एक ओर जगत् के समस्त पाप एवं दूसरी ओर असत्य का पाप—इन दोनों को तराजू में तोला जाय, तो बराबर होंगे—ऐसा आर्य पुरुष कहते हैं। मृषावाक्यस्य पश्चाच्च पुरस्ताच्च, प्रयोगकाले च दु:खी दुरन्त:। एवमदत्तानि समाददान:, रूपेऽतृप्ता दु:खितोऽनिश्र:।।
असत्य भाषण के पश्चात् मनुष्य यह सोचकर दु:खी होता है कि वह झूठ बोलकर भी सफल नहीं हो सका। असत्य भाषण से पूर्व इसलिए व्याकुल रहता है कि वह दूसरे को ठगने का संकल्प करता है। वह इसलिए भी दु:खी रहता है कि कहीं कोई उसके असत्य को जान न ले। इस प्रकार असत्य—व्यवहार का अंत दु:खदायी होता है। इसी तरह विषयों से अतृप्त होकर वह चोरी करता हुआ दु:खी और आश्रयहीन हो जाता है।