जीव (आत्मा) अन्तस्तत्त्व है, बाकी सब द्रव्य बहिस्तत्त्व है। सुण्णीकयम्मि चित्ते, णूणं अप्पा पयासेइ।
चित्त को (विषयों से) शून्य कर देने पर उसमें आत्मा का प्रकाश झलक उठता है। कत्ता भोत्ता आदा, पोग्गलकम्मस्स होदि ववहारो।
आत्मा पुद्गल कर्मों का कत्र्ता और भोक्ता है, यह मात्र व्यवहार दृष्टि है। जारसिया सिद्धप्पा, भवमल्लिय जीव तारिसा होंति।
जैसी शुद्ध आत्मा सिद्धों (मुक्त आत्माओं) की है, मूल स्वरूप से वैसी ही शुद्ध आत्मा संसारस्थ प्राणियों की है। आलंबणं च मे आदा।
मेरा अपना ही आत्मा ही मेरा अपना एकमात्र आलम्बन है। अप्पाणं विणु णाणं, णाणं विणु अप्पगो न संदेहो।
यह निश्चित सिद्धांत है कि आत्मा के बिना ज्ञान नहीं और ज्ञान के बिना आत्मा नहीं। उवओग एव अहमिक्को।
मैं (आत्मा) एकमात्र उपयोगमय (ज्ञानमय) हूँ। आया णे अज्जो ! सामाइए, आया णे अज्जो ! सामाइयस्स अट्ठे।
हे आर्य ! आत्मा ही सामायिक (समत्वभाव) है, और आत्मा ही सामायिक का अर्थ (विशुद्धि) है। तिमिरहरा जइ दिट्ठी, जणस्स दीवेण णत्थि कायव्वं। तह सोक्खं सयमादा, विसया किं तत्थ कुव्वंति ?
जिसकी दृष्टि ही स्वयं अंधकार का नाश करने वाली है, उसे दीपक क्या प्रकाश देगा ? इसी प्रकार जब आत्मा स्वयं सुख रूप है तो उसे विषय क्या सुख देंगे ? मणसलिले थिरभूए, दीसइ अप्पा तहाविमले।
मन रूपी जल, जब निर्मल एवं स्थिर हो जाता है, तब उसमें आत्मा का दिव्य रूप झलकने लगता है। अरसमरूपमगन्धम् , अव्यक्तं चेतनागुणमशब्दम्। जानीह्यलिंगग्रहणं, जीवमनिर्दिष्टसंस्थानम्।।
शुद्ध आत्मा वास्तव में अरस, अरूप, अगंध, अव्यक्त, चैतन्य गुण वाला, अशब्द, अलिंगग्राह्य (अनुमान का अविषय) और संस्थानरहित है। निर्दण्ड: निद्र्वन्द्व:, निर्मम: निष्कल: निरालम्ब:। नीराग: निद्र्वेष, निर्मूढ: निर्भय: आत्मा।।
आत्मा मन, वचन और काय रूप त्रिदंड से रहित, निद्र्वन्द्व—अकेला, निर्मम—ममत्वरहित, निष्कल—शरीररहित, निरालम्ब—परद्रव्यालम्बन से रहित, वीतराग, निर्दोष, मोहरहित तथा निर्भय है। आत्मा खलु मम ज्ञानं, आत्मा मे दर्शनं चरित्रं च। आत्मा प्रत्याख्यानं, आत्मा मे संयमो योग:।।
आत्म ही मेरा ज्ञान है। आत्मा ही दर्शन और चारित्र है। आत्मा ही प्रत्याख्यान है और आत्मा ही संयम और योग है। अर्थात् ये सब आत्मरूप ही हैं। सरवंगा सब नइ घणीरे, माने सब परमान। नयवादी पल्लो गहै (प्यारे), करइ लराइ ठान।।
वस्तुत: आत्मा में सभी नय घटित होते हैं। अत: यह आत्मा नय और प्रमाण से जाना जाता है। यह (आत्मा) सर्वांगी और स्वयं सब नयों का स्वामी है। इसका रूप एक नय द्वारा सिद्ध नहीं होता। अन्तत: आनन्दघन ने नयवाद से भी ऊपर उठकर आत्मा को अनुभवगम्य बताया है। उनका स्पष्ट कथन है कि यह आत्मा अनुभव ज्ञान से ही जाना जा सकता है। जो खलु सुद्धो भावो सो अप्पणि तं च दंसणं णाणं।
शुद्ध भाव (स्वभाव) जो है, वह आत्मा है और वह दर्शन—ज्ञान—सहित है। नापि भवत्यप्रमत्तो, न प्रमत्तो ज्ञायकस्तु यो भाव:। एवं भणंति शुद्धं, ज्ञातो य: स तु स चैव।।
आत्मा ज्ञायक है। ज्ञायक न अप्रमत्त होता है, न प्रमत्त। प्रमत्त और अप्रमत्त जो न हो, वह शुद्ध होता है। आत्मा ज्ञायक के रूप में ही ज्ञात है और वह शुद्ध अर्थ में ज्ञायक ही है। उसमें ज्ञेयकृत अशुद्धि नहीं है। नाहं देहो न मनो, न चैव वाणी न कारणं तेषाम्। कत्र्ता न न कारयिता, अनुमन्ता नैव कर्तृणाम्।।
मैं न देह हूँ, न मन हूँ, न वाणी हूँ और न ही उनका कारण हूँ। न मैं करने वाला हूँ, न कराने वाला हूँ और न ही करने वाले का अनुमोदन करने वाला हूँ। को नाम भणेद् बुध:, ज्ञात्वा सर्वान् परकीयान् भावान्। ममेदमिति च वचनं, जानन्नात्मकम् शुद्धम्।।
आत्मा के शुद्ध रूप को तथा उसके परकीय भावों को जानने वाला ऐसा विद्वान कौन होगा जो कहे—‘यह मेरा है।’