कि तुमंधो सि किन्वा सि धत्तूरिओ।
अहव कि सन्निवाएण आऊरिओ।।
अमयसमधम्म जं विस व अवमन्नसे।
विसयविस विसम अमियं व बहु मन्नसे।।
—इन्द्रियपराजयशतक : ७४
हे मनुष्य ! क्या तू अंधा बन गया है ? या क्या तूने धतूरा—पान किया है ? अथवा क्या तू सन्निपात रोग से पागल बन गया है ? जिससे कि अमृत समान धर्म को तू विषवत् तिरस्कृत करता है और भवोभव में परिभ्रमण कराने वाले विषयरूपी विष को अमृत के समान पी रहा है।