्रेक्षा : ४६५
जो आत्मा को इस अपवित्र देह से तत्त्वत: भिन्न और ज्ञायक भाव रूप जानता है, वही समस्त शास्त्रों का ज्ञाता होता है।
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ज्ञानी-अज्ञानी :
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सेवंतो वि ण सेवइ, असेवमाणो वि सेवगो कोई।
—समयसार : १९७
ज्ञानी आत्मा (अंतर में रागादि का अभाव होने के कारण) विषयों का सेवन करता हुआ भी सेवन नहीं करता। अज्ञानी आत्मा (अंतर में रागादि का भाव होने के कारण) विषयों का सेवन नहीं करता हुआ भी, सेवन करता है।
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परवस्तु की आसक्ति से रहित होना ही, आत्मा का निराहाररूप वास्तविक तप है। अस्तु, जो श्रमण भिक्षा में दोषरहित शुद्ध आहार ग्रहण करता है, वह निश्चय दृष्टि से अनाहार (तपस्वी) ही है।
जहां कषायों का निरोध, ब्रह्मचर्य का पालन, जिनपूजन तथा अनशन (आत्मलाभ के लिए) किया जाता है, वह सब तप है। विशेषकर मुग्ध अर्थात् भक्तजन यही तप करते हैं।
ये प्रतनुभक्तपाना:, श्रुतहेतोस्ते तपस्विन: समये।
यच्च तप: श्रुतहीनं, बाह्य: स क्षुदाहार:।।
—समणसुत्त : ४४३
जो शास्त्राभ्यास (स्वाध्याय) के लिए अल्प–आहार करते हैं, वे ही आगम में तपस्वी माने गए हैं। श्रुतिविहीन अनशन तप तो केवल भूख का आहार करना है, भूखे मरना है।
तेषामपि तपो न शुद्धं, निष्क्रान्ता: ये महाकुला:।
यद् नैवाऽन्ये विजानन्ति, न श्लोकम् प्रवेदयेत्।।
—समणसुत्त : २८२
उन महाकुल वालों का तप भी शुद्ध नहीं है, जो प्रव्रज्या धारण कर पूजा—सत्कार के लिए तप करते हैं।
इसलिए कल्याणार्थी को इस तरह तप करना चाहिए कि दूसरे लोगों को पता तक न चले। अपने तप की किसी के समक्ष प्रशंसा भी नहीं करनी चाहिए।
हे सुविहित ! यदि तू घोर भवसमुद्र के पार तट पर जाना चाहता है तो शीघ्र ही तप—संयम रूपी नौका को ग्रहण कर।
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तपस्वी :
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नाऽपि तुण्डितेन श्रमण:, न ओंकारेण ब्राह्मण:।
न मुनिररण्यवासेन, कुशचीरेण न तापस:।।
—समणसुत्त : ३४१
केवल सिर मुंडाने से कोई श्रमण नहीं होता, ओम् का जप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता, अरण्य में रहने से कोई मुनि नहीं होता, कुश—चीवर धारण करने से कोई तपस्वी नहीं होता।
(वास्तव में) रत्नत्रय से सम्पन्न जीव ही उत्तम तीर्थ (तट) है, क्योंकि वह रत्नत्रयरूपी दिव्य नौका द्वारा संसार—सागर को पार करता है।
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तीव्रकषायी :
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आत्मप्रशंसनकरणं, पूज्येषु अपि दोषग्रहणशीलत्वम्।
वैरधारणं च सुचिरं, तीव्रकषायाणां लिंगानि।।
—समणसुत्त : ६००
अपनी प्रशंसा करना, पूज्य पुरुषों में भी दोष निकालने का स्वभाव होना, दीर्घकाल तक वैर की गाँठ को बांधे रखना—ये तीव्रकषाय वाले जीवों के लक्षण हैं।
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त्याग :
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ण हि णिरवेक्खो चागो, ण हवदि भिक्खुस्स आसयविसुदी।
अविसुद्धस्स हि चित्ते, कहं णु कम्मक्खओ होदि।।
—प्रवचनसार : ३-२०
जब तक निरपेक्ष त्याग नहीं होता है, तब तक साधक की चित्तशुद्धि नहीं होती है और जब तक चित्तशुद्धि (उपयोग की निर्मलता) नहीं होती है, तब तक कर्मक्षय वैसे हो सकता है ?
सब द्रव्यों में होने वाले मोह को त्यागकर जो त्रिविध निर्वेद से अर्थात् संसार, शरीर और भोगों के प्रति वैराग्य से अपनी आत्मा को भावित करता है, उसके त्याग धर्म होता है, ऐसा जिनेवश्वर ने कहा है।
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धर्म का मूल दया है। प्राणी पर अनुकम्पा करना दया है। दया की रक्षा के लिए ही सत्य, क्षमा शेष गुण बताए गए हैं।
मा हससु परं दुहियं कुणसु दयं णिच्चमेव दीणम्मि।
—कुवलयमाला : ८५
दूसरे दु:खी लोगों पर मत हँसो, हमेशा ही दोनों पर दया करो।
यथा ते न प्रियं दुक्खं, ज्ञात्वैवमेव सर्वजीवानाम्।
सर्वादरमुपयुक्त:, आत्मौपम्येन कुरु दयाम्।।
—समणसुत्त : १५०
तुमको जिस प्रकार दु:ख प्रिय नहीं, इसी प्रकार सभी जीवों को भी दु:ख प्रिय नहीं और सभी अपने जैसे ही हैं, यह जानकर समस्त आदर एवं सजगता का भाव रखते हुए सभी पर दया करो।
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गुरु तथा वृद्धजनों की सेवा करना, अज्ञानी लोगों के सम्पर्क से दूर रहना, स्वाध्याय करना, एकान्तवास करना, सूत्र और अर्थ का सम्यक् चिन्तन करना तथा धैर्य रखना—(ये दु:खों से मुक्ति के) उपाय हैं।
नाणेण य करणेण य दोहि वि दुक्खक्खयं होइ।
—मरणसमाधि : १४७
ज्ञान और तदनुसार क्रिया—इन दोनों की साधना से ही दु:ख का क्षय होता है।
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द्रव्य :
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आकाशकालजीवा:, धर्माधर्मौ च र्मूितपरिहीना:।
मूर्तं पुद्गलद्रव्यं, जीव: खलु चेतनस्तेषु।।
—समणसुत्त : ६२६
आकाश, काल, जीव, धर्म और अधर्म द्रव्य अर्मूितक हैं। पुद्गल द्रव्य र्मूितक है। इन सबमें केवल जीव द्रव्य ही चेतन है।
दव्वं सल्लक्खणयं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं।
—पंचास्तिकाय : १०
द्रव्य का लक्षण सत् है और वह सदा उत्पाद, व्यय एवं ध्रुवत्व भाव से युक्त होता है।
आकाशकालपुद्गलधर्माधर्मेषु न सन्ति जीवगुणा:।
तेषामचेतनत्वं, भणितं जीवस्य चेतनता।।
—समणसुत्त : ६२५
आकाश, काल, पुद्गल, धर्म और अधर्म द्रव्यों में जीव के गुण नहीं होते, इसलिए उन्हें अजीव कहा गया है। जीव का गुण चेतनता है।
जीवा: पुद्गलकाया:, सह सक्रिया भवन्ति न च शेषा:।
पुद्गलकरणा: जीवा: स्कन्धा: खलु कालकरणास्तु।।
—समणसुत्त : ६२७
जीव और पुद्गलद्रव्य ये दो द्रव्य सक्रिय हैं। शेष सब द्रव्य निष्क्रिय हैं। जीव के सक्रिय होने का बाह्य साधन कर्म—नोकर्मरूप पुद्गल है और पुद्गल के सक्रिय होने का बाह्य साधन कालद्रव्य है।
धर्मोऽधर्म आकाशं, द्रव्यमेवैâकमाख्यातम्।
अनन्तानि च द्रव्याणि, काल: (समया:) पुद्गला जन्तव:।।
—समणसुत्त : ६२८
धर्म, अधर्म और आकाश—ये तीनों द्रव्य संख्या में एक—एक हैंं (व्यवहार) काल, पुद्गल और जीव—ये तीनों द्रव्य अनंतानंत हैं।
धर्माऽधर्मौ च द्वावप्येतौ, लोकमात्रौ व्याख्यातौ।
लोकेऽलोके च आकाश: समय: समयक्षेत्रिक:।।
—समणसुत्त : ६२९
धर्म और अधर्म—ये दोनों ही द्रव्य लोकप्रमाण हैं। आकाश, लोक और अलोक में व्याप्त है। (व्यवहार-काल समयक्षेत्र अर्थात् मनुष्य क्षेत्र में ही है।)
अन्योऽन्यं प्रविशन्त:, ददत्यवकाशमन्योऽन्यय।
मिलन्तोऽपि च नित्यं, स्वभावं स्वभावं न विजहति।।
—समणसुत्त : ६३०
ये सब द्रव्य परस्पर में प्रविष्ट हैं। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को अवकाश देते हुए स्थित है। ये इसी प्रकार अनादिकाल से मिले हुए हैं, किन्तु अपना-अपना स्वभाव नहीं छोड़ते हैं।
द्रव्यं पर्यववियुतं, द्रव्य-वियुक्ताश्च पर्यवा: न सन्ति।
उत्पादस्थितिभंगा:, खलु द्रव्यलक्षणमेतत्।।
—समणसुत्त : ६६२
पर्याय के बिना द्रव्य नहीं और द्रव्य के बिना पर्याय नहीं। उत्पाद, स्थिति (ध्रुवता) और व्यय (नाश) द्रव्य का लक्षण है। अर्थात् द्रव्य उसे कहते हैं, जिसमें प्रतिसमय उत्पाद आदि तीनों घटित होते रहते हैं।
द्रव्य की अन्य (उत्तरवर्ती) पर्याय उत्पन्न (प्रकट) होती है और अन्य (पूर्ववर्ती) पर्याय नष्ट (अदृश्य) हो जाती हैं। फिर भी द्रव्य न तो उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है—द्रव्य के रूप में सदा ध्रुव (नित्य) रहता है।
—देखें : गुण, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य।
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द्रव्यदृष्टि :
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भारी पीलो चीकणो कनक, अनेक तरंग रे।
पर्याय दृष्टि न दीजिए, एकज कनक अभंग रे।।
—आनन्दघन ग्रंथावली :: अरजिन स्तवन
स्वर्ण के साथ पर्याय रूप में तीन गुण निहित रहते हैं—भारीपन, पीलापन और चिकनापन अर्थात् सोना वजन में भारी, रंग से पीता और गुण से चिकना (स्निग्ध) ऐसे अनेक रूपों में दृष्टिगत होता है। इसी तरह स्वर्ण के हार, कगन कठी, कड़ा आदि विभिन्न आभूषण बनाए जाते हैं, किन्तु ये सब पर्याय—दृष्टि से देखने पर ही भिन्न—भिन्न प्रतीत होते हैं। यदि पर्याय—दृष्टि को गौण कर द्रव्यदृष्टि से देखा जाए तो सोना एक और अखण्ड—अभेद रूप ही रहता है। उसके भेद—प्रभेद नहीं हो सकते।
मेरु पर्वत की ऊँचाई से क्या और उसकी स्वर्णऋद्धि से भी क्या, जिसके पास में ही भ्रमण करने वाले सूर्यमंडल अस्त हो जाते हैं ? ऐसे धनवान से क्या लाभ, जिसके रहते हुए मित्रमंडल की अधोगति होती है ?
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धनासक्ति :
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धन धरती में गाडै बौरा, धूरि आप मुख लावे।
मूषक साँप होइगो आखर, तातै अलठि कहावै।।
—आनन्दघन ग्रंथावली : पद—४
मूढ़ मानव अपने धन का संरक्षण करने हेतु धन को जमीन में गाड़ता है और उस पर धूल डालता है किन्तु वस्तुत: वह धन के ऊपर धूल नहीं डाल रहा है, प्रत्युत अपने ऊपर ही धूल डाल रहा है। इसका कारण यह है कि धन के प्रति अत्यधिक मूच्र्छा होने से, वह मरकर उसी धन की रखवाली करने वाला सर्प, चूहा आदि बनता है।
आदा धम्मो मुणेदव्वो।
—प्रवचनसार : १-८
आत्मा ही धर्म है, अर्थात् धर्म आत्मा—स्वरूप होता है।
किरिया हि णत्थि अफला, धम्मो जदि णिप्फलो परमो।
—प्रवचनसार : २-२४
संसार की कोई भी मोहात्मक क्रिया निष्फल (बंधनरहित) नहीं है, एकमात्र धर्म ही निष्फल है, अर्थात् स्व—स्वभाव रूप होने से बंधन का हेतु नहीं है।
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(प्रथम तो चतुर्गतियों में भ्रमण करने वाले जीव को मनुष्य शरीर ही मिलना दुर्लभ है, फिर) मनुष्य—शरीर प्राप्त होने पर भी ऐसे धर्म का श्रवण तो और भी कठिन है, जिसे सुनकर तप, क्षमा और अिंहसा को प्राप्त किया जाए।
कदाचित् धर्म का श्रवण हो भी जाए, तो उस पर श्रद्धा होना महाकठिन है क्योंकि बहुत से लोग न्यायसंगत मोक्षमार्ग का श्रवण करके भी उससे विचलित हो जाते हैं।
धम्मविहीणो सोक्खं, तण्हाछेयं जलेण जह रहिदो।
—सन्मति प्रकरण : १-३
जिस प्रकार मनुष्य जल के बिना प्यास नहीं बुझा सकता, उसी प्रकार मनुष्य धर्मविहीन सुख नहीं पा सकता।
धम्मु ण पढियइं होइ धम्मु ण पोत्था पिच्छियइँ।
धम्मु ण मठिय—पएसि धम्मु ण मत्था लुंचियइँ।।
राय—दोस वे परिहरिवि जो अप्पाणि वसेइ।
सो धम्मु वि जिण उत्तिमउ जो पंचम—गइ णेइ।।
—योगसार : ४७-४८
पढ़ लेने से धर्म नहीं होता, पुस्तक और पीछी से धर्म नहीं होता, किसी मठ में रहने से भी धर्म नहीं है और केशलुंचन से भी धर्म नहीं कहा जाता। जो राग और द्वेष, दोनों का परित्याग कर अपनी आत्मा में वास करता है, उसे ही अर्हन्त से उत्तम धर्म कहा है, जो मोक्ष प्रदायक है।
क्रोधी, कठोर, लोभी, परपीड़क, क्षुद्र प्रकृति व्यक्ति भी यदि धर्म में संलग्न हो जाए तो वह भी बाण की तरह ऊध्र्व दिशा की ओर जाता है, गुणों को प्राप्त करता है।
एओ चेव सुभो णवरि सव्वसोक्खायरो धम्मो।
—भगवती आराधना : १८१३
केवल एक धर्म ही शुभ है। वही सब सुख प्रदान करने वाला है।
खंतीमद्दवअज्जवलाघवतवसंजमो अिंकचणदा।
तह होइ बम्हचेरं सच्चं चागो य दस धम्मा।।
—मूलाचार : ७५२
क्षमा, मार्दव, आर्जव, शुद्धि, सत्य, संयम, तप, त्याग, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य; यह दस प्रकार का धर्म हुआ करता है।
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मोक्षार्थी मुनि सर्वप्रथम धर्मध्यान द्वारा अपने चित्त को सुभावित करे। बाद में धर्मध्यान से उपरत होने पर भी सदा अनित्य—अशरण आदि भावनाओं के चिंतवन में लीन रहे।
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धर्मचरण :
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जरा यावत् न पीडयति, व्याधि: यावत् न वद्र्धते।
यावदिन्द्रियाणि न हीयन्ते, तावत् धर्मं समाचरेत्।।
—समणसुत्त : २९५
जब तक बुढ़ापा नहीं सताता, जब तक व्याधियां (रोगादि) नहीं बढ़ती और इन्द्रियाँ अशक्त अक्षम) नहीं हो जातीं, तब तक (यथाशक्ति) धर्माचरण कर लेना चाहिए क्योंकि बाद में अशक्त एवं असमर्थ देहेन्द्रियों से धर्माचरण नहीं हो सकेगा।
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धर्मास्तिकाय रसरहित है, रूपरहित है, गंधरहित है और शब्दरहित है। समस्त लोकाकाश में व्याप्त है, अखण्ड है और विशाल है तथा असंख्यातप्रदेशी है।
उदकम् यथा मत्स्यानां, गमनानुनुग्रहकरं भवति लोके।
तथा जीवपुद्गलानां, धर्मद्रव्यं विजानीहि।
—समणसुत्त : ६३२
जैसे इस लोक में जल मछलियों के गमन में सहायक होता है वैसे ही धर्मद्रव्य जीवों तथा पुद्गलों के गमन में सहायक या निमित्त बनता है।
न च गच्छति धर्मास्तिकाय: गमनं न करोत्यन्यद्रव्यस्य।
भवति गते: स प्रसरो, जीवानां पुद्गलानां च।।
—समणसुत्त : ६३३
धर्मास्तिकाय स्वयं गमन नहीं करता और न अन्य द्रव्यों का गमन कराता है। वह तो जीवों और पुद्गलों की गति में उदासीन कारण है। यही धर्मास्तिकाय का लक्षण है।
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जिसमें विषयरूपी जल है, मोह की गर्जना है, स्त्रियों की विलासभरी चेष्टा रूप मत्स्य आदि जलचर जीव हैं और मद रूपी जिसमें मगरमच्छ रहते हैं ऐसे तारुण्य रूपी समुद्र को धीर पुरुषों ने ही पार किया है।
जो विसमम्मि वि कज्जे कज्जारंभं न मुच्चए धीरो।
अहिसारियव्व लच्छी विनडइ वच्छत्थले तस्स।।
—गाहारयणकोष : १०७
विषम कार्य के होने पर भी धीर पुरुष कार्यारम्भ करने पर उसको बीच में नहीं छोड़ते। अभिसारिका की तरह धीर व्यक्ति के वक्षस्थल पर लक्ष्मी स्वयं आ पड़ती है।
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ध्यान :
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मोक्ष: कर्मक्षयादेव, स चात्मज्ञानतो भवेत्।
ध्यानसाध्यं मतं तच्च, तद्ध्यानं हिममात्मन:।।
—योगशास्त्र : ४-११३
कर्म के क्षय से मोक्ष होता है, आत्मज्ञान से कर्म का क्षय होता है और ध्यान से आत्मज्ञान से कर्म का क्षय होता है और ध्यान से आत्मज्ञान प्राप्त होता है। अत: ध्यान आत्मा के लिए अत्यन्त हितकारी माना गया है।
वीतरागो विमुच्येत वीतरागं विचिन्तयन्।
—योगशास्त्र : ९-१३
वीतराग का ध्यान करता हुआ योगी स्वयं वीतराग होकर कर्मों से या वासनाओं से मुक्त हो जाता है।
जो निजभाव को नहीं छोड़ता और किसी भी परभाव को ग्रहण नहीं करता तथा जो सबका ज्ञाता द्रष्टा है, वह (परम तत्त्व) ‘मैं’ ही हूँ। आत्मध्यान में लीन ज्ञानी ऐसा चिंतन करता है।
जैसे पानी का योग पाकर नमक विलीन हो जाता है, वैसे ही जिसका चित्त र्नििवकल्प समाधि में लीन हो जाता है, उसकी चिरसंचित शुभाशुभ कर्मों को भस्म करने वाली आत्मरूप अग्नि प्रकट होती है।
स्थिरकृतयोगानां पुन:, मुनीनां ध्याने सुनिश्चलमनसाम्।
ग्रामे जनाकीर्णे, शून्येरण्ये वा न विशेष:।।
—समणसुत्त : ४९१
जिन्होंने अपने योग अर्थात् मन—वचन—काय को स्थिर कर लिया है और जिनका ध्यान में चित्त पूरी तरह निश्चल हो गया है, उन मुनियों के ध्यान के लिए घनी आबादी के ग्राम अथवा अरण्य में कोई अंतर नहीं रह जाता।
ध्यानस्थितो खलु योगी, यदि नो संवेति निजात्मानम्।
स न लभते तं शुद्धं, भाग्यविहीनो यथा रत्नम्।।
—समणसुत्त : ४९७
ध्यान में स्थित योगी यदि अपनी आत्मा का संवेदन नहीं करता तो वह शुद्ध आत्मा को प्राप्त नहीं कर सकता जैसे कि भाग्यहीन व्यक्ति रत्न प्राप्त नहीं कर सकता।
मा चेष्टध्वम् मा जल्पत, मा चिन्तयत किमपि येन भवति स्थिर:।
आत्मा आत्मनि रत:, इदमेव परं भवेद् ध्यानम्।।
—समणसुत्त : ५०१
हे ध्याता ! तू न तो शरीर से कोई चेष्टा कर, न वाणी से कुछ बोल और न मन से कुछ चिन्तन कर, इस प्रकार त्रियोग का निरोध करने से तू स्थिर हो जाएगा—तेरी आत्मा आत्मरत हो जाएगी। यही परम ध्यान है।
न कषाय—समुत्थैश्च, बाध्यते मानसैर्दु:खै:।
ईष्र्या—विषाद—शोकादिभि:, ध्यानोपगतचित्त:।।
—समणसुत्त : ५०२
जिसका चित्त इस प्रकार के ध्यान में लीन है, वह आत्मध्यानी पुरुष कषाय से उत्पन्न ईष्र्या, विषाद, शोक आदि मानसिक दु:खों से बाधित (ग्रस्त या पीड़ित) नहीं होता।
लोक को नि:सार तथा संसार को दीर्घ गमनरूप जानकर मुनि प्रयत्नपूर्वक लोक के सर्वोच्च अग्रभाग में स्थित मुक्तिपद का ध्यान करता है, जहाँ मुक्त (सिद्ध) जीव सुखपूर्वक सदा निवास करते हैं।
राजकुल में उत्पन्न राजपुत्र नित्य समुचित शास्त्राभ्यास करता रहता है तो उसमें दक्षता आ जाती है और वह युद्ध में विजय प्राप्त करने में समर्थ होता है। इसी प्रकार जो समभावी साधु नितय ध्यानाभ्यास करता है, उसका चित्त वश में हो जाता है और मरणकाल में ध्यान करने में समर्थ हो जाता है।
आरम्भ में जिस प्रकार व्यवहार भूत शुभ प्रकृतियों के द्वारा अशुभ संस्कारों का निरोध हो जाता है, उसी प्रकार चित्त—शुद्धि हो जाने पर शुद्धोपयोग रूप समता के द्वारा उन शुभ संस्कारों का भी निरोध हो जात है। इस क्रम से योगी धीरे—धीरे आरोहण करता हुआ निजात्मा के ध्यान में सफल हो जाता है।
जिस तरह धातु और पत्थर का एक साथ जन्म हुआ है। धातु के कीट को अग्नि द्वारा जलाकर शुद्ध किया जाता है, उसी तरह जीव और कर्म का अनादिकालीन सम्बन्ध है। ध्यानाग्नि द्वारा कर्म रूपी कीट को जलाकर जीव को निर्मल किया जाता है।
उत्तम अर्थात् केवल ज्ञान—दर्शन से परिपूर्ण पुरुषाकार आत्मा का ध्यान करने वाला योगी होता है और योगी जो होता है, वह अपने पापकर्मों को नष्ट कर निद्र्वन्द्व हो जाता है।
देहविविक्तं प्रेक्षते आत्मानं तथा च सर्वसंयोगान्।
देहोपधिव्युत्सर्गं, निस्संग: सर्वथा करोति।।
—समणसुत्त : ४९५
ध्यान करने वाला योगी अपनी आत्मा को शरीर और अन्य सभी संयोगों से अलग देखता है। वह शरीर और उपधि का त्याग करते हुए निस्संग हो जाया करता है।
नाहं भवामि परेषां, न मे परे सन्ति ज्ञानमहमेक:।
इति यो ध्यायति ध्याने, स आत्मा भवति ध्याता।।
—समणसुत्त : ४९६
ध्याता वही आत्मा होती है, जो ध्यान से यह ध्यान किया करती है कि ‘न मैं किसी का हूँ, न कोई मेरा है। मैं एक हूँ। ज्ञानमय हूँ। शुद्ध—बुद्ध हूँ।’
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नम्रता :
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किंदि रिंता वि नमंति मग्गणत्थं धरंति जे जोयं।
ताण धणूण व पुरिसाण कह णु मा होउ टंकारो।।
—गाहारयण कोष : १२९
करोड़ों का धन देकर भी जो नम्र है और जो याचकों के लिए ही जीवन धारण करता है, ऐसा धनुष और पुरुष क्यों नहीं टंकार करेगा ?
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नय :
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तह ववहारेण विणा, परमत्थुवएसणमसक्कम्।
—समयसार : ८
व्यवहार (नय) के बिना परमार्थ (शुद्ध आत्मतत्त्व) का उपदेश करना अशक्य है।
स्वाश्रितो निश्चय:।
—अध्यात्म सूत्र : १-८
स्व अर्थात् उस ही एक द्रव्य के आश्रय से जो बोध है, वह निश्चय—नय है।
पराश्रितो व्यवहार:।
—अध्यात्म सूत्र : १-९
पर अर्थ के आश्रय से जो बोध अथवा निरूपण है, वह व्यवहार—नय है।
यो ज्ञानिनां विकल्प:, श्रुतभेदो वस्त्वंशसंग्रहणम्।
स इह नय: प्रयुक्त:, ज्ञानी पुनस्तेन ज्ञानेन।।
—समणसुत्त : ६९०
श्रुतज्ञान के आश्रय से युक्त वस्तु के अंश को ग्रहण करने वाले ज्ञानी के विकल्प को ‘नय’ कहते हैं। उस ज्ञान से जो युक्त है, वह ज्ञानी है।
यस्मात् न नयेन विना, भवति नरस्य स्याद्वादप्रतिपत्ति:।
तस्मात् स बोद्धव्य:, एकान्तं हन्तुकामेन।।
—समणसुत्त : ६९१
नय के बिना मनुष्य को स्याद्वाद का बोध नहीं होता। अत: जो एकान्त का या एकान्त आग्रह का परिहार करना चाहता है, उसे नय को अवश्य जानना चाहिए।
नय का विषय हो या प्रमाण का, परस्पर—सापेक्ष विषय को ही सापेक्ष कहा जाता है और इससे विपरीत को निरपेक्ष। (प्रमाण का विषय सर्व नयों की अपेक्षा रखता है और नय का विषय प्रमाण की तथा अन्य विरोधी नयों की अपेक्षा रखता है, तभी वह विषय—सापेक्ष कहलाता है।)
यावन्तो वचनपथास्तावन्तो वा नया: ‘अपि’ शब्दात्।
त एव च परसमया: सम्यक्त्वं समुदिता: सर्वे।।
—समणसुत्त : ७२६
(वास्तव में देखा जाए तो लोक में) जितने वचन—पन्थ हैं, उतने ही नय हैं, क्योंकि सभी वचन वक्ता के किसी न किसी अभिप्राय या अर्थ को सूचित करते हैं और ऐसे वचनों में वस्तु के किसी एक धर्म की ही मुख्यता होती है। अत: जितने नय सावधारण (हठग्राही) हैं, वे सब पर—समय हैं, मिथ्या हैं और अवधारणरहित (सापेक्ष सत्यग्राही) तथा स्यात् पद से युक्त समुदित सभी नय सम्यक् होते हैं।
परसमयैकनयमतं, तत्प्रतिपक्षनयतो निवर्तयेत्।
समये वा परिगृहीतं, परेण यद् दोष—बुद्धया।।
—समणसुत्त : ७२७
नय—विधि के ज्ञाता को पर समय रूप (एकान्त या आग्रहपूर्ण) अनित्यत्व आदि के प्रतिपादक ऋजुसूत्र आदि नयों के अनुसार लोक में प्रचलित मतों का निवर्तन या परिहार नित्यादि का कथन करने वाले द्रव्र्यािथक नय से करना चाहिए। तथा स्वसमय रूप जिन—सिद्धांत में भी अज्ञान या द्वेष आदि दोषों से युक्त किसी व्यक्ति से दोषबुद्धि से कोई निरपेक्ष पक्ष अपना लिया हो तो उसका भी निवर्तन (निवारण) करना चाहिए।
जहाँ वस्तु की वर्तमान अवस्था का उल्लंघन कर उसका भूतकालीन या भावी स्वरूपानुसार व्यवहार किया जाता है, वहाँ द्रव्य—निक्षेप होता है। उसके दो भेद हैं—आगम और नोआगम। अर्हत्कथित शास्त्र का जानकार जिस समय उस शास्त्र में अपना उपयोग नहीं लगाता, उस समय वह आगम द्रव्य निक्षेप से अर्हत् है। नोआगम द्रव्यनिक्षेप के तीन भेद हैं—ज्ञायक शरीर, भावी और कर्म। जहाँ वस्तु के ज्ञाता के शरीर को उस वस्तुरूप माना जाए वहाँ ज्ञायक शरीर नोआगम द्रव्य निक्षेप है। जैसे राजनीतिज्ञ के मृत शरीर को देखकर कहना कि राजनीति मर गई।
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निदान :
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अगणियत्या यो मोक्षमुखं, करोति निदानमसारसुखहेतो:।
स काचमणिकृते, वैडूर्यमणिं प्रणाशयति।।
—समणसुत्त : ३६६
जो व्रती मोक्ष—सुख की उपेक्षा या अवगणन करके (परभव में) असार सुख की प्राप्ति के लिए निदान या अभिलाषा करता है, वह कांच के टुकड़े के लिए वैडूर्यमणि को गंवाता है।
छेत्तूण य कप्पूरं कुणइ वइं कोद्दवस्स सो मूढो।
आचुण्णिऊण रयणं अविसेसो गेण्हए दोरो।।
दहिऊण य गोसीसं गेण्हइ छारं तु सो अबुद्धीओ।
जो चरिय तवं घरं मरइ य सनियाणमरणेणं।।
—पउमचरिउ : ५४५
जो तपश्चरण करके निदानयुक्त मरण से मरता है, वह मूर्ख मानो कपूर के पेड़ को काटकर कोदों की खेती करना चाहता है, रत्न को पीसकर वह अविवेकी डोरा लेना चाहता है, वह अज्ञानी गोशीर्ष चंदन को जलाकर उसकी राख ग्रहण करता है।
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निन्दा :
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मा कस्स वि कुण णिंदं होज्जसु गुण—गेण्हजुज्जओ णिययं।
—कुवलयमाला : ८५
किसी की निन्दा मत करो, गुणों को ग्रहण करने में उद्यम करो।
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जैसे किसी बड़े तालाब का जल, जल के मार्ग को बंद करने से, पहले के जल को उलीचने से तथा सूर्य के ताप से क्रमश: सूख जाता है, वैसे ही संयमी का करोड़ों भवों का संचित कर्म पापकर्म के प्रवेशमार्ग को रोक देने पर तथा तप से निर्जरा को प्राप्त होता है—नष्ट होता है।
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निर्लेप :
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चरदि जदं जदि णिच्चं, कमलं व जले णिरुवलेवो।
—प्रवचनसार : ३-१८
यदि साधक प्रत्येक कार्य यतना से करता है, तो वह जल में कमल की भाँति निर्लेप रहता है।
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निर्वाण की स्थिति जन्म, जरा व मरण से रहित होती है। वह आठ कर्मों से रहित, उत्कृष्ट एवं शुद्ध है। वह अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख व अनंत वीर्य—इन चार आत्मिक स्वभावों से युक्त है, वह अक्षय, अविनाशी व अच्छेद्य है।
इसलिए पंडित पुरुष अनेकविध पाश या बंधनरूपी स्त्री, पुत्रादि के सम्बन्धों की, जो कि जन्म—मरण के कारण हैं, समीक्षा करके स्वयं सत्य की खोज करे और सब प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव रखे।
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पदार्थ :
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णत्थि विणा परिणामं, अत्थो अत्थं विणेह परिणामो।
—प्रवचनसार : १-१०
कोई भी पदार्थ बिना परिणमन के नहीं रहता है और परिणमन भी बिना पदार्थ के नहीं होता है।
पर्यायदृष्टि से सभी पदार्थ नियमेन उत्पन्न भी होते हैं और नष्ट भी, परन्तु द्रव्य दृष्टि से सभी पदार्थ उत्पत्ति और विनाश से रहित तथा सदा काल ध्रुव हैं।
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पदनिंदा :
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किच्चा परस्स णिंदं, जो अप्पाणं ठवेदुमिच्छेज्ज।
सो इच्छदि आरोग्गं, परम्मि कडुओसहे पीए।।
—भगवती आराधना : ३७१
जो दूसरों की निंदा करके अपने को गुणवान प्रस्थापित करना चाहता है, वह व्यक्ति दूसरों को कड़वी औषधि पिलाकर स्वयं रोगरहित होने की इच्छा करता है।
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परभाव :
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एगो मे सासदो अप्पा, णाणदंसणलक्खणो।
ऐसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा।।
—नियमसार : १०२
ज्ञान—दर्शन स्वरूप मेरा आत्मा ही शाश्वत तत्त्व है, इसमें भिन्न जितने भी (रागद्वेष, कर्म, शरीर आदि) भाव हैं, वे सब संयोगजन्य बाह्य भाव हैं, अत: वे मेरे नहीं है।
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जो आदि, मध्य और अन्त से रहित है, जो केवल एकप्रदेशी है—जिसके दो आदि प्रदेश नहीं हैं और जिसे इन्द्रियों द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता, वह विभागविहीन द्रव्य परमाणु है।
जिसमें पूरण—गलन की क्रिया होती है अर्थात् जो टूटता–जुड़ता रहता है, वह पुद्गल है। स्वंâध की भाँति परमाणु के भी स्पर्श, रस, गंध, वर्ण गुणों में सदा पूरण—गलन क्रिया होती रहती है, इसलिए परमाणु भी पुद्गल है।
अप्रदेश: परमाणु: प्रदेशमात्रश्च स्वयमशब्दो य:।
स्निग्धो व रुक्षो वा, द्विप्रदेशादित्वमनुभवति।।
—समणसुत्त : ६५२
(लोक में व्याप्त) पुद्गल परमाणु एकप्रदेशी है—दो आदि प्रदेशी नहीं है, तथा वह शब्दरूप नहीं है, फिर भी उसमें स्निग्ध व रुक्ष स्पर्श का ऐसा गुण है कि एक परमाणु दूसरे परमाणुओं से बंधने या जुड़ने या मिलने पर दो प्रदेशी आदि स्कन्ध का रूप धारण कर लेते हैं।
परमाणु उस द्रव्य को जानें, जिसका खंडित होना संभव नहीं। वह अपना प्रारंभ, मध्य और अंत स्वयं हुआ करता है। उसे इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता।
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परमात्मा :
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जीवा: भवन्ति त्रिविधा:, बहिरात्मा तथा च अन्तरात्मा च।
परमात्मान: अपि च द्विविधा:, अर्हन्त: तथा च सिद्धा च।।
—समणसुत्त : १७८
जीव तीन प्रकार के होते हैं : बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। परमात्मा के दो रूप हैं—अरिहंत और सिद्ध।
निग्गहिए मणपसरे, अप्पा परमप्पा हवइ।
—आराधनासार : ७४
मन के विकल्पों को रोक देने पर आत्मा, परमात्मा बन जाता है।
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परस्त्रीगमन प्राण—नाश के संदेह को उत्पन्न करने वाला है। परम वैर का कारण है और इहलोक और परलोक—दोनों लोकों को नष्ट करने वाला है, अत: परस्त्रीगमन को त्याग देना चाहिए।
क्षेत्र (खेत या जमीन), वास्तु (मकान), धन, धान्य, वस्त्र, मसाले, दोपाये (नौकर—चाकर), चौपाये (पशु—धन) वाहन और शयन—आसन (सोने—बैठने के साधन), ये दस बाहरी परिग्रह हुआ करते हैं।
मिथ्यात्व, वेदों (स्त्री, पुरुष, नपुंसक की अनुभूति) में राग, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और चार कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ), ये चौदह आंतरिक परिग्रह हुआ करते हैं।
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परिग्रही :
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चित्तवन्तमचित्तं वा, परिगृह्य कृशमपि।
अन्यं वा अनुजानाति, एवं दु:खात् न मुच्यते।।
—समणसुत्त : १४१
सजीव या निर्जीव स्वल्प वस्तु का भी जो परिग्रह रखता है अथवा दूसरे को उसकी अनुज्ञा देता है, वह दु:ख से मुक्त नहीं होता।
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पुरुष में पुरुष शब्द का व्यवहार जन्म से लेकर मरण तक होता रहता है। परन्तु इसी बीच बचपन—बुढ़ापा आदि अनेक पर्यायें उत्पन्न हो—होकर नष्ट होती जाती हैं।
तस्माद् वस्तूनामेव, ये सदृश: पर्यव: स सामान्यम्।
यो विसदृशो विशेष:, स मतोऽनर्थान्तरं तत:।।
—समणसुत्त : ६६८
अत: वस्तुओं की जो सदृश पर्याय है—दीर्घकाल तक बनी रहने वाली समान पर्याय है, वही सामान्य है और उनकी जो विसदृश पर्याय है, वह विशेष है। ये दोनों सामान्य तथा विशेष पर्यायें उस वस्तु से अभिन्न (कथंचित्) मानी गई हैं।
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पात्रता :
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जो जत्तियस्स अत्थस्स भायणं सो उ तेत्तियं लहइ।
वुट्ठे वि दोणमेहे न डुंगरे पाणियं ढाइ।।
—गाहारयणकोष : २
जो जितने अर्थ का पात्र होता है उसको उतना ही मिलता है (उससे अधिक नहीं), जैसे द्रोण मेघ के बरसने पर भी पहाड़ पर पानी नहीं ठहरता।
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(तथापि) व्रत व तपादि के द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति उत्तम है। इनके न करने पर नरकादि के दु:ख उठाना ठीक नहीं है क्योंकि कष्ट सहते हुए धूप में खड़े रहने की अपेक्षा छाया में खड़े रहना ही अच्छा है। (इसी न्याय से लोक में पुण्य की सर्वथा उपेक्षा उचित नहीं।)
समत्तेण सुदेण य विरदीए सकायणिग्गहगुणेहिं जो परिणदो सो पुण्णो।
—मूलाचार : २३४
सम्यक्त्व, श्रुतज्ञान, व्रतरूप परिणाम तथा कषाय—निग्रह रूप गुणों से परिणत आत्मा पुण्य पुरुष है।
तम्हा मंद—कसाया हेऊ पुण्णस्स ण हि वंछा।
—कार्तिकेयानुप्रेक्षा : ४१३
पुण्य की इच्छा करने से नहीं बल्कि कषायों के क्षीण (भावों के शुद्ध) होने से पुण्य अर्जित हुआ करता है।
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पुण्य पाप :
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सुहपरिणामो पुण्णं, असुहो पावं ति हवदि जीवस्स।
—पंचास्तिकाय : १३२
आत्मा का शुभ परिणाम (भाव) पुण्य है और अशुभ परिणाम पाप है।
पुण्यहीन विपुल सामग्री प्राप्त करने पर भी उसका उपभोग नहीं कर सकता। जैसे विशाल जलराशि के होने पर और बहुत प्यास लगने पर भी सांप तो जीभ से ही पानी को चाटता है।
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स्कन्ध पुद्गल के छह प्रकार हैं–अतिस्थूल, स्थूलसूक्ष्म, सूक्ष्मस्थूल, सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म। पृथ्वी आदि इनके छह दृष्टान्त हैं।
पृथ्वी जलं च छाया, चतुरिन्द्रियविषय—कर्म—परमाणव:।
षड्विधभेदं भणितं, पुद्गलद्रव्यं जिनवरै:।।
—समणसुत्त : ६४२
पृथ्वी, जल, छाया तथा नेत्र शेष चार इन्द्रियों के विषय, कर्म व परमाणु—इस प्रकार जिनदेव ने स्कन्ध पुद्गल के छह दृष्टान्त कहे हैं। (पृथ्वी अतिस्थूल का, जल स्थूल का, छाया—प्रकाश आदि नेत्र इन्द्रिय—विषय सूक्ष्म—स्थूल का कार्मण—स्कन्ध सूक्ष्म तथा परमाणु अतिसूक्ष्म का दृष्टान्त है।
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ज्ञानी पुरुष धर्म पुरुषार्थ, अर्थ पुरुषार्थ, काम पुरुषार्थ और मोक्ष पुरुषार्थ में से मोक्ष पुरुषार्थ को उत्तम कहते हैं क्योंकि अन्य पुरुषार्थों में परम सुख नहीं है।
जो व्यक्ति आलस्य युक्त होकर उद्यम—उत्साह से रहित हो जाता है, वह किसी भी फल को प्राप्त नहीं कर सकता। पुरुषार्थ से ही सिद्धि है, जैसे स्तन का दूध उद्यम करने पर ही पिया जा सकता है।
सभी वृक्षों के मूल से ही शाखा होती है, किन्तु शाखाओं से मूल (जड़) को मजबूत करते हैं, ऐसे वृक्ष तो विरले ही होते हैं। (जगत् के प्रवाह में बहने वाले तो सभी होते हैं, किन्तु जगत् को अपने प्रवाह में बहाने वाला तो विरला ही होता है।)
एता अष्ट प्रवचनमातर: ज्ञानदर्शनचारित्राणि।
रक्षन्ति सदा मुनीन्, मातर: पुत्रमिव प्रयता:।।
—समणसुत्त : ३८४-३८५
ईर्या, भाषा, एषणा, आदान—निक्षेपण और उच्चार (मल—मूत्रादि विसर्जन)—ये पांच समितियाँ हैं। मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति—ये तीन गुप्तियाँ हैं। ये पाठ प्रवचनमाताएं हैं। जैसे सावधान माता पुत्र का रक्षण करती है, वैसे ही सावधानीपूर्वक पालन की गई ये आठों माताएं मुनि के सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्र का रक्षण करती हैं।
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हृदय में वडवानल को धारण कर भी, विष का कुलधन (उत्पत्ति—स्थान) होकर भी समुद्र ने रत्नाकर नाम धारण किया है। यह सब प्रसिद्धि का ही माहात्म्य है। (प्रसिद्धि को पाने के बाद अनेक दोष भी उसमें छिप जाते हैं।)
अवरगुणेणं जाणं मउप्फरो ताण नाम को गव्वो ?
वाउवसारुठन—हंगयाण धूलीण को महिमा ?
—गाहारयणकोष : २५४
दूसरों के गुणों से यदि व्यक्ति प्रकाशित होता है (प्रसिद्धि को पाता है) तो उसमें गर्व करने जैसा क्या है ? हवा के संसर्ग से आकाश में घूमने वाले रजकणों की क्या महिमा ?
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यह जीव लक्ष्मी को चाहता है पर अच्छे—श्रेष्ठ धर्म में आदर—बुद्धि नहीं करता। क्या बीज के बिना भी कहीं धान्य की उत्पत्ति दिखाई देती है ?
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बंधन :
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स्वकं स्वकं प्रशंसन्त:, गर्हयन्त: परं वच:।
ये तु तत्र विद्वस्यन्ते, संसारं ते व्युच्छ्रिता:।।
—समणसुत्त : ७३४
जो पुरुष केवल अपने मत की ही प्रशंसा करते हैं तथा दूसरे के वचनों की निन्दा करते हैं और इस तरह अपना पांडित्य प्रदर्शन करते हैं, वे संसार में मजबूती से जकड़े हुए हैं, दृढ़ रूप में आबद्ध हैं।
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बुद्धिमान :
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यो विद्याविनीतमति: स बुद्धिमान्।
—नीतिवाक्यामृत : ५-३२
जो ज्ञान एवं नम्रता से युक्त है, वह बुद्धिमान है।
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ब्रह्म का अर्थ है—आत्मा। आत्मा में चर्या—रमण करना ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचारी की परदेह में प्रवृत्ति और तृप्ति नहीं होती।
मातृसुताभगिनीमिव च, दृष्ट्वा स्त्रीत्रिकं च प्रतिरूपम्।
स्त्रीकथादिनिवृत्ति—स्त्रिलोकपूज्यं भवेद् ब्रह्म।।
—समणसुत्त : ३७४
बालिका, युवती, वृद्धा—स्त्री के तीनों रूपों को पुत्री, बहिन, माता के रूपों में देखना और स्त्री—कथा (काम—भोगों की बातचीत) को त्याग देना तीनों लोकों में पूज्य ब्रह्मचर्य होता है।
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भक्ति :
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भक्ति: श्रेयाऽनुबंधिनी।
—आदिपुराण : ७-२७९
भक्ति कल्याण करने वाली है।
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भगवान् :
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जयति श्रुतानां प्रभव:, तीर्थंकराणामपश्चिमो जयति।
जयति गुरुर्लोकानां, जयति महात्मा महावीर:।।
—समणसुत्त : ७५६
श्रुत ज्ञान के उदय की जय हो, तीर्थंकरों में अंतिम तीर्थंकर की जय हो, लोकों के गुरु की जय हो और महान् आत्मा (भगवान्) महावीर की जय हो।
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अहो ! यह भवसमुद्र दुरन्त है—इसका अन्त बड़े कष्ट से होता है। इसमें व्याधि तथा जरा—मरण रूपी अनेक मगरमच्छ हैं, निरन्तर उत्पत्ति या जन्म ही जलराशि है। इसका परिणाम दारुण दु:ख है।
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लोक और अलोक को देखने तथा जानने वाले सर्वज्ञ प्रभु की भव्य जीवों के लिए यही देशना है कि मद, मान, माया और लोभ से रहित भाव ही भावशुद्धि है।
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भिक्षु :
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न सत्कृतिमिच्छति न पूजां, नोऽपि न वन्दनकं कुत: प्रशंसाम्।
स संयत: सुव्रतस्तपस्वी, सहित आत्मगवेषक: स भिक्षु:।।
—समणसुत्त : २३४
जो सत्कार, पूजा और वन्दना तक नहीं चाहता, वह किसी से प्रशंसा की अपेक्षा कैसे करेगा ? (वास्तव में) जो संयत है, सुव्रती है, तपस्वी है और आत्मगवेषी है, वही भिक्षु है।
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भोगी-अभोगी :
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अल्लो सुक्को य दो छूठा, गोलया मट्टियामया।
दो वि आवडिया कूडे, जो अल्लो सो विलग्गइ।।
एवं लग्गंति दुम्मेहा, जे नरा काम लालसा।
विरत्ता उ न लग्गंत्ति, जहा सुक्के अ गोलए।।
—इन्द्रिय—पराजय शतक : १९-२०
जिस प्रकार गीली और सूखी मिट्टी के दो गोले दीवार पर पेंâकने पर एक चिपक जाता है तो दूसरा वापस नीचे गिर जाता है, इसी प्रकार जो मनुष्य विषयों की लालसा वाले होते हैं, वे गीली मिट्टी के गोलेवत् विषयों में लिपट जाते हैं, परन्तु सूखी मिट्टी के गोलेवत् अभोगी—विरक्त मनुष्य विषयों में लिपटते नहीं हैं।
इन्द्रों से जो पूजित हैं, वे अरिहंत भगवान् , मुक्ति में विराजमान सिद्ध भगवान्, जिनशासन की उन्नति करने वाले आचार्य देव, जैन सिद्धान्त के वाचक—पाठक पूज्य उपाध्याय देव एवं रत्नत्रय के आराधक मुनिवर; ये पंच परमेष्ठी प्रतिदिन हमारा मंगल करें।
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मद्यपान करने से मनुष्य का अपने पर नियंत्रण नहीं रहता। फिर वह निन्दनीय कर्म किया करता है। (परिणाम यह होा है कि) इहलोक और परलोक में उसे अनन्त दु:खों का अनुभव होता है।
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निर्मल दर्पण में जैसे पाश्र्ववर्ती वस्तु का प्रतिबिम्ब पड़ता है, वैसे ही मध्यस्थ प्रकृति वाले व्यक्ति में उसकी अपनी निपुण बुद्धि से समस्त धर्म गुणों का संक्रमण होता है। मध्यस्थ व्यक्ति दोषों का त्याग करके ग्रहण करने योग्य वस्तु को ग्रहण करते हैं जैसे हंस पानी को छोड़ता है और दूध को ग्रहण करता है।
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महामोह को तजकर तथा सब इन्द्रिय—विषयों को क्षणभंगुर जानकर मन को निर्विषय बनाओ, ताकि उत्तम सुख प्राप्त हो।
अभय :
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मनुष्य :
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मण्णंति जदा णिच्चं मणेण णिउणा जदो दु ये जीवा।
मण उक्कडा य जम्हा तम्हा ते माणुसा भणिया।।
—पंचसंग्रह : १-६२
वे मनुष्य कहलाते हैं जो मन के द्वारा नित्य ही हेय—उपादेय, तत्त्व—अतत्त्व तथा धर्म—अधर्म का विचार करते हैं, कार्य करने में निपुण हैं और उत्कृष्ट मन के धारक हैं।
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ममत्व :
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ममता खट परै रगे, ओनीदे दिन रात।
लेनो न देनो इन कथा, भोरे ही आपत जात।।
—आनन्दघन ग्रंथावली :: पद : ३५
ममता नारी में यदि कोई गुण है तो वह है मोहित करने का। किन्तु वह स्वर्ण—कटार किस काम की, जिसका स्पर्श—मात्र प्राणान्त का कारण बन जाता है। इसी तरह यह मोहिनी ममता भी आरम्भ में चेतन को संसार में आसक्त कर देती है और अन्त में उसे दुर्गति में ले जाती है।
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(इसलिए मरणकाल में रत्नत्रय की सिद्धि या सम्प्राप्ति के अभिलाषी साधक को चाहिए कि वह) पहले से ही निरन्तर परिकर्म अर्थात् सम्यक्त्वादि का अनुष्ठान या आराधना करता रहे, क्योंकि परिकर्म या अभ्यास करते रहने वाले की आराधना सुखपूर्वक होती है।
मांसाहार से दर्प बढ़ता है। दर्प से मद्यपान की इच्छा जागती है। इससे जुआ खेलने में भी मन रमता है। अत: अकेले मांसाहार के दोष से यहां बताए गए सारे दोष भी मनुष्य में आ जाते हैं।
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मानी :
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योऽपमानकरणं दोषं, परिहरति नित्यमायुक्त:।
सो नाम भवति मानी, न गुणत्यक्तेन मानेन।।
—समणसुत्त : ८९
जो दूसरे को अपमानित करने के दोष का सदा सावधानीपूर्वक परिहार करता है, वही यथार्थ में मानी है। गुणशल्य अभिमान करने से कोई मानी नहीं होता।
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माया :
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सच्चाण सहस्साण वि, माया एक्कावि णासेदि।
—भगवती आराधना : १३८४
एक माया हजारों सत्यों का नाश कर डालती है।
माया तैर्यग्योनस्य।
—तत्त्वार्थ सूत्र : ६-२७
माया तिर्यंच योनि को देने वाली है। (तिर्यंच माया के कारण ही बांके होकर चलते हैं।)
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मुधादायी—निष्प्रयोजन देने वाले दुर्लभ हैं और मुधाजीवी—भिक्षा पर जीवनयापन करने वाले भी दुर्लभ हैं। मुधादायी और मुधाजीवी, दोनों ही साक्षात् या परम्परा से सुगति या मोक्ष प्राप्त करते हैं।
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मुमुक्षु जीव सम्यक्त्व रूपी दृढ़ कपाटों से मिथ्यात्व रूपी आस्रव द्वार को रोकता है तथा दृढ़ व्रत रूपी कपाटों से हिंसा आदि द्वारों को रोकता है।
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मृत्यु :
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सीहस्स कमे पडिदं, सारंगं जह ण रक्खदे को वि।
तह मिच्चुणा य गहिदं जीवं पि ण रक्खदे को वि।।
—द्वादशानुप्रेक्षा : २४
जैसे सिंह के पैर के नीचे पड़े हुए हिरण की कोई भी रक्षा करने वाला नहीं होता, वैसे ही मृत्यु के द्वारा ग्रहण किए हुए जीव की कोई भी रक्षा नहीं कर सकता।
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मैथुन से कंपकंपी, स्वेद—पसीना, श्रम—थकावट, मूर्छा—मोह, भ्रमि—चक्कर आना, ग्लानि—अंगों का टूटना, शक्ति का विनाश, राज्यक्ष्मा—क्षय रोग तथा अन्य खांसी, श्वास आदि रोगों की उत्पत्ति होती है।
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जिनेन्द्र देव ने कहा है कि (सम्यक्) दर्शन, ज्ञान, चारित्र मोक्ष का मार्ग है। साधुओं को इनका आचरण करना चाहिए। यदि वे स्वाश्रित होते हैं तो इनसे मोक्ष होता है और पराश्रित होने से बंध होता है।
धर्म आदि तत्त्वों पर श्रद्धा रखना सम्यक् दर्शन है। अंगों व पूर्वों में निहित जिनवाणी का ज्ञान सम्यक््â ज्ञान है और तपाराधना में प्रयत्नशील रहना सम्यक् चारित्र है। यह व्यवहार अथवा आचरण ही मोक्ष का मार्ग है।
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मोहनीय :
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सेनापति निहते, यथा सेना प्रणश्यति।
एवं कर्माणि नश्यन्ति, मोहनीये क्षयंगते।।
—समणसुत्त : ६१३
जैसे सेनापति के मारे जाने पर सेना नष्ट हो जाती है, वैसे ही एक मोहनीय कर्म के क्षय होने पर समस्त कर्म सहज ही नष्ट हो जाते हैं।
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मोह-विजय :
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णिस्सेसखीणमोहा, फलिहामलभायणुदयसमचित्तो।
—पंचसंग्रह : १-१५
जिसने सम्पूर्ण मोह को पूरी तरह नष्ट कर दिया है, उस निर्मोही का चित्त स्फटिक मणि के पात्र में रखे हुए स्वच्छ जल की भाँति निर्मल हो जाता है।
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योनियाँ :
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ते ते कर्मत्वगता: पुद्गलकाया: पुनरपि जीवस्य।
संजायन्ते देहा: देहान्तरसंक्रमं प्राप्य।।
—समणसुत्त : ६५९
इस प्रकार कर्मों के रूप में परिणत वे पुद्गल—पिण्ड देह से देहान्तर को—नवीन शरीर रूप परिवर्तन को—प्राप्त होते रहते हैं। अर्थात् पूर्वबद्ध कर्म के फलरूप में नया शरीर बनता है और नये शरीर में नवीन कर्म का बंध होता है। इस तरह जीव निरन्तर विविध योनियों में परिभ्रमण करता रहता है।
रत्नत्रय में सम्यग्दर्शन ही श्रेष्ठ है और इसी को मोक्षरूपी महावृक्ष का मूल कहा गया है। यह निश्चय और व्यवहार के रूप में दो प्रकार का है। व्यवहार से जीवादि तत्त्वों के श्रद्धान को जिनदेव ने सम्यक्त्व कहा है। निश्चय से तो आत्मा ही सम्यग्दर्शन है।
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रत्नत्रय :
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सम्मद्दंसंण—णाणं चरणं मुक्खस्स कारणं जाणे।
—द्रव्यसंग्रह : ३९
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्चारित्र—यही रत्नत्रय मोक्ष का साधन है।
जिनेन्द्र भगवान ने तत्त्वविषयक रुचि को सम्यग्दर्शन, तत्त्वविषयक ज्ञान को सम्यग्ज्ञान और पापमय क्रिया से निवृत्ति को सम्यक् चारित्र कहा है।
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राग-द्वेष :
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रत्तो बंधदि कम्मं, मुंचदि जीवो विरागसंपन्नो।
—समयसार : १५३
जीव रागयुक्त होकर कर्म बांधता है और विरक्त होकर कर्मों से मुक्त होता है।
असुहो मोह–पदोसो, सुहो व असुहो हवदि रागो।
—प्रवचनसार : २-८८
मोह और द्वेष अशुभ ही होते हैं। राग शुभ और अशुभ, दोनों होता है।
तं न कुणइ जं कुविओ, कुणंति रागाइणो देहे।।
—इन्द्रियपराजय शतक : ८६
शत्रु, विष, पिशाच, वेताल, प्रज्जवलित अग्नि—ये सब एक साथ कोपायमान होने पर भी शरीर में उतना अपकार—अवगुण नहीं करते जितना अपकार कुपित राग—द्वेष रूप अंतरंग शत्रु करते हैं।
जो रागाईण वसे, वसंमि सो सयल दुक्खलक्खाणं।
जस्स वसे रागाई, तस्स वसे सयलसुक्खाइं।।
—इन्द्रियपराजय शतक : ८७
जो रागद्वेषादि के वश में है, वह वस्तुत: लाखों दु:खों के वशीभूत है और जिसने रागद्वेष को वश में कर लिया है। उसने वस्तुत: सब सुखों को वश में कर लिया है।
रागो द्वेष: च द्वौ पापौ, पापकर्मप्रवर्तकौ।
यो भिक्षु: रुणद्धि नित्यं, स न आस्ते मण्डले।।
—समणसुत्त : १३०
राग और द्वेष, ये दो पाप सभी पाप कर्मों के प्रवर्तक हैं। इनको नित्य रोकने वाला भिक्षु संसार में नहीं ठहरा करता। (मुक्ति पा लिया करता है।)
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कषाय के उदय से अनुरंजित मन—वचन—काय की योग प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। इन दोनों अर्थात् कषाय और योग का कार्य है चार प्रकार का कर्म—बन्ध। कषाय से कर्मों की स्थिति और अनुभाग बन्ध होते हैं, योग से प्रकृति और प्रदेश—बन्ध।
पथिका: ये षट्पुरुषा:, परिभ्रष्टा अरण्यमध्यदेशे।
फलभरितवृक्षमेकं, प्रेक्ष्य ते विचिन्तयन्ति।।
निर्मूलस्कन्धशाखोपशाखां छित्वा चित्वा पतितानि।
खादितुं फलानि इति, यन्मनसा वचनं भवेत् कर्म।।
—समणसुत्त : ५३७-५३८
छह पथिक थे। जंगल के बीच जाने पर भटक गए। भूख सताने लगी। कुछ देर बाद उन्हें फलों से लदा एक वृक्ष दिखाई दिया। उनकी फल खाने की इच्छा हुई। वे मन ही मन विचार करने लगे। एक ने सोचा कि पेड़ को जड़—मूल से काटकर इसके फल खाए जाएँ। दूसरे ने सोचा कि केवल स्कन्ध ही काटा जाए। तीसरे ने सोचा कि शाखा ही तोड़ना ठीक होगा। चौथा सोचने लगा कि उपशाखा (छोटी डाली) ही तोड़ ली जाए। पाँचवाँ चाहता था कि फल ही तोड़े जाएँ। छठे ने सोचा कि वृक्ष से टपक कर नीचे गिरे हुए पके फल ही चुनकर क्यों न खाए जाएँ। इन छहों पथिकों के विचार, वाणी तथा कर्म क्रमश: छहों लेश्याओं के उदाहरण हैं।
जीवात्मा के भावों में शुद्धि होने पर लेश्या होती है और जीवात्मा के भावों में शुद्धि होती है कषायों के मंद होने से।
लोगो वादपदिट्ठो।
—षट्खण्डागम : जीवस्थान : १,२,३
लोक वायु के आधार पर प्रतिष्ठित है।
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लोभी :
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सुवर्णरूप्यस्स च पर्वता भवेयु:, स्यात् खलु कैलाससमा असंख्यका:।
नरस्य लुब्धस्य न तै: किंचित्, इच्छा खलु आकाशसमा अनन्तिका।।
—समणसुत्त : ९८
कदाचित् सोने और चाँदी के कैलास के समान असंख्य पर्वत हो जाएं, तो भी लोभी पुरुष को उनसे तृप्ति नहीं होती, क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनन्त है।
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वक्रता :
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सो सद्दो तं धवलत्तणं च रयणायरम्मि उप्पत्ती।
संखस्स हिययकुडिलत्तणेण सव्वं पि पब्भट्ठं।।
—गाहारयणकोष : ११३
वही शब्द (ध्वनि), वही शुभ्र ताप और रत्नाकर में उत्पत्ति। यह सब कुछ होते हुए भी शंख अपने हृदय की वक्रता के कारण सर्वत्र भ्रष्ट होता है। व्यक्ति घर, धन, परिवार से महान होने पर भी अपनी वक्रता से सर्वत्र दु:खी होता है।
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वाणी :
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पुव्विं बुद्धीए पासेत्ता, तत्तो वक्कमुदाहरे।
अचक्खुओ व नेयारं, बुद्धिमन्नेसाए गिरा।।
—व्यवहारभाष्य पीठिका : ७६
पहले बुद्धि से परखकर फिर बोलना चाहिए। अंधा व्यक्ति जिस प्रकार पथ—प्रदर्शक की अपेक्षा रखता है, उसी प्रकार वाणी बुद्धि की अपेक्षा रखती है।
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वाणी-विवेक :
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हिदमिदवयणं भासदि, संतोषकरं तु सव्वजीवाणं।
—कार्तिकेयानुप्रेक्षा : ३३४
साधक दूसरों को संतोष देने वाला हितकारी और मित—संक्षिप्त वचन बोलता है।
विनयशील होने पर मनुष्य का शत्रु भी मित्र हो जाता है। अत: अणुव्रती श्रावक का कत्र्तव्य है कि वह मन, वचन और काया, तीनों विधियों से गुण—संपन्नों व गुणों की विनय करें।
विनय मुक्ति का द्वार है। विनय से संयम, तप और ज्ञान होता है। विनय की आराधना से आचार्य तथा संपूर्ण संघ की आराधना हुआ करती है।
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विरक्त :
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भावे विरक्तो मनुजो विशोक:, एतया दु:खौघ—परम्परया।
न लिप्यते भवमध्येऽपि सन् , जलेनेव पुष्करिणीपलाशम्।।
—समणसुत्त : ८१
भाव से विरक्त मनुष्य शोक—मुक्त बन जाता है। जैसे कमलिनी का पत्र जल में लिप्त नहीं होता, वैसे ही वह संसार में रहकर भी अनेक दु:खों की परम्परा से लिप्त नहीं होता।
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विवेक :
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नो छादयेन्नापि च लूषयेद् , मानं न सेवेत प्रकाशनं च।
न चापि प्राज्ञ: परिहासं कुर्यात् , न चाप्याशीर्वादं व्यागृणीयात्।।
—समणसुत्त : २३९
(अमूढ़दृष्टि या विवेकी) किसी के प्रश्न का उत्तर देते समय न तो शास्त्र के अर्थ को छिपाए और न अपसिद्धान्त के द्वारा शास्त्र की विराधना करे। न मान करे और न अपने बड़प्पन का प्रदर्शन करे। न किसी विद्वान का परिहास करे और न किसी को आशीर्वाद दे।
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विपय :
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खेलम्मि पडिअमप्पं जह न तरइ मच्छिआवि मोएऊं।
तह विसयखेलपडिअं न तरइ, अप्पंपि कामंधो।।
—इन्द्रियपराजय शतक : ४६
जिस तरह श्लेष्म में पड़ी हुई मक्खी श्लेष्म से बाहर निकलने में असमर्थ होती है, वैसे ही विषयरूपी श्लेष्म में पड़ा हुआ व्यक्ति अपने आपको विषय से अलग करने में असमर्थ पाता है।
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विषयासक्त :
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अंधादयं महानन्धो विषयान्धीकृतेक्षण:।
—आत्मानुशासन : ३५
विषयांध व्यक्ति अंधों में सबसे बड़ा अंधा है।
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वीतराग :
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यत्सुखं वीतरागस्य मुने: प्रशमपूर्वकम्।
न तस्यानन्तभागोऽपि प्राप्यते त्रिदशेश्वरै:।।
—ज्ञानार्णव : १९-३
वीतराग मुनि को प्रशम भाव सहित जो सुख प्राप्त होता है, उसका अनन्तवां भाग भी देवेन्द्रों को प्राप्त नहीं होता (अर्थात् इन्द्र के प्राप्त होने वाले सुख से अनंतगुना—अक्षय सुख वीतराग मुनि को प्राप्त होता है)।